१३७ भरद्वाजस्य पुत्रशोकः

भागसूचना

सप्तत्रिंशदधिकशततमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

भरद्वाजका पुत्रशोकसे विलाप करना, रैभ्यमुनिको शाप देना एवं स्वयं अग्निमें प्रवेश करना

मूलम् (वचनम्)

लोमश उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

भरद्वाजस्तु कौन्तेय कृत्वा स्वाध्यायमाह्निकम्।
समित्कलापमादाय प्रविवेश स्वमाश्रमम् ॥ १ ॥
तं स्म दृष्ट्वा पुरा सर्वे प्रत्युत्तिष्ठन्ति पावकाः।
न त्वेनमुपतिष्ठन्ति हतपुत्रं तदाग्नयः ॥ २ ॥

मूलम्

भरद्वाजस्तु कौन्तेय कृत्वा स्वाध्यायमाह्निकम्।
समित्कलापमादाय प्रविवेश स्वमाश्रमम् ॥ १ ॥
तं स्म दृष्ट्वा पुरा सर्वे प्रत्युत्तिष्ठन्ति पावकाः।
न त्वेनमुपतिष्ठन्ति हतपुत्रं तदाग्नयः ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

लोमशजी कहते हैं— कुन्तीनन्दन! भरद्वाज मुनि प्रतिदिनका स्वाध्याय पूरा करके बहुत-सी समिधाएँ लिये आश्रममें आये। उस दिनसे पहले सभी अग्नियाँ उनको देखते ही उठकर स्वागत करती थीं, परंतु उस समय उनका पुत्र मारा गया था, इसलिये अशौचयुक्त होनेके कारण उनका अग्नियोंने पूर्ववत् खड़े होकर स्वागत नहीं किया॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वैकृतं त्वग्निहोत्रे स लक्षयित्वा महातपाः।
तमन्धं शूद्रमासीनं गृहपालमथाब्रवीत् ॥ ३ ॥

मूलम्

वैकृतं त्वग्निहोत्रे स लक्षयित्वा महातपाः।
तमन्धं शूद्रमासीनं गृहपालमथाब्रवीत् ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अग्निहोत्रगृहमें यह विकृति देखकर उन महातपस्वी भरद्वाजने वहाँ बैठे हुए अन्धे गृहरक्षक शूद्रसे पूछा—॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

किं नु मे नाग्नयः शूद्र प्रतिनन्दन्ति दर्शनम्।
त्वं चापि न यथापूर्वं कच्चित् क्षेममिहाश्रमे ॥ ४ ॥
कच्चिन्न रैभ्यं पुत्रो मे गतवानल्पचेतनः।
एतदाचक्ष्व मे शीघ्रं न हि शुद्ध्यति मे मनः॥५॥

मूलम्

किं नु मे नाग्नयः शूद्र प्रतिनन्दन्ति दर्शनम्।
त्वं चापि न यथापूर्वं कच्चित् क्षेममिहाश्रमे ॥ ४ ॥
कच्चिन्न रैभ्यं पुत्रो मे गतवानल्पचेतनः।
एतदाचक्ष्व मे शीघ्रं न हि शुद्ध्यति मे मनः॥५॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘दास! क्या कारण है कि आज अग्नियाँ पूर्ववत् मेरा दर्शन करके प्रसन्नता नहीं प्रकट करती हैं। इधर तुम भी पहले-जैसे समादरका भाव नहीं दिखाते हो। इस आश्रममें कुशल तो है न? कहीं मेरा मन्दबुद्धि पुत्र रैभ्यके पास तो नहीं चला गया? यह बात मुझे शीघ्र बताओ; क्योंकि मेरा मन शान्त नहीं हो रहा है’॥५॥

मूलम् (वचनम्)

शूद्र उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

रैभ्यं यातो नूनमयं पुत्रस्ते मन्दचेतनः।
तथा हि निहतः शेते राक्षसेन बलीयसा ॥ ६ ॥

मूलम्

रैभ्यं यातो नूनमयं पुत्रस्ते मन्दचेतनः।
तथा हि निहतः शेते राक्षसेन बलीयसा ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

शूद्र बोला— भगवन्! अवश्य ही आपका यह मन्दमति पुत्र रैभ्यके यहाँ गया था। उसीका यह फल है कि एक महाबली राक्षसके द्वारा मारा जाकर पृथ्वीपर पड़ा है॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रकाल्यमानस्तेनायं शूलहस्तेन रक्षसा ।
अग्न्यागारं प्रति द्वारि मया दोर्भ्यां निवारितः ॥ ७ ॥

