०९० धौम्य्येन उत्तरदिग्वर्तितीर्थवर्णनम्

भागसूचना

नवतितमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

धौम्यद्वारा उत्तर दिशाके तीर्थोंका वर्णन

मूलम् (वचनम्)

धौम्य उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

उदीच्यां राजशार्दूल दिशि पुण्यानि यानि वै।
तानि ते कीर्तयिष्यामि पुण्यान्यायतनानि च ॥ १ ॥
शृणुष्वावहितो भूत्वा मम मन्त्रयतः प्रभो।
कथाप्रतिग्रहो वीर श्रद्धां जनयते शुभाम् ॥ २ ॥

मूलम्

उदीच्यां राजशार्दूल दिशि पुण्यानि यानि वै।
तानि ते कीर्तयिष्यामि पुण्यान्यायतनानि च ॥ १ ॥
शृणुष्वावहितो भूत्वा मम मन्त्रयतः प्रभो।
कथाप्रतिग्रहो वीर श्रद्धां जनयते शुभाम् ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

धौम्यजी कहते हैं— नृपश्रेष्ठ! उत्तर दिशामें जो पुण्यप्रद तीर्थ और देवालय आदि हैं, उनका तुमसे वर्णन करता हूँ। प्रभो! तुम सावधान होकर वह सब मेरे मुखसे सुनो। वीरवर! तीर्थोंकी कथाका प्रसंग उनके प्रति मंगलमयी श्रद्धा उत्पन्न करता है॥१-२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सरस्वती महापुण्या ह्रदिनी तीर्थमालिनी।
समुद्रगा महावेगा यमुना यत्र पाण्डव ॥ ३ ॥

मूलम्

सरस्वती महापुण्या ह्रदिनी तीर्थमालिनी।
समुद्रगा महावेगा यमुना यत्र पाण्डव ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तीर्थोंकी पंक्तिसे सुशोभित सरस्वती नदी बड़ी पुण्यदायिनी है। पाण्डुनन्दन! समुद्रमें मिलनेवाली महावेगशालिनी यमुना भी उत्तर दिशामें ही हैं॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यत्र पुण्यतरं तीर्थं प्लक्षावतरणं शुभम्।
यत्र सारस्वतैरिष्ट्वा गच्छन्त्यवभृथैर्द्विजाः ॥ ४ ॥

मूलम्

यत्र पुण्यतरं तीर्थं प्लक्षावतरणं शुभम्।
यत्र सारस्वतैरिष्ट्वा गच्छन्त्यवभृथैर्द्विजाः ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उधर ही अत्यन्त पुण्यमय प्लक्षावतरण नामक मंगलकारक तीर्थ है; जहाँ ब्राह्मणगण यज्ञ करके सरस्वतीके जलसे अवभृथस्नान करते और अपने स्थानको जाते हैं॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पुण्यं चाख्यायते दिव्यं शिवमग्निशिरोऽनघ।
सहदेवोऽयजद् यत्र शम्याक्षेपेण भारत ॥ ५ ॥

मूलम्

पुण्यं चाख्यायते दिव्यं शिवमग्निशिरोऽनघ।
सहदेवोऽयजद् यत्र शम्याक्षेपेण भारत ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उधर ही अग्निशिर नामक दिव्य, कल्याणमय, पुण्यतीर्थ बताया जाता है। निष्पाप भरतनन्दन! उसी तीर्थमें सहदेवने शमीका डंडा फेंकवाकर, जितनी दूरीमें वह डंडा पड़ा था उतनी दूरीमें, मण्डप बनवाकर उसमें यज्ञ किया॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतस्मिन्नेव चार्थेऽसाविन्द्रगीता युधिष्ठिर ।
गाथा चरति लोकेऽस्मिन् गीयमाना द्विजातिभिः ॥ ६ ॥

मूलम्

एतस्मिन्नेव चार्थेऽसाविन्द्रगीता युधिष्ठिर ।
गाथा चरति लोकेऽस्मिन् गीयमाना द्विजातिभिः ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिर! इसी विषयमें इन्द्रकी गायी हुई एक गाथा लोकमें प्रचलित है, जिसे ब्राह्मण गाया करते हैं॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अग्नयः सहदेवेन सेविता यमुनामनु।
ते तस्य कुरुशार्दूल सहस्रशतदक्षिणाः ॥ ७ ॥

