०८२ पुलस्त्येन तीर्थयात्रामाहात्म्यवर्णनम्

भागसूचना

द्व्यशीतितमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

भीष्मजीके पूछनेपर पुलस्त्यजीका उन्हें विभिन्न तीर्थोंकी यात्राका माहात्म्य बताना

मूलम् (वचनम्)

पुलस्त्य उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

अनेन तव धर्मज्ञ प्रश्रयेण दमेन च।
सत्येन च महाभाग तुष्टोऽस्मि तव सुव्रत ॥ १ ॥

मूलम्

अनेन तव धर्मज्ञ प्रश्रयेण दमेन च।
सत्येन च महाभाग तुष्टोऽस्मि तव सुव्रत ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पुलस्त्यजीने कहा— धर्मज्ञ! उत्तम व्रतका पालन करनेवाले महाभाग! तुम्हारे इस विनय, इन्द्रियसंयम और सत्यपालनसे मैं बहुत संतुष्ट हूँ॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यस्येदृशस्ते धर्मोऽयं पितृभक्त्याश्रितोऽनघ ।
तेन पश्यसि मां पुत्र प्रीतिश्च परमा त्वयि ॥ २ ॥

मूलम्

यस्येदृशस्ते धर्मोऽयं पितृभक्त्याश्रितोऽनघ ।
तेन पश्यसि मां पुत्र प्रीतिश्च परमा त्वयि ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

निष्पाप वत्स! तुम्हारेद्वारा पितृभक्तिके आश्रित जो ऐसे उत्तम धर्मका पालन हो रहा है, इसीके प्रभावसे तुम मेरा दर्शन कर रहे हो और तुमपर मेरा बहुत प्रेम हो गया है॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अमोघदर्शी भीष्माहं ब्रूहि किं करवाणि ते।
यद् वक्ष्यसि कुरुश्रेष्ठ तस्य दातास्मि तेऽनघ ॥ ३ ॥

मूलम्

अमोघदर्शी भीष्माहं ब्रूहि किं करवाणि ते।
यद् वक्ष्यसि कुरुश्रेष्ठ तस्य दातास्मि तेऽनघ ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

निष्पाप कुरुश्रेष्ठ भीष्म! मेरा दर्शन अमोघ है। बोलो, मैं तुम्हारे किस मनोरथकी पूर्ति करूँ? तुम जो माँगोगे, वही दूँगा॥३॥

मूलम् (वचनम्)

भीष्म उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रीते त्वयि महाभाग सर्वलोकाभिपूजिते।
कृतमेतावता मन्ये यदहं दृष्टवान् प्रभुम् ॥ ४ ॥

मूलम्

प्रीते त्वयि महाभाग सर्वलोकाभिपूजिते।
कृतमेतावता मन्ये यदहं दृष्टवान् प्रभुम् ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीष्मजीने कहा— महाभाग! आप सम्पूर्ण लोकों-द्वारा पूजित हैं। आपके प्रसन्न हो जानेपर मुझे क्या नहीं मिला? आप-जैसे शक्तिशाली महर्षिका मुझे दर्शन हुआ, इतनेहीसे मैं अपनेको कृतकृत्य मानता हूँ॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यदि त्वहमनुग्राह्यस्तव धर्मभृतां वर।
संदेहं ते प्रवक्ष्यामि तन्मे त्वं छेत्तुमर्हसि ॥ ५ ॥

मूलम्

यदि त्वहमनुग्राह्यस्तव धर्मभृतां वर।
संदेहं ते प्रवक्ष्यामि तन्मे त्वं छेत्तुमर्हसि ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

धर्मात्माओंमें श्रेष्ठ महर्षे! यदि मैं आपकी कृपाका पात्र हूँ तो मैं आपके सामने अपना संशय रखता हूँ। आप उसका निवारण करें॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अस्ति मे हृदये कश्चित् तीर्थेभ्यो धर्मसंशयः।
तमहं श्रोतुमिच्छामि तद् भवान् वक्तुमर्हति ॥ ६ ॥

मूलम्

अस्ति मे हृदये कश्चित् तीर्थेभ्यो धर्मसंशयः।
तमहं श्रोतुमिच्छामि तद् भवान् वक्तुमर्हति ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मेरे मनमें तीर्थोंसे होनेवाले धर्मके विषयमें कुछ संशय हो गया है, मैं उसीका समाधान सुनना चाहता हूँ; आप बतानेकी कृपा करें॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रदक्षिणां यः पृथिवीं करोत्यमरसंनिभ।
किं फलं तस्य विप्रर्षे तन्मे ब्रूहि सुनिश्चितम् ॥ ७ ॥

मूलम्

प्रदक्षिणां यः पृथिवीं करोत्यमरसंनिभ।
किं फलं तस्य विप्रर्षे तन्मे ब्रूहि सुनिश्चितम् ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

देवतुल्य ब्रह्मर्षे! जो (तीर्थोंके उद्देश्यसे) सारी पृथ्वीकी परिक्रमा करता है, उसे क्या फल मिलता है? यह निश्चित करके मुझे बताइये॥७॥

मूलम् (वचनम्)

पुलस्त्य उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

हन्त ते कथयिष्यामि यदृषीणां परायणम्।
तदेकाग्रमनाः पुत्र शृणु तीर्थेषु यत् फलम् ॥ ८ ॥

मूलम्

हन्त ते कथयिष्यामि यदृषीणां परायणम्।
तदेकाग्रमनाः पुत्र शृणु तीर्थेषु यत् फलम् ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पुलस्त्यजीने कहा— वत्स! तीर्थयात्रा ऋषियोंके लिये बहुत बड़ा आश्रय है। मैं इसके विषयमें तुम्हें बताऊँगा। तीर्थोंके सेवनसे जो फल होता है, उसे एकाग्र होकर सुनो॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यस्य हस्तौ च पादौ च मनश्चैव सुसंयतम्।
विद्या तपश्च कीर्तिश्च स तीर्थफलमश्नुते ॥ ९ ॥

मूलम्

यस्य हस्तौ च पादौ च मनश्चैव सुसंयतम्।
विद्या तपश्च कीर्तिश्च स तीर्थफलमश्नुते ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिसके हाथ, पैर और मन अपने काबूमें हों तथा जो विद्या, तप और कीर्तिसे सम्पन्न हो, वही तीर्थसेवनका फल पाता है॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रतिग्रहादपावृत्तः संतुष्टो येन केनचित्।
अहंकारनिवृत्तश्च स तीर्थफलमश्नुते ॥ १० ॥

मूलम्

प्रतिग्रहादपावृत्तः संतुष्टो येन केनचित्।
अहंकारनिवृत्तश्च स तीर्थफलमश्नुते ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो प्रतिग्रहसे दूर रहे तथा जो कुछ अपने पास हो, उसीसे संतुष्ट रहे और जिसमें अहंकारका अभाव हो, वही तीर्थका फल पाता है॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अकल्कको निरारम्भो लघ्वाहारो जितेन्द्रियः।
विमुक्तः सर्वपापेभ्य स तीर्थफलमश्नुते ॥ ११ ॥

मूलम्

अकल्कको निरारम्भो लघ्वाहारो जितेन्द्रियः।
विमुक्तः सर्वपापेभ्य स तीर्थफलमश्नुते ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो दम्भ आदि दोषोंसे दूर, कर्तृत्वके अहंकारसे शून्य, अल्पाहारी और जितेन्द्रिय हो, वह सब पापोंसे विमुक्त हो तीर्थके वास्तविक फलका भागी होता है॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अक्रोधनश्च राजेन्द्र सत्यशीलो दृढव्रतः।
आत्मोपमश्च भूतेषु स तीर्थफलमश्नुते ॥ १२ ॥

मूलम्

अक्रोधनश्च राजेन्द्र सत्यशीलो दृढव्रतः।
आत्मोपमश्च भूतेषु स तीर्थफलमश्नुते ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! जिसमें क्रोध न हो, जो सत्यवादी और दृढ़तापूर्वक व्रतका पालन करनेवाला हो तथा जो सब प्राणियोंके प्रति आत्मभाव रखता हो, वही तीर्थके फलका भागी होता है॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ऋषिभिः क्रतवः प्रोक्ता देवेष्विह यथाक्रमम्।
फलं चैव यथातथ्यं प्रेत्य चेह च सर्वशः ॥ १३ ॥

मूलम्

ऋषिभिः क्रतवः प्रोक्ता देवेष्विह यथाक्रमम्।
फलं चैव यथातथ्यं प्रेत्य चेह च सर्वशः ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ऋषियोंने देवताओंके उद्देश्यसे यथायोग्य यज्ञ बताये हैं और उन यज्ञोंका यथावत् फल भी बताया है, जो इहलोक और परलोकमें भी सर्वथा प्राप्त होता है॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न ते शक्या दरिद्रेण यज्ञाः प्राप्तुं महीपते।
बहूपकरणा यज्ञा नानासम्भारविस्तराः ॥ १४ ॥