मूलम्

प्रकाल्यमानस्तेनायं शूलहस्तेन रक्षसा ।
अग्न्यागारं प्रति द्वारि मया दोर्भ्यां निवारितः ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राक्षस अपने हाथमें शूल लेकर इसका पीछा कर रहा था और यह अग्निशालामें घुसा जा रहा था। उस समय मैंने दोनों हाथोंसे पकड़कर इसे द्वारपर ही रोक लिया॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः स विहताशोऽत्र जलकामोऽशुचिर्ध्रुवम्।
निहतः सोऽतिवेगेन शूलहस्तेन रक्षसा ॥ ८ ॥

मूलम्

ततः स विहताशोऽत्र जलकामोऽशुचिर्ध्रुवम्।
निहतः सोऽतिवेगेन शूलहस्तेन रक्षसा ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

निश्चय ही अपवित्र होनेके कारण यह शुद्धिके लिये जल लेनेकी इच्छा रखकर यहाँ आया था, परंतु मेरे रोक देनेसे यह हताश हो गया। उस दशामें उस शूलधारी राक्षसने इसके ऊपर बड़े वेगसे प्रहार करके इसे मार डाला॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भरद्वाजस्तु तच्छ्रुत्वा शूद्रस्य विप्रियं महत्।
गतासुं पुत्रमादाय विललाप सुदुःखितः ॥ ९ ॥

मूलम्

भरद्वाजस्तु तच्छ्रुत्वा शूद्रस्य विप्रियं महत्।
गतासुं पुत्रमादाय विललाप सुदुःखितः ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

शूद्रका कहा हुआ यह अत्यन्त अप्रिय वचन सुनकर भरद्वाज बड़े दुखी हो गये और अपने प्राणशून्य पुत्रको लेकर विलाप करने लगे॥९॥

मूलम् (वचनम्)

भरद्वाज उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

ब्राह्मणानां किलार्थाय ननु त्वं तप्तवांस्तपः।
द्विजानामनधीता वै वेदाः सम्प्रतिभान्त्विति ॥ १० ॥

मूलम्

ब्राह्मणानां किलार्थाय ननु त्वं तप्तवांस्तपः।
द्विजानामनधीता वै वेदाः सम्प्रतिभान्त्विति ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरद्वाजने कहा— बेटा! तुमने ब्राह्मणोंके हितके लिये भारी तपस्या की थी। तुम्हारी तपस्याका यह उद्देश्य था कि द्विजोंको बिना पढ़े ही सब वेदोंका ज्ञान हो जाय॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तथा कल्याणशीलस्त्वं ब्राह्मणेषु महात्मसु।
अनागाः सर्वभूतेषु कर्कशत्वमुपेयिवान् ॥ ११ ॥

मूलम्

तथा कल्याणशीलस्त्वं ब्राह्मणेषु महात्मसु।
अनागाः सर्वभूतेषु कर्कशत्वमुपेयिवान् ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार महात्मा ब्राह्मणोंके प्रति तुम्हारा स्वभाव अत्यन्त कल्याणकारी था। किसी भी प्राणीके प्रति तुम कोई अपराध नहीं करते थे। फिर भी तुम्हारा स्वभाव कुछ कठोर हो गया था॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रतिषिद्धो मया तात रैभ्यावसथदर्शनात्।
गतवानेव तं द्रष्टुं कालान्तकयमोपमम् ॥ १२ ॥
यः स जानन्‌ महातेजा वृद्धस्यैकं ममात्मजम्।
गतवानेव कोपस्य वशं परमदुर्मतिः ॥ १३ ॥

मूलम्

प्रतिषिद्धो मया तात रैभ्यावसथदर्शनात्।
गतवानेव तं द्रष्टुं कालान्तकयमोपमम् ॥ १२ ॥
यः स जानन्‌ महातेजा वृद्धस्यैकं ममात्मजम्।
गतवानेव कोपस्य वशं परमदुर्मतिः ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तात! मैंने तुम्हें बार-बार मना किया था कि तुम रैभ्यके आश्रमकी ओर न देखना, परंतु तुम उसे देखने चले ही गये और वह तुम्हारे लिये काल, अन्तक एवं यमराजके समान हो गया। महान् तेजस्वी होनेपर भी उसकी बुद्धि बड़ी खोटी है। वह जानता था कि मुझ बूढ़ेके तुम एक ही पुत्र हो तो भी वह दुष्ट क्रोधके वशीभूत हो ही गया॥१२-१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पुत्रशोकमनुप्राप्त एष रैभ्यस्य कर्मणा।
त्यक्ष्यामि त्वामृते पुत्र प्राणानिष्टतमान् भुवि ॥ १४ ॥

