०८८ धौम्य्येन दक्षिणदिग्वर्तितीर्थवर्णनम्

भागसूचना

अष्टाशीतितमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

धौम्यमुनिके द्वारा दक्षिण दिशावर्ती तीर्थोंका वर्णन

मूलम् (वचनम्)

धौम्य उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

दक्षिणस्यां तु पुण्यानि शृणु तीर्थानि भारत।
विस्तरेण यथाबुद्धि कीर्त्यमानानि तानि वै ॥ १ ॥

मूलम्

दक्षिणस्यां तु पुण्यानि शृणु तीर्थानि भारत।
विस्तरेण यथाबुद्धि कीर्त्यमानानि तानि वै ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

धौम्यजी कहते हैं— भरतवंशी युधिष्ठिर! अब मैं अपनी बुद्धिके अनुसार दक्षिणदिशावर्ती पुण्यतीर्थोंका विस्तारपूर्वक वर्णन करता हूँ, सुनो—॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यस्यामाख्यायते पुण्या दिशि गोदावरी नदी।
बह्वारामा बहुजला तापसाचरिता शिवा ॥ २ ॥

मूलम्

यस्यामाख्यायते पुण्या दिशि गोदावरी नदी।
बह्वारामा बहुजला तापसाचरिता शिवा ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

दक्षिणमें पुण्यमयी गोदावरी नदी बहुत प्रसिद्ध है, जिसके तटपर अनेक बगीचे सुशोभित हैं। उसके भीतर अगाध जल भरा हुआ है। बहुत-से तपस्वी उसका सेवन करते हैं तथा वह सबके लिये कल्याण-स्वरूपा है॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वेणा भीमरथी चैव नद्यौ पापभयापहे।
मृगद्विजसमाकीर्णे तापसालयभूषिते ॥ ३ ॥

मूलम्

वेणा भीमरथी चैव नद्यौ पापभयापहे।
मृगद्विजसमाकीर्णे तापसालयभूषिते ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वेणा और भीमरथी—ये दो नदियाँ भी दक्षिणमें ही हैं जो समस्त पापभयका नाश करनेवाली हैं। उसके दोनों तट अनेक प्रकारके पशु-पक्षियोंसे व्याप्त और तपस्वीजनोंके आश्रमोंसे विभूषित हैं॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

राजर्षेस्तस्य च सरिन्नृगस्य भरतर्षभ।
रम्यतीर्था बहुजला पयोष्णी द्विजसेविता ॥ ४ ॥

मूलम्

राजर्षेस्तस्य च सरिन्नृगस्य भरतर्षभ।
रम्यतीर्था बहुजला पयोष्णी द्विजसेविता ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतकुलभूषण! राजा नृगकी नदी पयोष्णी भी उधर ही है जो रमणीय तीर्थों और अगाध जलसे सुशोभित है। द्विज उसका सेवन करते हैं॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अपि चात्र महायोगी मार्कण्डेयो महायशाः।
अनुवंश्यां जगौ गाथां नृगस्य धरणीपतेः ॥ ५ ॥
नृगस्य यजमानस्य प्रत्यक्षमिति नः श्रुतम्।
अमाद्यदिन्द्रः सोमेन दक्षिणाभिर्द्विजातयः ॥ ६ ॥
पयोष्ण्यां यजमानस्य वाराहे तीर्थ उत्तमे।
उद्धृतं भूतलस्थं वा वायुना समुदीरितम्।
पयोष्ण्या हरते तोयं पापमामरणान्तिकम् ॥ ७ ॥

मूलम्

अपि चात्र महायोगी मार्कण्डेयो महायशाः।
अनुवंश्यां जगौ गाथां नृगस्य धरणीपतेः ॥ ५ ॥
नृगस्य यजमानस्य प्रत्यक्षमिति नः श्रुतम्।
अमाद्यदिन्द्रः सोमेन दक्षिणाभिर्द्विजातयः ॥ ६ ॥
पयोष्ण्यां यजमानस्य वाराहे तीर्थ उत्तमे।
उद्धृतं भूतलस्थं वा वायुना समुदीरितम्।
पयोष्ण्या हरते तोयं पापमामरणान्तिकम् ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस विषयमें हमारे सुननेमें आया है कि महायोगी एवं महायशस्वी मार्कण्डेयने यजमान राजा नृगके सामने उनके वंशके योग्य यशोगाथाका वर्णन इस प्रकार किया था—‘पयोष्णीके तटपर उत्तम वाराहतीर्थमें यज्ञ करनेवाले राजा नृगके यज्ञमें इन्द्र सोमपान करके मस्त हो गये थे और प्रचुर दक्षिणा पाकर ब्राह्मणलोग भी हर्षोल्लाससे पूर्ण हो गये थे।’ पयोष्णीका जल हाथसे उठाया गया हो या धरतीपर पड़ा हो अथवा वायुके वेगसे उछलकर अपने ऊपर पड़ गया हो तो वह जन्मसे लेकर मृत्युपर्यन्त किये हुए समस्त पापोंको हर लेता है॥५—७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्वर्गादुत्तुङ्गममलं विषाणं यत्र शूलिनः।
स्वमात्मविहितं दृष्ट्वा मर्त्यः शिवपुरं व्रजेत् ॥ ८ ॥

