१२८ सोमक-पुरोहितयोः स्वर्ग-नरकोपभोगः

भागसूचना

अष्टाविंशत्यधिकशततमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

सोमकको सौ पुत्रोंकी प्राप्ति तथा सोमक और पुरोहितका समानरूपसे नरक और पुण्यलोकोंका उपभोग करना

मूलम् (वचनम्)

सोमक उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

ब्रह्मन् यद् यद् यथा कार्यं तत्‌ कुरुष्व तथा तथा।
पुत्रकामतया सर्वं करिष्यामि वचस्तव ॥ १ ॥

मूलम्

ब्रह्मन् यद् यद् यथा कार्यं तत्‌ कुरुष्व तथा तथा।
पुत्रकामतया सर्वं करिष्यामि वचस्तव ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सोमकने कहा— ब्रह्मन्! जो-जो कार्य जैसे-जैसे करना हो, वह उसी प्रकार कीजिये। मैं पुत्रकी कामनासे आपकी समस्त आज्ञाओंका पालन करूँगा॥१॥

मूलम् (वचनम्)

लोमश उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः स याजयामास सोमकं तेन जन्तुना।
मातरस्तु बलात् पुत्रमपाकर्षुः कृपान्विताः ॥ २ ॥
हा हताः स्मेति वाशन्त्यस्तीव्रशोकसमाहताः।
रुदन्त्यः करुणं वापि गृहीत्वा दक्षिणे करे ॥ ३ ॥
सव्ये पाणौ गृहीत्वा तु याजकोऽपि स्म कर्षति।
कुररीणामिवार्तानां समाकृष्य तु तं सुतम् ॥ ४ ॥
विशस्य चैनं विधिवद् वपामस्य जुहाव सः।
वपायां हूयमानायां गन्धमाघ्राय मातरः ॥ ५ ॥
आर्ता निपेतुः सहसा पृथिव्यां कुरुनन्दन।
सर्वाश्च गर्भानलभंस्ततस्ताः परमाङ्गनाः ॥ ६ ॥

मूलम्

ततः स याजयामास सोमकं तेन जन्तुना।
मातरस्तु बलात् पुत्रमपाकर्षुः कृपान्विताः ॥ २ ॥
हा हताः स्मेति वाशन्त्यस्तीव्रशोकसमाहताः।
रुदन्त्यः करुणं वापि गृहीत्वा दक्षिणे करे ॥ ३ ॥
सव्ये पाणौ गृहीत्वा तु याजकोऽपि स्म कर्षति।
कुररीणामिवार्तानां समाकृष्य तु तं सुतम् ॥ ४ ॥
विशस्य चैनं विधिवद् वपामस्य जुहाव सः।
वपायां हूयमानायां गन्धमाघ्राय मातरः ॥ ५ ॥
आर्ता निपेतुः सहसा पृथिव्यां कुरुनन्दन।
सर्वाश्च गर्भानलभंस्ततस्ताः परमाङ्गनाः ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

लोमशजी कहते हैं— युधिष्ठिर! तब पुरोहितने राजा सोमकसे जन्तुकी बलि देकर किये जानेवाले यज्ञको प्रारम्भ करवाया। उस समय करुणामयी माताएँ अत्यन्त शोकसे व्याकुल हो ‘हाय! हम मारी गयीं’ ऐसा कहकर रोती हुई अपने पुत्र जन्तुको बलपूर्वक अपनी ओर खींच रही थीं। वे करुण स्वरमें रोती हुई बालकके दाहिने हाथको पकड़कर खींचती थीं और पुरोहितजी उसके बायें हाथको पकड़कर अपनी ओर खींच रहे थे। सब रानियाँ शोकसे आतुर हो कुररी पक्षीकी भाँति विलाप कर रही थीं और पुरोहितने उस बालकको छीनकर उसके टुकड़े-टुकड़े कर डाले तथा विधिपूर्वक उसकी चर्बियोंकी आहुति दी। कुरुनन्दन! चर्बीकी आहुतिके समय बालककी माताएँ धूमकी गन्ध सूँघकर सहसा शोकपीडित हो पृथ्वीपर गिर पड़ीं। तदनन्तर वे सब सुन्दरी रानियाँ गर्भवती हो गयीं॥२—६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो दशसु मासेषु सोमकस्य विशाम्पते।
जज्ञे पुत्रशतं पूर्णं तासु सर्वासु भारत ॥ ७ ॥

मूलम्

ततो दशसु मासेषु सोमकस्य विशाम्पते।
जज्ञे पुत्रशतं पूर्णं तासु सर्वासु भारत ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिर! तदनन्तर दस मास बीतनेपर उन सबके गर्भसे राजा सोमकके सौ पुत्र हुए॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जन्तुर्ज्येष्ठः समभवज्जनित्र्यामेव पार्थिव ।
स तासामिष्ट एवासीन्न तथा ते निजाः सुताः ॥ ८ ॥

