भागसूचना
चतुस्त्रिंशदधिकशततमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
बन्दी और अष्टावक्रका शास्त्रार्थ, बन्दीकी पराजय तथा समङ्गामें स्नानसे अष्टावक्रके अंगोंका सीधा होना
मूलम् (वचनम्)
अष्टावक्र उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अत्रोग्रसेन समितेषु राजन्
समागतेष्वप्रतिमेषु राजसु ।
नावैमि बन्दिं वरमत्र वादिनां
महाजले हंसमिवाददामि ॥ १ ॥
मूलम्
अत्रोग्रसेन समितेषु राजन्
समागतेष्वप्रतिमेषु राजसु ।
नावैमि बन्दिं वरमत्र वादिनां
महाजले हंसमिवाददामि ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अष्टावक्र बोले— भयंकर सेनाओंसे युक्त महाराज जनक! इस सभामें सब ओरसे अप्रतिम प्रभावशाली राजा आकर एकत्र हुए हैं; परंतु मैं इन सबके बीचमें वादियोंमें प्रधान बन्दीको नहीं पहचान पाता हूँ। यदि पहचान लूँ तो अगाध जलमें हंसकी भाँति उन्हें अवश्य पकड़ लूँगा॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न मेऽद्य वक्ष्यस्यतिवादिमानिन्
ग्लहं प्रपन्नः सरितामिवागमः ।
हुताशनस्येव समिद्धतेजसः
स्थिरो भवस्वेह ममाद्य बन्दिन् ॥ २ ॥
मूलम्
न मेऽद्य वक्ष्यस्यतिवादिमानिन्
ग्लहं प्रपन्नः सरितामिवागमः ।
हुताशनस्येव समिद्धतेजसः
स्थिरो भवस्वेह ममाद्य बन्दिन् ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अपनेको अतिवादी माननेवाले बन्दी! तुमने पराजित हुए पण्डितोंको पानीमें डुबवा देनेका नियम कर रखा है, किंतु आज मेरे सामने तुम्हारी बोली बंद हो जायगी। जैसे प्रलयकालके प्रज्वलित अग्निके समीप नदियोंका प्रवाह सूख जाता है, उसी प्रकार मेरे सामने आनेपर तुम भी सूख जाओगे—तुम्हारी वादशक्ति नष्ट हो जायगी। बन्दी! आज मेरे सामने स्थिर होकर बैठो॥२॥
मूलम् (वचनम्)
बन्द्युवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
व्याघ्रं शयानं प्रति मा प्रबोधय
आशीविषं सृक्किणी लेलिहानम् ।
पदाहतस्येह शिरोऽभिहत्य
नादष्टो वै मोक्ष्यसे तन्निबोध ॥ ३ ॥
मूलम्
व्याघ्रं शयानं प्रति मा प्रबोधय
आशीविषं सृक्किणी लेलिहानम् ।
पदाहतस्येह शिरोऽभिहत्य
नादष्टो वै मोक्ष्यसे तन्निबोध ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
बन्दीने कहा— मुझे सोता हुआ सिंह समझकर न जगाओ (न छेड़ो), अपने जबड़ोंको चाटता हुआ विषैला सर्प मानो। तुमने पैरोंसे ठोकर मारकर मेरे मस्तकको कुचल दिया है। अब जबतक तुम डँस लिये नहीं जाते तबतक तुम्हें छुटकारा नहीं मिल सकता, इस बातको अच्छी तरह समझ लो॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यो वै दर्पात् संहननोपपन्नः
सुदुर्बलः पर्वतमाविहन्ति ।
तस्यैव पाणिः सनखो विदीर्यते
न चैव शैलस्य हि दृश्यते व्रणः ॥ ४ ॥
मूलम्
यो वै दर्पात् संहननोपपन्नः
सुदुर्बलः पर्वतमाविहन्ति ।
तस्यैव पाणिः सनखो विदीर्यते
न चैव शैलस्य हि दृश्यते व्रणः ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो देहधारी अत्यन्त दुर्बल होकर भी अहंकारवश अपने हाथसे पर्वतपर चोट करता है, उसीके हाथ और नख विदीर्ण हो जाते हैं। उस चोटसे पर्वतमें घाव होता नहीं देखा जाता है॥४॥
मूलम् (वचनम्)
अष्टावक्र उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्वे राज्ञो मैथिलस्य मैनाकस्येव पर्वताः।
निकृष्टभूता राजानो वत्सा अनडुहो यथा ॥ ५ ॥
मूलम्
सर्वे राज्ञो मैथिलस्य मैनाकस्येव पर्वताः।
निकृष्टभूता राजानो वत्सा अनडुहो यथा ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अष्टावक्र बोले— जैसे सब पर्वत मैनाकसे छोटे हैं, सारे बछड़े बैलोंसे लघुतर हैं, उसी प्रकार भूमण्डलके समस्त राजा मिथिलानरेश महाराज जनककी अपेक्षा निम्न श्रेणीमें हैं॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथा महेन्द्रः प्रवरः सुराणां
नदीषु गङ्गा प्रवरा यथैव।
तथा नृपाणां प्रवरस्त्वमेको
बन्दिं समभ्यानय मत्सकाशम् ॥ ६ ॥
मूलम्
यथा महेन्द्रः प्रवरः सुराणां
नदीषु गङ्गा प्रवरा यथैव।
तथा नृपाणां प्रवरस्त्वमेको
बन्दिं समभ्यानय मत्सकाशम् ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! जैसे देवताओंमें महेन्द्र श्रेष्ठ हैं और नदियोंमें गंगा श्रेष्ठ हैं, उसी प्रकार सब राजाओंमें एकमात्र आप ही उत्तम हैं। अब बन्दीको मेरे निकट बुलवाइये॥६॥
मूलम् (वचनम्)
