भागसूचना
एकोननवतितमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
धौम्यद्वारा पश्चिम दिशाके तीर्थोंका वर्णन
मूलम् (वचनम्)
धौम्य उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
आनर्तेषु प्रतीच्यां वै कीर्तयिष्यामि ते दिशि।
यानि तत्र पवित्राणि पुण्यान्यायतनानि च ॥ १ ॥
मूलम्
आनर्तेषु प्रतीच्यां वै कीर्तयिष्यामि ते दिशि।
यानि तत्र पवित्राणि पुण्यान्यायतनानि च ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
धौम्यजी कहते हैं— युधिष्ठिर! अब मैं पश्चिम दिशाके आनर्तदेशमें जो-जो पवित्र तीर्थ और पुण्यस्वरूप देवालय हैं, उन सबका वर्णन करूँगा॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रियङ्ग्वाम्रवणोपेता वानीरफलमालिनी ।
प्रत्यक्स्रोता नदी पुण्या नर्मदा तत्र भारत ॥ २ ॥
मूलम्
प्रियङ्ग्वाम्रवणोपेता वानीरफलमालिनी ।
प्रत्यक्स्रोता नदी पुण्या नर्मदा तत्र भारत ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भरतनन्दन! पश्चिम दिशामें पुण्यमयी नर्मदा नदी प्रवाहित होती है, जिसकी धारा पूर्वसे पश्चिमकी ओर है। उसके तटपर प्रियंगु और आमके वृक्षोंका वन है। बेंत तथा फलवाले वृक्षोंकी श्रेणियाँ भी उसकी शोभा बढ़ाती हैं॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्रैलोक्ये यानि तीर्थानि पुण्यान्यायतनानि च।
सरिद्वनानि शैलेन्द्रा देवाश्च सपितामहाः ॥ ३ ॥
नर्मदायां कुरुश्रेष्ठ सह सिद्धर्षिचारणैः।
स्नातुमायान्ति पुण्यौघैः सदा वारिषु भारत ॥ ४ ॥
मूलम्
त्रैलोक्ये यानि तीर्थानि पुण्यान्यायतनानि च।
सरिद्वनानि शैलेन्द्रा देवाश्च सपितामहाः ॥ ३ ॥
नर्मदायां कुरुश्रेष्ठ सह सिद्धर्षिचारणैः।
स्नातुमायान्ति पुण्यौघैः सदा वारिषु भारत ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भरतनन्दन कुरुश्रेष्ठ! त्रिलोकीमें जो-जो पुण्यतीर्थ, मन्दिर, नदी, वन, पर्वत, ब्रह्मा आदि देवता, सिद्ध, ऋषि, चारण एवं पुण्यात्माओंके समूह हैं, वे सब सदा नर्मदाके जलमें स्नान करनेके लिये आया करते हैं॥३-४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
निकेतः श्रूयते पुण्यो यत्र विश्रवसो मुनेः।
जज्ञे धनपतिर्यत्र कुबेरो नरवाहनः ॥ ५ ॥
मूलम्
निकेतः श्रूयते पुण्यो यत्र विश्रवसो मुनेः।
जज्ञे धनपतिर्यत्र कुबेरो नरवाहनः ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वहीं मुनिवर विश्रवाका पवित्र आश्रम सुना जाता है, जहाँ नरवाहन धनाध्यक्ष कुबेरका जन्म हुआ था॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वैदूर्यशिखरो नाम पुण्यो गिरिवरः शिवः।
नित्यपुष्पफलास्तत्र पादपा हरितच्छदाः ॥ ६ ॥
मूलम्
वैदूर्यशिखरो नाम पुण्यो गिरिवरः शिवः।
नित्यपुष्पफलास्तत्र पादपा हरितच्छदाः ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैदूर्यशिखर नामक मंगलमय पवित्र पर्वत भी नर्मदा-तटपर है, वहाँ हरे-हरे पत्तोंसे सुशोभित सदा फल और फूलोंके भारसे लदे हुए वृक्ष शोभा पाते हैं॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्य शैलस्य शिखरे सरः पुण्यं महीपते।
