१३६ यवक्रीतस्य मृत्युः

भागसूचना

षट्‌त्रिंशदधिकशततमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

यवक्रीतका रैभ्यमुनिकी पुत्रवधूके साथ व्यभिचार और रैभ्यमुनिके क्रोधसे उत्पन्न राक्षसके द्वारा उसकी मृत्यु

मूलम् (वचनम्)

लोमश उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

चङ्क्रम्यमाणः स तदा यवक्रीरकुतोभयः।
जगाम माधवे मासि रैभ्याश्रमपदं प्रति ॥ १ ॥

मूलम्

चङ्क्रम्यमाणः स तदा यवक्रीरकुतोभयः।
जगाम माधवे मासि रैभ्याश्रमपदं प्रति ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

लोमशजी कहते हैं— युधिष्ठिर! उन दिनों यवक्रीत सर्वथा भयशून्य होकर चारों ओर चक्कर लगाता था। एक दिन वैशाखमासमें वह रैभ्यमुनिके आश्रममें गया॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स ददर्शाश्रमे रम्ये पुष्पितद्रुमभूषिते।
विचरन्तीं स्नुषां तस्य किन्नरीमिव भारत ॥ २ ॥

मूलम्

स ददर्शाश्रमे रम्ये पुष्पितद्रुमभूषिते।
विचरन्तीं स्नुषां तस्य किन्नरीमिव भारत ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भारत! वह आश्रम खिले हुए वृक्षोंकी श्रेणियोंसे सुशोभित हो अत्यन्त रमणीय प्रतीत होता था। उस आश्रममें रैभ्यमुनिकी पुत्रवधू किन्नरीके समान विचर रही थी। यवक्रीतने उसे देखा॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यवक्रीस्तामुवाचेदमुपातिष्ठस्व मामिति ।
निर्लज्जो लज्जया युक्तां कामेन हृतचेतनः ॥ ३ ॥

मूलम्

यवक्रीस्तामुवाचेदमुपातिष्ठस्व मामिति ।
निर्लज्जो लज्जया युक्तां कामेन हृतचेतनः ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

देखते ही वह कामदेवके वशीभूत हो अपनी विचारशक्ति खो बैठा और लजाती हुई उस मुनि-वधूसे निर्लज्ज होकर बोला—‘सुन्दरी! तू मेरी सेवामें उपस्थित हो’॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सा तस्य शीलमाज्ञाय तस्माच्छापाच्च बिभ्यती।
तेजस्वितां च रैभ्यस्य तथेत्युक्त्वाऽऽजगाम ह ॥ ४ ॥

मूलम्

सा तस्य शीलमाज्ञाय तस्माच्छापाच्च बिभ्यती।
तेजस्वितां च रैभ्यस्य तथेत्युक्त्वाऽऽजगाम ह ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वह यवक्रीतके शील-स्वभावको जानकर भी उसके शापसे डरती थी। साथ ही उसे रैभ्यमुनिकी तेजस्विताका भी स्मरण था। अतः ‘बहुत अच्छा’ कहकर उसके पास चली आयी॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत एकान्तमुन्नीय मज्जयामास भारत।
आजगाम तदा रैभ्यः स्वमाश्रममरिंदम ॥ ५ ॥

मूलम्

तत एकान्तमुन्नीय मज्जयामास भारत।
आजगाम तदा रैभ्यः स्वमाश्रममरिंदम ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

शत्रुविनाशन भारत! तब यवक्रीतने उसे एकान्तमें ले जाकर पापके समुद्रमें डुबो दिया। (उसके साथ रमण किया।) इतनेहीमें रैभ्यमुनि अपने आश्रममें आ गये॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रुदतीं च स्नुषां दृष्ट्वा भार्यामार्तां परावसोः।
सान्त्वयन् श्लक्ष्णया वाचा पर्यपृच्छद् युधिष्ठिर ॥ ६ ॥
सा तस्मै सर्वमाचष्ट यवक्रीभाषितं शुभा।
प्रत्युक्तं च यवक्रीतं प्रेक्षापूर्वं तथाऽऽत्मना ॥ ७ ॥

मूलम्

रुदतीं च स्नुषां दृष्ट्वा भार्यामार्तां परावसोः।
सान्त्वयन् श्लक्ष्णया वाचा पर्यपृच्छद् युधिष्ठिर ॥ ६ ॥
सा तस्मै सर्वमाचष्ट यवक्रीभाषितं शुभा।
प्रत्युक्तं च यवक्रीतं प्रेक्षापूर्वं तथाऽऽत्मना ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

