भागसूचना
एकत्रिंशदधिकशततमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
राजा उशीनरद्वारा बाजको अपने शरीरका मांस देकर शरणमें आये हुए कबूतरके प्राणोंकी रक्षा करना
मूलम् (वचनम्)
श्येन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
धर्मात्मानं त्वाहुरेकं सर्वे राजन् महीक्षितः।
सर्वधर्मविरुद्धं त्वं कस्मात् कर्म चिकीर्षसि ॥ १ ॥
विहितं भक्षणं राजन् पीड्यमानस्य मे क्षुधा।
मा रक्षीर्धर्मलोभेन धर्ममुत्सृष्टवानसि ॥ २ ॥
मूलम्
धर्मात्मानं त्वाहुरेकं सर्वे राजन् महीक्षितः।
सर्वधर्मविरुद्धं त्वं कस्मात् कर्म चिकीर्षसि ॥ १ ॥
विहितं भक्षणं राजन् पीड्यमानस्य मे क्षुधा।
मा रक्षीर्धर्मलोभेन धर्ममुत्सृष्टवानसि ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब बाजने कहा— राजन्! समस्त भूपाल केवल आपको ही धर्मात्मा बताते हैं। फिर आप यह सम्पूर्ण धर्मोंसे विरुद्ध कर्म कैसे करना चाहते हैं। महाराज! मैं भूखसे कष्ट पा रहा हूँ और कबूतर मेरा आहार नियत किया गया है। आप धर्मके लोभसे इसकी रक्षा न करें। वास्तवमें इसे आश्रय देकर आपने धर्मका परित्याग ही किया है॥१-२॥
मूलम् (वचनम्)
राजोवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
संत्रस्तरूपस्त्राणार्थी त्वत्तो भीतो महाद्विज।
मत्सकाशमनुप्राप्तः प्राणगृध्नुरयं द्विजः ॥ ३ ॥
एवमभ्यागतस्येह कपोतस्याभयार्थिनः ।
अप्रदाने परं धर्मं कथं श्येन न पश्यसि ॥ ४ ॥
मूलम्
संत्रस्तरूपस्त्राणार्थी त्वत्तो भीतो महाद्विज।
मत्सकाशमनुप्राप्तः प्राणगृध्नुरयं द्विजः ॥ ३ ॥
एवमभ्यागतस्येह कपोतस्याभयार्थिनः ।
अप्रदाने परं धर्मं कथं श्येन न पश्यसि ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजा बोले— पक्षिराज! यह कबूतर तुमसे डरकर घबराया हुआ है और अपने प्राण बचानेकी इच्छासे मेरे समीप आया है। यह अपनी रक्षा चाहता है। बाज! इस प्रकार अभय चाहनेवाले इस कबूतरको यदि मैं तुमको नहीं सौंप रहा हूँ, यह तो परम धर्म है। इसे तुम कैसे नहीं देख रहे हो?॥३-४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रस्पन्दमानः सम्भ्रान्तः कपोतः श्येन लक्ष्यते।
मत्सकाशं जीवितार्थी तस्य त्यागो विगर्हितः ॥ ५ ॥
यो हि कश्चिद् द्विजान् हन्याद् गां वा लोकस्य मातरम्।
शरणागतं च त्यजते तुल्यं तेषां हि पातकम् ॥ ६ ॥
मूलम्
प्रस्पन्दमानः सम्भ्रान्तः कपोतः श्येन लक्ष्यते।
मत्सकाशं जीवितार्थी तस्य त्यागो विगर्हितः ॥ ५ ॥
यो हि कश्चिद् द्विजान् हन्याद् गां वा लोकस्य मातरम्।
शरणागतं च त्यजते तुल्यं तेषां हि पातकम् ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
बाज! देखो तो यह बेचारा कबूतर किस प्रकार भयसे व्याकुल हो थर-थर काँप रहा है। इसने अपने प्राणोंकी रक्षाके लिये ही मेरी शरण ली है। ऐसी दशामें इसे त्याग देना बड़ी ही निन्दाकी बात है। जो मनुष्य ब्राह्मणोंकी हत्या करता है, जो जगन्माता गौका वध करता है तथा जो शरणमें आये हुए को त्याग देता है, इन तीनोंको समान पाप लगता है॥५-६॥