लोमश उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमष्टावक्रः समितौ हि गर्जन्-
जातक्रोधो बन्दिनमाह राजन् ।
उक्ते वाक्ये चोत्तरं मे ब्रवीहि
वाक्यस्य चाप्युत्तरं ते ब्रवीमि ॥ ७ ॥
मूलम्
एवमष्टावक्रः समितौ हि गर्जन्-
जातक्रोधो बन्दिनमाह राजन् ।
उक्ते वाक्ये चोत्तरं मे ब्रवीहि
वाक्यस्य चाप्युत्तरं ते ब्रवीमि ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
लोमशजी कहते हैं— युधिष्ठिर! (बन्दीके सामने आ जानेपर) राजसभामें गर्जते हुए अष्टावक्रने बन्दीसे कुपित होकर इस प्रकार कहा—‘मेरी पूछी हुई बातका उत्तर तुम दो और तुम्हारी बातका उत्तर मैं देता हूँ’॥७॥
मूलम् (वचनम्)
बन्द्युवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
एक एवाग्निर्बहुधा समिध्यते
एकः सूर्यः सर्वमिदं विभाति।
एको वीरो देवराजोऽरिहन्ता
यमः पितॄणामीश्वरश्चैक एव ॥ ८ ॥
मूलम्
एक एवाग्निर्बहुधा समिध्यते
एकः सूर्यः सर्वमिदं विभाति।
एको वीरो देवराजोऽरिहन्ता
यमः पितॄणामीश्वरश्चैक एव ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब बन्दीने कहा— अष्टावक्र! एक ही अग्नि अनेक प्रकारसे प्रकाशित होती है, एक ही सूर्य इस सम्पूर्ण जगत्को प्रकाशित करता है। शत्रुओंका नाश करनेवाला देवराज इन्द्र एक ही वीर है तथा पितरोंका स्वामी यमराज भी एक ही है॥८॥
मूलम् (वचनम्)
अष्टावक्र उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
द्वाविन्द्राग्नी चरतो वै सखायौ
द्वौ देवर्षी नारदपर्वतौ च।
द्वावश्विनौ द्वे रथस्यापि चक्रे
भार्यापती द्वौ विहितौ विधात्रा ॥ ९ ॥
मूलम्
द्वाविन्द्राग्नी चरतो वै सखायौ
द्वौ देवर्षी नारदपर्वतौ च।
द्वावश्विनौ द्वे रथस्यापि चक्रे
भार्यापती द्वौ विहितौ विधात्रा ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अष्टावक्र बोले— जो दो मित्रोंकी भाँति सदा साथ विचरते हैं, वे इन्द्र और अग्नि दो देवता हैं। परस्पर मित्रभाव रखनेवाले देवर्षि नारद और पर्वत भी दो ही हैं। अश्विनीकुमारोंकी भी संख्या दो ही है, रथके पहिये भी दो ही होते हैं तथा विधाताने (एक-दूसरेके जीवनसंगी) पति और पत्नी भी दो ही बनाये हैं॥९॥
मूलम् (वचनम्)
बन्द्युवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्रिः सूयते कर्मणा वै प्रजेयं
त्रयो युक्ता वाजपेयं वहन्ति।
अध्वर्यवस्त्रिसवनानि तन्वते
त्रयो लोकास्त्रीणि ज्योतींषि चाहुः ॥ १० ॥
मूलम्
त्रिः सूयते कर्मणा वै प्रजेयं
त्रयो युक्ता वाजपेयं वहन्ति।
अध्वर्यवस्त्रिसवनानि तन्वते
त्रयो लोकास्त्रीणि ज्योतींषि चाहुः ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
बन्दीने कहा— यह सम्पूर्ण प्रजा कर्मवश देवता, मनुष्य और तिर्यक्रूप तीन प्रकारका जन्म धारण करती है, ऋक्, साम, और यजु—ये तीन वेद ही परस्पर संयुक्त हो बाजपेय आदि यज्ञ-कर्मोंका निर्वाह करते हैं। अध्वर्युलोग भी प्रातःसवन, मध्याह्नसवन और सायंसवनके भेदसे तीन सवनों (यज्ञों)-का ही अनुष्ठान करते हैं। (कर्मानुसार प्राप्त होनेवाले भोगोंके लिये) स्वर्ग, मृत्यु और नरक—ये लोक भी तीन ही बताये गये हैं और मुनियोंने सूर्य, चन्द्र और अग्निरूप तीन ही प्रकारकी ज्योतियाँ बतलायी हैं॥१०॥
मूलम् (वचनम्)
अष्टावक्र उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
चतुष्टयं ब्राह्मणानां निकेतं
चत्वारो वर्णा यज्ञमिमं वहन्ति।
दिशश्चतस्रो वर्णचतुष्टयं च
चतुष्पदा गौरपि शश्वदुक्ता ॥ ११ ॥
मूलम्
चतुष्टयं ब्राह्मणानां निकेतं
चत्वारो वर्णा यज्ञमिमं वहन्ति।
दिशश्चतस्रो वर्णचतुष्टयं च
चतुष्पदा गौरपि शश्वदुक्ता ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अष्टावक्र बोले— ब्राह्मणोंके लिये आश्रम1 चार हैं। वर्ण2 भी चार ही हैं जो इस यज्ञका भार वहन करते हैं। मुख्य दिशाएँ3 भी चार ही हैं। वर्ण4 भी चार ही हैं तथा गो अर्थात् वाणी भी सदा चार ही चरणोंसे5 युक्त बतायी गयी है॥११॥
मूलम् (वचनम्)
बन्द्युवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
पञ्चाग्नयः पञ्चपदा च पङ्क्ति-
र्यज्ञाः पञ्चैवाप्यथ पञ्चेन्द्रियाणि ।
दृष्टा वेदे पञ्चचूडाप्सराश्च
लोके ख्यातं पञ्चनदं च पुण्यम् ॥ १२ ॥
मूलम्
पञ्चाग्नयः पञ्चपदा च पङ्क्ति-
र्यज्ञाः पञ्चैवाप्यथ पञ्चेन्द्रियाणि ।