मूलम्

जन्तुर्ज्येष्ठः समभवज्जनित्र्यामेव पार्थिव ।
स तासामिष्ट एवासीन्न तथा ते निजाः सुताः ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! सोमकका ज्येष्ठ पुत्र जन्तु अपनी माताके ही गर्भसे प्रकट हुआ, वही उन सब रानियोंको विशेष प्रिय था। उन्हें अपने पुत्र उतने प्यारे नहीं लगते थे॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तच्च लक्षणमस्यासीत् सौवर्णं पार्श्व उत्तरे।
तस्मिन् पुत्रशते चाग्र्यः स बभूव गुणैरपि ॥ ९ ॥

मूलम्

तच्च लक्षणमस्यासीत् सौवर्णं पार्श्व उत्तरे।
तस्मिन् पुत्रशते चाग्र्यः स बभूव गुणैरपि ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उसकी दाहिनी पसलीमें पूर्वोक्त सुनहरा चिह्न स्पष्ट दिखायी देता था। राजाके सौ पुत्रोंमें अवस्था और गुणोंकी दृष्टिसे भी वही श्रेष्ठ था॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः स लोकमगमत् सोमकस्य गुरुः परम्।
अथ काले व्यतीते तु सोमकोऽप्यगमत् परम् ॥ १० ॥
अथ तं नरके घोरे पच्यमानं ददर्श सः।
तमपृच्छत् किमर्थं त्वं नरके पच्यसे द्विज ॥ ११ ॥

मूलम्

ततः स लोकमगमत् सोमकस्य गुरुः परम्।
अथ काले व्यतीते तु सोमकोऽप्यगमत् परम् ॥ १० ॥
अथ तं नरके घोरे पच्यमानं ददर्श सः।
तमपृच्छत् किमर्थं त्वं नरके पच्यसे द्विज ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर कुछ कालके पश्चात् सोमकके पुरोहित परलोकवासी हो गये। थोड़े दिनोंके बाद राजा सोमक भी परलोकवासी हो गये। यमलोकमें जानेपर सोमकने देखा, पुरोहितजी घोर नरककी आगमें पकाये जा रहे हैं। उन्हें उस अवस्थामें देखकर सोमकने पूछा—‘ब्रह्मन्! आप नरककी आगमें कैसे पकाये जा रहे हैं?’॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तमब्रवीद् गुरुः सोऽथ पच्यमानोऽग्निना भृशम्।
त्वं मया याजितो राजंस्तस्येदं कर्मणः फलम् ॥ १२ ॥
एतच्छ्रुत्वा स राजर्षिर्धर्मराजमथाब्रवीत् ।
अहमत्र प्रवेक्ष्यामि मुच्यतां मम याजकः ॥ १३ ॥
मत्कृते हि महाभागः पच्यते नरकाग्निना।
(सोऽहमात्मानमाधास्ये नरकान्मुच्यतां गुरुः ।)

मूलम्

तमब्रवीद् गुरुः सोऽथ पच्यमानोऽग्निना भृशम्।
त्वं मया याजितो राजंस्तस्येदं कर्मणः फलम् ॥ १२ ॥
एतच्छ्रुत्वा स राजर्षिर्धर्मराजमथाब्रवीत् ।
अहमत्र प्रवेक्ष्यामि मुच्यतां मम याजकः ॥ १३ ॥
मत्कृते हि महाभागः पच्यते नरकाग्निना।
(सोऽहमात्मानमाधास्ये नरकान्मुच्यतां गुरुः ।)

अनुवाद (हिन्दी)

तब नरकाग्निसे अधिक संतप्त होते हुए पुरोहितने कहा—‘राजन्! मैंने तुम्हें जो (तुम्हारे पुत्रकी आहुति देकर) यज्ञ करवाया था, उसी कर्मका यह फल है’ यह सुनकर राजर्षि सोमकने धर्मराजसे कहा—‘भगवन्! मैं इस नरकमें प्रवेश करूँगा। आप मेरे पुरोहितको छोड़ दीजिये। वे महाभाग मेरे ही कारण नरकाग्निमें पक रहे हैं। अतः मैं अपने-आपको नरकमें रखूँगा, परंतु मेरे गुरुजीको उससे छुटकारा मिल जाना चाहिये’॥१२-१३॥

मूलम् (वचनम्)

धर्म उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

नान्यः कर्तुः फलं राजन्नुपभुङ्‌क्ते कदाचन।
इमानि तव दृश्यन्ते फलानि वदतां वर ॥ १४ ॥

मूलम्

नान्यः कर्तुः फलं राजन्नुपभुङ्‌क्ते कदाचन।
इमानि तव दृश्यन्ते फलानि वदतां वर ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

धर्मने कहा— राजन्! कर्ताके सिवा दूसरा कोई उसके किये हुए कर्मोंका फल कभी नहीं भोगता है। वक्ताओंमें श्रेष्ठ महाराज! तुम्हें अपने पुण्यकर्मोंके फलस्वरूप जो ये पुण्य लोक प्राप्त हुए हैं, प्रत्यक्ष दिखायी देते हैं॥१४॥

मूलम् (वचनम्)