मूलम्

न ते शक्या दरिद्रेण यज्ञाः प्राप्तुं महीपते।
बहूपकरणा यज्ञा नानासम्भारविस्तराः ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

परंतु भूपाल! दरिद्र मनुष्य उन यज्ञोंका अनुष्ठान नहीं कर सकते; क्योंकि उनमें बहुत-सी सामग्रियोंकी आवश्यकता होती है। नाना प्रकारके साधनोंका संग्रह होनेसे उनमें विस्तार बहुत बढ़ जाता है॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्राप्यन्ते पार्थिवैरेते समृद्धैर्वा नरैः क्वचित्।
नार्थन्यूनैर्नावगणैरेकात्मभिरसाधनैः ॥ १५ ॥

मूलम्

प्राप्यन्ते पार्थिवैरेते समृद्धैर्वा नरैः क्वचित्।
नार्थन्यूनैर्नावगणैरेकात्मभिरसाधनैः ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अतः राजालोग अथवा कहीं-कहीं कुछ समृद्धिशाली मनुष्य ही यज्ञोंका अनुष्ठान कर सकते हैं। जिनके पास धनकी कमी और सहायकोंका अभाव है, जो अकेले और साधनशून्य हैं, उनके द्वारा यज्ञोंका अनुष्ठान नहीं हो सकता॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यो दरिद्रैरपि विधिः शक्यः प्राप्तुं नरेश्वर।
तुल्यो यज्ञफलैः पुण्यैस्तं निबोध युधां वर ॥ १६ ॥

मूलम्

यो दरिद्रैरपि विधिः शक्यः प्राप्तुं नरेश्वर।
तुल्यो यज्ञफलैः पुण्यैस्तं निबोध युधां वर ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

योद्धाओंमें श्रेष्ठ नरेश्वर! जो सत्कर्म दरिद्रलोग भी कर सकें और जो अपने पुण्योद्वारा यज्ञोंके समान फलप्रद हो सके, उसे बताता हूँ, सुनो॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ऋषीणां परमं गुह्यमिदं भरतसत्तम।
तीर्थाभिगमनं पुण्यं यज्ञैरपि विशिष्यते ॥ १७ ॥

मूलम्

ऋषीणां परमं गुह्यमिदं भरतसत्तम।
तीर्थाभिगमनं पुण्यं यज्ञैरपि विशिष्यते ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतश्रेष्ठ! यह ऋषियोंका परम गोपनीय रहस्य है। तीर्थयात्रा बड़ा पवित्र सत्कर्म है। वह यज्ञोंसे भी बढ़कर है॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अनुपोष्य त्रिरात्राणि तीर्थान्यनभिगम्य च।
अदत्त्वा काञ्चनं गाश्च दरिद्रो नाम जायते ॥ १८ ॥

मूलम्

अनुपोष्य त्रिरात्राणि तीर्थान्यनभिगम्य च।
अदत्त्वा काञ्चनं गाश्च दरिद्रो नाम जायते ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मनुष्य इसीलिये दरिद्र होता है कि वह (तीर्थोंमें) तीन राततक उपवास नहीं करता, तीर्थोंकी यात्रा नहीं करता और सुवर्णदान और गोदान नहीं करता॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अग्निष्टोमादिभिर्यज्ञैरिष्ट्वा विपुलदक्षिणैः ।
न तत् फलमवाप्नोति तीर्थाभिगमनेन यत् ॥ १९ ॥

मूलम्

अग्निष्टोमादिभिर्यज्ञैरिष्ट्वा विपुलदक्षिणैः ।
न तत् फलमवाप्नोति तीर्थाभिगमनेन यत् ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मनुष्य तीर्थयात्रासे जिस फलको पाता है, उसे प्रचुर दक्षिणावाले अग्निष्टोम आदि यज्ञोंद्वारा यजन करके भी नहीं पा सकता॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नृलोके देवदेवस्य तीर्थं त्रैलोक्यविश्रुतम्।
पुष्करं नाम विख्यातं महाभागः समाविशेत् ॥ २० ॥

मूलम्

नृलोके देवदेवस्य तीर्थं त्रैलोक्यविश्रुतम्।
पुष्करं नाम विख्यातं महाभागः समाविशेत् ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मनुष्यलोकमें देवाधिदेव ब्रह्माजीका त्रिलोक-विख्यात तीर्थ है, जो ‘पुष्कर’ नामसे प्रसिद्ध है। उसमें कोई बड़भागी मनुष्य ही प्रवेश कर पाता है॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दशकोटिसहस्राणि तीर्थानां वै महामते।
सांनिध्यं पुष्करे येषां त्रिसंध्यं कुरुनन्दन ॥ २१ ॥

मूलम्

दशकोटिसहस्राणि तीर्थानां वै महामते।
सांनिध्यं पुष्करे येषां त्रिसंध्यं कुरुनन्दन ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महामते कुरुनन्दन! पुष्करमें तीनों समय दस सहस्र कोटि (दस अरब) तीर्थोंका निवास रहता है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आदित्या वसवो रुद्राः साध्याश्च समरुद्गणाः।
गन्धर्वाप्सरसश्चैव नित्यं संनिहिता विभो ॥ २२ ॥

मूलम्

आदित्या वसवो रुद्राः साध्याश्च समरुद्गणाः।
गन्धर्वाप्सरसश्चैव नित्यं संनिहिता विभो ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

विभो! वहाँ आदित्य, वसु, रुद्र, साध्य, मरुद्‌गण, गन्धर्व और अप्सराओंकी भी नित्य संनिधि रहती है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यत्र देवास्तपस्तप्त्वा दैत्या ब्रह्मर्षयस्तथा।
दिव्ययोगा महाराज पुण्येन महतान्विताः ॥ २३ ॥

मूलम्

यत्र देवास्तपस्तप्त्वा दैत्या ब्रह्मर्षयस्तथा।
दिव्ययोगा महाराज पुण्येन महतान्विताः ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाराज! वहाँ तप करके देवता, दैत्य और ब्रह्मर्षि महान् पुण्यसे सम्पन्न दिव्य योगसे युक्त होते हैं॥२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मनसाप्यभिकामस्य पुष्कराणि मनस्विनः ।
पूयन्ते सर्वपापानि नाकपृष्ठे च पूज्यते ॥ २४ ॥

मूलम्

मनसाप्यभिकामस्य पुष्कराणि मनस्विनः ।
पूयन्ते सर्वपापानि नाकपृष्ठे च पूज्यते ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो मनस्वी पुरुष मनसे भी पुष्कर तीर्थमें जानेकी इच्छा करता है, उसके स्वर्गके प्रतिबन्धक सारे पाप मिट जाते हैं और वह स्वर्गलोकमें पूजित होता है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्मिंस्तीर्थे महाराज नित्यमेव पितामहः।
उवास परमप्रीतो भगवान् कमलासनः ॥ २५ ॥

मूलम्

तस्मिंस्तीर्थे महाराज नित्यमेव पितामहः।
उवास परमप्रीतो भगवान् कमलासनः ॥ २५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाराज! उस तीर्थमें कमलासन भगवान् ब्रह्माजी नित्य ही बड़ी प्रसन्नताके साथ निवास करते हैं॥२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पुष्करेषु महाभाग देवाः सर्षिगणाः पुरा।
सिद्धिं समभिसम्प्राप्ताः पुण्येन महतान्विताः ॥ २६ ॥

मूलम्

पुष्करेषु महाभाग देवाः सर्षिगणाः पुरा।
सिद्धिं समभिसम्प्राप्ताः पुण्येन महतान्विताः ॥ २६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाभाग! पुष्करमें पहले देवता तथा ऋषि महान् पुण्यसे सम्पन्न हो सिद्धि प्राप्त कर चुके हैं॥२६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत्राभिषेकं यः कुर्यात् पितृदेवार्चने रतः।
अश्वमेधाद् दशगुणं फलं प्राहुर्मनीषिणः ॥ २७ ॥

मूलम्

तत्राभिषेकं यः कुर्यात् पितृदेवार्चने रतः।
अश्वमेधाद् दशगुणं फलं प्राहुर्मनीषिणः ॥ २७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो वहाँ स्नान करता तथा देवताओं और पितरोंकी पूजामें संलग्न रहता है, उस पुरुषको अश्वमेधसे दस गुना फल प्राप्त होता है; ऐसा मनीषीगण कहते हैं॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अप्येकं भोजयेद् विप्रं पुष्करारण्यमाश्रितः।
तेनासौ कर्मणा भीष्म प्रेत्य चेह च मोदते ॥ २८ ॥

