भागसूचना
सप्ताशीतितमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
धौम्यद्वारा पूर्वदिशाके तीर्थोंका वर्णन
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
तान् सर्वानुत्सुकान् दृष्ट्वा पाण्डवान् दीनचेतसः।
आश्वासयंस्तथा धौम्यो बृहस्पतिसमोऽब्रवीत् ॥ १ ॥
ब्राह्मणानुमतान् पुण्यानाश्रमान् भरतर्षभ ।
दिशस्तीर्थानि शैलांश्च शृणु मे वदतोऽनघ ॥ २ ॥
मूलम्
तान् सर्वानुत्सुकान् दृष्ट्वा पाण्डवान् दीनचेतसः।
आश्वासयंस्तथा धौम्यो बृहस्पतिसमोऽब्रवीत् ॥ १ ॥
ब्राह्मणानुमतान् पुण्यानाश्रमान् भरतर्षभ ।
दिशस्तीर्थानि शैलांश्च शृणु मे वदतोऽनघ ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! पाण्डवोंका चित्त अर्जुनके लिये अत्यन्त दीन हो रहा था। वे सब-के-सब उनसे मिलनेको उत्सुक थे। उनकी ऐसी अवस्था देखकर बृहस्पतिके समान तेजस्वी महर्षि धौम्यने उन्हें सान्त्वना देते हुए कहा—‘पापरहित भरतकुलभूषण! ब्राह्मणलोग जिन्हें आदर देते हैं, उन पुण्य आश्रमों, दिशाओं, तीर्थों और पर्वतोंका मैं वर्णन करता हूँ, सुनो॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
याञ्छ्रुत्वा गदतो राजन् विशोको भवितासि ह।
द्रौपद्या चानया सार्धं भ्रातृभिश्च नरेश्वर ॥ ३ ॥
मूलम्
याञ्छ्रुत्वा गदतो राजन् विशोको भवितासि ह।
द्रौपद्या चानया सार्धं भ्रातृभिश्च नरेश्वर ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘नरेश्वर! राजन्! मेरे मुखसे उन सबका वर्णन सुनकर तुम द्रौपदी तथा भाइयोंके साथ शोकरहित हो जाओगे॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
श्रवणाच्चैव तेषां त्वं पुण्यमाप्स्यसि पाण्डव।
गत्वा शतगुणं चैव तेभ्य एव नरोत्तम ॥ ४ ॥
मूलम्
श्रवणाच्चैव तेषां त्वं पुण्यमाप्स्यसि पाण्डव।
गत्वा शतगुणं चैव तेभ्य एव नरोत्तम ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘नरश्रेष्ठ पाण्डुनन्दन! उनका श्रवण करनेमात्रसे तुम्हें उनके सेवनका पुण्य प्राप्त होगा; और वहाँ जानेसे सौगुने पुण्यकी प्राप्ति होगी॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पूर्वं प्राचीं दिशं राजन् राजर्षिगणसेविताम्।
रम्यां ते कथयिष्यामि युधिष्ठिर यथास्मृति ॥ ५ ॥
मूलम्
पूर्वं प्राचीं दिशं राजन् राजर्षिगणसेविताम्।
रम्यां ते कथयिष्यामि युधिष्ठिर यथास्मृति ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘महाराज युधिष्ठिर! मैं अपनी स्मरणशक्तिके अनुसार सबसे पहले राजर्षिगणोंद्वारा सेवित रमणीय प्राची दिशाका वर्णन करूँगा॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्यां देवर्षिजुष्टायां नैमिषं नाम भारत।
यत्र तीर्थानि देवानां पुण्यानि च पृथक् पृथक् ॥ ६ ॥
मूलम्
तस्यां देवर्षिजुष्टायां नैमिषं नाम भारत।
यत्र तीर्थानि देवानां पुण्यानि च पृथक् पृथक् ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘भरतनन्दन! देवर्षिसेवित प्राची दिशामें नैमिष नामक तीर्थ है, जहाँ भिन्न-भिन्न देवताओंके अलग-अलग पुण्यतीर्थ हैं॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यत्र सा गोमती पुण्या रम्या देवर्षिसेविता।
यज्ञभूमिश्च देवानां शामित्रं च विवस्वतः ॥ ७ ॥
मूलम्
यत्र सा गोमती पुण्या रम्या देवर्षिसेविता।
यज्ञभूमिश्च देवानां शामित्रं च विवस्वतः ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जहाँ देवर्षिसेवित परम रमणीय पुण्यमयी गोमती नदी है। देवताओंकी यज्ञभूमि और सूर्यका यज्ञपात्र विद्यमान है॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्यां गिरिवरः पुण्यो गयो राजर्षिसत्कृतः।