सोमक उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

पुण्यान्न कामये लोकानृतेऽहं ब्रह्मवादिनम्।
इच्छाम्यहमनेनैव सह वस्तुं सुरालये ॥ १५ ॥
नरके वा धर्मराज कर्मणास्य समो ह्यहम्।
पुण्यापुण्यफलं देव सममस्त्वावयोरिदम् ॥ १६ ॥

मूलम्

पुण्यान्न कामये लोकानृतेऽहं ब्रह्मवादिनम्।
इच्छाम्यहमनेनैव सह वस्तुं सुरालये ॥ १५ ॥
नरके वा धर्मराज कर्मणास्य समो ह्यहम्।
पुण्यापुण्यफलं देव सममस्त्वावयोरिदम् ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सोमक बोले— धर्मराज! मैं अपने वेदवेत्ता पुरोहितके बिना पुण्यलोकोंमें जानेकी इच्छा नहीं रखता। स्वर्गलोक हो या नरक—मैं कहीं भी इन्हींके साथ रहना चाहता हूँ। देव! मेरे पुण्यकर्मोंपर इनका मेरे समान ही अधिकार है। हम दोनोंको यह पुण्य और पापका फल समानरूपसे मिलना चाहिये॥१५-१६॥

मूलम् (वचनम्)

धर्मराज उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

यद्येवमीप्सितं राजन् भुङ्‌क्ष्वास्य सहितः फलम्।
तुल्यकालं सहानेन पश्चात् प्राप्स्यसि सद्‌गतिम् ॥ १७ ॥

मूलम्

यद्येवमीप्सितं राजन् भुङ्‌क्ष्वास्य सहितः फलम्।
तुल्यकालं सहानेन पश्चात् प्राप्स्यसि सद्‌गतिम् ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

धर्मराज बोले— राजन्! यदि तुम्हारी ऐसी इच्छा है तो इनके साथ रहकर उतने ही समयतक तुम भी पापकर्मोंका फल भोगो, इसके बाद तुम्हें उत्तम गति प्राप्त होगी॥१७॥

मूलम् (वचनम्)

लोमश उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

स चकार तथा सर्वं राजा राजीवलोचनः।
क्षीणपापश्च तस्मात् स विमुक्तो गुरुणा सह ॥ १८ ॥

मूलम्

स चकार तथा सर्वं राजा राजीवलोचनः।
क्षीणपापश्च तस्मात् स विमुक्तो गुरुणा सह ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

लोमशजी कहते हैं— युधिष्ठिर! तब कमलनयन राजा सोमकने धर्मराजके कथनानुसार सब कार्य किया और भोगद्वारा पाप नष्ट हो जानेपर वे पुरोहितके साथ ही नरकसे छूट गये॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

लेभे कामाञ्शुभान् राजन्‌ कर्मणा निर्जितान् स्वयम्।
सह तेनैव विप्रेण गुरुणा स गुरुप्रियः ॥ १९ ॥

मूलम्

लेभे कामाञ्शुभान् राजन्‌ कर्मणा निर्जितान् स्वयम्।
सह तेनैव विप्रेण गुरुणा स गुरुप्रियः ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तत्पश्चात् उन गुरुप्रेमी नरेशने अपने गुरुके साथ ही पुण्यकर्मोंद्वारा स्वयं प्राप्त किये हुए पुण्य-लोकके शुभ भोगोंका उपभोग किया॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एष तस्याश्रमः पुण्यो य एषोऽग्रे विराजते।
क्षान्त उष्यात्र षड्रात्रं प्राप्नोति सुगतिं नरः ॥ २० ॥

मूलम्

एष तस्याश्रमः पुण्यो य एषोऽग्रे विराजते।
क्षान्त उष्यात्र षड्रात्रं प्राप्नोति सुगतिं नरः ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यह उन्हीं राजा सोमकका पवित्र आश्रम है जो सामने ही सुशोभित हो रहा है। यहाँ क्षमाशील होकर छः रात निवास करनेसे मनुष्य उत्तम गति प्राप्त कर लेता है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतस्मिन्नपि राजेन्द्र वत्स्यामो विगतज्वराः।
षड्रात्रं नियतात्मानः सज्जीभव कुरूद्वह ॥ २१ ॥

मूलम्

एतस्मिन्नपि राजेन्द्र वत्स्यामो विगतज्वराः।
षड्रात्रं नियतात्मानः सज्जीभव कुरूद्वह ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कुरुश्रेष्ठ! हम सब लोग इस आश्रममें छः राततक मन और इन्द्रियोंपर संयम रखते हुए निश्चिन्त होकर निवास करेंगे। तुम इसके लिये तैयार हो जाओ॥२१॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि तीर्थयात्रापर्वणि लोमशतीर्थयात्रायां जन्तूपाख्याने अष्टाविंशत्यधिकशततमोऽध्यायः ॥ १२८ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्वके अन्तर्गत तीर्थयात्रापर्वमें लोमशतीर्थयात्राके प्रसंगमें जन्तूपाख्यानविषयक एक सौ अट्ठाईसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१२८॥

सूचना (हिन्दी)

(दाक्षिणात्य अधिक पाठका श्लोक मिलाकर कुल २१ श्लोक हैं)