मूलम् (वचनम्)
श्येन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
आहारात् सर्वभूतानि सम्भवन्ति महीपते।
आहारेण विवर्धन्ते तेन जीवन्ति जन्तवः ॥ ७ ॥
मूलम्
आहारात् सर्वभूतानि सम्भवन्ति महीपते।
आहारेण विवर्धन्ते तेन जीवन्ति जन्तवः ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
बाजने कहा— महाराज! सब प्राणी आहारसे ही उत्पन्न होते हैं, आहारसे ही उनकी वृद्धि होती है और आहारसे ही जीवित रहते हैं॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शक्यते दुस्त्यजेऽप्यर्थे चिररात्राय जीवितुम्।
न तु भोजनमुत्सृज्य शक्यं वर्तयितुं चिरम् ॥ ८ ॥
मूलम्
शक्यते दुस्त्यजेऽप्यर्थे चिररात्राय जीवितुम्।
न तु भोजनमुत्सृज्य शक्यं वर्तयितुं चिरम् ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिसको त्यागना बहुत कठिन है, उस अर्थके बिना भी मनुष्य बहुत दिनोंतक जीवित रह सकता है, परंतु भोजन छोड़ देनेपर कोई भी अधिक समयतक जीवन धारण नहीं कर सकता॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भक्ष्याद् वियोजितस्याद्य मम प्राणा विशाम्पते।
विसृज्य कायमेष्यन्ति पन्थानमकुतोभयम् ॥ ९ ॥
प्रमृते मयि धर्मात्मन् पुत्रदारादि नङ्क्ष्यति।
रक्षमाणः कपोतं त्वं बहून् प्राणान् न रक्षसि ॥ १० ॥
मूलम्
भक्ष्याद् वियोजितस्याद्य मम प्राणा विशाम्पते।
विसृज्य कायमेष्यन्ति पन्थानमकुतोभयम् ॥ ९ ॥
प्रमृते मयि धर्मात्मन् पुत्रदारादि नङ्क्ष्यति।
रक्षमाणः कपोतं त्वं बहून् प्राणान् न रक्षसि ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रजानाथ! आज आपने मुझे भोजनसे वंचित कर दिया है, इसलिये मेरे प्राण इस शरीरको छोड़कर अकुतोभय-पथ (मृत्यु)-को प्राप्त हो जायँगे। धर्मात्मन्! इस प्रकार मेरी मृत्यु हो जानेपर मेरे स्त्री-पुत्र आदि भी (असहाय होनेके कारण) नष्ट हो जायँगे। इस तरह आप एक कबूतरकी रक्षा करके बहुत-से प्राणियोंकी रक्षा नहीं कर रहे हैं॥९-१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
धर्मं यो बाधते धर्मो न स धर्मः कुधर्म तत्।
अविरोधात् तु यो धर्मः स धर्मः सत्यविक्रम ॥ ११ ॥
मूलम्
धर्मं यो बाधते धर्मो न स धर्मः कुधर्म तत्।
अविरोधात् तु यो धर्मः स धर्मः सत्यविक्रम ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सत्यपराक्रमी नरेश! जो धर्म दूसरे धर्मका बाधक हो वह धर्म नहीं, कुधर्म है। जो दूसरे किसी धर्मका विरोध न करके प्रतिष्ठित होता है वही वास्तविक धर्म है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विरोधिषु महीपाल निश्चित्य गुरुलाघवम्।
न बाधा विद्यते यत्र तं धर्मं समुपाचरेत् ॥ १२ ॥
मूलम्
विरोधिषु महीपाल निश्चित्य गुरुलाघवम्।
न बाधा विद्यते यत्र तं धर्मं समुपाचरेत् ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