फुल्लपद्मं महाराज देवगन्धर्वसेवितम् ॥ ७ ॥
मूलम्
तस्य शैलस्य शिखरे सरः पुण्यं महीपते।
फुल्लपद्मं महाराज देवगन्धर्वसेवितम् ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! उस पर्वतके शिखरपर एक पुण्य सरोवर है जिसमें सदा कमल खिले रहते हैं। महाराज! देवता और गन्धर्व भी उस पुण्यतीर्थका सेवन करते हैं॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
बह्वाश्चर्यं महाराज दृश्यते तत्र पर्वते।
पुण्ये स्वर्गोपमे चैव देवर्षिगणसेविते ॥ ८ ॥
मूलम्
बह्वाश्चर्यं महाराज दृश्यते तत्र पर्वते।
पुण्ये स्वर्गोपमे चैव देवर्षिगणसेविते ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! देवर्षिगणोंसे सेवित वह पुण्यपर्वत स्वर्गके समान सुन्दर एवं सुखद है। वहाँ अनेक आश्चर्यकी बातें देखी जाती हैं॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ह्रदिनी पुण्यतीर्था च राजर्षेस्तत्र वै सरित्।
विश्वामित्रनदी राजन् पुण्या परपुरंजय ॥ ९ ॥
यस्यास्तीरे सतां मध्ये ययातिर्नहुषात्मजः।
पपात स पुनर्लोकाल्ँलेभे धर्मान् सनातनान् ॥ १० ॥
मूलम्
ह्रदिनी पुण्यतीर्था च राजर्षेस्तत्र वै सरित्।
विश्वामित्रनदी राजन् पुण्या परपुरंजय ॥ ९ ॥
यस्यास्तीरे सतां मध्ये ययातिर्नहुषात्मजः।
पपात स पुनर्लोकाल्ँलेभे धर्मान् सनातनान् ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
शत्रुओंकी राजधानीपर विजय पानेवाले नरेश! वहाँ राजर्षि विश्वामित्रकी तपस्यासे प्रकट हुई एक पुण्यमयी नदी है, जो परम पवित्र तीर्थ मानी गयी है। उसीके तटपर नहुषनन्दन राजा ययाति स्वर्गसे साधु पुरुषोंके बीचमें गिरे थे और पुनः सनातन धर्ममय लोकोंमें चले गये थे॥९-१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत्र पुण्यो ह्रदः ख्यातो मैनाकश्चैव पर्वतः।
बहुमूलफलोपेतस्त्वसितो नाम पर्वतः ॥ ११ ॥
मूलम्
तत्र पुण्यो ह्रदः ख्यातो मैनाकश्चैव पर्वतः।
बहुमूलफलोपेतस्त्वसितो नाम पर्वतः ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वहाँ पुण्यसरोवर, विख्यात मैनाक पर्वत और प्रचुर फलमूलोंसे सम्पन्न असित नामक पर्वत है॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आश्रमः कक्षसेनस्य पुण्यस्तत्र युधिष्ठिर।
च्यवनस्याश्रमश्चैव विख्यातस्तत्र पाण्डव ॥ १२ ॥
मूलम्
आश्रमः कक्षसेनस्य पुण्यस्तत्र युधिष्ठिर।
च्यवनस्याश्रमश्चैव विख्यातस्तत्र पाण्डव ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिर! उसी पर्वतपर कच्छसेनका पुण्यदायक आश्रम है। पाण्डुनन्दन! महर्षि च्यवनका सुविख्यात आश्रम भी वहीं है॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत्राल्पेनैव सिध्यन्ति मानवास्तपसा विभो।
