१२९ सरस्वतीतीर्थमहिमा

भागसूचना

एकोनत्रिंशदधिकशततमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

कुरुक्षेत्रके द्वारभूत प्लक्षप्रस्रवण नामक यमुनातीर्थ एवं सरस्वतीतीर्थकी महिमा

मूलम् (वचनम्)

लोमश उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

अस्मिन् किल स्वयं राजन्निष्टवान् वै प्रजापतिः।
सत्रमिष्टीकृतं नाम पुरा वर्षसहस्रिकम् ॥ १ ॥

मूलम्

अस्मिन् किल स्वयं राजन्निष्टवान् वै प्रजापतिः।
सत्रमिष्टीकृतं नाम पुरा वर्षसहस्रिकम् ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

लोमशजी कहते हैं— युधिष्ठिर! पूर्वकालमें यहाँ साक्षात् प्रजापतिने इष्टीकृत नामक सत्रका एक सहस्र वर्षोंतक चालू रहनेवाला अनुष्ठान किया था॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अम्बरीषश्च नाभाग इष्टवान् यमुनामनु।
यत्रेष्ट्वा दश पद्मानि सदस्येभ्योऽभिसृष्टवान् ॥ २ ॥
यज्ञैश्च तपसा चैव परां सिद्धिमवाप सः।

मूलम्

अम्बरीषश्च नाभाग इष्टवान् यमुनामनु।
यत्रेष्ट्वा दश पद्मानि सदस्येभ्योऽभिसृष्टवान् ॥ २ ॥
यज्ञैश्च तपसा चैव परां सिद्धिमवाप सः।

अनुवाद (हिन्दी)

यहीं यमुनाके तटपर नाभागपुत्र अम्बरीषने भी यज्ञ किया था और यज्ञ पूर्ण होनेके पश्चात् सदस्योंको दस पद्म मुद्राएँ दान की थीं तथा यज्ञों और तपस्याद्वारा परम सिद्धि प्राप्त कर ली थीं॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

देशश्च नाहुषस्यायं यज्वनः पुण्यकर्मणः ॥ ३ ॥
सार्वभौमस्य कौन्तेय ययातेरमितौजसः ।
स्पर्धमानस्य शक्रेण तस्येदं यज्ञवास्त्विह ॥ ४ ॥

मूलम्

देशश्च नाहुषस्यायं यज्वनः पुण्यकर्मणः ॥ ३ ॥
सार्वभौमस्य कौन्तेय ययातेरमितौजसः ।
स्पर्धमानस्य शक्रेण तस्येदं यज्ञवास्त्विह ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कुन्तीनन्दन! यह नहुषकुमार ययातिका देश है, जो पुण्यकर्मा, याज्ञिक, महातेजस्वी और सार्वभौम सम्राट् थे। वे सदा इन्द्रके साथ ईर्ष्या रखते थे। यहाँ यह उन्हींकी यज्ञभूमि है॥३-४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पश्य नानाविधाकारैरग्निभिर्निचितां महीम् ।
मज्जन्तीमिव चाक्रान्तां ययातेर्यज्ञकर्मभिः ॥ ५ ॥

मूलम्

पश्य नानाविधाकारैरग्निभिर्निचितां महीम् ।
मज्जन्तीमिव चाक्रान्तां ययातेर्यज्ञकर्मभिः ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

देखो, यहाँ अग्नियोंसे युक्त नाना प्रकारकी वेदियाँ हैं, जिनसे यह सारी भूमि व्याप्त हो रही है; मानो पृथ्वी ययातिके यज्ञकर्मोंसे आक्रान्त हो उनकी पुण्य-धारामें डूबी जा रही है॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एषा शम्येकपत्रा या सरकं चैतदुत्तमम्।
पश्य रामह्रदानेतान् पश्य नारायणाश्रमम् ॥ ६ ॥

मूलम्

एषा शम्येकपत्रा या सरकं चैतदुत्तमम्।
पश्य रामह्रदानेतान् पश्य नारायणाश्रमम् ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यह एक पत्तेवाली शमीका अवशेष अंश है तथा यह उत्तम सरोवर है। देखो, ये परशुरामजीके कुण्ड हैं और यह नारायणाश्रम है॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतच्चर्चीकपुत्रस्य योगैर्विचरतो महीम् ।
प्रसर्पणं महीपाल रौप्यायाममितौजसः ॥ ७ ॥