मूलम्

अप्येकं भोजयेद् विप्रं पुष्करारण्यमाश्रितः।
तेनासौ कर्मणा भीष्म प्रेत्य चेह च मोदते ॥ २८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीष्म! पुष्करमें जाकर कम-से-कम एक ब्राह्मणको अवश्य भोजन कराये। उस पुण्यकर्मसे मनुष्य इहलोक और परलोकमें भी आनन्दका भागी होता है॥२८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शाकैर्मूलैः फलैर्वापि येन वर्तयते स्वयम्।
तद् वै दद्याद् ब्राह्मणाय श्रद्धावाननसूयकः ॥ २९ ॥

मूलम्

शाकैर्मूलैः फलैर्वापि येन वर्तयते स्वयम्।
तद् वै दद्याद् ब्राह्मणाय श्रद्धावाननसूयकः ॥ २९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मनुष्य साग, फल तथा मूल जिसके द्वारा स्वयं प्राणयात्राका निर्वाह करता है, वही श्रद्धाभावसे दूसरोंके दोष न देखते हुए ब्राह्मणको दान करे॥२९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तेनैव प्राप्नुयात् प्राज्ञो हयमेधफलं नरः।
ब्राह्मणाः क्षत्रिया वैश्याः शूद्रा वा राजसत्तम ॥ ३० ॥
न वै योनौ प्रजायते स्नातास्तीर्थे महात्मनः।

मूलम्

तेनैव प्राप्नुयात् प्राज्ञो हयमेधफलं नरः।
ब्राह्मणाः क्षत्रिया वैश्याः शूद्रा वा राजसत्तम ॥ ३० ॥
न वै योनौ प्रजायते स्नातास्तीर्थे महात्मनः।

अनुवाद (हिन्दी)

उसीसे विद्वान् पुरुष अश्वमेधयज्ञका फल पाता है। नृपश्रेष्ठ! ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य अथवा शूद्र जो कोई भी महात्मा ब्रह्माजीके तीर्थमें स्नान कर लेते हैं, वे फिर किसी योनिमें जन्म नहीं लेते हैं॥३०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कार्तिकीं तु विशेषण योऽभिगच्छति पुष्करम् ॥ ३१ ॥
प्राप्नुयात् स नरो लोकान् ब्रह्मणः सदनेऽक्षयान्।

मूलम्

कार्तिकीं तु विशेषण योऽभिगच्छति पुष्करम् ॥ ३१ ॥
प्राप्नुयात् स नरो लोकान् ब्रह्मणः सदनेऽक्षयान्।

अनुवाद (हिन्दी)

विशेषतः कार्तिकमासकी पूर्णिमाको जो पुष्करतीर्थमें स्नानके लिये जाता है, वह मनुष्य ब्रह्मधाममें अक्षय लोकोंको प्राप्त होता है॥३१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सायं प्रातः स्मरेद् यस्तु पुष्कराणि कृताञ्जलिः ॥ ३२ ॥
उपस्पृष्टं भवेत् तेन सर्वतीर्थेषु भारत।

मूलम्

सायं प्रातः स्मरेद् यस्तु पुष्कराणि कृताञ्जलिः ॥ ३२ ॥
उपस्पृष्टं भवेत् तेन सर्वतीर्थेषु भारत।

अनुवाद (हिन्दी)

भारत! जो सायंकाल और प्रातःकाल हाथ जोड़कर तीनों पुष्करोंका स्मरण करता है, उसने मानो सब तीर्थोंमें स्नान एवं आचमन कर लिया॥३२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जन्मप्रभृति यत् पापं स्त्रिया वा पुरुषेण वा ॥ ३३ ॥
पुष्करे स्नातमात्रस्य सर्वमेव प्रणश्यति।

मूलम्

जन्मप्रभृति यत् पापं स्त्रिया वा पुरुषेण वा ॥ ३३ ॥
पुष्करे स्नातमात्रस्य सर्वमेव प्रणश्यति।

अनुवाद (हिन्दी)

स्त्री अथवा पुरुषने जन्मसे लेकर वर्तमान अवस्थातक जितने भी पाप किये हैं, पुष्करतीर्थमें स्नान करनेमात्रसे वे सब पाप नष्ट हो जाते हैं॥३३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथा सुराणां सर्वेषामादिस्तु मधुसूदनः ॥ ३४ ॥
तथैव पुष्करं राजंस्तीर्थानामादिरुच्यते ।

मूलम्

यथा सुराणां सर्वेषामादिस्तु मधुसूदनः ॥ ३४ ॥
तथैव पुष्करं राजंस्तीर्थानामादिरुच्यते ।

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! जैसे भगवान् मधुसूदन (विष्णु) सब देवताओंके आदि हैं, वैसे ही पुष्कर सब तीर्थोंका आदि कहा जाता है॥३४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उष्ट्वा द्वादश वर्षाणि पुष्करे नियतः शुचिः ॥ ३५ ॥
क्रतून् सर्वानवाप्नोति ब्रह्मलोकं स गच्छति।

मूलम्

उष्ट्वा द्वादश वर्षाणि पुष्करे नियतः शुचिः ॥ ३५ ॥
क्रतून् सर्वानवाप्नोति ब्रह्मलोकं स गच्छति।

अनुवाद (हिन्दी)

पुष्करमें पवित्रतापूर्वक संयम-नियमके साथ बारह वर्षोंतक निवास करके मानव सम्पूर्ण यज्ञोंका फल पाता और ब्रह्मलोकको जाता है॥३५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यस्तु वर्षशतं पूर्णमग्निहोत्रमुपासते ॥ ३६ ॥
कार्तिकीं वा वसेदेकां पुष्करे सममेव तत् ॥ ३७ ॥

मूलम्

यस्तु वर्षशतं पूर्णमग्निहोत्रमुपासते ॥ ३६ ॥
कार्तिकीं वा वसेदेकां पुष्करे सममेव तत् ॥ ३७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो पूरे सौ वर्षोंतक अग्निहोत्र करता है और जो कार्तिककी एक ही पूर्णिमाको पुष्करमें वास करता है, दोनोंका फल बराबर है॥३६-३७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्रीणि शृङ्गाणि शुभ्राणि त्रीणि प्रस्रवणानि च।
पुष्कराण्यादिसिद्धानि न विद्मस्तत्र कारणम् ॥ ३८ ॥

मूलम्

त्रीणि शृङ्गाणि शुभ्राणि त्रीणि प्रस्रवणानि च।
पुष्कराण्यादिसिद्धानि न विद्मस्तत्र कारणम् ॥ ३८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तीन शुभ्र पर्वतशिखर, तीन सोते और तीन पुष्कर—ये आदिसिद्ध तीर्थ हैं। ये कब किस कारणसे तीर्थ माने गये? इसका हमें पता नहीं है॥३८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दुष्करं पुष्करे गन्तुं दुष्करं पुष्करे तपः।
दुष्करं पुष्करे दानं वस्तुं चैव सुदुष्करम् ॥ ३९ ॥

मूलम्

दुष्करं पुष्करे गन्तुं दुष्करं पुष्करे तपः।
दुष्करं पुष्करे दानं वस्तुं चैव सुदुष्करम् ॥ ३९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पुष्करमें जाना अत्यन्त दुर्लभ है, पुष्करमें तप अत्यन्त दुर्लभ है, पुष्करमें दान देनेका सुयोग तो और भी दुर्लभ है और उसमें निवासका सौभाग्य तो अत्यन्त ही दुष्कर है॥३९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उष्य द्वादशरात्रं तु नियतो नियताशनः।
प्रदक्षिणमुपावृत्य जम्बूमार्गं समाविशेत् ॥ ४० ॥

मूलम्

उष्य द्वादशरात्रं तु नियतो नियताशनः।
प्रदक्षिणमुपावृत्य जम्बूमार्गं समाविशेत् ॥ ४० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वहाँ इन्द्रियसंयम और नियमित आहार करते हुए बारह रात रहकर तीर्थकी परिक्रमा करनेके पश्चात् जम्बूमार्गको जाय॥४०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जम्बूमार्गं समाविश्य देवर्षिपितृसेवितम् ।
अश्वमेधमवाप्नोति सर्वकामसमन्वितः ॥ ४१ ॥

मूलम्

जम्बूमार्गं समाविश्य देवर्षिपितृसेवितम् ।
अश्वमेधमवाप्नोति सर्वकामसमन्वितः ॥ ४१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जम्बूमार्ग देवताओं, ऋषियों तथा पितरोंसे सेवित तीर्थ है। उसमें जाकर मनुष्य समस्त मनोवांछित भोगोंसे सम्पन्न हो अश्वमेधयज्ञका फल पाता है॥४१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत्रोष्य रजनीः पञ्च पूतात्मा जायते नरः।
न दुर्गतिमवाप्नोति सिद्धिं प्राप्नोति चोत्तमाम् ॥ ४२ ॥

मूलम्

तत्रोष्य रजनीः पञ्च पूतात्मा जायते नरः।
न दुर्गतिमवाप्नोति सिद्धिं प्राप्नोति चोत्तमाम् ॥ ४२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वहाँ पाँच रात निवास करनेसे मनुष्यका अन्तःकरण पवित्र हो जाता है। उसे कभी दुर्गति नहीं प्राप्त होती, वह उत्तम सिद्धि पा लेता है॥४२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जम्बूमार्गादुपावृत्य गच्छेत् तन्दुलिकाश्रमम् ।
न दुर्गतिमवाप्नोति ब्रह्मलोकं च गच्छति ॥ ४३ ॥