जम्बूमार्गो महाराज ऋषीणां भावितात्मनाम् ॥ १३ ॥
आश्रमः शाम्यतां श्रेष्ठ मृगद्विजनिषेवितः।
मूलम्
तत्राल्पेनैव सिध्यन्ति मानवास्तपसा विभो।
जम्बूमार्गो महाराज ऋषीणां भावितात्मनाम् ॥ १३ ॥
आश्रमः शाम्यतां श्रेष्ठ मृगद्विजनिषेवितः।
अनुवाद (हिन्दी)
प्रभो! वहाँ थोड़ी ही तपस्यासे मनुष्य सिद्धि प्राप्त कर लेते हैं। महाराज! पश्चिम दिशामें ही जम्बूमार्ग है, जहाँ शुद्ध अन्तःकरणवाले महर्षियोंका आश्रम है। शान्त पुरुषोंमें श्रेष्ठ युधिष्ठिर! वह आश्रम पशु-पक्षियोंसे सेवित है॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः पुण्यतमा राजन् सततं तापसैर्युता ॥ १४ ॥
केतुमाला च मेध्या च गङ्गाद्वारं च भूमिप।
ख्यातं च सैन्धवारण्यं पुण्यं द्विजनिषेवितम् ॥ १५ ॥
मूलम्
ततः पुण्यतमा राजन् सततं तापसैर्युता ॥ १४ ॥
केतुमाला च मेध्या च गङ्गाद्वारं च भूमिप।
ख्यातं च सैन्धवारण्यं पुण्यं द्विजनिषेवितम् ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! उधर ही सदा तपस्वीजनोंसे भरे हुए पुण्यतम तीर्थ—केतुमाला, मेध्या और गंगाद्वार (हरिद्वार) हैं। भूपाल! द्विजोंसे सेवित सुप्रसिद्ध सैन्धवारण्य भी उधर ही है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पितामहसरः पुण्यं पुष्करं नाम नामतः।
वैखानसानां सिद्धानामृषीणामाश्रमः प्रियः ॥ १६ ॥
मूलम्
पितामहसरः पुण्यं पुष्करं नाम नामतः।
वैखानसानां सिद्धानामृषीणामाश्रमः प्रियः ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ब्रह्माजीका पुण्यदायक सरोवर पुष्कर भी पश्चिम दिशामें ही है, जो वानप्रस्थों, सिद्धों और महर्षियोंका प्रिय आश्रम है॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अप्यत्र संश्रयार्थाय प्रजापतिरथो जगौ।
पुष्करेषु कुरुश्रेष्ठ गाथां सुकृतिनां वर ॥ १७ ॥
मूलम्
अप्यत्र संश्रयार्थाय प्रजापतिरथो जगौ।
पुष्करेषु कुरुश्रेष्ठ गाथां सुकृतिनां वर ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पुण्यवानोंमें प्रधान कुरुश्रेष्ठ! पुष्करमें निवास करनेके लिये प्रजापति ब्रह्माजीने एक गाथा गायी है, जो इस प्रकार है॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मनसाप्यभिकामस्य पुष्कराणि मनस्विनः ।
विप्रणश्यन्ति पापानि नाकपृष्ठे च मोदते ॥ १८ ॥
मूलम्
मनसाप्यभिकामस्य पुष्कराणि मनस्विनः ।
विप्रणश्यन्ति पापानि नाकपृष्ठे च मोदते ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जो मनस्वी पुरुष मनसे भी पुष्करतीर्थमें निवास करनेकी इच्छा करता है, उसके सारे पाप नष्ट हो जाते हैं और वह स्वर्गलोकमें आनन्द भोगता है’॥१८॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि तीर्थयात्रापर्वणि धौम्यतीर्थयात्रायां एकोननवतितमोऽध्यायः ॥ ८९ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्वके अन्तर्गत तीर्थयात्रापर्वमें धौम्यतीर्थयात्राविषयक नवासीवाँ अध्याय पूरा हुआ॥८९॥