शिवं ब्रह्मसरो यत्र सेवितं त्रिदशर्षिभिः ॥ ८ ॥
मूलम्
तस्यां गिरिवरः पुण्यो गयो राजर्षिसत्कृतः।
शिवं ब्रह्मसरो यत्र सेवितं त्रिदशर्षिभिः ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘प्राची दिशामें ही पुण्य पर्वतश्रेष्ठ गय है जो राजर्षि गयके द्वारा सम्मानित हुआ है। वहाँ कल्याणमय ब्रह्मसरोवर है जिसका देवर्षिगण सेवन करते हैं॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदर्थे पुरुषव्याघ्र कीर्तयन्ति पुरातनाः।
एष्टव्या बहवः पुत्रा यद्येकोऽपि गयां व्रजेत् ॥ ९ ॥
यजेत वाश्वमेधेन नीलं वा वृषमुत्सृजेत्।
उत्तारयति संतत्या दशपूर्वान् दशावरान् ॥ १० ॥
मूलम्
यदर्थे पुरुषव्याघ्र कीर्तयन्ति पुरातनाः।
एष्टव्या बहवः पुत्रा यद्येकोऽपि गयां व्रजेत् ॥ ९ ॥
यजेत वाश्वमेधेन नीलं वा वृषमुत्सृजेत्।
उत्तारयति संतत्या दशपूर्वान् दशावरान् ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘पुरुषसिंह! उस गयाके विषयमें ही प्राचीनलोग यह कहा करते हैं कि ‘बहुत-से पुत्रोंकी इच्छा करनी चाहिये; सम्भव है उनमेंसे एक भी गया जाय या अश्वमेधयज्ञ करे अथवा नीलवृषका1 उत्सर्ग करे। ऐसा पुरुष अपनी संततिद्वारा दस पहलेकी और दस बादकी पीढ़ियोंका उद्धार कर देता है’॥९-१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
महानदी च तत्रैव तथा गयशिरो नृप।
यत्रासौ कीर्त्यते विप्रैरक्षय्यकरणो वटः ॥ ११ ॥
मूलम्
महानदी च तत्रैव तथा गयशिरो नृप।
यत्रासौ कीर्त्यते विप्रैरक्षय्यकरणो वटः ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘राजन्! वहीं महानदी और गयशीर्षतीर्थ है, जहाँ ब्राह्मणोंने अक्षयवटकी स्थिति बतायी है जिसके जड़ और शाखा आदि उपकरण कभी नष्ट नहीं होते॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यत्र दत्तं पितृभ्योऽन्नमक्षय्यं भवति प्रभो।
सा च पुण्यजला तत्र फल्गुर्नाम महानदी ॥ १२ ॥
बहुमूलफला चापि कौशिकी भरतर्षभ।
विश्वामित्रोऽध्यगाद् यत्र ब्राह्मणत्वं तपोधनः ॥ १३ ॥
मूलम्
यत्र दत्तं पितृभ्योऽन्नमक्षय्यं भवति प्रभो।
सा च पुण्यजला तत्र फल्गुर्नाम महानदी ॥ १२ ॥
बहुमूलफला चापि कौशिकी भरतर्षभ।
विश्वामित्रोऽध्यगाद् यत्र ब्राह्मणत्वं तपोधनः ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘प्रभो! वहाँ पितरोंके लिये दिया हुआ अन्न अक्षय होता है। भरतश्रेष्ठ! वहीं फल्गु नामवाली पुण्यसलिला महानदी है और वहीं बहुत-से फल-मूलोंवाली कौशिकी नदी प्रवाहित होती है जहाँ तपोधन विश्वामित्र ब्राह्मणत्वको प्राप्त हुए थे॥१२-१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गङ्गा यत्र नदी पुण्या यस्यास्तीरे भगीरथः।
अयजत् तत्र बहुभिः क्रतुभिर्भूरिदक्षिणैः ॥ १४ ॥
मूलम्
गङ्गा यत्र नदी पुण्या यस्यास्तीरे भगीरथः।
अयजत् तत्र बहुभिः क्रतुभिर्भूरिदक्षिणैः ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘पूर्वदिशामें ही पुण्यनदी गङ्गा बहती है, जिसके तटपर राजा भगीरथने प्रचुर दक्षिणावाले बहुत-से यज्ञोंका अनुष्ठान किया था॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पञ्चालेषु च कौरव्य कथयन्त्युत्पलावनम्।
विश्वामित्रोऽयजद् यत्र पुत्रेण सह कौशिकः ॥ १५ ॥
मूलम्
पञ्चालेषु च कौरव्य कथयन्त्युत्पलावनम्।