मूलम्

अग्नयः सहदेवेन सेविता यमुनामनु।
ते तस्य कुरुशार्दूल सहस्रशतदक्षिणाः ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कुरुश्रेष्ठ! सहदेवने यमुना-तटपर लाख स्वर्ण-मुद्राओंकी दक्षिणा देकर अग्निकी उपासना की थी1॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत्रैव भरतो राजा चक्रवर्ती महायशाः।
विंशतिः सप्त चाष्टौ च हयमेधानुपाहरत् ॥ ८ ॥

मूलम्

तत्रैव भरतो राजा चक्रवर्ती महायशाः।
विंशतिः सप्त चाष्टौ च हयमेधानुपाहरत् ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वहीं महायशस्वी चक्रवर्ती राजा भरतने पैंतीस अश्वमेधयज्ञोंका अनुष्ठान किया॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कामकृद् यो द्विजातीनां श्रुतस्तात यथा पुरा।
अत्यन्तमाश्रमः पुण्यः शरभंगस्य विश्रुतः ॥ ९ ॥

मूलम्

कामकृद् यो द्विजातीनां श्रुतस्तात यथा पुरा।
अत्यन्तमाश्रमः पुण्यः शरभंगस्य विश्रुतः ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तात! प्राचीनकालमें राजा भरत ब्राह्मणोंकी मनोवाञ्छाको पूर्ण करनेवाला राजा सुना गया है। उत्तराखण्डमें ही महर्षि शरभङ्गका अत्यन्त पुण्यदायक आश्रम विख्यात है॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सरस्वती नदी सद्भिः सततं पार्थ पूजिता।
बालखिल्यैर्महाराज यत्रेष्टमृषिभिः पुरा ॥ १० ॥

मूलम्

सरस्वती नदी सद्भिः सततं पार्थ पूजिता।
बालखिल्यैर्महाराज यत्रेष्टमृषिभिः पुरा ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कुन्तीनन्दन! साधु पुरुषोंने सरस्वती नदीकी सदा उपासना की है। महाराज! पूर्वकालमें बालखिल्य ऋषियोंने वहाँ यज्ञ किया था॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दृषद्वती महापुण्या यत्र ख्याता युधिष्ठिर।
न्यग्रोधाख्यस्तु पुण्याख्यः पाञ्चाल्यो द्विपदां वर ॥ ११ ॥
दाल्भ्यघोषश्च दाल्भ्यश्च धरणीस्थो महात्मनः।
कौन्तेयानन्तयशसः सुव्रतस्यामितौजसः ॥ १२ ॥
आश्रमः ख्यायते पुण्यस्त्रिषु लोकेषु विश्रुतः।

मूलम्

दृषद्वती महापुण्या यत्र ख्याता युधिष्ठिर।
न्यग्रोधाख्यस्तु पुण्याख्यः पाञ्चाल्यो द्विपदां वर ॥ ११ ॥
दाल्भ्यघोषश्च दाल्भ्यश्च धरणीस्थो महात्मनः।
कौन्तेयानन्तयशसः सुव्रतस्यामितौजसः ॥ १२ ॥
आश्रमः ख्यायते पुण्यस्त्रिषु लोकेषु विश्रुतः।

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिर! परम पुण्यमयी दृषद्वती नदी भी उधर ही बतायी गयी है। मनुष्योंमें श्रेष्ठ युधिष्ठिर! वहीं न्यग्रोध, पुण्य, पाञ्चाल्य, दाल्भ्यघोष और दाल्भ्य—ये पाँच आश्रम हैं तथा अनन्तकीर्ति एवं अमिततेजस्वी महात्मा सुव्रतका पुण्य आश्रम भी उत्तराखण्डमें ही बताया जाता है, जो पृथ्वीपर रहकर भी तीनों लोकोंमें विख्यात है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतावर्णाववर्णौ च विश्रुतौ मनुजाधिप ॥ १३ ॥

मूलम्

एतावर्णाववर्णौ च विश्रुतौ मनुजाधिप ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नरेश्वर! उत्तराखण्डमें ही विख्यात मुनि नर और नारायण हैं, जो एतावर्ण (श्यामवर्ण—साकार) होते हुए भी वास्तवमें अवर्ण (निराकार) ही हैं॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वेदज्ञौ वेदविद्वांसौ वेदविद्याविदावुभौ ।
ईजाते क्रतुभिर्मुख्यैः पुण्यैर्भरतसत्तम ॥ १४ ॥