दृष्टा वेदे पञ्चचूडाप्सराश्च
लोके ख्यातं पञ्चनदं च पुण्यम् ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
बन्दीने कहा— यज्ञकी अग्नि गार्हपत्य, दक्षिणाग्नि, आहवनीय, सभ्य और आवसथ्यके भेदसे पाँच प्रकारकी कही गयी है। पंक्ति[^६] छन्द भी पाँच पादोंसे ही बनता है, यज्ञ भी पाँच ही हैं—देवयज्ञ, पितृयज्ञ, ऋषियज्ञ, भूतयज्ञ और मनुष्ययज्ञ। इसी प्रकार इन्द्रियोंकी संख्या भी पाँच ही हैं[^७]। वेदमें पाँच वेणीवाली (पंचचूड़ा[^८]) अप्सराका वर्णन देखा गया है तथा लोकमें पाँच[^९] नदियोंसे विशिष्ट पुण्यमय पञ्चनद प्रदेश विख्यात है॥१२॥
मूलम् (वचनम्)
अष्टावक्र उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
षडाधाने दक्षिणामाहुरेके
षट् चैवेमे ऋतवः कालचक्रम्।
षडिन्द्रियाण्युत षट् कृत्तिकाश्च
षट् साद्यस्काः सर्ववेदेषु दृष्टाः ॥ १३ ॥
मूलम्
षडाधाने दक्षिणामाहुरेके
षट् चैवेमे ऋतवः कालचक्रम्।
षडिन्द्रियाण्युत षट् कृत्तिकाश्च
षट् साद्यस्काः सर्ववेदेषु दृष्टाः ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अष्टावक्र बोले— कुछ विद्वानोंका मत है कि अग्निकी स्थापनाके समय दक्षिणामें छः गौ ही देनी चाहिये। ये छः ऋतुएँ ही संवत्सररूप कालचक्रकी सिद्धि करती हैं। मनसहित ज्ञानेन्द्रियाँ भी छः ही हैं। कृत्तिकाओंकी संख्या छः ही है तथा सम्पूर्ण वेदोंमें साद्यस्क नामक यज्ञ भी छः ही देखे गये हैं॥१३॥
मूलम् (वचनम्)
बन्द्युवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
सप्त ग्राम्याः पशवः सप्त वन्याः
सप्तच्छन्दांसि क्रतुमेकं वहन्ति ।
सप्तर्षयः सप्त चाप्यर्हणानि
सप्ततन्त्री प्रथिता चैव वीणा ॥ १४ ॥
मूलम्
सप्त ग्राम्याः पशवः सप्त वन्याः
सप्तच्छन्दांसि क्रतुमेकं वहन्ति ।
सप्तर्षयः सप्त चाप्यर्हणानि
सप्ततन्त्री प्रथिता चैव वीणा ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
बन्दीने कहा— ग्राम्य पशु सात हैं (जिनके नाम इस प्रकार हैं)—गाय, भैंस, बकरी, भेंड़, घोड़ा, कुत्ता और गदहा। जंगली पशु भी सात हैं (यथा—सिंह, बाघ, भेड़िया, हाथी, वानर, भालू और मृग1)। गायत्री, उष्णिक्, अनुष्टुप्, बृहती, पंक्ति, त्रिष्टुप् और जगती—ये सात ही छन्द एक-एक यज्ञका निर्वाह करते हैं। सप्तर्षि नामसे प्रसिद्ध ऋषियोंकी2 संख्या भी सात ही है (यथा—मरीचि, अत्रि, पुलह, पुलस्त्य, क्रतु, अंगिरा और वसिष्ठ), पूजनके संक्षिप्त उपचार भी सात हैं (यथा—गन्ध, पुष्प, धूप, दीप, नैवेद्य, आचमन और ताम्बूल) तथा वीणाके भी सात ही तार विख्यात हैं॥१४॥
मूलम् (वचनम्)
अष्टावक्र उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अष्टौ शाणाः शतमानं वहन्ति
तथाष्टपादः शरभः सिंहघाती ।
अष्टौ वसूञ्शुश्रुम देवतासु
यूपश्चाष्टास्रिर्विहितः सर्वयज्ञे ॥ १५ ॥
मूलम्
अष्टौ शाणाः शतमानं वहन्ति
तथाष्टपादः शरभः सिंहघाती ।
अष्टौ वसूञ्शुश्रुम देवतासु
यूपश्चाष्टास्रिर्विहितः सर्वयज्ञे ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अष्टावक्र बोले— तराजूमें लगी हुई सनकी डोरियाँ भी आठ ही होती हैं, जो सैकड़ोंका मान (तौल) करती हैं। सिंहको भी मार गिरानेवाले शरभके आठ ही पैर होते हैं। देवताओंमें वसुओंकी3 संख्या भी आठ ही सुनी गयी है और सम्पूर्ण यज्ञोंमें आठ कोणके ही यूपका निर्माण किया जाता है॥१५॥
मूलम् (वचनम्)
बन्द्युवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
नवैवोक्ताः सामिधेन्यः पितॄणां
तथा प्राहुर्नवयोगं विसर्गम् ।
नवाक्षरा बृहती सम्प्रदिष्टा
नवयोगो गणनामेति शश्वत् ॥ १६ ॥
मूलम्
नवैवोक्ताः सामिधेन्यः पितॄणां
तथा प्राहुर्नवयोगं विसर्गम् ।
नवाक्षरा बृहती सम्प्रदिष्टा
नवयोगो गणनामेति शश्वत् ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
बन्दीने कहा— पितृयज्ञमें समिधा देकर अग्निको उद्दीप्त करनेके लिये जो मन्त्र पढ़े जाते हैं उन्हें सामिधेनी ऋचा कहते हैं, उनकी संख्या नौ ही बतायी गयी है। यह जो नाना प्रकारकी सृष्टि दिखायी देती है, इसमें प्रकृति, पुरुष, महत्तत्त्व, अहंकार तथा पञ्चतन्मात्रा—इन नौ पदार्थोंका संयोग कारण है, ऐसा विज्ञ पुरुषोंका कथन है। बृहती-छन्दके प्रत्येक चरणमें नौ अक्षर बताये गये हैं और एकसे लेकर नौ अंकोंका योग ही सदा गणनाके उपयोगमें आता है॥१६॥