परस्परविरुद्ध प्रतीत होनेवाले धर्मोंमें गौरव-लाघवका विचार करके, जिसमें दूसरोंके लिये बाधा न हो उसी धर्मका आचरण करना चाहिये॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुरुलाघवमादाय धर्माधर्मविनिश्चये ।
यतो भूयांस्ततो राजन् कुरुष्व धर्मनिश्चयम् ॥ १३ ॥
मूलम्
गुरुलाघवमादाय धर्माधर्मविनिश्चये ।
यतो भूयांस्ततो राजन् कुरुष्व धर्मनिश्चयम् ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! धर्म और अधर्मका निर्णय करते समय पुण्य और पापके गौरव-लाघवपर ही दृष्टि रखकर विचार कीजिये तथा जिसमें अधिक पुण्य हो उसीको आचरणमें लाने योग्य धर्म ठहराइये॥१३॥
मूलम् (वचनम्)
राजोवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
बहुकल्याणसंयुक्तं भाषसे विहगोत्तम ।
सुपर्णः पक्षिराट् किं त्वं धर्मज्ञश्चास्यसंशयम् ॥ १४ ॥
मूलम्
बहुकल्याणसंयुक्तं भाषसे विहगोत्तम ।
सुपर्णः पक्षिराट् किं त्वं धर्मज्ञश्चास्यसंशयम् ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजाने कहा— पक्षिश्रेष्ठ! तुम्हारी बातें अत्यन्त कल्याणमय गुणोंसे युक्त हैं। तुम साक्षात् पक्षिराज गरुड़ तो नहीं हो? इसमें संदेह नहीं कि तुम धर्मके ज्ञाता हो॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तथा हि धर्मसंयुक्तं बहु चित्रं च भाषसे।
न तेऽस्त्यविदितं किंचिदिति त्वां लक्षयाम्यहम् ॥ १५ ॥
मूलम्
तथा हि धर्मसंयुक्तं बहु चित्रं च भाषसे।
न तेऽस्त्यविदितं किंचिदिति त्वां लक्षयाम्यहम् ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तुम जो बातें कह रहे हो वे बड़ी ही विचित्र और धर्मसंगत हैं। मुझे लक्षणोंसे ऐसा जान पड़ता है कि ऐसी कोई बात नहीं है जो तुम्हें ज्ञात न हो॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शरणैषिपरित्यागं कथं साध्विति मन्यसे।
आहारार्थं समारम्भस्तव चायं विहंगम ॥ १६ ॥
मूलम्
शरणैषिपरित्यागं कथं साध्विति मन्यसे।
आहारार्थं समारम्भस्तव चायं विहंगम ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तो भी तुम शरणागतके त्यागको कैसे अच्छा मानते हो? यह मेरी समझमें नहीं आता। विहंगम! वास्तवमें तुम्हारा यह उद्योग केवल भोजन प्राप्त करनेके लिये है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शक्यश्चाप्यन्यथा कर्तुमाहारोऽप्यधिकस्त्वया ।
गोवृषो वा वराहो वा मृगो वा महिषोऽपि वा।
त्वदर्थमद्य क्रियतां यच्चान्यदिह काङ्क्षसि ॥ १७ ॥
मूलम्
शक्यश्चाप्यन्यथा कर्तुमाहारोऽप्यधिकस्त्वया ।
गोवृषो वा वराहो वा मृगो वा महिषोऽपि वा।
त्वदर्थमद्य क्रियतां यच्चान्यदिह काङ्क्षसि ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
परंतु तुम्हारे लिये आहारका प्रबन्ध तो दूसरे प्रकारसे भी किया जा सकता है और वह इस कबूतरकी अपेक्षा अधिक हो सकता है। सूअर, हिरन, भैंसा या कोई उत्तम पशु अथवा अन्य जो कोई भी वस्तु तुम्हें अभीष्ट हो वह तुम्हारे लिये प्रस्तुत की जा सकती है॥१७॥