मूलम्

वेदज्ञौ वेदविद्वांसौ वेदविद्याविदावुभौ ।
ईजाते क्रतुभिर्मुख्यैः पुण्यैर्भरतसत्तम ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतश्रेष्ठ! ये दोनों मुनि वेदज्ञ, वेदके मर्मज्ञ तथा वेदविद्याके पूर्ण जानकार हैं। इन्होंने पुण्यदायक उत्तम यज्ञोंद्वारा शंकरका यजन किया है॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

समेत्य बहुशो देवाः सेन्द्राः सवरुणाः पुरा।
विशाखयूपेऽतप्यन्त तेन पुण्यतमश्च सः ॥ १५ ॥

मूलम्

समेत्य बहुशो देवाः सेन्द्राः सवरुणाः पुरा।
विशाखयूपेऽतप्यन्त तेन पुण्यतमश्च सः ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पूर्वकालमें इन्द्र, वरुण आदि बहुत-से देवताओंने मिलकर विशाखयूप नामक स्थानमें तप किया था, अतः वह अत्यन्त पुण्यप्रद स्थान है॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ऋषिर्महान् महाभागो जमदग्निर्महायशाः ।
पलाशकेषु पुण्येषु रम्येष्वयजत प्रभुः ॥ १६ ॥

मूलम्

ऋषिर्महान् महाभागो जमदग्निर्महायशाः ।
पलाशकेषु पुण्येषु रम्येष्वयजत प्रभुः ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाभाग, महायशस्वी और महाप्रभावशाली महर्षि जमदग्निने परम सुन्दर तथा पुण्यप्रद पलाशवनमें यज्ञ किया था॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यत्र सर्वाः सरिच्छ्रेष्ठाः साक्षात् तमृषिसत्तमम्।
स्वं स्वं तोयमुपादाय परिवार्योपतस्थिरे ॥ १७ ॥

मूलम्

यत्र सर्वाः सरिच्छ्रेष्ठाः साक्षात् तमृषिसत्तमम्।
स्वं स्वं तोयमुपादाय परिवार्योपतस्थिरे ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिसमें सब श्रेष्ठ नदियाँ मूर्तिमती हो अपना-अपना जल लेकर उन मुनिश्रेष्ठके पास आयीं और उन्हें सब ओरसे घेरकर खड़ी हुई थीं॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अपि चात्र महाराज स्वयं विश्वावसुर्जगौ।
इमं श्लोकं तदा वीर प्रेक्ष्य दीक्षां महात्मनः ॥ १८ ॥

मूलम्

अपि चात्र महाराज स्वयं विश्वावसुर्जगौ।
इमं श्लोकं तदा वीर प्रेक्ष्य दीक्षां महात्मनः ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वीर महाराज! यहाँ महात्मा जमदग्निकी वह यज्ञदीक्षा देखकर स्वयं गन्धर्वराज विश्वावसुने इस श्लोकका गान किया था॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यजमानस्य वै देवाञ्जमदग्नेर्महात्मनः ।
आगम्य सरितो विप्रान् मधुना समतर्पयन् ॥ १९ ॥

मूलम्

यजमानस्य वै देवाञ्जमदग्नेर्महात्मनः ।
आगम्य सरितो विप्रान् मधुना समतर्पयन् ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘महात्मा जमदग्नि जब यज्ञद्वारा देवताओंका यजन कर रहे थे, उस समय उनके यज्ञमें सरिताओंने आकर मधुसे ब्राह्मणोंको तृप्त किया’॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गन्धर्वयक्षरक्षोभिरप्सरोभिश्च सेवितम् ।
किरातकिन्नरावासं शैलं शिखरिणां वरम् ॥ २० ॥
बिभेद तरसा गङ्गा गङ्गाद्वारं युधिष्ठिर।
पुण्यं तत् ख्यायते राजन् ब्रह्मर्षिगणसेवितम् ॥ २१ ॥

मूलम्

गन्धर्वयक्षरक्षोभिरप्सरोभिश्च सेवितम् ।
किरातकिन्नरावासं शैलं शिखरिणां वरम् ॥ २० ॥
बिभेद तरसा गङ्गा गङ्गाद्वारं युधिष्ठिर।
पुण्यं तत् ख्यायते राजन् ब्रह्मर्षिगणसेवितम् ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिर! गिरिश्रेष्ठ हिमालय किरातों और किन्नरोंका निवासस्थान है। गन्धर्व, यक्ष, राक्षस और अप्सराएँ उसका सदा सेवन करती हैं। गंगाजी अपने वेगसे उस शैलराजको फोड़कर जहाँ प्रकट हुई हैं, वह पुण्यस्थान गंगाद्वार (हरिद्वार)-के नामसे विख्यात है। राजन्! उस तीर्थका ब्रह्मर्षिगण सदा सेवन करते हैं॥२०-२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सनत्कुमारः कौरव्य पुण्यं कनखलं तथा।
पर्वतश्च पुरुर्नाम यत्र यातः पुरूरवाः ॥ २२ ॥