मूलम् (वचनम्)
अष्टावक्र उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
दिशो दशोक्ताः पुरुषस्य लोके
सहस्रमाहुर्दशपूर्णं शतानि ।
दशैव मासान् बिभ्रति गर्भवत्यो
दशैरका दश दाशा दशार्हाः ॥ १७ ॥
मूलम्
दिशो दशोक्ताः पुरुषस्य लोके
सहस्रमाहुर्दशपूर्णं शतानि ।
दशैव मासान् बिभ्रति गर्भवत्यो
दशैरका दश दाशा दशार्हाः ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अष्टावक्रने कहा— पुरुषके लिये संसारमें दस दिशाएँ बतायी गयी हैं। दस सौ मिलकर ही पूरा एक सहस्र कहा जाता है, गर्भवती स्त्रियाँ दस मासतक ही गर्भ धारण करती हैं, निन्दक भी दस4 ही होते हैं, शरीरकी अवस्थाएँ भी दस5 हैं तथा पूजनीय पुरुष भी दस[^६] ही बताये गये हैं॥१७॥
मूलम् (वचनम्)
बन्द्युवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
एकादशैकादशिनः पशूना-
मेकादशैवात्र भवन्ति यूपाः ।
एकादश प्राणभृतां विकारा
एकादशोक्ता दिवि देवेषु रुद्राः ॥ १८ ॥
मूलम्
एकादशैकादशिनः पशूना-
मेकादशैवात्र भवन्ति यूपाः ।
एकादश प्राणभृतां विकारा
एकादशोक्ता दिवि देवेषु रुद्राः ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
बन्दीने कहा— प्राणधारी पशुओं (जीवों)-के लिये ग्यारह विषय1 हैं। उन्हें प्रकाशित करनेवाली इन्द्रियाँ भी ग्यारह ही हैं, यज्ञ, याग आदिमें यूप भी ग्यारह ही होते हैं, प्राणियोंके विकार2 भी ग्यारह हैं, तथा स्वर्गीय देवताओंमें जो रुद्र3 कहलाते हैं; उनकी संख्या भी ग्यारह ही है॥१८॥
मूलम् (वचनम्)
अष्टावक्र उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
संवत्सरं द्वादशमासमाहु-
र्जगत्याः पादो द्वादशैवाक्षराणि ।
द्वादशाहः प्राकृतो यज्ञ उक्तो
द्वादशादित्यान् कथयन्तीह धीराः ॥ १९ ॥
मूलम्
संवत्सरं द्वादशमासमाहु-
र्जगत्याः पादो द्वादशैवाक्षराणि ।
द्वादशाहः प्राकृतो यज्ञ उक्तो
द्वादशादित्यान् कथयन्तीह धीराः ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अष्टावक्र बोले— एक संवत्सरमें बारह महीने बताये गये हैं, जगती छन्दका प्रत्येक पाद बारह अक्षरोंका होता है, प्राकृत यज्ञ बारह दिनोंका माना गया है, ज्ञानी पुरुष यहाँ बारह4 आदित्योंका वर्णन करते हैं॥१९॥
मूलम् (वचनम्)
बन्द्युवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्रयोदशी तिथिरुक्ता प्रशस्ता
त्रयोदशद्वीपवती मही च ।
मूलम्
त्रयोदशी तिथिरुक्ता प्रशस्ता
त्रयोदशद्वीपवती मही च ।
अनुवाद (हिन्दी)
बन्दीने कहा— त्रयोदशी तिथि उत्तम बतायी गयी है तथा यह पृथ्वी तेरह द्वीपोंसे युक्त है।
मूलम् (वचनम्)
लोमश उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतावदुक्त्वा विरराम बन्दी
श्लोकस्यार्धं व्याजहाराष्टवक्रः ।
मूलम्
एतावदुक्त्वा विरराम बन्दी
श्लोकस्यार्धं व्याजहाराष्टवक्रः ।
अनुवाद (हिन्दी)
लोमशजी कहते हैं— इतना कहकर बन्दी चुप हो गया। तब शेष आधे श्लोककी पूर्ति अष्टावक्रने इस प्रकार की।
मूलम् (वचनम्)
अष्टावक्र उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्रयोदशाहानि ससार केशी
त्रयोदशादीन्यतिच्छन्दांसि चाहुः ॥ २० ॥
मूलम्
त्रयोदशाहानि ससार केशी
त्रयोदशादीन्यतिच्छन्दांसि चाहुः ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अष्टावक्र बोले— केशी नामक दानवने भगवान् विष्णुके साथ तेरह5 दिनोंतक युद्ध किया था। वेदमें जो अतिशब्द-विशिष्ट छन्द बताये गये हैं, उनका एक-एक पाद तेरह आदि अक्षरोंसे सम्पन्न होता है (अर्थात् अतिजगती छन्दका एक पाद तेरह अक्षरोंका, अतिशक्वरीका एक पाद पन्द्रह अक्षरोंका, अत्यष्टिका प्रत्येक पाद सत्रह अक्षरोंका तथा अतिधृतिका हर एक पाद उन्नीस अक्षरोंका होता है)॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो महानुदतिष्ठन्निनाद-
स्तूष्णींभूतं सूतपुत्रं निशम्य ।
अधोमुखं ध्यानपरं तदानी-
मष्टावक्रं चाप्युदीर्यन्तमेव ॥ २१ ॥
मूलम्
ततो महानुदतिष्ठन्निनाद-
स्तूष्णींभूतं सूतपुत्रं निशम्य ।
अधोमुखं ध्यानपरं तदानी-
मष्टावक्रं चाप्युदीर्यन्तमेव ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
लोमशजी कहते हैं— इतना सुनते ही सूतपुत्र बन्दी चुप हो गया और मुँह नीचा किये किसी भारी सोच-विचारमें पड़ गया। इधर अष्टावक्र बोलते ही रहे, यह सब देख दर्शकों और श्रोताओंमें महान् कोलाहल मच गया॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्मिंस्तथा संकुले वर्तमाने