मूलम्

जम्बूमार्गादुपावृत्य गच्छेत् तन्दुलिकाश्रमम् ।
न दुर्गतिमवाप्नोति ब्रह्मलोकं च गच्छति ॥ ४३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जम्बूमार्गसे लौटकर मनुष्य तन्दुलिकाश्रमको जाय। इससे वह दुर्गतिमें नहीं पड़ता और अन्तमें ब्रह्मलोकको चला जाता है॥४३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आगस्त्यं सर आसाद्य पितृदेवार्चने रतः।
त्रिरात्रोपोषितो राजन्नग्निष्टोमफलं लभेत् ॥ ४४ ॥

मूलम्

आगस्त्यं सर आसाद्य पितृदेवार्चने रतः।
त्रिरात्रोपोषितो राजन्नग्निष्टोमफलं लभेत् ॥ ४४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! जो अगस्त्यसरोवर जाकर देवताओं और पितरोंके पूजनमें तत्पर हो तीन रात उपवास करता है, वह अग्निष्टोमयज्ञका फल पाता है॥४४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शाकवृत्तिः फलैर्वापि कौमारं विन्दते परम्।
कण्वाश्रमं ततो गच्छेच्छ्रीजुष्टं लोकपूजितम् ॥ ४५ ॥

मूलम्

शाकवृत्तिः फलैर्वापि कौमारं विन्दते परम्।
कण्वाश्रमं ततो गच्छेच्छ्रीजुष्टं लोकपूजितम् ॥ ४५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो शाकाहार या फलाहार करके वहाँ रहता है, वह परम उत्तम कुमारलोक (कार्तिकेयके लोक)-में जाता है। वहाँसे लोकपूजित कण्वके आश्रममें जाय, जो भगवती लक्ष्मीके द्वारा सेवित है॥४५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

धर्मारण्यं हि तत् पुण्यमाद्यं च भरतर्षभ।
यत्र प्रविष्टमात्रो वै सर्वपापैः प्रमुच्यते ॥ ४६ ॥

मूलम्

धर्मारण्यं हि तत् पुण्यमाद्यं च भरतर्षभ।
यत्र प्रविष्टमात्रो वै सर्वपापैः प्रमुच्यते ॥ ४६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतश्रेष्ठ! वह धर्मारण्य कहलाता है, उसे परम पवित्र एवं आदितीर्थ माना गया है। उसमें प्रवेश करनेमात्रसे मनुष्य सब पापोंसे छुटकारा पा जाता है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अर्चयित्वा पितॄन् देवान् नियतो नियताशनः।
सर्वकामसमृद्धस्य यज्ञस्य फलमश्नुते ॥ ४७ ॥

मूलम्

अर्चयित्वा पितॄन् देवान् नियतो नियताशनः।
सर्वकामसमृद्धस्य यज्ञस्य फलमश्नुते ॥ ४७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो वहाँ नियमपूर्वक मिताहारी होकर देवता और पितरोंकी पूजा करता है, वह सम्पूर्ण कामनाओंसे सम्पन्न यज्ञका फल पाता है॥४७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रदक्षिणं ततः कृत्वा ययातिपतनं व्रजेत्।
हयमेधस्य यज्ञस्य फलं प्राप्नोति तत्र वै ॥ ४८ ॥

मूलम्

प्रदक्षिणं ततः कृत्वा ययातिपतनं व्रजेत्।
हयमेधस्य यज्ञस्य फलं प्राप्नोति तत्र वै ॥ ४८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर उस तीर्थकी परिक्रमा करके वहाँसे ययातिपतन नामक तीर्थमें जाय। वहाँ जानेसे यात्रीको अवश्य ही अश्वमेधयज्ञका फल मिलता है॥४८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

महाकालं ततो गच्छेन्नियतो नियताशनः।
कोटितीर्थमुपस्पृश्य हयमेधफलं लभेत् ॥ ४९ ॥

मूलम्

महाकालं ततो गच्छेन्नियतो नियताशनः।
कोटितीर्थमुपस्पृश्य हयमेधफलं लभेत् ॥ ४९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वहाँसे महाकालतीर्थको जाय। वहाँ नियम-पूर्वक रहकर नियमित भोजन करे। वहाँ कोटितीर्थमें आचमन (एवं स्नान) करनेसे अश्वमेधयज्ञका फल प्राप्त होता है॥४९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो गच्छेत धर्मज्ञः स्थाणोस्तीर्थमुमापतेः।
नाम्ना भद्रवटं नाम त्रिषु लोकेषु विश्रुतम् ॥ ५० ॥

मूलम्

ततो गच्छेत धर्मज्ञः स्थाणोस्तीर्थमुमापतेः।
नाम्ना भद्रवटं नाम त्रिषु लोकेषु विश्रुतम् ॥ ५० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वहाँसे धर्मज्ञ पुरुष उमावल्लभ भगवान् स्थाणु (शिव)-के उस तीर्थमें जाय, जो तीनों लोकोंमें ‘भद्रवट’ के नामसे प्रसिद्ध है॥५०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत्राभिगम्य चेशानं गोसहस्रफलं लभेत्।
महादेवप्रसादाच्च गाणपत्यं च विन्दति ॥ ५१ ॥
समृद्धमसपत्नं च श्रिया युक्तं नरोत्तमः।

मूलम्

तत्राभिगम्य चेशानं गोसहस्रफलं लभेत्।
महादेवप्रसादाच्च गाणपत्यं च विन्दति ॥ ५१ ॥
समृद्धमसपत्नं च श्रिया युक्तं नरोत्तमः।

अनुवाद (हिन्दी)

वहाँ भगवान् शिवका निकटसे दर्शन करके नरश्रेष्ठ यात्री एक हजार गोदानका फल पाता है और महादेवजीके प्रसादसे वह गणोंका आधिपत्य प्राप्त कर लेता है, जो आधिपत्य भारी समृद्धि और लक्ष्मीसे सम्पन्न तथा शत्रुजनित बाधासे रहित होता है॥५१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नर्मदां तु समासाद्य नदीं त्रैलोक्यविश्रुताम् ॥ ५२ ॥
तर्पयित्वा पितॄन् देवानग्निष्टोमफलं लभेत्।

मूलम्

नर्मदां तु समासाद्य नदीं त्रैलोक्यविश्रुताम् ॥ ५२ ॥
तर्पयित्वा पितॄन् देवानग्निष्टोमफलं लभेत्।

अनुवाद (हिन्दी)

वहाँसे त्रिभुवनविख्यात नर्मदा नदीके तटपर जाकर देवताओं और पितरोंका तर्पण करनेसे अग्निष्टोम-यज्ञका फल प्राप्त होता है॥५२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दक्षिणं सिन्धुमासाद्य ब्रह्मचारी जितेन्द्रियः ॥ ५३ ॥
अग्निष्टोममवाप्नोति विमानं चाधिरोहति ।

मूलम्

दक्षिणं सिन्धुमासाद्य ब्रह्मचारी जितेन्द्रियः ॥ ५३ ॥
अग्निष्टोममवाप्नोति विमानं चाधिरोहति ।

अनुवाद (हिन्दी)

इन्द्रियोंको काबूमें रखकर ब्रह्मचर्यका पालन करते हुए दक्षिण समुद्रकी यात्रा करनेसे मनुष्य अग्निष्टोमयज्ञका फल और विमानपर बैठनेका सौभाग्य पाता है॥५३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

चर्मण्वतीं समासाद्य नियतो नियताशनः।
रन्तिदेवाभ्यनुज्ञातमग्निष्टोमफलं लभेत् ॥ ५४ ॥

मूलम्

चर्मण्वतीं समासाद्य नियतो नियताशनः।
रन्तिदेवाभ्यनुज्ञातमग्निष्टोमफलं लभेत् ॥ ५४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इन्द्रियसंयम या शौच-संतोष आदिके पालनपूर्वक नियमित आहारका सेवन करते हुए चर्मण्वती (चंबल) नदीमें स्नान आदि करनेसे राजा रन्तिदेवद्वारा अनुमोदित अग्निष्टोमयज्ञका फल प्राप्त होता है॥५४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो गच्छेत धर्मज्ञ हिमवत्सुतमर्बुदम्।
पृथिव्यां यत्र वै छिद्रं पूर्वमासीद् युधिष्ठिर ॥ ५५ ॥

मूलम्

ततो गच्छेत धर्मज्ञ हिमवत्सुतमर्बुदम्।
पृथिव्यां यत्र वै छिद्रं पूर्वमासीद् युधिष्ठिर ॥ ५५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