मूलम्

सनत्कुमारः कौरव्य पुण्यं कनखलं तथा।
पर्वतश्च पुरुर्नाम यत्र यातः पुरूरवाः ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कुरुनन्दन! पुण्यमय कनखलमें पहले सनत्कुमारने यात्रा की थी। वहीं पुरु नामसे प्रसिद्ध पर्वत है, जहाँ पूर्वकालमें पुरूरवाने यात्रा की थी॥२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भृगुर्यत्र तपस्तेपे महर्षिगणसेविते ।
राजन् स आश्रमः ख्यातो भृगुतुङ्गो महागिरिः ॥ २३ ॥

मूलम्

भृगुर्यत्र तपस्तेपे महर्षिगणसेविते ।
राजन् स आश्रमः ख्यातो भृगुतुङ्गो महागिरिः ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! महर्षियोंसे सेवित जिस महान् पर्वतपर भृगुने तपस्या की थी वह भृगुतुंग आश्रमके नामसे विख्यात है॥२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यः स भूतं भविष्यच्च भवच्च भरतर्षभ।
नारायणः प्रभुर्विष्णुः शाश्वतः पुरुषोत्तमः ॥ २४ ॥
तस्यातियशसः पुण्यां विशालां बदरीमनु।
आश्रमः ख्यायते पुण्यस्त्रिषु लोकेषु विश्रुतः ॥ २५ ॥

मूलम्

यः स भूतं भविष्यच्च भवच्च भरतर्षभ।
नारायणः प्रभुर्विष्णुः शाश्वतः पुरुषोत्तमः ॥ २४ ॥
तस्यातियशसः पुण्यां विशालां बदरीमनु।
आश्रमः ख्यायते पुण्यस्त्रिषु लोकेषु विश्रुतः ॥ २५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतश्रेष्ठ! भूत, भविष्य और वर्तमान जिनका स्वरूप है, जो सर्वशक्तिमान्, सर्वव्यापी, सनातन एवं पुरुषोत्तम नारायण हैं उन अत्यन्त यशस्वी श्रीहरिकी पुण्यमयी विशालापुरी बदरीवनके निकट है। वह नर-नारायणका आश्रम कहा गया है, वह पुण्यप्रद बदरिकाश्रम तीनों लोकोंमें विख्यात है॥२४-२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उष्णतोयवहा गङ्गा शीततोयवहा पुरा।
सुवर्णसिकता राजन् विशालां बदरीमनु ॥ २६ ॥

मूलम्

उष्णतोयवहा गङ्गा शीततोयवहा पुरा।
सुवर्णसिकता राजन् विशालां बदरीमनु ॥ २६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! पूर्वकालसे ही विशाला बदरीके समीप गंगा कहीं गरम जल तथा कहीं शीतल जल प्रवाहित करती हैं। उनकी बालू सुवर्णकी भाँति चमकती रहती है॥२६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ऋषयो यत्र देवाश्च महाभागा महौजसः।
प्राप्य नित्यं नमस्यन्ति देवं नारायणं प्रभुम् ॥ २७ ॥
यत्र नारायणो देवः परमात्मा सनातनः।
तत्र कृत्स्नं जगत् सर्वं तीर्थान्यायतनानि च ॥ २८ ॥

मूलम्

ऋषयो यत्र देवाश्च महाभागा महौजसः।
प्राप्य नित्यं नमस्यन्ति देवं नारायणं प्रभुम् ॥ २७ ॥
यत्र नारायणो देवः परमात्मा सनातनः।
तत्र कृत्स्नं जगत् सर्वं तीर्थान्यायतनानि च ॥ २८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वहाँ महाभाग एवं महातेजस्वी देवता तथा महर्षि प्रतिदिन जाकर अमित प्रभावशाली भगवान् नारायणको नमस्कार करते हैं। जहाँ सनातन परमात्मा भगवान् नारायण विराजमान हैं वहाँ सम्पूर्ण जगत् है और समस्त तीर्थ तथा देवालय हैं॥२७-२८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत् पुण्यं परमं ब्रह्म तत् तीर्थं तत् तपोवनम्।
तत् परं परमं देवं भूतानां परमेश्वरम् ॥ २९ ॥

