भागसूचना
त्रिंशदधिकशततमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
विभिन्न तीर्थोंकी महिमा और राजा उशीनरकी कथाका आरम्भ
मूलम् (वचनम्)
लोमश उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
इह मर्त्यास्तनूस्त्यक्त्वा स्वर्गं गच्छन्ति भारत।
मर्तुकामा नरा राजन्निहायान्ति सहस्रशः ॥ १ ॥
मूलम्
इह मर्त्यास्तनूस्त्यक्त्वा स्वर्गं गच्छन्ति भारत।
मर्तुकामा नरा राजन्निहायान्ति सहस्रशः ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
लोमशजी कहते हैं— भारत! यहाँ शरीर छूट जानेपर मनुष्य स्वर्गलोकमें जाते हैं; इसलिये हजारों इस तीर्थमें मरनेके लिये आकर निवास करते हैं॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमाशीः प्रयुक्ता हि दक्षेण यजता पुरा।
इह ये वै मरिष्यन्ति ते वै स्वर्गजितो नराः॥२॥
एषा सरस्वती रम्या दिव्या चौघवती नदी।
एतद् विनशनं नाम सरस्वत्या विशाम्पते ॥ ३ ॥
मूलम्
एवमाशीः प्रयुक्ता हि दक्षेण यजता पुरा।
इह ये वै मरिष्यन्ति ते वै स्वर्गजितो नराः॥२॥
एषा सरस्वती रम्या दिव्या चौघवती नदी।
एतद् विनशनं नाम सरस्वत्या विशाम्पते ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्राचीनकालमें प्रजापति दक्षने यज्ञ करते समय यह आशीर्वाद दिया था कि जो मनुष्य यहाँ मरेंगे वे स्वर्गलोकपर अधिकार प्राप्त कर लेंगे। यह रमणीय, दिव्य और तीव्र प्रवाहवाली सरस्वती नदी है और यह सरस्वतीका विनशन नामक तीर्थ है॥२-३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
द्वारं निषादराष्ट्रस्य येषां दोषात् सरस्वती।
प्रविष्टा पृथिवीं वीर मा निषादा हि मां विदुः॥४॥
एष वै चमसोद्भेदो यत्र दृश्या सरस्वती।
यत्रैनामभ्यवर्तन्त सर्वाः पुण्याः समुद्रगाः ॥ ५ ॥
मूलम्
द्वारं निषादराष्ट्रस्य येषां दोषात् सरस्वती।
प्रविष्टा पृथिवीं वीर मा निषादा हि मां विदुः॥४॥
एष वै चमसोद्भेदो यत्र दृश्या सरस्वती।
यत्रैनामभ्यवर्तन्त सर्वाः पुण्याः समुद्रगाः ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यह निषादराजका द्वार है। वीर युधिष्ठिर! उन निषादोंके ही संसर्गदोषसे सरस्वती नदी यहाँ इसलिये पृथ्वीके भीतर प्रविष्ट हो गयी कि निषाद मुझे जान न सकें। यह चमसोद्भेदतीर्थ है; जहाँ सरस्वती पुनः प्रकट हो गयी है। यहाँ समुद्रमें मिलनेवाली सम्पूर्ण पवित्र नदियाँ इसके सम्मुख आयी हैं॥४-५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतत् सिन्धोर्महत् तीर्थं यत्रागस्त्यमरिंदम।
लोपामुद्रा समागम्य भर्तारमवृणीत वै ॥ ६ ॥
मूलम्
एतत् सिन्धोर्महत् तीर्थं यत्रागस्त्यमरिंदम।
लोपामुद्रा समागम्य भर्तारमवृणीत वै ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
शत्रुदमन! यह सिन्धुका महान् तीर्थ है; जहाँ जाकर लोपामुद्राने अपने पति अगस्त्यमुनिका वरण किया था॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतत् प्रकाशते तीर्थं प्रभासं भास्करद्युते।