धर्मज्ञ युधिष्ठिर1! वहाँसे आगे हिमालयपुत्र अर्बुद (आबू)-की यात्रा करे, जहाँ पहले पृथ्वीमें विवर था॥५५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत्राश्रमो वसिष्ठस्य त्रिषु लोकेषु विश्रुतः।
तत्रोष्य रजनीमेकां गोसहस्रफलं लभेत् ॥ ५६ ॥

मूलम्

तत्राश्रमो वसिष्ठस्य त्रिषु लोकेषु विश्रुतः।
तत्रोष्य रजनीमेकां गोसहस्रफलं लभेत् ॥ ५६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वहाँ महर्षि वसिष्ठका त्रिलोकविख्यात आश्रम है, जिसमें एक रात रहनेसे सहस्र गोदानका फल मिलता है॥५६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पिङ्गतीर्थमुपस्पृश्य ब्रह्मचारी जितेन्द्रियः ।
कपिलानां नरश्रेष्ठ शतस्य फलमश्नुते ॥ ५७ ॥

मूलम्

पिङ्गतीर्थमुपस्पृश्य ब्रह्मचारी जितेन्द्रियः ।
कपिलानां नरश्रेष्ठ शतस्य फलमश्नुते ॥ ५७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नरश्रेष्ठ! पिंगतीर्थमें स्नान एवं आचमन करके ब्रह्मचारी एवं जितेन्द्रिय मनुष्य सौ कपिलाओंके-दानका फल प्राप्त कर लेता है॥५७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो गच्छेत राजेन्द्र प्रभासं तीर्थमुत्तमम्।
तत्र संनिहितों नित्यं स्वयमेव हुताशनः ॥ ५८ ॥
देवतानां मुखं वीर ज्वलनोऽनिलसारथिः।

मूलम्

ततो गच्छेत राजेन्द्र प्रभासं तीर्थमुत्तमम्।
तत्र संनिहितों नित्यं स्वयमेव हुताशनः ॥ ५८ ॥
देवतानां मुखं वीर ज्वलनोऽनिलसारथिः।

अनुवाद (हिन्दी)

राजेन्द्र! तदनन्तर उत्तम प्रभासतीर्थमें जाय। वीर! उस तीर्थमें देवताओंके मुखस्वरूप भगवान् अग्निदेव, जिनके सारथि वायु हैं, सदा निवास करते हैं॥५८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्मिंस्तीर्थे नरः स्नात्वा शुचिः प्रयतमानसः ॥ ५९ ॥
अग्निष्टोमातिरात्राभ्यां फलं प्राप्नोति मानवः।

मूलम्

तस्मिंस्तीर्थे नरः स्नात्वा शुचिः प्रयतमानसः ॥ ५९ ॥
अग्निष्टोमातिरात्राभ्यां फलं प्राप्नोति मानवः।

अनुवाद (हिन्दी)

उस तीर्थमें स्नान करके शुद्ध एवं संयत चित्त हो मानव अतिरात्र और अग्निष्टोम यज्ञोंका फल पाता है॥५९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो गत्वा सरस्वत्याः सागरस्य च संगमे ॥ ६० ॥
गोसहस्रफलं तस्य स्वर्गलोकं च विन्दति।
प्रभया दीप्यते नित्यमग्निवद् भरतर्षभ ॥ ६१ ॥

मूलम्

ततो गत्वा सरस्वत्याः सागरस्य च संगमे ॥ ६० ॥
गोसहस्रफलं तस्य स्वर्गलोकं च विन्दति।
प्रभया दीप्यते नित्यमग्निवद् भरतर्षभ ॥ ६१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर सरस्वती और समुद्रके संगममें जाकर स्नान करनेसे मनुष्य सहस्र गोदानका फल और स्वर्गलोक पाता है। भरतश्रेष्ठ! वह पुण्यात्मा पुरुष अपने तेजसे सदा अग्निकी भाँति प्रकाशित होता है॥६०-६१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तीर्थे सलिलराजस्य स्नात्वा प्रयतमानसः।
त्रिरात्रमुषितः स्नातस्तर्पयेत् पितृदेवताः ॥ ६२ ॥

मूलम्

तीर्थे सलिलराजस्य स्नात्वा प्रयतमानसः।
त्रिरात्रमुषितः स्नातस्तर्पयेत् पितृदेवताः ॥ ६२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मनुष्य शुद्धचित्त हो जलोंके स्वामी वरुणके तीर्थ (समुद्र)-में स्नान करके वहाँ तीन रात रहे और प्रतिदिन नहाकर देवताओं तथा पितरोंका तर्पण करे॥६२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रभासते यथा सोमः सोऽश्वमेधं च विन्दति।
वरदानं ततो गच्छेत् तीर्थं भरतसत्तम ॥ ६३ ॥

मूलम्

प्रभासते यथा सोमः सोऽश्वमेधं च विन्दति।
वरदानं ततो गच्छेत् तीर्थं भरतसत्तम ॥ ६३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ऐसा करनेवाला यात्री चन्द्रमाके समान प्रकाशित होता है। साथ ही उसे अश्वमेधयज्ञका फल मिलता है। भरतश्रेष्ठ! वहाँसे वरदानतीर्थमें जाय॥६३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विष्णोर्दुर्वाससा यत्र वरो दत्तो युधिष्ठिर।
वरदाने नरः स्नात्वा गोसहस्रफलं लभेत् ॥ ६४ ॥

मूलम्

विष्णोर्दुर्वाससा यत्र वरो दत्तो युधिष्ठिर।
वरदाने नरः स्नात्वा गोसहस्रफलं लभेत् ॥ ६४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिर! यह वह स्थान है, जहाँ मुनिवर दुर्वासाने श्रीकृष्णको वरदान दिया था। वरदानतीर्थमें स्नान करनेसे मानव सहस्र गोदानका फल पाता है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो द्वारवतीं गच्छेन्नियतो नियताशनः।
पिण्डारके नरः स्नात्वा लभेद् बहु सुवर्णकम् ॥ ६५ ॥

मूलम्

ततो द्वारवतीं गच्छेन्नियतो नियताशनः।
पिण्डारके नरः स्नात्वा लभेद् बहु सुवर्णकम् ॥ ६५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वहाँसे तीर्थयात्रीको द्वारका जाना चाहिये। वह नियमसे रहे और नियमित भोजन करे। पिण्डारकतीर्थमें स्नान करनेसे मनुष्यको अधिकाधिक सुवर्णकी प्राप्ति होती है॥६५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्मिंस्तीर्थे महाभाग पद्मलक्षणलक्षिताः ।
अद्यापि मुद्रा दृश्यन्ते तदद्भुतमरिंदम ॥ ६६ ॥

मूलम्

तस्मिंस्तीर्थे महाभाग पद्मलक्षणलक्षिताः ।
अद्यापि मुद्रा दृश्यन्ते तदद्भुतमरिंदम ॥ ६६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाभाग! उस तीर्थमें आज भी कमलके चिह्नोंसे चिह्नित सुवर्णमुद्राएँ देखी जाती हैं। शत्रुदमन! यह एक अद्भुत बात है॥६६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्रिशूलाङ्कानि पद्मानि दृश्यन्ते कुरुनन्दन।
महादेवस्य सांनिध्यं तत्र वै पुरुषर्षभ ॥ ६७ ॥

मूलम्

त्रिशूलाङ्कानि पद्मानि दृश्यन्ते कुरुनन्दन।
महादेवस्य सांनिध्यं तत्र वै पुरुषर्षभ ॥ ६७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पुरुषरत्न कुरुनन्दन! जहाँ त्रिशूलसे अंकित कमल दृष्टिगोचर होते हैं। वहीं महादेवजीका निवास है॥६७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सागरस्य च सिन्धोश्च संगमं प्राप्य भारत।
तीर्थे सलिलराजस्य स्नात्वा प्रयतमानसः ॥ ६८ ॥
तर्पयित्वा पितॄन् देवानृषींश्च भरतर्षभ।
प्राप्नोति वारुणं लोकं दीप्यमानं स्वतेजसा ॥ ६९ ॥

मूलम्

सागरस्य च सिन्धोश्च संगमं प्राप्य भारत।
तीर्थे सलिलराजस्य स्नात्वा प्रयतमानसः ॥ ६८ ॥
तर्पयित्वा पितॄन् देवानृषींश्च भरतर्षभ।
प्राप्नोति वारुणं लोकं दीप्यमानं स्वतेजसा ॥ ६९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भारत! सतर और सिंधु नदीके संगममें जाकर वरुणतीर्थमें स्नान करके शुद्धचित्त हो देवताओं, ऋषियों तथा पितरोंका तर्पण करे। भरतकुलतिलक! ऐसा करनेसे मनुष्य दिव्य दीप्तिसे देदीप्यमान वरुणलोकको प्राप्त होता है॥६८-६९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शङ्कुकर्णेश्वरं देवमर्चयित्वा युधिष्ठिर ।
अश्वमेधाद् दशगुणं प्रवदन्ति मनीषिणः ॥ ७० ॥