मूलम्

तत् पुण्यं परमं ब्रह्म तत् तीर्थं तत् तपोवनम्।
तत् परं परमं देवं भूतानां परमेश्वरम् ॥ २९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वह बदरिकाश्रम पुण्यक्षेत्र और परब्रह्मस्वरूप है। वही तीर्थ है, वही तपोवन है, वही सम्पूर्ण भूतोंका परमदेव परमेश्वर है॥२९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शाश्वतं परमं चैव धातारं परमं पदम्।
यं विदित्वा न शोचन्ति विद्वांसः शास्त्रदृष्टयः ॥ ३० ॥
तत्र देवर्षयः सिद्धाः सर्वे चैव तपोधनाः।

मूलम्

शाश्वतं परमं चैव धातारं परमं पदम्।
यं विदित्वा न शोचन्ति विद्वांसः शास्त्रदृष्टयः ॥ ३० ॥
तत्र देवर्षयः सिद्धाः सर्वे चैव तपोधनाः।

अनुवाद (हिन्दी)

वही सनातन परमधाता एवं परमपद है, जिसे जान लेनेपर शास्त्रदर्शी विद्वान् कभी शोक नहीं करते हैं। वहीं देवर्षि सिद्ध और समस्त तपोधन महात्मा निवास करते हैं॥३०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आदिदेवो महायोगी यत्रास्ते मधुसूदनः ॥ ३१ ॥
पुण्यानामपि तत् पुण्यमत्र ते संशयोऽस्तु मा।
एतानि राजन् पुण्यानि पृथिव्यां पृथिवीपते ॥ ३२ ॥
कीर्तितानि नरश्रेष्ठ तीर्थान्यायतनानि च।
एतानि वसुभिः साध्यैरादित्यैर्मरुदश्विभिः ॥ ३३ ॥
ऋषिभिर्देवकल्पैश्च सेवितानि महात्मभिः ।
चरन्नेतानि कौन्तेय सहितो ब्राह्मणर्षभैः।
भ्रातृभिश्च महाभागैरुत्कण्ठां विहरिष्यसि ॥ ३४ ॥

मूलम्

आदिदेवो महायोगी यत्रास्ते मधुसूदनः ॥ ३१ ॥
पुण्यानामपि तत् पुण्यमत्र ते संशयोऽस्तु मा।
एतानि राजन् पुण्यानि पृथिव्यां पृथिवीपते ॥ ३२ ॥
कीर्तितानि नरश्रेष्ठ तीर्थान्यायतनानि च।
एतानि वसुभिः साध्यैरादित्यैर्मरुदश्विभिः ॥ ३३ ॥
ऋषिभिर्देवकल्पैश्च सेवितानि महात्मभिः ।
चरन्नेतानि कौन्तेय सहितो ब्राह्मणर्षभैः।
भ्रातृभिश्च महाभागैरुत्कण्ठां विहरिष्यसि ॥ ३४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जहाँ महायोगी आदिदेव भगवान् मधुसूदन विराजमान हैं वह स्थान पुण्योंका भी पुण्य है। इस विषयमें तुम्हें संशय नहीं होना चाहिये। राजन्! पृथ्वीपते! नरश्रेष्ठ! ये भूमण्डलके पुण्यतीर्थ और आश्रम आदि कहे गये वसु, साध्य, आदित्य, मरुद्गण, अश्विनीकुमार तथा देवोपम महात्मा मुनि इन सब तीर्थोंका सेवन करते हैं। कुन्तीनन्दन! तुम श्रेष्ठ ब्राह्मणों और महान् सौभाग्यशाली भाइयोंके साथ इन तीर्थोंमें विचरते रहोगे तो अर्जुनके लिये तुम्हारी मिलनेकी उत्कट इच्छा अर्थात् विरहव्याकुलता शान्त हो जायगी॥३१—३४॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि तीर्थयात्रापर्वणि धौम्यतीर्थयात्रायां नवतितमोऽध्यायः ॥ ९० ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्वके अन्तर्गत तीर्थयात्रापर्वमें धौम्यतीर्थयात्राविषयक नब्बेवाँ अध्याय पूरा हुआ॥९०॥


  1. ये सहदेव सुप्रसिद्ध राजा सृंजयके पुत्र थे—‘सहदेवः सृंजयपुत्रः’ इति नीलकण्ठी। ↩︎