मूलम्

एतच्चर्चीकपुत्रस्य योगैर्विचरतो महीम् ।
प्रसर्पणं महीपाल रौप्यायाममितौजसः ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाराज! योगशक्तिसे सारी पृथ्वीपर विचरनेवाले महातेजस्वी ऋचीकनन्दन जमदग्निका प्रसर्पण (घूमने-फिरनेका स्थान) तीर्थ है जो रौप्या नामक नदीके समीप सुशोभित है॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अत्रानुवंशं पठतः शृणु मे कुरुनन्दन।
उलूखलैराभरणैः पिशाची यदभाषत ॥ ८ ॥

मूलम्

अत्रानुवंशं पठतः शृणु मे कुरुनन्दन।
उलूखलैराभरणैः पिशाची यदभाषत ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कुरुनन्दन! इस तीर्थके विषयमें एक परम्परा-प्राप्त कथाको सूचित करनेवाले कुछ श्लोक हैं जिन्हें मैं पढ़ता हूँ, तुम मेरे मुखसे सुनो—(प्राचीनकालकी बात है, कोई स्त्री अपने पुत्रके साथ इस तीर्थमें निवास करनेके लिये आयी थी, उससे) एक भयंकर पिशाचीने, जिसने ओखली-जैसे आभूषण पहन रखे थे, उन श्लोकोंको कहा था—॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

युगन्धरे दधि प्राश्य उषित्वा चाच्युतस्थले।
तद्वद् भूतलये स्नात्वा सपुत्रा वस्तुमर्हसि ॥ ९ ॥

मूलम्

युगन्धरे दधि प्राश्य उषित्वा चाच्युतस्थले।
तद्वद् भूतलये स्नात्वा सपुत्रा वस्तुमर्हसि ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्लोक (का भाव) इस प्रकार है—‘अरी! तू युगन्धरमें दही खाकर[^*] अच्युतस्थलमें निवास करके1 और भूतलयमें नहाकर2 यहाँ पुत्रसहित निवास करनेकी अधिकारिणी कैसे हो सकती है?॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एकरात्रमुषित्वेह द्वितीयं यदि वत्स्यसि।
एतद् वै ते दिवावृत्तं रात्रौ वृत्तमतोऽन्यथा ॥ १० ॥

मूलम्

एकरात्रमुषित्वेह द्वितीयं यदि वत्स्यसि।
एतद् वै ते दिवावृत्तं रात्रौ वृत्तमतोऽन्यथा ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘(अच्छा, आयी है तो एक रात रह ले,) यदि एक रात यहाँ रह लेनेके पश्चात् दूसरी रातमें भी रहेगी तो दिनमें तो तेरा यह हाल है (आज दिनमें तो तुमको यह कष्ट दिया गया है) और रातमें तेरे साथ अन्यथा बर्ताव होगा (विशेष कष्ट दिया जायगा)’॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अद्य चात्र निवत्स्यामः क्षपां भरतसत्तम।
द्वारमेतत् तु कौन्तेय कुरुक्षेत्रस्य भारत ॥ ११ ॥

मूलम्

अद्य चात्र निवत्स्यामः क्षपां भरतसत्तम।
द्वारमेतत् तु कौन्तेय कुरुक्षेत्रस्य भारत ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतश्रेष्ठ! (इस किंवदन्तीके अनुसार किसीको भी यहाँ एक ही रात रहना चाहिये) अतः हमलोग केवल आजकी रातमें ही यहाँ निवास करेंगे। युधिष्ठिर! यह तीर्थ कुरुक्षेत्रका द्वार बताया गया है॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अत्रैव नाहुषो राजा राजन् क्रतुभिरिष्टवान्।
ययातिर्बहुरत्नौघैर्यत्रेन्द्रो मुदमभ्यगात् ॥ १२ ॥

मूलम्

अत्रैव नाहुषो राजा राजन् क्रतुभिरिष्टवान्।
ययातिर्बहुरत्नौघैर्यत्रेन्द्रो मुदमभ्यगात् ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! नहुषनन्दन राजा ययातिने यहीं प्रचुर रत्नराशिकी दक्षिणासे युक्त अनेक यज्ञोंद्वारा भगवान्‌का यजन किया था। उन यज्ञोंमें इन्द्रको बड़ी प्रसन्नता हुई थी॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतत् प्लक्षावतरणं यमुनातीर्थमुत्तमम् ।
एतद् वै नाकपृष्ठस्य द्वारमाहुर्मनीषिणः ॥ १३ ॥

मूलम्

एतत् प्लक्षावतरणं यमुनातीर्थमुत्तमम् ।
एतद् वै नाकपृष्ठस्य द्वारमाहुर्मनीषिणः ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यह यमुनाजीका प्लक्षावतरण नामक उत्तम तीर्थ है। मनीषी पुरुष इसे स्वर्गलोकका द्वार बताते हैं॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अत्र सारस्वतैर्यज्ञैरीजानाः परमर्षयः ।
यूपोलूखलिकास्तात गच्छन्त्यवभृथप्लवम् ॥ १४ ॥