मूलम्

शङ्कुकर्णेश्वरं देवमर्चयित्वा युधिष्ठिर ।
अश्वमेधाद् दशगुणं प्रवदन्ति मनीषिणः ॥ ७० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिर! वहाँ शंकुकर्णेश्वर शिवकी पूजा करनेसे मनीषी पुरुष अश्वमेधसे दस गुने पुण्यफलकी प्राप्ति बताते हैं॥७०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रदक्षिणमुपावृत्य गच्छेत भरतर्षभ ।
तीर्थं कुरुवरश्रेष्ठ त्रिषु लोकेषु विश्रुतम् ॥ ७१ ॥
दमीति नाम्ना विख्यातं सर्वपापप्रणाशनम्।
तत्र ब्रह्मादयो देवा उपासन्ते महेश्वरम् ॥ ७२ ॥

मूलम्

प्रदक्षिणमुपावृत्य गच्छेत भरतर्षभ ।
तीर्थं कुरुवरश्रेष्ठ त्रिषु लोकेषु विश्रुतम् ॥ ७१ ॥
दमीति नाम्ना विख्यातं सर्वपापप्रणाशनम्।
तत्र ब्रह्मादयो देवा उपासन्ते महेश्वरम् ॥ ७२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतवंशावतंस कुरुश्रेष्ठ! उनकी परिक्रमा करके त्रिभुवन-विख्यात ‘दमी’ नामक तीर्थमें जाय, जो सब पापोंका नाश करनेवाला है। वहाँ ब्रह्मा आदि देवता भगवान् महेश्वरकी उपासना करते हैं॥७१-७२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत्र स्नात्वा च पीत्वा च रुद्रं देवगणैर्वृतम्।
जन्मप्रभृति यत् पापं तत् स्नातस्य प्रणश्यति ॥ ७३ ॥

मूलम्

तत्र स्नात्वा च पीत्वा च रुद्रं देवगणैर्वृतम्।
जन्मप्रभृति यत् पापं तत् स्नातस्य प्रणश्यति ॥ ७३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वहाँ स्नान, जलपान और देवताओंसे घिरे हुए रुद्रदेवका दर्शन-पूजन करनेसे स्नानकर्ता पुरुषके जन्मसे लेकर वर्तमान समयतकके सारे पाप नष्ट हो जाते हैं॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दमी चात्र नरश्रेष्ठ सर्वदेवैरभिष्टुतः।
तत्र स्नात्वा नरव्याघ्र हयमेधमवाप्नुयात् ॥ ७४ ॥

मूलम्

दमी चात्र नरश्रेष्ठ सर्वदेवैरभिष्टुतः।
तत्र स्नात्वा नरव्याघ्र हयमेधमवाप्नुयात् ॥ ७४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नरश्रेष्ठ! भगवान् दमीका सभी देवता स्तवन करते हैं। पुरुषसिंह! वहाँ स्नान करनेसे अश्वमेधयज्ञके फलकी प्राप्ति होती है॥७४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गत्वा यत्र महाप्राज्ञ विष्णुना प्रभविष्णुना।
पुरा शौचं कृतं राजन् हत्वा दैतेयदानवान् ॥ ७५ ॥

मूलम्

गत्वा यत्र महाप्राज्ञ विष्णुना प्रभविष्णुना।
पुरा शौचं कृतं राजन् हत्वा दैतेयदानवान् ॥ ७५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाप्राज्ञ नरेश! सर्वशक्तिमान् भगवान् विष्णुने पहले दैत्यों-दानवोंका वध करके इसी तीर्थमें जाकर (लोकसंग्रहके लिये) शुद्धि की थी॥७५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो गच्छेत धर्मज्ञ वसोर्धारामभिष्टुताम्।
गमनादेव तस्यां हि हयमेधफलं लभेत् ॥ ७६ ॥

मूलम्

ततो गच्छेत धर्मज्ञ वसोर्धारामभिष्टुताम्।
गमनादेव तस्यां हि हयमेधफलं लभेत् ॥ ७६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

धर्मज्ञ! वहाँसे वसुधारातीर्थमें जाय, जो सबके द्वारा प्रशंसित है। वहाँ जानेमात्रसे अश्वमेधयज्ञका फल मिलता है॥७६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्नात्वा कुरुवरश्रेष्ठ प्रयतात्मा समाहितः।
तर्प्य देवान् पितॄंश्चैव विष्णुलोके महीयते ॥ ७७ ॥

मूलम्

स्नात्वा कुरुवरश्रेष्ठ प्रयतात्मा समाहितः।
तर्प्य देवान् पितॄंश्चैव विष्णुलोके महीयते ॥ ७७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कुरुश्रेष्ठ! वहाँ स्नान करके शुद्ध और समाहितचित्त होकर देवताओं और पितरोंका तर्पण करनेसे मनुष्य विष्णुलोकमें प्रतिष्ठित होता है॥७७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तीर्थे चात्र सरः पुण्यं वसूनां भरतर्षभ।
तत्र स्नात्वा च पीत्वा च वसूनां सम्मतो भवेत्॥७८॥
सिन्धूत्तममिति ख्यातं सर्वपापप्रणाशनम् ।
तत्र स्नात्वा नरश्रेष्ठ लभेद् बहु सुवर्णकम् ॥ ७९ ॥

मूलम्

तीर्थे चात्र सरः पुण्यं वसूनां भरतर्षभ।
तत्र स्नात्वा च पीत्वा च वसूनां सम्मतो भवेत्॥७८॥
सिन्धूत्तममिति ख्यातं सर्वपापप्रणाशनम् ।
तत्र स्नात्वा नरश्रेष्ठ लभेद् बहु सुवर्णकम् ॥ ७९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतश्रेष्ठ! उस तीर्थमें वसुओंका पवित्र सरोवर है। उसमें स्नान और जलपान करनेसे मनुष्य वसु देवताओंका प्रिय होता है। नरश्रेष्ठ! वहीं सिन्धूत्तम नामसे प्रसिद्ध तीर्थ है, जो सब पापोंका नाश करनेवाला है। उसमें स्नान करनेसे प्रचुर स्वर्णराशिकी प्राप्ति होती है॥७८-७९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भद्रतुङ्‌गं समासाद्य शुचिः शीलसमन्वितः।
ब्रह्मलोकमवाप्नोति गतिं च परमां व्रजेत् ॥ ८० ॥

मूलम्

भद्रतुङ्‌गं समासाद्य शुचिः शीलसमन्वितः।
ब्रह्मलोकमवाप्नोति गतिं च परमां व्रजेत् ॥ ८० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भद्रतुंगतीर्थमें जाकर पवित्र एवं सुशील पुरुष ब्रह्मलोकमें जाता और वहाँ उत्तम गति पाता है॥८०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कुमारिकाणां शक्रस्य तीर्थं सिद्धनिषेवितम्।
तत्र स्नात्वा नरः क्षिप्रं स्वर्गलोकमवाप्नुयात् ॥ ८१ ॥

मूलम्

कुमारिकाणां शक्रस्य तीर्थं सिद्धनिषेवितम्।
तत्र स्नात्वा नरः क्षिप्रं स्वर्गलोकमवाप्नुयात् ॥ ८१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

शक्रकुमारिकातीर्थ सिद्ध पुरुषोंद्वारा सेवित है। वहाँ स्नान करके मनुष्य शीघ्र ही स्वर्गलोक प्राप्त कर लेता है॥८१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रेणुकायाश्च तत्रैव तीर्थं सिद्धनिषेवितम्।
तत्र स्नात्वा भवेद् विप्रो निर्मलश्चन्द्रमा यथा ॥ ८२ ॥

मूलम्

रेणुकायाश्च तत्रैव तीर्थं सिद्धनिषेवितम्।
तत्र स्नात्वा भवेद् विप्रो निर्मलश्चन्द्रमा यथा ॥ ८२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वहीं सिद्धसेवित रेणुकातीर्थ है, जिसमें स्नान करके ब्राह्मण चन्द्रमाके समान निर्मल होता है॥८२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथ पञ्चनदं गत्वा नियतो नियताशनः।
पञ्चयज्ञानवाप्नोति क्रमशो येऽनुकीर्तिताः ॥ ८३ ॥

मूलम्

अथ पञ्चनदं गत्वा नियतो नियताशनः।
पञ्चयज्ञानवाप्नोति क्रमशो येऽनुकीर्तिताः ॥ ८३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर शौच-संतोष आदि नियमोंका पालन और नियमित भोजन करते हुए पंचनदतीर्थमें जाकर मनुष्य पंचमहायज्ञोंका फल पाता है जो कि शास्त्रोंमें क्रमशः बतलाये गये हैं॥८३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो गच्छेत राजेन्द्र भीमायाः स्थानमुत्तमम्।
तत्र स्नात्वा तु योन्यां वै नरो भरतसत्तम ॥ ८४ ॥
देव्याः पुत्रो भवेद् राजंस्तप्तकुण्डलविग्रहः।
गवां शतसहस्रस्य फलं प्राप्नोति मानवः ॥ ८५ ॥