मूलम् (वचनम्)
श्येन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
न वराहं न चोक्षाणं न मृगान् विविधांस्तथा।
भक्षयामि महाराज किं ममान्येन केनचित् ॥ १८ ॥
मूलम्
न वराहं न चोक्षाणं न मृगान् विविधांस्तथा।
भक्षयामि महाराज किं ममान्येन केनचित् ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
बाज बोला— महाराज! मैं न सूअर खाऊँगा, न कोई उत्तम पशु और न भाँति-भाँतिके मृगोंका ही आहार करूँगा। दूसरी किसी वस्तुसे भी मुझे क्या लेना है?॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यस्तु मे देवविहितो भक्षः क्षत्रियपुङ्गव।
तमुत्सृज महीपाल कपोतमिममेव मे ॥ १९ ॥
मूलम्
यस्तु मे देवविहितो भक्षः क्षत्रियपुङ्गव।
तमुत्सृज महीपाल कपोतमिममेव मे ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
क्षत्रियशिरोमणे! विधाताने मेरे लिये जो भोजन नियत किया है वह तो यह कबूतर ही है; अतः भूपाल! इसीको मेरे लिये छोड़ दीजिये॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
श्येनः कपोतानत्तीति स्थितिरेषा सनातनी।
मा राजन् सारमज्ञात्वा कदलीस्कन्धमाश्रय ॥ २० ॥
मूलम्
श्येनः कपोतानत्तीति स्थितिरेषा सनातनी।
मा राजन् सारमज्ञात्वा कदलीस्कन्धमाश्रय ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यह सनातन कालसे चला आ रहा है कि बाज कबूतरोंको खाता है। राजन्! धर्मके सारभूत तत्त्वको न जानकर आप केलेके खम्भे (-जैसे सारहीन धर्म) का आश्रय न लीजिये॥२०॥
मूलम् (वचनम्)
राजोवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
राष्ट्रं शिबीनामृद्धं वै ददानि तव खेचर।
यं वा कामयसे कामं श्येन सर्वं ददानि ते॥२१॥
मूलम्
राष्ट्रं शिबीनामृद्धं वै ददानि तव खेचर।
यं वा कामयसे कामं श्येन सर्वं ददानि ते॥२१॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजाने कहा— विहंगम! मैं शिबिदेशका समृद्धिशाली राज्य तुम्हें सौंप दूँगा, और भी जिस वस्तुकी तुम्हें इच्छा होगी वह सब दे सकता हूँ॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विनेमं पक्षिणं श्येन शरणार्थिनमागतम्।
येनेमं वर्जयेथास्त्वं कर्मणा पक्षिसत्तम।
तदाचक्ष्व करिष्यामि न हि दास्ये कपोतकम् ॥ २२ ॥
मूलम्
विनेमं पक्षिणं श्येन शरणार्थिनमागतम्।
येनेमं वर्जयेथास्त्वं कर्मणा पक्षिसत्तम।
तदाचक्ष्व करिष्यामि न हि दास्ये कपोतकम् ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
किंतु शरण लेनेकी इच्छासे आये हुए इस पक्षीको नहीं त्याग सकता। पक्षिश्रेष्ठ श्येन! जिस कामके करनेसे तुम इसे छोड़ सको, वह मुझे बताओ; मैं वही करूँगा, किंतु इस कबूतरको तो नहीं दूँगा॥२२॥
मूलम् (वचनम्)
श्येन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
उशीनर कपोते ते यदि स्नेहो नराधिप।
आत्मनो मांसमुत्कृत्य कपोततुलया धृतम् ॥ २३ ॥
यदा समं कपोतेन तव मांसं नृपोत्तम।
तदा देयं तु तन्मह्यं सा मे तुष्टिर्भविष्यति ॥ २४ ॥