मूलम्

अत्र सारस्वतैर्यज्ञैरीजानाः परमर्षयः ।
यूपोलूखलिकास्तात गच्छन्त्यवभृथप्लवम् ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यहीं यूप और ओखली आदि यज्ञ-साधनोंका संग्रह करनेवाले महर्षियोंने सारस्वत यज्ञोंका अनुष्ठान करके अवभृथ स्नान किया था॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अत्र वै भरतो राजा राजन् क्रतुभिरिष्टवान्।
हयमेधेन यज्ञेन मेध्यमश्वमवासृजत् ॥ १५ ॥
असकृत् कृष्णसारङ्गं धर्मेणाप्य च मेदिनीम्।
अत्रैव पुरुषव्याघ्र मरुत्तः सत्रमुत्तमम् ॥ १६ ॥
प्राप चैवर्षिमुख्येन संवर्तेनाभिपालितः ।
अत्रोपस्पृश्य राजेन्द्र सर्वाल्लोँकान् प्रपश्यति।
पूयते दुष्कृताच्चैव अत्रापि समुपस्पृश ॥ १७ ॥

मूलम्

अत्र वै भरतो राजा राजन् क्रतुभिरिष्टवान्।
हयमेधेन यज्ञेन मेध्यमश्वमवासृजत् ॥ १५ ॥
असकृत् कृष्णसारङ्गं धर्मेणाप्य च मेदिनीम्।
अत्रैव पुरुषव्याघ्र मरुत्तः सत्रमुत्तमम् ॥ १६ ॥
प्राप चैवर्षिमुख्येन संवर्तेनाभिपालितः ।
अत्रोपस्पृश्य राजेन्द्र सर्वाल्लोँकान् प्रपश्यति।
पूयते दुष्कृताच्चैव अत्रापि समुपस्पृश ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! राजा भरतने धर्मपूर्वक वसुधाका राज्य पाकर यहीं बहुत-से यज्ञ किये थे और यहीं अश्वमेधयज्ञके उद्देश्यसे उन्होंने अनेक बार कृष्णमृगके समान रंगवाले यज्ञसम्बन्धी श्यामकर्ण अश्वको भूतलपर भ्रमणके लिये छोड़ा था। नरश्रेष्ठ! इसी तीर्थमें ऋषिप्रवर संवर्तसे सुरक्षित हो महाराज मरुत्तने उत्तम यज्ञका अनुष्ठान किया। राजेन्द्र! यहाँ स्नान करके शुद्ध हुआ मनुष्य सम्पूर्ण लोकोंको प्रत्यक्ष देखता है और पापसे मुक्त हो पवित्र हो जाता है; अतः तुम इसमें भी स्नान करो॥१५—१७॥

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत्र सभ्रातृकः स्नात्वा स्तूयमानो महर्षिभिः।
लोमशं पाण्डवश्रेष्ठ इदं वचनमब्रवीत् ॥ १८ ॥

मूलम्

तत्र सभ्रातृकः स्नात्वा स्तूयमानो महर्षिभिः।
लोमशं पाण्डवश्रेष्ठ इदं वचनमब्रवीत् ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! तदनन्तर भाइयोंसहित स्नान करके महर्षियोंद्वारा प्रशंसित हो पाण्डवश्रेष्ठ युधिष्ठिरने लोमशजीसे इस प्रकार कहा—॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सर्वाल्लोँकान् प्रपश्यामि तपसा सत्यविक्रम।
इहस्थः पाण्डवश्रेष्ठं पश्यामि श्वेतवाहनम् ॥ १९ ॥

मूलम्

सर्वाल्लोँकान् प्रपश्यामि तपसा सत्यविक्रम।
इहस्थः पाण्डवश्रेष्ठं पश्यामि श्वेतवाहनम् ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘मुनीश्वर! तपोबलसे सम्पन्न होनेके कारण वस्तुतः आप ही यथार्थ पराक्रमी हैं। आपकी कृपासे आज मैं इस प्लक्षावतरणके जलमें स्थित होकर सब लोकोंको प्रत्यक्ष देख रहा हूँ। यहींसे मुझे पाण्डवश्रेष्ठ श्वेतवाहन अर्जुन भी दिखायी देते हैं॥१९॥

मूलम् (वचनम्)