मूलम्

ततो गच्छेत राजेन्द्र भीमायाः स्थानमुत्तमम्।
तत्र स्नात्वा तु योन्यां वै नरो भरतसत्तम ॥ ८४ ॥
देव्याः पुत्रो भवेद् राजंस्तप्तकुण्डलविग्रहः।
गवां शतसहस्रस्य फलं प्राप्नोति मानवः ॥ ८५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजेन्द्र! वहाँसे भीमाके उत्तम स्थानकी यात्रा करे! भरतश्रेष्ठ! वहाँ योनितीर्थमें स्नान करके मनुष्य देवीका पुत्र होता है। उसकी अंगकान्ति तपाये हुए सुवर्णकुण्डलके समान होती है। राजन्! उस तीर्थके सेवनसे मनुष्यको सहस्र गोदानका फल मिलता है॥८४-८५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

श्रीकुण्डं तु समासाद्य त्रिषु लोकेषु विश्रुतम्।
पितामहं नमस्कृत्य गोसहस्रफलं लभेत् ॥ ८६ ॥

मूलम्

श्रीकुण्डं तु समासाद्य त्रिषु लोकेषु विश्रुतम्।
पितामहं नमस्कृत्य गोसहस्रफलं लभेत् ॥ ८६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

त्रिभुवनविख्यात श्रीकुण्डमें जाकर ब्रह्माजीको नमस्कार करनेसे सहस्र गोदानका फल प्राप्त होता है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो गच्छेत धर्मज्ञ विमलं तीर्थमुत्तमम्।
अद्यापि यत्र दृश्यन्ते मत्स्याः सौवर्णराजताः ॥ ८७ ॥

मूलम्

ततो गच्छेत धर्मज्ञ विमलं तीर्थमुत्तमम्।
अद्यापि यत्र दृश्यन्ते मत्स्याः सौवर्णराजताः ॥ ८७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

धर्मज्ञ! वहाँसे परम उत्तम विमलतीर्थकी यात्रा करे, जहाँ आज भी सोने और चाँदीके रंगकी मछलियाँ दिखायी देती हैं॥८७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत्र स्नात्वा नरः क्षिप्रं वासवं लोकमाप्नुयात्।
सर्वपापविशुद्धात्मा गच्छेत परमां गतिम् ॥ ८८ ॥

मूलम्

तत्र स्नात्वा नरः क्षिप्रं वासवं लोकमाप्नुयात्।
सर्वपापविशुद्धात्मा गच्छेत परमां गतिम् ॥ ८८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उसमें स्नान करनेसे मनुष्य शीघ्र ही इन्द्रलोकको प्राप्त होता है और सब पापोंसे शुद्ध हो परमगति प्राप्त कर लेता है॥८८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वितस्तां च समासाद्य संतर्प्य पितृदेवताः।
नरः फलमवाप्नोति वाजपेयस्य भारत ॥ ८९ ॥

मूलम्

वितस्तां च समासाद्य संतर्प्य पितृदेवताः।
नरः फलमवाप्नोति वाजपेयस्य भारत ॥ ८९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भारत! वितस्तातीर्थ (झेलम)-में जाकर वहाँ देवताओं और पितरोंका तर्पण करनेसे मनुष्यको वाजपेययज्ञका फल प्राप्त होता है॥८९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

काश्मीरेष्वेव नागस्य भवनं तक्षकस्य च।
वितस्ताख्यमिति ख्यातं सर्वपापप्रमोचनम् ॥ ९० ॥

मूलम्

काश्मीरेष्वेव नागस्य भवनं तक्षकस्य च।
वितस्ताख्यमिति ख्यातं सर्वपापप्रमोचनम् ॥ ९० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

काश्मीरमें ही नागराज तक्षकका वितस्ता नामसे प्रसिद्ध भवन है, जो सब पापोंका नाश करनेवाला है॥९०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत्र स्नात्वा नरो नूनं वाजपेयमवाप्नुयात्।
सर्वपापविशुद्धात्मा गच्छेच्च परमां गतिम् ॥ ९१ ॥

मूलम्

तत्र स्नात्वा नरो नूनं वाजपेयमवाप्नुयात्।
सर्वपापविशुद्धात्मा गच्छेच्च परमां गतिम् ॥ ९१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वहाँ स्नान करनेसे मनुष्य निश्चय ही वाजपेययज्ञका फल प्राप्त करता है और सब पापोंसे शुद्ध हो उत्तम गतिका भागी होता है॥९१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो गच्छेत वडवां त्रिषु लोकेषु विश्रुताम्।
पश्चिमायां तु संध्यायामुपस्पृश्य यथाविधि ॥ ९२ ॥
चरुं सप्तार्चिषे राजन् यथाशक्ति निवेदयेत्।
पितॄणामक्षयं दानं प्रवदन्ति मनीषिणः ॥ ९३ ॥

मूलम्

ततो गच्छेत वडवां त्रिषु लोकेषु विश्रुताम्।
पश्चिमायां तु संध्यायामुपस्पृश्य यथाविधि ॥ ९२ ॥
चरुं सप्तार्चिषे राजन् यथाशक्ति निवेदयेत्।
पितॄणामक्षयं दानं प्रवदन्ति मनीषिणः ॥ ९३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वहाँसे त्रिभुवनविख्यात वडवातीर्थको जाय। वहाँ पश्चिम संध्याके समय विधिपूर्वक स्नान और आचमन करके अग्निदेवको यथाशक्ति चरु निवेदन करे। वहाँ पितरोंके लिये दिया हुआ दान अक्षय होता है; ऐसा मनीषी पुरुष कहते हैं॥९२-९३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ऋषयः पितरो देवा गन्धर्वाप्सरसां गणाः।
गुह्यकाः किन्नरा यक्षाः सिद्धा विद्याधरा नराः ॥ ९४ ॥
राक्षसा दितिजा रुद्रा ब्रह्मा च मनुजाधिप।
नियतः परमां दीक्षामास्थायाब्दसहस्रिकीम् ॥ ९५ ॥
विष्णोः प्रसादनं कुर्वंश्चरुं च श्रपयंस्तथा।
सप्तभिः सप्तभिश्चैव ऋग्भिस्तुष्टाव केशवम् ॥ ९६ ॥

मूलम्

ऋषयः पितरो देवा गन्धर्वाप्सरसां गणाः।
गुह्यकाः किन्नरा यक्षाः सिद्धा विद्याधरा नराः ॥ ९४ ॥
राक्षसा दितिजा रुद्रा ब्रह्मा च मनुजाधिप।
नियतः परमां दीक्षामास्थायाब्दसहस्रिकीम् ॥ ९५ ॥
विष्णोः प्रसादनं कुर्वंश्चरुं च श्रपयंस्तथा।
सप्तभिः सप्तभिश्चैव ऋग्भिस्तुष्टाव केशवम् ॥ ९६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! वहाँ देवता, ऋषि, पितर, गन्धर्व, अप्सरा, गुह्यक, किन्नर, यक्ष, सिद्ध, विद्याधर, मनुष्य, राक्षस, दैत्य, रुद्र और ब्रह्मा—इन सबने नियमपूर्वक सहस्र वर्षोंके लिये उत्तम दीक्षा ग्रहण करके भगवान् विष्णुकी प्रसन्नताके लिये चरु अर्पण किया। ऋग्वेदके सात-सात मन्त्रोंद्वारा सबने चरुकी सात-सात आहुतियाँ दीं और भगवान् केशवको प्रसन्न किया॥९४—९६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ददावष्टगुणैश्वर्यं तेषां तुष्टस्तु केशवः।
यथाभिलषितानन्यान् कामान् दत्त्वा महीपते ॥ ९७ ॥
तत्रैवान्तर्दधे देवो विद्युदभ्रेषु वै यथा।
नाम्ना सप्तचरुं तेन ख्यातं लोकेषु भारत ॥ ९८ ॥
गवां शतसहस्रेण राजसूयशतेन च।
अश्वमेधसहस्रेण श्रेयान् सप्तार्चिषे चरुः ॥ ९९ ॥
ततो निवृत्तो राजेन्द्र रुद्रं पदमथाविशेत्।
अर्चयित्वा महादेवमश्वमेधफलं लभेत् ॥ १०० ॥