मूलम्
उशीनर कपोते ते यदि स्नेहो नराधिप।
आत्मनो मांसमुत्कृत्य कपोततुलया धृतम् ॥ २३ ॥
यदा समं कपोतेन तव मांसं नृपोत्तम।
तदा देयं तु तन्मह्यं सा मे तुष्टिर्भविष्यति ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
बाज बोला— महाराज उशीनर! यदि आपका इस कबूतरपर स्नेह है तो इसीके बराबर अपना मांस काटकर तराजूमें रखिये। नृपश्रेष्ठ! जब वह तौलमें इस कबूतरके बराबर हो जाय तब वही मुझे दे दीजियेगा, उससे मेरी तृप्ति हो जायगी॥२३-२४॥
सूचना (हिन्दी)
राजा शिबिका कबूतरकी रक्षाके लिये बाजको अपने शरीरका मांस काटकर देना
मूलम् (वचनम्)
राजोवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनुग्रहमिमं मन्ये श्येन यन्माभियाचसे।
तस्मात् तेऽद्य प्रदास्यामि स्वमांसं तुलया धृतम् ॥ २५ ॥
मूलम्
अनुग्रहमिमं मन्ये श्येन यन्माभियाचसे।
तस्मात् तेऽद्य प्रदास्यामि स्वमांसं तुलया धृतम् ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजाने कहा— बाज! तुम जो मेरा मांस माँग रहे हो इसे मैं अपने ऊपर तुम्हारी बहुत बड़ी कृपा मानता हूँ, अतः मैं अभी अपना मांस तराजूपर रखकर तुम्हें दिये देता हूँ॥२५॥
मूलम् (वचनम्)
लोमश उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
उत्कृत्य स स्वयं मांसं राजा परमधर्मवित्।
तोलयामास कौन्तेय कपोतेन समं विभो ॥ २६ ॥
मूलम्
उत्कृत्य स स्वयं मांसं राजा परमधर्मवित्।
तोलयामास कौन्तेय कपोतेन समं विभो ॥ २६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
लोमशजी कहते हैं— कुन्तीनन्दन! तत्पश्चात् परम धर्मज्ञ राजा उशीनरने स्वयं अपना मांस काटकर उस कबूतरके साथ तौलना आरम्भ किया॥२६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ध्रियमाणः कपोतस्तु मांसेनात्यतिरिच्यते ।
पुनश्चोत्कृत्य मांसानि राजा प्रादादुशीनरः ॥ २७ ॥
न विद्यते यदा मांसं कपोतेन समं धृतम्।
तत उत्कृत्तमांसोऽसावारुरोह स्वयं तुलाम् ॥ २८ ॥
मूलम्
ध्रियमाणः कपोतस्तु मांसेनात्यतिरिच्यते ।
पुनश्चोत्कृत्य मांसानि राजा प्रादादुशीनरः ॥ २७ ॥
न विद्यते यदा मांसं कपोतेन समं धृतम्।
तत उत्कृत्तमांसोऽसावारुरोह स्वयं तुलाम् ॥ २८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
किंतु दूसरे पलड़ेमें रखा हुआ कबूतर उस मांसकी अपेक्षा अधिक भारी निकला, तब महाराज उशीनरने पुनः अपना मांस काटकर चढ़ाया। इस प्रकार बार-बार करनेपर भी जब वह मांस कबूतरके बराबर न हुआ, तब सारा मांस काट लेनेके पश्चात् वे स्वयं ही तराजूपर चढ़ गये॥२७-२८॥
मूलम् (वचनम्)
श्येन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
इन्द्रोऽहमस्मि धर्मज्ञ कपोतो हव्यवाडयम्।
जिज्ञासमानौ धर्मं त्वां यज्ञवाटमुपागतौ ॥ २९ ॥
मूलम्
इन्द्रोऽहमस्मि धर्मज्ञ कपोतो हव्यवाडयम्।
जिज्ञासमानौ धर्मं त्वां यज्ञवाटमुपागतौ ॥ २९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