इन्द्रस्य दयितं पुण्यं पवित्रं पापनाशनम् ॥ ७ ॥
मूलम्
एतत् प्रकाशते तीर्थं प्रभासं भास्करद्युते।
इन्द्रस्य दयितं पुण्यं पवित्रं पापनाशनम् ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सूर्यके समान तेजस्वी नरेश! यह प्रभासतीर्थ1 प्रकाशित हो रहा है, जो इन्द्रको बहुत प्रिय है। यह पुण्यमय क्षेत्र सब पापोंका नाश करनेवाला और परम पवित्र है॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतद् विष्णुपदं नाम दृश्यते तीर्थमुत्तमम्।
एषा रम्या विपाशा च नदी परमपावनी ॥ ८ ॥
अत्र वै पुत्रशोकेन वसिष्ठो भगवानृषिः।
बद्ध्वाऽऽत्मानं निपतितो विपाशः पुनरुत्थितः ॥ ९ ॥
मूलम्
एतद् विष्णुपदं नाम दृश्यते तीर्थमुत्तमम्।
एषा रम्या विपाशा च नदी परमपावनी ॥ ८ ॥
अत्र वै पुत्रशोकेन वसिष्ठो भगवानृषिः।
बद्ध्वाऽऽत्मानं निपतितो विपाशः पुनरुत्थितः ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यह विष्णुपद नामवाला उत्तम तीर्थ दिखायी देता है तथा यह परम पावन और मनोरम विपाशा (व्यास) नदी है। यहीं भगवान् वसिष्ठ मुनि पुत्रशोकसे पीड़ित हो अपने शरीरको पाशोंसे बाँधकर कूद पड़े थे, परंतु पुनः विपाश (पाशमुक्त) होकर जलसे बाहर निकल आये॥८-९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
काश्मीरमण्डलं चैतत् सर्वपुण्यमरिंदम ।
महर्षिभिश्चाध्युषितं पश्येदं भ्रातृभिः सह ॥ १० ॥
यत्रोत्तराणां सर्वेषामृषीणां नाहुषस्य च।
अग्नेश्चैवात्र संवादः काश्यपस्य च भारत ॥ ११ ॥
मूलम्
काश्मीरमण्डलं चैतत् सर्वपुण्यमरिंदम ।
महर्षिभिश्चाध्युषितं पश्येदं भ्रातृभिः सह ॥ १० ॥
यत्रोत्तराणां सर्वेषामृषीणां नाहुषस्य च।
अग्नेश्चैवात्र संवादः काश्यपस्य च भारत ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
शत्रुदमन! यह पुण्यमय काश्मीरमण्डल है, जहाँ बहुत-से महर्षि निवास करते हैं। तुम भाइयोंसहित इसका दर्शन करो। भारत! यह वही स्थान है जहाँ उत्तरके समस्त ऋषि, नहुषकुमार ययाति, अग्नि और काश्यपका संवाद हुआ था॥१०-११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतद् द्वारं महाराज मानसस्य प्रकाशते।
वर्षमस्य गिरेर्मध्ये रामेण श्रीमता कृतम् ॥ १२ ॥
मूलम्
एतद् द्वारं महाराज मानसस्य प्रकाशते।
वर्षमस्य गिरेर्मध्ये रामेण श्रीमता कृतम् ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाराज! यह मानससरोवरका द्वार प्रकाशित हो रहा है। इस पर्वतके मध्यभागमें परशुरामजीने अपना आश्रम बनाया था॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एष वातिकषण्डो वै प्रख्यातः सत्यविक्रमः।
नात्यवर्तत यद्द्वारं विदेहादुत्तरं च यः ॥ १३ ॥
मूलम्
एष वातिकषण्डो वै प्रख्यातः सत्यविक्रमः।
नात्यवर्तत यद्द्वारं विदेहादुत्तरं च यः ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिर! परशुरामजी सर्वत्र विख्यात हैं। वे सत्यपराक्रमी हैं। उनके इस आश्रमका द्वार विदेह देशसे उत्तर है। यह बवंडर (वायुका तूफान) भी उनके इस द्वारका कभी उल्लंघन नहीं कर सकता है (फिर औरोंकी तो बात ही क्या है)॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इदमाश्चर्यमपरं देशेऽस्मिन् पुरुषर्षभ ।