मूलम्

स्वर्गादुत्तुङ्गममलं विषाणं यत्र शूलिनः।
स्वमात्मविहितं दृष्ट्वा मर्त्यः शिवपुरं व्रजेत् ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जहाँ भगवान् शंकरका स्वयं ही अपने लिये बनाया हुआ शृंग नामक वाद्यविशेष स्वर्गसे भी ऊँचा और निर्मल है, उसका दर्शन करके मरणधर्मा मानव शिवधाममें चला जाता है॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एकतः सरितः सर्वा गङ्गाद्याः सलिलोच्चयाः।
पयोष्णी चैकतः पुण्या तीर्थेभ्यो हि मता मम ॥ ९ ॥

मूलम्

एकतः सरितः सर्वा गङ्गाद्याः सलिलोच्चयाः।
पयोष्णी चैकतः पुण्या तीर्थेभ्यो हि मता मम ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

एक ओर अगाध जलराशिसे भरी हुई गंगा आदि सम्पूर्ण नदियाँ हों और दूसरी ओर केवल पुण्यसलिला पयोष्णी नदी हो तो वही अन्य सब नदियोंकी अपेक्षा श्रेष्ठ है; ऐसा मेरा विचार है॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

माठरस्य वनं पुण्यं बहुमूलफलं शिवम्।
यूपश्च भरतश्रेष्ठ वरुणस्रोतसे गिरौ ॥ १० ॥

मूलम्

माठरस्य वनं पुण्यं बहुमूलफलं शिवम्।
यूपश्च भरतश्रेष्ठ वरुणस्रोतसे गिरौ ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतश्रेष्ठ! दक्षिणमें पवित्र माठरवन है, जो प्रचुर फलमूलसे सम्पन्न और कल्याणस्वरूप है। वहाँ वरुण-स्रोतस नामक पर्वतपर माठर (सूर्यके पार्श्ववर्ती देवता) का विजय-स्तम्भ सुशोभित होता है॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रवेण्युत्तरमार्गे तु पुण्ये कण्वाश्रमे तथा।
तापसानामरण्यानि कीर्तितानि यथाश्रुति ॥ ११ ॥

मूलम्

प्रवेण्युत्तरमार्गे तु पुण्ये कण्वाश्रमे तथा।
तापसानामरण्यानि कीर्तितानि यथाश्रुति ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यह स्तम्भ प्रवेणी नदीके उत्तरवर्ती मार्गमें कण्वके पुण्यमय आश्रममें है। इस प्रकार जैसा कि मैंने सुन रखा था, तपस्वी महात्माओंके निवासयोग्य वनोंका वर्णन किया है॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वेदी शूर्पारके तात जमदग्नेर्महात्मनः।
रम्या पाषाणतीर्था च पुनश्चन्द्रा च भारत ॥ १२ ॥

मूलम्

वेदी शूर्पारके तात जमदग्नेर्महात्मनः।
रम्या पाषाणतीर्था च पुनश्चन्द्रा च भारत ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तात! शूर्पारकक्षेत्रमें महात्मा जमदग्निकी वेदी है। भारत! वहीं रमणीय पाषाणतीर्था और पुनश्चन्द्रा नामक तीर्थ-विशेष हैं॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अशोकतीर्थं तत्रैव कौन्तेय बहुलाश्रमम्।
अगस्त्यतीर्थं पाण्ड्येषु वारुणं च युधिष्ठिर ॥ १३ ॥
कुमार्यः कथिताः पुण्याः पाण्ड्येष्वेव नरर्षभ।
ताम्रपर्णीं तु कौन्तेय कीर्तयिष्यामि तां शृणु ॥ १४ ॥