मूलम्

पुत्रशोकमनुप्राप्त एष रैभ्यस्य कर्मणा।
त्यक्ष्यामि त्वामृते पुत्र प्राणानिष्टतमान् भुवि ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

बेटा! आज रैभ्यके इस कठोर कर्मसे मुझे पुत्रशोक प्राप्त हुआ है। तुम्हारे बिना मैं इस पृथ्वीपर अपने परम प्रिय प्राणोंका भी परित्याग कर दूँगा॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथाहं पुत्रशोकेन देहं त्यक्ष्यामि किल्बिषी।
तथा ज्येष्ठः सुतो रैभ्यं हिंस्याच्छीघ्रमनागसम् ॥ १५ ॥

मूलम्

यथाहं पुत्रशोकेन देहं त्यक्ष्यामि किल्बिषी।
तथा ज्येष्ठः सुतो रैभ्यं हिंस्याच्छीघ्रमनागसम् ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे मैं पापी अपने पुत्रके शोकसे व्याकुल हो अपने शरीरका त्याग कर रहा हूँ, उसी प्रकार रैभ्यका ज्येष्ठ पुत्र अपने निरपराध पिताकी शीघ्र हत्या कर डालेगा॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुखिनो वै नरा येषां जात्या पुत्रो न विद्यते।
ते पुत्रशोकमप्राप्य विचरन्ति यथासुखम् ॥ १६ ॥

मूलम्

सुखिनो वै नरा येषां जात्या पुत्रो न विद्यते।
ते पुत्रशोकमप्राप्य विचरन्ति यथासुखम् ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

संसारमें वे मनुष्य सुखी हैं, जिन्हें पुत्र पैदा ही नहीं हुआ है; क्योंकि वे पुत्रशोकका अनुभव न करके सदा सुखपूर्वक विचरते हैं॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ये तु पुत्रकृताच्छोकाद् भृशं व्याकुलचेतसः।
शपन्तीष्टान् सखीनार्तास्तेभ्यः पापतरो नु कः ॥ १७ ॥

मूलम्

ये तु पुत्रकृताच्छोकाद् भृशं व्याकुलचेतसः।
शपन्तीष्टान् सखीनार्तास्तेभ्यः पापतरो नु कः ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो पुत्रशोकसे मन-ही-मन व्याकुल हो गहरी व्यथाका अनुभव करते हुए अपने प्रिय मित्रोंको भी शाप दे डालते हैं, उनसे बढ़कर महापापी दूसरा कौन हो सकता है?॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

परासुश्च सुतो दृष्टः शप्तश्चेष्टः सखा मया।
ईदृशीमापदं कोऽत्र द्वितीयोऽनुभविष्यति ॥ १८ ॥

मूलम्

परासुश्च सुतो दृष्टः शप्तश्चेष्टः सखा मया।
ईदृशीमापदं कोऽत्र द्वितीयोऽनुभविष्यति ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मैंने अपने पुत्रकी मृत्यु देखी और प्रिय मित्रको शाप दे दिया। मेरे सिवा संसारमें दूसरा कौन-सा मनुष्य है जो ऐसी विपत्तिका अनुभव करेगा॥१८॥

मूलम् (वचनम्)

लोमश उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

विलप्यैवं बहुविधं भरद्वाजोऽदहत् सुतम्।
सुसमिद्धं ततः पश्चात् प्रविवेश हुताशनम् ॥ १९ ॥

मूलम्

विलप्यैवं बहुविधं भरद्वाजोऽदहत् सुतम्।
सुसमिद्धं ततः पश्चात् प्रविवेश हुताशनम् ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

लोमशजी कहते हैं— युधिष्ठिर! इस तरह भाँति-भाँतिके विलाप करके भरद्वाजने अपने पुत्रका दाह-संस्कार किया। तत्पश्चात् स्वयं भी वे जलती आगमें प्रवेश कर गये॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि तीर्थयात्रापर्वणि लोमशतीर्थयात्रायां यवक्रीतोपाख्याने सप्तत्रिंशदधिकशततमोऽध्यायः ॥ १३७ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्वके अन्तर्गत तीर्थयात्रापर्वमें लोमशतीर्थयात्राके प्रसंगमें यवक्रीतोपाख्यानविषयक एक सौ सैंतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१३७॥