विश्वामित्रोऽयजद् यत्र पुत्रेण सह कौशिकः ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘कुरुनन्दन! पंचालदेशमें ऋषिलोग उत्पलावन बतलाते हैं, जहाँ कुशिकनन्दन विश्वामित्रने अपने पुत्रके साथ यज्ञ किया था॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यत्रानुवंशं भगवाञ्जामदग्न्यस्तथा जगौ ।
विश्वामित्रस्य तां दृष्ट्वा विभूतिमतिमानुषीम् ॥ १६ ॥
मूलम्
यत्रानुवंशं भगवाञ्जामदग्न्यस्तथा जगौ ।
विश्वामित्रस्य तां दृष्ट्वा विभूतिमतिमानुषीम् ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘उसी यज्ञमें विश्वामित्रका अलौकिक वैभव देखकर जमदग्निनन्दन परशुरामने उनके वंशके अनुरूप यशका वर्णन किया था॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कान्यकुब्जेऽपिबत् सोममिन्द्रेण सह कौशिकः।
ततः क्षत्रादपाक्रामद् ब्राह्मणोऽस्मीति चाब्रवीत् ॥ १७ ॥
मूलम्
कान्यकुब्जेऽपिबत् सोममिन्द्रेण सह कौशिकः।
ततः क्षत्रादपाक्रामद् ब्राह्मणोऽस्मीति चाब्रवीत् ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘विश्वामित्रजीने कान्यकुब्जदेशमें इन्द्रके साथ सोमपान किया; वहीं वे क्षत्रियत्वसे ऊपर उठ गये और ‘मैं ब्राह्मण हूँ’ यह बात घोषित कर दी॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पवित्रमृषिभिर्जुष्टं पुण्यं पावनमुत्तमम् ।
गङ्गायमुनयोर्वीर संगमं लोकविश्रुतम् ॥ १८ ॥
मूलम्
पवित्रमृषिभिर्जुष्टं पुण्यं पावनमुत्तमम् ।
गङ्गायमुनयोर्वीर संगमं लोकविश्रुतम् ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘वीरवर! गंगा और यमुनाका परम उत्तम पुण्यमय पवित्र संगम सम्पूर्ण जगत्में विख्यात है और बड़े-बड़े महर्षि उसका सेवन करते हैं॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यत्रायजत भूतात्मा पूर्वमेव पितामहः।
प्रयागमिति विख्यातं तस्माद् भरतसत्तम ॥ १९ ॥
मूलम्
यत्रायजत भूतात्मा पूर्वमेव पितामहः।
प्रयागमिति विख्यातं तस्माद् भरतसत्तम ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जहाँ समस्त प्राणियोंके आत्मा भगवान् ब्रह्माजीने पहले ही यज्ञ किया था। भरतकुलभूषण! ब्रह्माजीके उस प्रकृष्टयागसे ही उस स्थानका नाम ‘प्रयाग’ हो गया॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अगस्त्यस्य तु राजेन्द्र तत्राश्रमवरो नृप।
तत् तथा तापसारण्यं तापसैरुपशोभितम् ॥ २० ॥
मूलम्
अगस्त्यस्य तु राजेन्द्र तत्राश्रमवरो नृप।
तत् तथा तापसारण्यं तापसैरुपशोभितम् ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘राजेन्द्र! वहाँ महर्षि अगस्त्यका श्रेष्ठ आश्रम है। इसी प्रकार तापसारण्य तपस्वीजनोंसे सुशोभित है॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
हिरण्यबिन्दुः कथितो गिरौ कालञ्जरे महान्।
आगस्त्यपर्वतो रम्यः पुण्यो गिरिवरः शिवः ॥ २१ ॥
मूलम्
हिरण्यबिन्दुः कथितो गिरौ कालञ्जरे महान्।
आगस्त्यपर्वतो रम्यः पुण्यो गिरिवरः शिवः ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘कालञ्जर पर्वतपर हिरण्यबिन्दु नामसे प्रसिद्ध महान् तीर्थ बताया गया है। आगस्त्यपर्वत बहुत ही रमणीय, पवित्र, श्रेष्ठ एवं कल्याणस्वरूप है॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
महेन्द्रो नाम कौरव्य भार्गवस्य महात्मनः।
अयजत् तत्र कौन्तेय पूर्वमेव पितामहः ॥ २२ ॥
मूलम्
महेन्द्रो नाम कौरव्य भार्गवस्य महात्मनः।