मूलम्

अशोकतीर्थं तत्रैव कौन्तेय बहुलाश्रमम्।
अगस्त्यतीर्थं पाण्ड्येषु वारुणं च युधिष्ठिर ॥ १३ ॥
कुमार्यः कथिताः पुण्याः पाण्ड्येष्वेव नरर्षभ।
ताम्रपर्णीं तु कौन्तेय कीर्तयिष्यामि तां शृणु ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कुन्तीनन्दन! उसी क्षेत्रमें अशोकतीर्थ है, जहाँ महर्षियोंके बहुत-से आश्रम हैं। युधिष्ठिर! पाण्ड्यदेशमें अगस्त्यतीर्थ और वारुणतीर्थ है। नरश्रेष्ठ! पाण्ड्यदेशके भीतर पवित्र कुमारी कन्याएँ (कन्याकुमारी तीर्थ) कही गयी हैं। कुन्तीकुमार! अब मैं तुमसे ताम्रपर्णी नदीकी महिमाका वर्णन करूँगा, सुनो॥१३-१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यत्र देवैस्तपस्तप्तं महदिच्छद्भिराश्रमे ।
गोकर्ण इति विख्यातस्त्रिषु लोकेषु भारत ॥ १५ ॥

मूलम्

यत्र देवैस्तपस्तप्तं महदिच्छद्भिराश्रमे ।
गोकर्ण इति विख्यातस्त्रिषु लोकेषु भारत ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतनन्दन! वहाँ मोक्ष पानेकी इच्छासे देवताओंने आश्रममें रहकर बड़ी भारी तपस्या की थी। वहाँका गोकर्णतीर्थ तीनों लोकोंमें विख्यात है॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शीततोयो बहुजलः पुण्यस्तात शिवः शुभः।
ह्रदः परमदुष्प्रापो मानुषैरकृतात्मभिः ॥ १६ ॥

मूलम्

शीततोयो बहुजलः पुण्यस्तात शिवः शुभः।
ह्रदः परमदुष्प्रापो मानुषैरकृतात्मभिः ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तात! गोकर्णतीर्थमें शीतल जल भरा रहता है। उसकी जलराशि अनन्त है। वह पवित्र, कल्याणमय और शुभ है। जिनका अन्तःकरण शुद्ध नहीं है, ऐसे मनुष्योंके लिये गोकर्णतीर्थ अत्यन्त दुर्लभ है॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत्र वृक्षतृणाद्यैश्च सम्पन्नः फलमूलवान्।
आश्रमोऽगस्त्यशिष्यस्य पुण्यो देवसमो गिरिः ॥ १७ ॥

मूलम्

तत्र वृक्षतृणाद्यैश्च सम्पन्नः फलमूलवान्।
आश्रमोऽगस्त्यशिष्यस्य पुण्यो देवसमो गिरिः ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वहाँ अगस्त्यके शिष्यका पुण्यमय आश्रम है, जो वृक्षों और तृण आदिसे सम्पन्न एवं फल-मूलोंसे परिपूर्ण है। देवसम नामक पर्वत ही वह आश्रम है॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वैदूर्यपर्वतस्तत्र श्रीमान् मणिमयः शिवः।
अगस्त्यस्याश्रमश्चैव बहुमूलफलोदकः ॥ १८ ॥

मूलम्

वैदूर्यपर्वतस्तत्र श्रीमान् मणिमयः शिवः।
अगस्त्यस्याश्रमश्चैव बहुमूलफलोदकः ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वहाँ परम सुन्दर मणिमय वैदूर्यपर्वत है जो शिवस्वरूप है। उसीपर महर्षि अगस्त्यका आश्रम है जो प्रचुर फल-मूल और जलसे सम्पन्न है॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुराष्ट्रेष्वपि वक्ष्यामि पुण्यान्यायतनानि च।
आश्रमान् सरितश्चैव सरांसि च नराधिप ॥ १९ ॥

मूलम्

सुराष्ट्रेष्वपि वक्ष्यामि पुण्यान्यायतनानि च।
आश्रमान् सरितश्चैव सरांसि च नराधिप ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नरेश्वर! अब मैं सुराष्ट्र (सौराष्ट्र)-देशीय पुण्य-स्थानों, मन्दिरों, आश्रमों, सरिताओं और सरोवरोंका वर्णन करता हूँ॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

चमसोद्भेदनं विप्रास्तत्रापि कथयन्त्युत ।
प्रभासं चोदधौ तीर्थं त्रिदशानां युधिष्ठिर ॥ २० ॥

मूलम्

चमसोद्भेदनं विप्रास्तत्रापि कथयन्त्युत ।
प्रभासं चोदधौ तीर्थं त्रिदशानां युधिष्ठिर ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

विप्रगण! वहीं चमसोद्भेदतीर्थकी चर्चा की जाती है। युधिष्ठिर! सुराष्ट्रमें ही समुद्रके तटपर प्रभासक्षेत्र है जो देवताओंका तीर्थ कहा गया है॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत्र पिण्डारकं नाम तापसाचरितं शिवम्।
उज्जयन्तश्च शिखरी क्षिप्रं सिद्धिकरो महान् ॥ २१ ॥