आकर उन्होंने देखा कि मेरी पुत्रवधू एवं परावसुकी पत्नी आर्तभावसे रो रही है। युधिष्ठिर! यह देखकर रैभ्यने मधुर वाणीद्वारा उसे सान्त्वना दी तथा रोनेका कारण पूछा। उस शुभलक्षणा बहूने यवक्रीतकी कही हुई सारी बातें श्वशुरके सामने कह सुनायीं एवं स्वयं उसने भलीभाँति सोच-विचारकर यवक्रीतकी बातें माननेसे जो अस्वीकार कर दिया था, वह सारा वृत्तान्त भी बता दिया॥६-७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शृण्वानस्यैव रैभ्यस्य यवक्रीत विचेष्टितम्।
दहन्निव तदा चेतः क्रोधः समभवन्महान् ॥ ८ ॥

मूलम्

शृण्वानस्यैव रैभ्यस्य यवक्रीत विचेष्टितम्।
दहन्निव तदा चेतः क्रोधः समभवन्महान् ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यवक्रीतकी यह कुचेष्टा सुनते ही रैभ्यके हृदयमें क्रोधकी प्रचण्ड अग्नि प्रज्वलित हो उठी, जो उनके अन्तःकरणको मानो भस्म किये दे रही थी॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स तदा मन्युनाऽऽविष्टस्तपस्वी कोपनो भृशम्।
अवलुच्य जटामेकां जुहावाग्नौ सुसंस्कृते ॥ ९ ॥

मूलम्

स तदा मन्युनाऽऽविष्टस्तपस्वी कोपनो भृशम्।
अवलुच्य जटामेकां जुहावाग्नौ सुसंस्कृते ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तपस्वी रैभ्य स्वभावसे ही बड़े क्रोधी थे, तिसपर भी उस समय उनके ऊपर क्रोधका आवेश छा रहा था। अतः उन्होंने अपनी एक जटा उखाड़कर संस्कारपूर्वक स्थापित की हुई अग्निमें होम दी॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः समभवन्नारी तस्या रूपेण सम्मिता।
अवलुच्यापरां चापि जुहावाग्नौ जटां पुनः ॥ १० ॥

मूलम्

ततः समभवन्नारी तस्या रूपेण सम्मिता।
अवलुच्यापरां चापि जुहावाग्नौ जटां पुनः ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उससे एक नारीके रूपमें कृत्या प्रकट हुई, जो रूपमें उनकी पुत्रवधूके ही समान थी। तत्पश्चात् एक-दूसरी जटा उखाड़कर उन्होंने पुनः उसी अग्निमें डाल दी॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः समभवद् रक्षो घोराक्षं भीमदर्शनम्।
अब्रूतां तौ तदा रैभ्यं किं कार्यं करवावहै ॥ ११ ॥

मूलम्

ततः समभवद् रक्षो घोराक्षं भीमदर्शनम्।
अब्रूतां तौ तदा रैभ्यं किं कार्यं करवावहै ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उससे एक राक्षस प्रकट हुआ, जिसकी आँखें बड़ी डरावनी थीं। वह देखनेमें बड़ा भयानक प्रतीत होता था। उस समय उन दोनोंने रैभ्य मुनिसे पूछा—‘हम आपकी किस आज्ञाका पालन करें?’॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तावब्रवीदृषिः क्रुद्धो यवक्रीर्वध्यतामिति ।
जग्मतुस्तौ तथेत्युक्त्वा यवक्रीतजिघांसया ॥ १२ ॥

मूलम्

तावब्रवीदृषिः क्रुद्धो यवक्रीर्वध्यतामिति ।
जग्मतुस्तौ तथेत्युक्त्वा यवक्रीतजिघांसया ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब क्रोधमें भरे हुए महर्षिने कहा—‘यवक्रीतको मार डालो।’ उस समय ‘बहुत अच्छा’ कहकर वे दोनों यवक्रीतके वधकी इच्छासे उसका पीछा करने लगे॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततस्तं समुपास्थाय कृत्या सृष्टा महात्मना।
कमण्डलुं जहारास्य मोहयित्वेव भारत ॥ १३ ॥

मूलम्

ततस्तं समुपास्थाय कृत्या सृष्टा महात्मना।
कमण्डलुं जहारास्य मोहयित्वेव भारत ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भारत! महामना रैभ्यकी रची हुई कृत्यारूप सुन्दरी नारीने पहले यवक्रीतके पास उपस्थित हो उसे मोहमें डालकर उसका कमण्डलु हर लिया॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उच्छिष्टं तु यवक्रीतमपकृष्टकमण्डलुम् ।
तत उद्यतशूलः स राक्षसः समुपाद्रवत् ॥ १४ ॥