स्फीते यज्ञे जनकस्योत राज्ञः।
अष्टावक्रं पूजयन्तोऽभ्युपेयु-
र्विप्राः सर्वे प्राञ्जलयः प्रतीताः ॥ २२ ॥
मूलम्
तस्मिंस्तथा संकुले वर्तमाने
स्फीते यज्ञे जनकस्योत राज्ञः।
अष्टावक्रं पूजयन्तोऽभ्युपेयु-
र्विप्राः सर्वे प्राञ्जलयः प्रतीताः ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाराज जनकके उस समृद्धिशाली यज्ञमें जबकि चारों ओर कोलाहल व्याप्त हो रहा था, सब ब्राह्मण हाथ जोड़े हुए श्रद्धापूर्वक अष्टावक्रके समीप आये और उनका आदर-सत्कारपूर्वक पूजन किया॥२२॥
मूलम् (वचनम्)
अष्टावक्र उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनेनैव ब्राह्मणाः शुश्रुवांसो
वादे जित्वा सलिले मज्जिताः प्राक्।
तानेव धर्मानयमद्य बन्दी
प्राप्नोतु गृह्याप्सु निमज्जयैनम् ॥ २३ ॥
मूलम्
अनेनैव ब्राह्मणाः शुश्रुवांसो
वादे जित्वा सलिले मज्जिताः प्राक्।
तानेव धर्मानयमद्य बन्दी
प्राप्नोतु गृह्याप्सु निमज्जयैनम् ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तत्पश्चात् अष्टावक्रने कहा— महाराज! इस बन्दीने पहले बहुत-से शास्त्रज्ञ (विद्वान्) ब्राह्मणोंको शास्त्रार्थमें पराजित करके पानीमें डुबवाया है, अतः इसकी भी वही गति होनी चाहिये जो इसके द्वारा दूसरोंकी हुई। इसलिये इसे पकड़कर शीघ्र पानीमें डुबवा दीजिये॥२३॥
मूलम् (वचनम्)
बन्द्युवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अहं पुत्रो वरुणस्योत राज्ञ-
स्तत्रास सत्रं द्वादशवार्षिकं वै।
सत्रेण ते जनक तुल्यकालं
तदर्थं ते प्रहिता मे द्विजाग्र्याः ॥ २४ ॥
मूलम्
अहं पुत्रो वरुणस्योत राज्ञ-
स्तत्रास सत्रं द्वादशवार्षिकं वै।
सत्रेण ते जनक तुल्यकालं
तदर्थं ते प्रहिता मे द्विजाग्र्याः ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
बन्दी बोला— महाराज जनक! मैं राजा वरुणका पुत्र हूँ। मेरे पिताके यहाँ भी आपके इस यज्ञके समान ही बारह वर्षोंमें पूर्ण होनेवाला यज्ञ हो रहा था। उस यज्ञके अनुष्ठानके लिये ही (जलमें डुबानेके बहाने) कुछ चुने हुए श्रेष्ठ ब्राह्मणोंको मैंने वरुणलोकमें भेज दिया था॥२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ते तु सर्वे वरुणस्योत यज्ञं
द्रष्टुं गता इह आयान्ति भूयः।
अष्टावक्रं पूजये पूजनीयं
यस्य हेतोर्जनितारं समेष्ये ॥ २५ ॥
मूलम्
ते तु सर्वे वरुणस्योत यज्ञं
द्रष्टुं गता इह आयान्ति भूयः।
अष्टावक्रं पूजये पूजनीयं
यस्य हेतोर्जनितारं समेष्ये ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे सब-के-सब वरुणका यज्ञ देखनेके लिये गये हैं और अब पुनः लौटकर आ रहे हैं। मैं पूजनीय ब्राह्मण अष्टावक्रजीका सत्कार करता हूँ; जिनके कारण मेरा अपने पिताजीसे मिलना होगा॥२५॥
मूलम् (वचनम्)
अष्टावक्र उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
विप्राः समुद्राम्भसि मज्जिता ये
वाचा जिता मेधया वा विदानाः।
तां मेधया वाचमथोज्जहार
यथा वाचमवचिन्वन्ति सन्तः ॥ २६ ॥
मूलम्
विप्राः समुद्राम्भसि मज्जिता ये
वाचा जिता मेधया वा विदानाः।
तां मेधया वाचमथोज्जहार
यथा वाचमवचिन्वन्ति सन्तः ॥ २६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अष्टावक्र बोले— राजन्! बन्दीने अपनी जिस वाणी (प्रवचनपटुता अथवा मेधा—बुद्धिबल)-से विद्वान् ब्राह्मणोंको भी परास्त किया और समुद्रके जलमें डुबोया है, उसकी उस वाक्शक्तिको मैंने अपनी बुद्धिसे किस प्रकार उखाड़ फेंका है, यह सब इस सभामें बैठे हुए विद्वान् पुरुष मेरी बातें सुनकर ही जान गये होंगे॥२६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अग्निर्दहञ्जातवेदाः सतां गृहान्
विसर्जयंस्तेजसा न स्म धाक्षीत्।
बालेषु पुत्रेषु कृपणं वदत्सु
तथा वाचमवचिन्वन्ति सन्तः ॥ २७ ॥
मूलम्
अग्निर्दहञ्जातवेदाः सतां गृहान्
विसर्जयंस्तेजसा न स्म धाक्षीत्।
बालेषु पुत्रेषु कृपणं वदत्सु