बाज बोला— धर्मज्ञ नरेश! मैं इन्द्र हूँ और यह कबूतर साक्षात् अग्निदेव हैं। हम दोनों आपके धर्मकी परीक्षा लेनेके लिये इस यज्ञशालामें आपके निकट आये थे॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यत् ते मांसानि गात्रेभ्य उत्कृत्तानि विशाम्पते।
एषा ते भास्वती कीर्तिर्लोकानभिभविष्यति ॥ ३० ॥
मूलम्
यत् ते मांसानि गात्रेभ्य उत्कृत्तानि विशाम्पते।
एषा ते भास्वती कीर्तिर्लोकानभिभविष्यति ॥ ३० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रजानाथ! आपने अपने अंगोंसे जो मांस काटकर चढ़ाये हैं, उससे फैली हुई आपकी प्रकाशमान कीर्ति सम्पूर्ण लोगोंसे बढ़कर होगी॥३०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यावल्लोके मनुष्यास्त्वां कथयिष्यन्ति पार्थिव।
तावत् कीर्तिश्च लोकाश्च स्थास्यन्ति तव शाश्वताः ॥ ३१ ॥
मूलम्
यावल्लोके मनुष्यास्त्वां कथयिष्यन्ति पार्थिव।
तावत् कीर्तिश्च लोकाश्च स्थास्यन्ति तव शाश्वताः ॥ ३१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! संसारके मनुष्य इस जगत्में जबतक आपकी चर्चा करेंगे, तबतक आपकी कीर्ति और सनातन लोक स्थिर रहेंगे॥३१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्येवमुक्त्वा राजानमारुरोह दिवं पुनः।
उशीनरोऽपि धर्मात्मा धर्मेणावृत्य रोदसी ॥ ३२ ॥
विभ्राजमानो वपुषाप्यारुरोह त्रिविष्टपम् ।
तदेतत् सदनं राजन् राज्ञस्तस्य महात्मनः ॥ ३३ ॥
पश्यस्वैतन्मया सार्धं पुण्यं पापप्रमोचनम्।
तत्र वै सततं देवा मुनयश्च सनातनाः।
दृश्यन्ते ब्राह्मणै राजन् पुण्यवद्भिर्महात्मभिः ॥ ३४ ॥
मूलम्
इत्येवमुक्त्वा राजानमारुरोह दिवं पुनः।
उशीनरोऽपि धर्मात्मा धर्मेणावृत्य रोदसी ॥ ३२ ॥
विभ्राजमानो वपुषाप्यारुरोह त्रिविष्टपम् ।
तदेतत् सदनं राजन् राज्ञस्तस्य महात्मनः ॥ ३३ ॥
पश्यस्वैतन्मया सार्धं पुण्यं पापप्रमोचनम्।
तत्र वै सततं देवा मुनयश्च सनातनाः।
दृश्यन्ते ब्राह्मणै राजन् पुण्यवद्भिर्महात्मभिः ॥ ३४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजासे ऐसा कहकर इन्द्र फिर देवलोकमें चले गये तथा धर्मात्मा राजा उशीनर भी अपने धर्मसे पृथ्वी और आकाशको व्याप्त कर देदीप्यमान शरीर धारण करके स्वर्गलोकमें चले गये। राजन्! यही उन महात्मा राजा उशीनरका आश्रम है जो पुण्यजनक होनेके साथ ही समस्त पापोंसे छुटकारा दिलानेवाला है। तुम मेरे साथ इस पवित्र आश्रमका दर्शन करो। महाराज! वहाँ पुण्यात्मा महात्मा ब्राह्मणोंको सदा सनातन देवता तथा मुनियोंका दर्शन होता रहता है॥३२-३४॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि तीर्थयात्रापर्वणि लोमशतीर्थयात्रायां श्येनकपोतीये एकत्रिंशदधिकशततमोऽध्यायः ॥ १३१ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्वके अन्तर्गत तीर्थयात्रापर्वमें लोमशतीर्थयात्राके प्रसंगमें श्येनकपोतीयोपाख्यानविषयक एक सौ इकतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१३१॥