मूलम्

उच्छिष्टं तु यवक्रीतमपकृष्टकमण्डलुम् ।
तत उद्यतशूलः स राक्षसः समुपाद्रवत् ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कमण्डलु खो जानेसे यवक्रीतका शरीर उच्छिष्ट (जूठा या अपवित्र) रहने लगा। उस दशामें वह राक्षस हाथमें त्रिशूल उठाये यवक्रीतकी ओर दौड़ा॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तमापतन्तं सम्प्रेक्ष्य शूलहस्तं जिघांसया।
यवक्रीः सहसोत्थाय प्राद्रवद् येन वै सरः ॥ १५ ॥

मूलम्

तमापतन्तं सम्प्रेक्ष्य शूलहस्तं जिघांसया।
यवक्रीः सहसोत्थाय प्राद्रवद् येन वै सरः ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राक्षस शूल हाथमें लिये मुझे मार डालनेकी इच्छासे मेरी और दौड़ा आ रहा है, यह देखकर यवक्रीत सहसा उठे और उस मार्गसे भागे जो एक सरोवरकी ओर जाता था॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जलहीनं सरो दृष्ट्वा यवक्रीस्त्वरितः पुनः।
जगाम सरितः सर्वास्ताश्चाप्यासन्‌ विशोषिताः ॥ १६ ॥

मूलम्

जलहीनं सरो दृष्ट्वा यवक्रीस्त्वरितः पुनः।
जगाम सरितः सर्वास्ताश्चाप्यासन्‌ विशोषिताः ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसके जाते ही सरोवरका पानी सूख गया। सरोवरको जलहीन हुआ देख यवक्रीत फिर तुरंत ही समस्त सरिताओंके पास गया; परंतु इसके जानेपर वे सब भी सूख गयीं॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स काल्यमानो घोरेण शूलहस्तेन रक्षसा।
अग्निहोत्रं पितुर्भीतः सहसा प्रविवेश ह ॥ १७ ॥

मूलम्

स काल्यमानो घोरेण शूलहस्तेन रक्षसा।
अग्निहोत्रं पितुर्भीतः सहसा प्रविवेश ह ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब हाथमें शूल लिये उस भयानक राक्षसके खदेड़नेपर यवक्रीत अत्यन्त भयभीत हो सहसा अपने पिताके अग्निहोत्रगृहमें घुसने लगा॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स वै प्रविशमानस्तु शूद्रेणान्धेन रक्षिणा।
निगृहीतो बलाद् द्वारि सोऽवातिष्ठत पार्थिव ॥ १८ ॥

मूलम्

स वै प्रविशमानस्तु शूद्रेणान्धेन रक्षिणा।
निगृहीतो बलाद् द्वारि सोऽवातिष्ठत पार्थिव ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! उस समय अग्निहोत्रगृहके अंदर एक शूद्र-जातीय रक्षक नियुक्त था, जिसकी दोनों आँखें अंधी थीं। उसने दरवाजेके भीतर घुसते ही यवक्रीतको बलपूर्वक पकड़ लिया और यवक्रीत वहीं खड़ा हो गया॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

निगृहीतं तु शूद्रेण यवक्रीतं स राक्षसः।
ताडयामास शूलेन स भिन्नहृदयोऽपतत् ॥ १९ ॥

मूलम्

निगृहीतं तु शूद्रेण यवक्रीतं स राक्षसः।
ताडयामास शूलेन स भिन्नहृदयोऽपतत् ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

शूद्रके द्वारा पकड़े गये यवक्रीतपर उस राक्षसने शूलसे प्रहार किया। इससे उसकी छाती फट गयी और वह प्राणशून्य होकर वहीं गिर पड़ा॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यवक्रीतं स हत्वा तु राक्षसो रैभ्यमागमत्।
अनुज्ञातस्तु रैभ्येण तया नार्या सहावसत् ॥ २० ॥

मूलम्

यवक्रीतं स हत्वा तु राक्षसो रैभ्यमागमत्।
अनुज्ञातस्तु रैभ्येण तया नार्या सहावसत् ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार यवक्रीतको मारकर राक्षस रैभ्यके पास लौट आया और उनकी आज्ञा ले उस कृत्यास्वरूपा रमणीके साथ उनकी सेवामें रहने लगा॥२०॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि तीर्थयात्रापर्वणि लोमशतीर्थयात्रायां यवक्रीतोपाख्याने षट्त्रिंशदधिकशततमोऽध्यायः ॥ १३६ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्वके अन्तर्गत तीर्थयात्रापर्वमें लोमशतीर्थयात्राके प्रसंगमें यवक्रीतोपाख्यानविषयक एक सौ छत्तीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१३६॥