क्षीणे युगे तु कौन्तेय शर्वस्य सह पार्षदैः ॥ १४ ॥
सहोमया च भवति दर्शनं कामरूपिणः।
अस्मिन् सरसि सत्रैर्वै चैत्रे मासि पिनाकिनम् ॥ १५ ॥
यजन्ते याजकाः सम्यक् परिवारं शुभार्थिनः।
अत्रोपस्पृश्य सरसि श्रद्दधानो जितेन्द्रियः ॥ १६ ॥
क्षीणपापः शुभाल्लोँकान् प्राप्नुते नात्र संशयः।
एष उज्जानको नाम पावकिर्यत्र शान्तवान्।
अरुन्धतीसहायश्च वसिष्ठो भगवानृषिः ॥ १७ ॥
मूलम्
इदमाश्चर्यमपरं देशेऽस्मिन् पुरुषर्षभ ।
क्षीणे युगे तु कौन्तेय शर्वस्य सह पार्षदैः ॥ १४ ॥
सहोमया च भवति दर्शनं कामरूपिणः।
अस्मिन् सरसि सत्रैर्वै चैत्रे मासि पिनाकिनम् ॥ १५ ॥
यजन्ते याजकाः सम्यक् परिवारं शुभार्थिनः।
अत्रोपस्पृश्य सरसि श्रद्दधानो जितेन्द्रियः ॥ १६ ॥
क्षीणपापः शुभाल्लोँकान् प्राप्नुते नात्र संशयः।
एष उज्जानको नाम पावकिर्यत्र शान्तवान्।
अरुन्धतीसहायश्च वसिष्ठो भगवानृषिः ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नरश्रेष्ठ! इस देशमें दूसरी आश्चर्यकी बात यह है कि यहाँ निवास करनेवाले साधकको युगके अन्तमें पार्षदों तथा पार्वतीसहित इच्छानुसार रूप धारण करनेवाले भगवान् शंकरका प्रत्यक्ष दर्शन होता है। इस सरोवरके तटपर चैत्र मासमें कल्याणकामी याजक पुरुष अनेक प्रकारके यज्ञोंद्वारा परिवारसहित पिनाकधारी भगवान् शिवकी आराधना करते हैं। इस तालाबमें श्रद्धापूर्वक स्नान एवं आचमन करके पापमुक्त हुआ जितेन्द्रिय पुरुष शुभ लोकोंमें जाता है; इसमें संशय नहीं है। यह सरोवर उज्जानक नामसे प्रसिद्ध है। यहाँ भगवान् स्कन्द तथा अरुन्धतीसहित महर्षि वसिष्ठने साधना करके सिद्धि एवं शान्ति प्राप्त की है॥१४—१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ह्रदश्च कुशवानेष यत्र पद्मं कुशेशयम्।
आश्रमश्चैव रुक्मिण्या यत्राशाम्यदकोपना ॥ १८ ॥
मूलम्
ह्रदश्च कुशवानेष यत्र पद्मं कुशेशयम्।
आश्रमश्चैव रुक्मिण्या यत्राशाम्यदकोपना ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यह कुशवान् नामक हृद है, जिसमें कुशेशय नामवाले कमल खिले रहते हैं। यहीं रुक्मिणीदेवीका आश्रम है जहाँ उन्होंने क्रोधको जीतकर शान्तिका लाभ किया था॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
समाधीनां समासस्तु पाण्डवेय श्रुतस्त्वया।
तं द्रक्ष्यसि महाराज भृगुतुङ्गं महागिरिम् ॥ १९ ॥
मूलम्
समाधीनां समासस्तु पाण्डवेय श्रुतस्त्वया।
तं द्रक्ष्यसि महाराज भृगुतुङ्गं महागिरिम् ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पाण्डुनन्दन! महाराज! तुमने जिसके विषयमें यह सुन रखा है कि वह योगसिद्धिका संक्षिप्त स्वरूप है—जिसके दर्शनमात्रसे समाधिरूप फलकी प्राप्ति हो जाती है, उस भृगुतुंग नामक महान् पर्वतका अब तुम दर्शन करोगे॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वितस्तां पश्य राजेन्द्र सर्वपापप्रमोचनीम्।