तथा वाचमवचिन्वन्ति सन्तः ॥ २७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अग्नि स्वभावसे ही दहन करनेवाला है तो भी वह ज्ञेय विषयको तत्काल जाननेमें समर्थ है। इस कारण परीक्षाके समय जो सदाचारी और सत्यवादी होते हैं उनके घरोंको (शरीरोंको) छोड़ देता है, जलाता नहीं। वैसे ही संतलोग भी विनम्रभावसे बोलनेवाले बालक पुत्रोंके वचनोंमेंसे जो सत्य और हितकर बात होती है, उसे चुन लेते हैं—(उसे मान लेते हैं, उनकी अवहेलना नहीं करते)। भाव यह कि तुमको मेरे वचनोंका भाव समझकर उन्हें ग्रहण करना चाहिये॥२७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
श्लेष्मातकी क्षीणवर्चाः शृणोषि
उताहो त्वां स्तुतयो मादयन्ति।
हस्तीव त्वं जनक विनुद्यमानो
न मामिकां वाचमिमां शृणोषि ॥ २८ ॥
मूलम्
श्लेष्मातकी क्षीणवर्चाः शृणोषि
उताहो त्वां स्तुतयो मादयन्ति।
हस्तीव त्वं जनक विनुद्यमानो
न मामिकां वाचमिमां शृणोषि ॥ २८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! जान पड़ता है, तुमने लसोड़ेके पत्तोंपर भोजन किया है या उसका फल खा लिया है, इसीसे तुम्हारा तेज क्षीण हो गया है; अतः तुम बन्दीकी बात सुन रहे हो, अथवा इस बन्दीद्वारा की गयी स्तुतियाँ तुम्हें उन्मत्त कर रही हैं। यही कारण है कि अंकुशकी मार खाकर भी न माननेवाले मतवाले हाथीकी भाँति तुम मेरी इन बातोंको नहीं सुन रहे हो॥२८॥
मूलम् (वचनम्)
जनक उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
शृणोमि वाचं तव दिव्यरूपा-
ममानुषीं दिव्यरूपोऽसि साक्षात् ।
अजैषीर्यद् बन्दिनं त्वं विवादे
निसृष्ट एष तव कामोऽद्य बन्दी ॥ २९ ॥
मूलम्
शृणोमि वाचं तव दिव्यरूपा-
ममानुषीं दिव्यरूपोऽसि साक्षात् ।
अजैषीर्यद् बन्दिनं त्वं विवादे
निसृष्ट एष तव कामोऽद्य बन्दी ॥ २९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जनकने कहा— ब्रह्मन्! मैं आपकी दिव्य एवं अलौकिक वाणी सुन रहा हूँ, आप साक्षात् दिव्यस्वरूप हैं, आपने शास्त्रार्थमें बन्दीको जीत लिया है। आपकी इच्छा अभी पूरी की जा रही है। देखिये यह है आपके द्वारा जीता हुआ बन्दी॥२९॥
मूलम् (वचनम्)
अष्टावक्र उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
नानेन जीवता कश्चिदर्थो मे बन्दिना नृप।
पिता यद्यस्य वरुणो मज्जयैनं जलाशये ॥ ३० ॥
मूलम्
नानेन जीवता कश्चिदर्थो मे बन्दिना नृप।
पिता यद्यस्य वरुणो मज्जयैनं जलाशये ॥ ३० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अष्टावक्र बोले— महाराज! इस बन्दीके जीवित रहनेसे मेरा कोई प्रयोजन नहीं है। यदि इसके पिता वरुणदेव हैं तो उनके पास जानेके लिये इसे निश्चय ही जलाशयमें डुबो दीजिये॥३०॥
मूलम् (वचनम्)
बन्द्युवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अहं पुत्रो वरुणस्योत राज्ञो
न मे भयं विद्यते मज्जितस्य।
इमं मुहूर्तं पितरं द्रक्ष्यतेऽय-
मष्टावक्रश्चिरनष्टं कहोडम् ॥ ३१ ॥
मूलम्
अहं पुत्रो वरुणस्योत राज्ञो
न मे भयं विद्यते मज्जितस्य।
इमं मुहूर्तं पितरं द्रक्ष्यतेऽय-
मष्टावक्रश्चिरनष्टं कहोडम् ॥ ३१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
बन्दीने कहा— राजन्! मैं वास्तवमें राजा वरुणका पुत्र हूँ, अतः जलमें डुबाये जानेका मुझे कोई भय नहीं है। ये अष्टावक्र दीर्घकालसे नष्ट हुए अपने पिता कहोडको इसी समय देखेंगे॥३१॥
मूलम् (वचनम्)
लोमश उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततस्ते पूजिता विप्रा वरुणेन महात्मना।
उदतिष्ठंस्ततः सर्वे जनकस्य समीपतः ॥ ३२ ॥
मूलम्
ततस्ते पूजिता विप्रा वरुणेन महात्मना।
उदतिष्ठंस्ततः सर्वे जनकस्य समीपतः ॥ ३२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
लोमशजी कहते हैं— युधिष्ठिर! तदनन्तर महामना वरुणद्वारा पूजित हुए वे समस्त ब्राह्मण (जो बन्दीद्वारा जलमें डुबोये गये थे,) सहसा राजा जनकके समीप प्रकट हो गये॥३२॥
मूलम् (वचनम्)
कहोड उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्यर्थमिच्छन्ति सुताञ्जना जनक कर्मणा।
यदहं नाशकं कर्तुं तत् पुत्रः कृतवान् मम ॥ ३३ ॥
मूलम्
इत्यर्थमिच्छन्ति सुताञ्जना जनक कर्मणा।
यदहं नाशकं कर्तुं तत् पुत्रः कृतवान् मम ॥ ३३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय कहोडने कहा— जनकराज! लोग इसीलिये अच्छे कर्मोंद्वारा पुत्र पानेकी इच्छा रखते हैं, क्योंकि जो कार्य मैं नहीं कर सका, उसे मेरे पुत्रने कर दिखाया॥३३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उताबलस्य बलवानुत बालस्य पण्डितः।
उत वाविदुषो विद्वान् पुत्रो जनक जायते ॥ ३४ ॥