लोमश उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमेतन्महाबाहो पश्यन्ति परमर्षयः ।
(इह स्नात्वा तपोयुक्तांस्त्रील्लोँकान् सचराचरान्)
सरस्वतीमिमां पुण्यां पुण्यैकशरणावृताम् ॥ २० ॥

मूलम्

एवमेतन्महाबाहो पश्यन्ति परमर्षयः ।
(इह स्नात्वा तपोयुक्तांस्त्रील्लोँकान् सचराचरान्)
सरस्वतीमिमां पुण्यां पुण्यैकशरणावृताम् ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

लोमशजीने कहा— महाबाहो! तुम ठीक कहते हो। यहाँ स्नान करके तपःशक्तिसम्पन्न श्रेष्ठ ऋषिगण इसी प्रकार चराचर प्राणियोंसहित तीनों लोकोंका दर्शन करते हैं। अब इस पुण्यसलिला सरस्वतीका दर्शन करो जो एकमात्र पुण्यका ही आश्रय लेनेवाले पुरुषोंसे घिरी हुई है॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यत्र स्नात्वा नरश्रेष्ठ धूतपाप्मा भविष्यसि।
इह सारस्वतैर्यज्ञैरिष्टवन्तः सुरर्षयः ।
ऋषयश्चैव कौन्तेय तथा राजर्षयोऽपि च ॥ २१ ॥

मूलम्

यत्र स्नात्वा नरश्रेष्ठ धूतपाप्मा भविष्यसि।
इह सारस्वतैर्यज्ञैरिष्टवन्तः सुरर्षयः ।
ऋषयश्चैव कौन्तेय तथा राजर्षयोऽपि च ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नरश्रेष्ठ! इसमें स्नान करनेसे तुम्हारे सारे पाप धुल जायँगे। कुन्तीनन्दन! यहाँ अनेक देवर्षि, ब्रह्मर्षि तथा राजर्षियोंने सारस्वत यज्ञोंका अनुष्ठान किया है॥२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वेदी प्रजापतेरेषा समन्तात् पञ्चयोजना।
कुरोर्वै यज्ञशीलस्य क्षेत्रमेतन्महात्मनः ॥ २२ ॥

मूलम्

वेदी प्रजापतेरेषा समन्तात् पञ्चयोजना।
कुरोर्वै यज्ञशीलस्य क्षेत्रमेतन्महात्मनः ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यह सब ओर पाँच योजन फैली हुई प्रजापतिकी यज्ञवेदी है। यही यज्ञपरायण महात्मा राजा कुरुका क्षेत्र है॥२२॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि तीर्थयात्रापर्वणि लोमशतीर्थयात्रायामेकोनत्रिंशदधिकशततमोऽध्यायः ॥ १२९ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्वके अन्तर्गत तीर्थयात्रापर्वमें लोमशतीर्थयात्राविषयक एक सौ उनतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१२९॥

सूचना (हिन्दी)

(दाक्षिणात्य अधिक पाठका श्लोक मिलाकर कुल २२ श्लोक हैं)

  • युगन्धर एक पर्वत या प्रदेशका नाम है, जहाँके लोग ऊँटनी और गदहीतकके दूधका दही जमा लेते हैं। उस स्त्रीने कभी वहाँ जाकर दही खाया था। धर्मशास्त्रमें ऊँट और एक खुरवाले पशुओंके दूधको मदिराके तुल्य बताया गया है—‘औष्ट्रमेकशफं क्षीरं सुरातुल्यम्।’ इति।

  1. प्राचीनकालमें अच्युतस्थल नामक गाँव वर्णसंकरजातीय अन्त्यजों एवं चाण्डालोंका निवासस्थान था। उस स्त्रीने उस गाँवमें किसी समय निवास किया था। धर्म-शास्त्रके अनुसार वर्णसंकरोंके संसर्गमें आनेपर प्रायश्चित्तरूपसे प्राजापत्य व्रतका अनुष्ठान करना चाहिये—‘संसृज्य संकरैः सार्धं प्राजापत्यं व्रतं चरेत्।’ इति। ↩︎

  2. ‘भूतलय’ नामक गाँव चोरों और डाकुओंका अड्डा था। वहाँ एक नदी थी, जिसमें मुर्दे बहाये जाते थे। उस स्त्रीने उसी दूषित जलमें स्नान किया था। धर्मशास्त्रके अनुसार उस गाँवमें रहनेमात्रसे प्राजापत्य व्रत करनेकी आवश्यकता है—‘प्रोष्य भूतलये विप्रः प्राजापत्यं व्रतं चरेत्।’ इति॥ इन तीनों दोषोंसे युक्त होनेके कारण वह स्त्री तीर्थवासकी अधिकारिणी नहीं रह गयी थी। ↩︎