महर्षिभिश्चाध्युषितां शीततोयां सुनिर्मलाम् ॥ २० ॥
मूलम्
वितस्तां पश्य राजेन्द्र सर्वपापप्रमोचनीम्।
महर्षिभिश्चाध्युषितां शीततोयां सुनिर्मलाम् ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजेन्द्र! वितस्ता (झेलम) नदीका दर्शन करो जो सब पापोंसे मुक्त करनेवाली है। इसका जल बहुत शीतल और अत्यन्त निर्मल है। इसके तटपर बहुत-से महर्षिगण निवास करते हैं॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जलां चोपजलां चैव यमुनामभितो नदीम्।
उशीनरो वै यत्रेष्ट्वा वासवादत्यरिच्यत ॥ २१ ॥
मूलम्
जलां चोपजलां चैव यमुनामभितो नदीम्।
उशीनरो वै यत्रेष्ट्वा वासवादत्यरिच्यत ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यमुना नदीके दोनों पार्श्वमें जला और उपजला नामकी दो नदियोंका दर्शन करो, जहाँ राजा उशीनरने यज्ञ करके इन्द्रसे भी ऊँचा स्थान प्राप्त किया था॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तां देवसमितिं तस्य वासवश्च विशाम्पते।
अभ्यागच्छन्नृपवरं ज्ञातुमग्निश्च भारत ॥ २२ ॥
मूलम्
तां देवसमितिं तस्य वासवश्च विशाम्पते।
अभ्यागच्छन्नृपवरं ज्ञातुमग्निश्च भारत ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाराज भरतनन्दन! नृपश्रेष्ठ उशीनरके महत्त्वको समझनेके लिये किसी समय इन्द्र और अग्नि उनकी राजसभामें गये॥२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जिज्ञासमानौ वरदौ महात्मानमुशीनरम् ।
इन्द्रः श्येनः कपोतोऽग्निर्भूत्वा यज्ञेऽभिजग्मतुः ॥ २३ ॥
मूलम्
जिज्ञासमानौ वरदौ महात्मानमुशीनरम् ।
इन्द्रः श्येनः कपोतोऽग्निर्भूत्वा यज्ञेऽभिजग्मतुः ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे दोनों वरदायक महात्मा उस समय उशीनरकी परीक्षा लेना चाहते थे; अतः इन्द्रने बाज पक्षीका रूप धारण किया और अग्निने कबूतरका। इस प्रकार वे राजाके यज्ञमण्डपमें गये॥२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ऊरू राज्ञः समासाद्य कपोतः श्येनजाद् भयात्।
शरणार्थी तदा राजन् निलिल्ये भयपीडितः ॥ २४ ॥
मूलम्
ऊरू राज्ञः समासाद्य कपोतः श्येनजाद् भयात्।
शरणार्थी तदा राजन् निलिल्ये भयपीडितः ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अपनी रक्षाके लिये आश्रय चाहनेवाला कबूतर बाजके भयसे डरकर राजाकी गोदीमें जा छिपा॥२४॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि तीर्थयात्रापर्वणि लोमशतीर्थयात्रायां श्येनकपोतीये त्रिंशदधिकशततमोऽध्यायः ॥ १३० ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्वके अन्तर्गत तीर्थयात्रापर्वमें लोमशतीर्थयात्राके प्रसंगमें श्येनकपोतीयोपाख्यानविषयक एक सौ तीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१३०॥
-
‘प्रभास’ की जगह ‘हाटक’ पाठभेद भी मिलता है। ↩︎