मूलम्
उताबलस्य बलवानुत बालस्य पण्डितः।
उत वाविदुषो विद्वान् पुत्रो जनक जायते ॥ ३४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जनकराज! कभी-कभी निर्बलके भी बलवान्, मूर्खके भी पण्डित तथा अज्ञानीके भी ज्ञानी पुत्र उत्पन्न हो जाता है॥३४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शितेन ते परशुना स्वयमेवान्तको नृप।
शिरांस्यपाहरत्वाजौ रिपूणां भद्रमस्तु ते ॥ ३५ ॥
मूलम्
शितेन ते परशुना स्वयमेवान्तको नृप।
शिरांस्यपाहरत्वाजौ रिपूणां भद्रमस्तु ते ॥ ३५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! आपका कल्याण हो, युद्धमें स्वयं ही यमराज तीखे फरसेसे आपके शत्रुओंके मस्तक काटते रहें॥३५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
महदौक्थ्यं गीयते साम चाग्र्यं
सम्यक् सोमः पीयते चात्र सत्रे।
शुचीन् भगान् प्रतिजगृहुश्च हृष्टाः
साक्षाद् देवा जनकस्योत राज्ञः ॥ ३६ ॥
मूलम्
महदौक्थ्यं गीयते साम चाग्र्यं
सम्यक् सोमः पीयते चात्र सत्रे।
शुचीन् भगान् प्रतिजगृहुश्च हृष्टाः
साक्षाद् देवा जनकस्योत राज्ञः ॥ ३६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाराज जनकके इस यज्ञमें उत्तम एवं महत्त्वपूर्ण और औक्थ्य[^*] सामका गान किया जाता है, विधिपूर्वक सोमरसका पान हो रहा है, देवगण प्रत्यक्ष दर्शन देकर बड़े हर्षके साथ अपने-अपने पवित्र भाग ग्रहण कर रहे हैं॥३६॥
मूलम् (वचनम्)
लोमश उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
समुत्थितेष्वथ सर्वेषु राजन्
विप्रेषु तेष्वधिकं सुप्रभेषु ।
अनुज्ञातो जनकेनाथ राज्ञा
विवेश तोयं सागरस्योत बन्दी ॥ ३७ ॥
मूलम्
समुत्थितेष्वथ सर्वेषु राजन्
विप्रेषु तेष्वधिकं सुप्रभेषु ।
अनुज्ञातो जनकेनाथ राज्ञा
विवेश तोयं सागरस्योत बन्दी ॥ ३७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
लोमशजी कहते हैं— राजन्! बन्दीद्वारा जलमें डुबोये हुए वे सभी ब्राह्मण जब वहाँ अधिक तेजस्वी रूपसे प्रकट हो गये, तब राजाकी आज्ञा लेकर बन्दी स्वयं ही समुद्रके जलमें समा गया॥३७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अष्टावक्रः पितरं पूजयित्वा
सम्पूजितो ब्राह्मणैस्तैर्यथावत् ।
प्रत्याजगामाश्रममेव चाग्र्यं
जित्वा सौतिं सहितो मातुलेन ॥ ३८ ॥
मूलम्
अष्टावक्रः पितरं पूजयित्वा
सम्पूजितो ब्राह्मणैस्तैर्यथावत् ।
प्रत्याजगामाश्रममेव चाग्र्यं
जित्वा सौतिं सहितो मातुलेन ॥ ३८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अष्टावक्र अपने पिताकी पूजा करके स्वयं भी दूसरे ब्राह्मणोंद्वारा यथोचितरूपसे सम्मानित हुए; और इस प्रकार बन्दीपर विजय पाकर पिता एवं मामाके साथ अपने श्रेष्ठ आश्रमपर ही लौट आये॥३८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततोऽष्टावक्रमातुरथान्तिके पिता
नदीं समङ्गां शीघ्रमिमां विशस्व।
प्रोवाच चैनं स तथा विवेश
समैरङ्गैश्चापि बभूव सद्यः ॥ ३९ ॥
मूलम्
ततोऽष्टावक्रमातुरथान्तिके पिता
नदीं समङ्गां शीघ्रमिमां विशस्व।
प्रोवाच चैनं स तथा विवेश
समैरङ्गैश्चापि बभूव सद्यः ॥ ३९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर पिता कहोडने अष्टावक्रकी माता सुजाताके निकट पुत्र अष्टावक्रसे कहा—‘बेटा! तुम शीघ्र ही इस ‘समंगा’ नदीमें स्नानके लिये प्रवेश करो।’ पिताकी आज्ञाके अनुसार उन्होंने उस नदीमें स्नानके लिये प्रवेश किया। उसके जलका स्पर्श होनेपर तत्काल ही उनके सब अंग सीधे हो गये॥३९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नदी समङ्गा च बभूव पुण्या
यस्यां स्नातो मुच्यते किल्बिषाद्धि।
त्वमप्येनां स्नानपानावगाहैः
सभ्रातृकः सहभार्यो विशस्व ॥ ४० ॥
मूलम्
नदी समङ्गा च बभूव पुण्या
यस्यां स्नातो मुच्यते किल्बिषाद्धि।
त्वमप्येनां स्नानपानावगाहैः
सभ्रातृकः सहभार्यो विशस्व ॥ ४० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिर! इसीसे समंगा नदी पुण्यमयी हो गयी। इसमें स्नान करनेवाला मनुष्य सब पापोंसे मुक्त हो जाता है। तुम भी स्नान, पान (आचमन) और अवगाहनके लिये अपनी पत्नी और भाइयोंके साथ इस नदीमें प्रवेश करो॥४०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अत्र कौन्तेय सहितो भ्रातृभिस्त्वं
सुखोषितः सह विप्रैः प्रतीतः।