अयजत् तत्र कौन्तेय पूर्वमेव पितामहः ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘कुरुनन्दन! महात्मा भार्गवका निवासस्थान महेन्द्र-पर्वत है। कुन्तीनन्दन! वहाँ ब्रह्माजीने पूर्वकालमें यज्ञ किया था॥२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यत्र भागीरथी पुण्या सरस्यासीद् युधिष्ठिर।
यत्र सा ब्रह्मशालेति पुण्या ख्याता विशाम्पते ॥ २३ ॥
धूतपाप्मभिराकीर्णा पुण्यं तस्याश्च दर्शनम्।
मूलम्
यत्र भागीरथी पुण्या सरस्यासीद् युधिष्ठिर।
यत्र सा ब्रह्मशालेति पुण्या ख्याता विशाम्पते ॥ २३ ॥
धूतपाप्मभिराकीर्णा पुण्यं तस्याश्च दर्शनम्।
अनुवाद (हिन्दी)
‘युधिष्ठिर! जहाँ पुण्यसलिला भागीरथी गंगा सरोवरमें स्थित थी। महाराज! जहाँपर उन्हें ‘ब्रह्मशाला’ यह पवित्र नाम दिया गया है। वह पुण्यतीर्थ निष्पाप मनुष्योंसे व्याप्त है; उसका दर्शन पुण्यमय बताया गया है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पवित्रो मङ्गलीयश्च ख्यातो लोके महात्मनः ॥ २४ ॥
केदारश्च मतङ्गस्य महानाश्रम उत्तमः।
कुण्डोदः पर्वतो रम्यो बहुमूलफलोदकः ॥ २५ ॥
नैषधस्तृषितो यत्र जलं शर्म च लब्धवान्।
मूलम्
पवित्रो मङ्गलीयश्च ख्यातो लोके महात्मनः ॥ २४ ॥
केदारश्च मतङ्गस्य महानाश्रम उत्तमः।
कुण्डोदः पर्वतो रम्यो बहुमूलफलोदकः ॥ २५ ॥
नैषधस्तृषितो यत्र जलं शर्म च लब्धवान्।
अनुवाद (हिन्दी)
‘वहीं महात्मा मतंगऋषिका महान् एवं उत्तम आश्रम केदारतीर्थ है। वह परम पवित्र, मंगलकारी और लोकमें विख्यात है। कुण्डोद नामक रमणीय पर्वत बहुत फल-मूल और जलसे सम्पन्न है, जहाँ प्यासे हुए निषधनरेशको जल और शान्तिकी उपलब्धि हुई थी॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यत्र देववनं पुण्यं तापसैरुपशोभितम् ॥ २६ ॥
बाहुदा च नदी यत्र नन्दा च गिरिमूर्धनि।
मूलम्
यत्र देववनं पुण्यं तापसैरुपशोभितम् ॥ २६ ॥
बाहुदा च नदी यत्र नन्दा च गिरिमूर्धनि।
अनुवाद (हिन्दी)
‘वहीं तपस्वीजनोंसे सुशोभित पवित्र देववन नामक पुण्यक्षेत्र है, जहाँ पर्वतके शिखरपर बाहुदा और नन्दा नदी बहती हैं॥२६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तीर्थानि सरितः शैलाः पुण्यान्यायतनानि च ॥ २७ ॥
प्राच्यां दिशि महाराज कीर्तितानि मया तव।
तिसृष्वन्यानि पुण्यानि दिक्षु तीर्थानि मे शृणु।
सरितः पर्वतांश्चैव पुण्यान्यायतनानि च ॥ २८ ॥
मूलम्
तीर्थानि सरितः शैलाः पुण्यान्यायतनानि च ॥ २७ ॥
प्राच्यां दिशि महाराज कीर्तितानि मया तव।
तिसृष्वन्यानि पुण्यानि दिक्षु तीर्थानि मे शृणु।
सरितः पर्वतांश्चैव पुण्यान्यायतनानि च ॥ २८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘महाराज! पूर्वदिशामें जो बहुत-से तीर्थ, नदियाँ, पर्वत और पुण्य मन्दिर आदि हैं, उनका मैंने तुमसे (संक्षेपमें) वर्णन किया है। अब शेष तीन दिशाओंके सरिताओं, पर्वतों और पुण्यस्थानोंका वर्णन करता हूँ, सुनो’॥२७-२८॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि तीर्थयात्रापर्वणि धौम्यतीर्थयात्रायां सप्ताशीतितमोऽध्यायः ॥ ८७ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्वके अन्तर्गत तीर्थयात्रापर्वमें धौम्यतीर्थयात्राविषयक सत्तासीवाँ अध्याय पूरा हुआ॥८७॥
-
लोहितो यस्तु वर्णेन पुच्छाग्रेण तु पाण्डुरः। श्वेतः खुरविषाणाभ्यां स नीलो वृष उच्यते॥‘‘‘जिसका रंग तो लाल हो पर पूँछका अग्रभाग सफेद हो एवं खुर और सींग भी सफेद हों, वह नील वृष कहा जाता है।’’’ ↩︎