मूलम्

तत्र पिण्डारकं नाम तापसाचरितं शिवम्।
उज्जयन्तश्च शिखरी क्षिप्रं सिद्धिकरो महान् ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वहीं पिण्डारक नामक तीर्थ है जो तपस्वी जनोंद्वारा सेवित और कल्याणस्वरूप है। उधर ही उज्जयन्त नामक महान् पर्वत है जो शीघ्र सिद्धि प्रदान करनेवाला है॥२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत्र देवर्षिवर्येण नारदेनानुकीर्तितः ।
पुराणः श्रूयते श्लोकस्तं निबोध युधिष्ठिर ॥ २२ ॥

मूलम्

तत्र देवर्षिवर्येण नारदेनानुकीर्तितः ।
पुराणः श्रूयते श्लोकस्तं निबोध युधिष्ठिर ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिर! उसके विषयमें देवर्षिप्रवर श्रीनारदजीके द्वारा कहा हुआ एक प्राचीन श्लोक सुना जाता है, उसको मुझसे सुनो॥२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पुण्ये गिरौ सुराष्ट्रेषु मृगपक्षिनिषेविते।
उज्जयन्ते स्म तप्ताङ्गो नाकपृष्ठे महीयते ॥ २३ ॥

मूलम्

पुण्ये गिरौ सुराष्ट्रेषु मृगपक्षिनिषेविते।
उज्जयन्ते स्म तप्ताङ्गो नाकपृष्ठे महीयते ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सुराष्ट्र देशमें मृगों और पक्षियोंसे सेवित उज्जयन्त नामक पुण्यपर्वतपर तपस्या करनेवाला पुरुष स्वर्गलोकमें पूजित होता है॥२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पुण्या द्वारवती तत्र यत्रासौ मधुसूदनः।
साक्षाद् देवः पुराणोऽसौ स हि धर्मः सनातनः ॥ २४ ॥

मूलम्

पुण्या द्वारवती तत्र यत्रासौ मधुसूदनः।
साक्षाद् देवः पुराणोऽसौ स हि धर्मः सनातनः ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उज्जयन्तके ही आस-पास पुण्यमयी द्वारकापुरी है जहाँ साक्षात् पुराणपुरुष भगवान् मधुसूदन निवास करते हैं। वे ही सनातन धर्मस्वरूप हैं॥२४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ये च वेदविदो विप्रा ये चाध्यात्मविदो जनाः।
ते वदन्ति महात्मानं कृष्णं धर्मं सनातनम् ॥ २५ ॥

मूलम्

ये च वेदविदो विप्रा ये चाध्यात्मविदो जनाः।
ते वदन्ति महात्मानं कृष्णं धर्मं सनातनम् ॥ २५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो वेदवेत्ता और अध्यात्मशास्त्रके विद्वान् ब्राह्मण हैं, वे परमात्मा श्रीकृष्णको ही सनातन धर्मरूप बताते हैं॥५४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पवित्राणां हि गोविन्दः पवित्रं परमुच्यते।
पुण्यानामपि पुण्योऽसौ मङ्गलानां च मङ्गलम्।
त्रैलोक्ये पुण्डरीकाक्षो देवदेवः सनातनः ॥ २६ ॥
अव्ययात्मा व्ययात्मा च क्षेत्रज्ञः परमेश्वरः।
आस्ते हरिरचिन्त्यात्मा तत्रैव मधुसूदनः ॥ २७ ॥

मूलम्

पवित्राणां हि गोविन्दः पवित्रं परमुच्यते।
पुण्यानामपि पुण्योऽसौ मङ्गलानां च मङ्गलम्।
त्रैलोक्ये पुण्डरीकाक्षो देवदेवः सनातनः ॥ २६ ॥
अव्ययात्मा व्ययात्मा च क्षेत्रज्ञः परमेश्वरः।
आस्ते हरिरचिन्त्यात्मा तत्रैव मधुसूदनः ॥ २७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भगवान् गोविन्द पवित्रोंको भी पावन करनेवाले परम पवित्र कहे जाते हैं। वे पुण्योंके भी पुण्य और मंगलोंके भी मंगल हैं। कमलनयन देवाधिदेव सनातन श्रीहरि अविनाशी परमात्मा, व्ययात्मा (क्षरपुरुष), क्षेत्रज्ञ और परमेश्वर हैं। वे अचिन्त्यस्वरूप भगवान् मधुसूदन वहीं द्वारकापुरीमें विराजमान हैं॥२६-२७॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि तीर्थयात्रापर्वणि धौम्यतीर्थयात्रायामष्टाशीतितमोऽध्यायः ॥ ८८ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्वके अन्तर्गत तीर्थयात्रापर्वमें धौम्यतीर्थयात्राविषयक अठासीवाँ अध्याय पूरा हुआ॥८८॥