पुण्यान्यन्यानि शुचिकर्मैकभक्ति-
र्मया सार्धं चरितस्याजमीढ ॥ ४१ ॥
मूलम्
अत्र कौन्तेय सहितो भ्रातृभिस्त्वं
सुखोषितः सह विप्रैः प्रतीतः।
पुण्यान्यन्यानि शुचिकर्मैकभक्ति-
र्मया सार्धं चरितस्याजमीढ ॥ ४१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अजमीढकुलभूषण कुन्तीनन्दन! तुम विश्वासपूर्वक अपने भाइयों और ब्राह्मणोंके साथ यहाँ एक रात सुखसे रहकर कलसे पुनः मेरे साथ पवित्र कर्मोंमें अविचल श्रद्धा-भक्ति रखते हुए दूसरे-दूसरे पुण्यतीर्थोंकी यात्रा करना॥४१॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि तीर्थयात्रापर्वणि लोमशतीर्थयात्रायामष्टावक्रीये चतुस्त्रिंशदधिकशततमोऽध्यायः ॥ १३४ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्वके अन्तर्गत तीर्थयात्रापर्वमें लोमशतीर्थयात्राके प्रसंगमें अष्टावक्रीयोपाख्यानविषयक एक सौ चौंतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१३४॥
- यहाँ अष्टावक्रजीने परोक्षरूपमें ही प्रश्नका उत्तर दिया है। भाव यह है कि दो तत्त्व, जिनको वैदिक भाषामें रयि और प्राणके नामसे कहा है (देखिये प्रश्नोपनिषद् १।४) एवं अंग्रेजीमें जिनको पोजिटिव (अनुलोम) और निगेटिव (प्रतिलोम) कहते हैं, स्वभावसे ही संयुक्त रहनेवाले हैं। इनका ही व्यक्त रूप विद्युत्-शक्ति है। उसे गर्भकी भाँति मेघ धारण किये रहता है। संघर्षसे वह प्रकट होती है और आकर्षण होनेपर बाजकी भाँति गिरती है। जहाँ गिरती है वहाँ सबको भस्म कर देती है; इसलिये यह कहा गया कि वह कभी आपके शत्रुओंके घरपर भी न पड़े। इन दो तत्त्वोंकी संयुक्त शक्तिसे ही मेघकी उत्पत्ति होती है। इसलिये यह कहा गया कि उस मेघरूप गर्भको ये उत्पन्न करते हैं।
- उक्थ नाम यज्ञविशेषमें गाये जानेयोग्य सामको औक्थ्य कहते हैं।
-
- ब्रह्मचर्य, गार्हस्थ्य, वानप्रस्थ और संन्यास। 2:- ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र। 3:- पूर्व, दक्षिण, पश्चिम तथा उत्तर। 4:- ह्रस्व, दीर्घ, प्लुत और हल्। 5:- परा, पश्यन्ती मध्यमा और वैखरी—ये वाणीके चार पैर हैं। [^६]:- आठ-आठ अक्षरके पाँच पादोंसे पंक्तिछन्दकी सिद्धि होती है। [^७]:- त्वचा, श्रोत्र, नेत्र, रसना और नासिका—ये पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ हैं। [^८]:- पंचचूड़ा अप्सराका उल्लेख महाभारतके अनुशासनपर्वमें ३८वें अध्यायमें भी आया है। [^९]:- विपाशा (व्यास), इरावती (रावी), वितस्ता (झेलम), चन्द्रभागा (चिनाव) और शतद्रू (शतलज) ये ही पञ्चनद प्रदेशकी पाँच नदियाँ हैं।
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- सप्तर्षि ये हैं—मरीचिरङ्गिराश्चात्रिः पुलस्त्यः पुलहः क्रतुः। वसिष्ठ इति सप्तैते मानसा निर्मिता हि ते॥[[(महा० शान्ति० ३४०।६९)]]‘(भगवान्ने स्वयं ब्रह्माजीसे कहा है कि) मरीचि, अंगिरा, अत्रि, पुलस्त्य, पुलह, क्रतु और वसिष्ठ—ये सातों महर्षि तुम्हारे (ब्रह्माजीके) द्वारा ही अपने मनसे रचे हुए हैं।’
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- धरो ध्रुवश्च सोमश्च अहश्चैवानिलोऽनलः। प्रत्यूषश्च प्रभासश्च वसवोऽष्टौ प्रकीर्तिताः॥ [[(महा० आदि० ६६।१८)]]’’’‘धर, ध्रुव, सोम, अह, अनिल, अनल, प्रत्यूष और प्रभास—ये आठ वसु कहे गये हैं।’’''
-
- यथा रोगी, दरिद्र, शोकार्त्त, राजदण्डित, शठ, खल, वृत्तिसे वंचित, उन्मत्त, ईर्ष्यापरायण और कामी—ये दस निन्दक होते हैं। जैसा कि निम्नांकित श्लोकसे सिद्ध होता है—‘आमयी दुर्मतः शोकी दण्डितश्च शठः खलः। नष्टवृत्तिर्मदी चेष्यीं कामी च दश निन्दकाः॥’ (इति नीतिशास्त्रोक्तिः) 5:- उन दसों अवस्थाओंके नाम इस प्रकार हैं—गर्भवास, जन्म, बाल्य, कौमार, पौगण्ड, कैशोर, यौवन, प्रौढ़, वार्द्धक्य तथा मृत्यु। [^६]:- अध्यापक, पिता, ज्येष्ठ भ्राता, राजा, मामा, श्वशुर, नाना, दादा, अपनेसे बड़ी अवस्थावाले कुटुम्बी तथा पितृव्य (चाचा-ताऊ)—ये दस पूजनीय पुरुष माने गये हैं। जैसा कि कूर्मपुराणका वचन है—उपाध्यायः पिता ज्येष्ठभ्राता चैव महीपतिः। मातुलः श्वशुरश्चैव मातामहपितामहौ॥ बन्धुर्जेष्ठः पितृव्यश्च पुंस्येते गुरवो मताः॥
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- नृसिंहपुराणमें यही बात कही गयी है—‘युयुधे विष्णुना सार्धं त्रयोदश दिनान्यसौ।’