मूलम्

ददावष्टगुणैश्वर्यं तेषां तुष्टस्तु केशवः।
यथाभिलषितानन्यान् कामान् दत्त्वा महीपते ॥ ९७ ॥
तत्रैवान्तर्दधे देवो विद्युदभ्रेषु वै यथा।
नाम्ना सप्तचरुं तेन ख्यातं लोकेषु भारत ॥ ९८ ॥
गवां शतसहस्रेण राजसूयशतेन च।
अश्वमेधसहस्रेण श्रेयान् सप्तार्चिषे चरुः ॥ ९९ ॥
ततो निवृत्तो राजेन्द्र रुद्रं पदमथाविशेत्।
अर्चयित्वा महादेवमश्वमेधफलं लभेत् ॥ १०० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उनपर प्रसन्न होकर भगवान्‌ने उन्हें अष्टगुण-ऐश्वर्य अर्थात् अणिमा आदि आठ सिद्धियाँ प्रदान कीं। महाराज! तत्पश्चात् उनकी इच्छाके अनुसार अन्यान्य वर देकर भगवान् केशव वहाँसे उसी प्रकार अन्तर्धान हो गये, जैसे मेघोंकी घटामें बिजली तिरोहित हो जाती है। भारत! इसीलिये वह तीर्थ तीनों लोकोंमें सप्तचरुके नामसे विख्यात है। वहाँ अग्निके लिये दिया हुआ चरु एक लाख गोदान, सौ राजसूययज्ञ और सहस्र अश्वमेधयज्ञसे भी अधिक कल्याणकारी है। राजेन्द्र! वहाँसे लौटकर रुद्रपद नामक तीर्थमें जाय। वहाँ महादेवजीकी पूजा करके तीर्थयात्री पुरुष अश्वमेधका फल पाता है॥९७—१००॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मणिमन्तं समासाद्य ब्रह्मचारी समाहितः।
एकरात्रोषितो राजन्नग्निष्टोमफलं लभेत् ॥ १०१ ॥

मूलम्

मणिमन्तं समासाद्य ब्रह्मचारी समाहितः।
एकरात्रोषितो राजन्नग्निष्टोमफलं लभेत् ॥ १०१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! एकाग्रचित्त हो ब्रह्मचर्य-पालनपूर्वक मणिमान् तीर्थमें जाय और वहाँ एक रात निवास करे। इससे अग्निष्टोमयज्ञका फल प्राप्त होता है॥१०१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथ गच्छेत राजेन्द्र देविकां लोकविश्रुताम्।
प्रसूतिर्यत्र विप्राणां श्रूयते भरतर्षभ ॥ १०२ ॥

मूलम्

अथ गच्छेत राजेन्द्र देविकां लोकविश्रुताम्।
प्रसूतिर्यत्र विप्राणां श्रूयते भरतर्षभ ॥ १०२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतवंशशिरोमणे! राजेन्द्र! वहाँसे लोकविख्यात देविकातीर्थकी यात्रा करे, जहाँ ब्राह्मणोंकी उत्पत्ति सुनी जाती है॥१०२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्रिशूलपाणेः स्थानं च त्रिषु लोकेषु विश्रुतम्।
देविकायां नरः स्नात्वा समभ्यर्च्य महेश्वरम् ॥ १०३ ॥
यथाशक्ति चरुं तत्र निवेद्य भरतर्षभ।
सर्वकामसमृद्धस्य यज्ञस्य लभते फलम् ॥ १०४ ॥

मूलम्

त्रिशूलपाणेः स्थानं च त्रिषु लोकेषु विश्रुतम्।
देविकायां नरः स्नात्वा समभ्यर्च्य महेश्वरम् ॥ १०३ ॥
यथाशक्ति चरुं तत्र निवेद्य भरतर्षभ।
सर्वकामसमृद्धस्य यज्ञस्य लभते फलम् ॥ १०४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वहाँ त्रिशूलपाणि भगवान् शिवका स्थान है, जिसकी तीनों लोकोंमें प्रसिद्धि है। देविकामें स्नान करके भगवान् महेश्वरका पूजन और उन्हें यथाशक्ति चरु निवेदन करके सम्पूर्ण कामनाओंसे समृद्ध यज्ञके फलकी प्राप्ति होती है॥१०३-१०४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कामाख्यं तत्र रुद्रस्य तीर्थं देवनिषेवितम्।
तत्र स्नात्वा नरः क्षिप्रं सिद्धिं प्राप्नोति भारत ॥ १०५ ॥

मूलम्

कामाख्यं तत्र रुद्रस्य तीर्थं देवनिषेवितम्।
तत्र स्नात्वा नरः क्षिप्रं सिद्धिं प्राप्नोति भारत ॥ १०५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वहाँ भगवान् शंकरका देवसेवित कामतीर्थ है। भारत! उसमें स्नान करके मनुष्य शीघ्र मनोवाञ्छित सिद्धि प्राप्त कर लेता है॥१०५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यजनं याजनं चैव तथैव ब्रह्म बालुकाम्।
पुष्पाम्भश्च उपस्पृश्य न शोचेन्मरणं गतः ॥ १०६ ॥

मूलम्

यजनं याजनं चैव तथैव ब्रह्म बालुकाम्।
पुष्पाम्भश्च उपस्पृश्य न शोचेन्मरणं गतः ॥ १०६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वहाँ यजन, याजन तथा वेदोंका स्वाध्याय करके अथवा वहाँकी बालू, पुष्प एवं जलका स्पर्श करके मृत्युको प्राप्त हुआ पुरुष शोकसे पार हो जाता है॥१०६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अर्धयोजनविस्तारा पञ्चयोजनमायता ।
एतावती वेदिका तु पुण्या देवर्षिसेविता ॥ १०७ ॥

मूलम्

अर्धयोजनविस्तारा पञ्चयोजनमायता ।
एतावती वेदिका तु पुण्या देवर्षिसेविता ॥ १०७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वहाँ पाँच योजन लंबी और आधा योजन चौड़ी पवित्र वेदिका है, जिसका देवता तथा ऋषि-मुनि भी सेवन करते हैं॥१०७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो गच्छेत धर्मज्ञ दीर्घसत्रं यथाक्रमम्।
तत्र ब्रह्मादयो देवाः सिद्धाश्च परमर्षयः ॥ १०८ ॥

मूलम्

ततो गच्छेत धर्मज्ञ दीर्घसत्रं यथाक्रमम्।
तत्र ब्रह्मादयो देवाः सिद्धाश्च परमर्षयः ॥ १०८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

धर्मज्ञ! वहाँसे क्रमशः ‘दीर्घसत्र’ नामक तीर्थमें जाय। वहाँ ब्रह्मा आदि देवता, सिद्ध और महर्षि रहते हैं॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दीर्घसत्रमुपासन्ते दीक्षिता नियतव्रताः ॥ १०९ ॥

मूलम्

दीर्घसत्रमुपासन्ते दीक्षिता नियतव्रताः ॥ १०९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे नियमपूर्वक व्रतका पालन करते हुए दीक्षा लेकर दीर्घसत्रकी उपासना करते हैं॥१०९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गमनादेव राजेन्द्र दीर्घसत्रमरिंदम ।
राजसूयाश्वमेधाभ्यां फलं प्राप्नोति भारत ॥ ११० ॥

मूलम्

गमनादेव राजेन्द्र दीर्घसत्रमरिंदम ।
राजसूयाश्वमेधाभ्यां फलं प्राप्नोति भारत ॥ ११० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

शत्रुओंका दमन करनेवाले भरतवंशी राजेन्द्र! वहाँकी यात्रा करने मात्रसे मनुष्य राजसूय और अश्वमेध यज्ञोंके समान फल पाता है॥११०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो विनशनं गच्छेन्नियतो नियताशनः।
गच्छत्यन्तर्हिता यत्र मेरुपृष्ठे सरस्वती ॥ १११ ॥

मूलम्

ततो विनशनं गच्छेन्नियतो नियताशनः।
गच्छत्यन्तर्हिता यत्र मेरुपृष्ठे सरस्वती ॥ १११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर शौच-संतोषादि नियमोंका पालन और नियमित आहार ग्रहण करते हुए विनशनतीर्थमें जाय, जहाँ मेरुपृष्ठपर रहनेवाली सरस्वती अदृश्य भावसे बहती है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

चमसेऽथ शिवोद्भेदे नागोद्भेदे च दृश्यते।
स्नात्वा तु चमसोद्भेदे अग्निष्टोमफलं लभेत् ॥ ११२ ॥

मूलम्

चमसेऽथ शिवोद्भेदे नागोद्भेदे च दृश्यते।
स्नात्वा तु चमसोद्भेदे अग्निष्टोमफलं लभेत् ॥ ११२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वहाँ चमसोद्भेद, शिवोद्भेद और नागोद्भेदतीर्थमें सरस्वतीका दर्शन होता है। चमसोद्भेदमें स्नान करनेसे अग्निष्टोमयज्ञका फल प्राप्त होता है॥११२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शिवोद्भेदे नरः स्नात्वा गोसहस्रफलं लभेत्।
नागोद्भेदे नरः स्नात्वा नागलोकमवाप्नुयात् ॥ ११३ ॥

मूलम्

शिवोद्भेदे नरः स्नात्वा गोसहस्रफलं लभेत्।
नागोद्भेदे नरः स्नात्वा नागलोकमवाप्नुयात् ॥ ११३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

शिवोद्भेदमें स्नान करके मनुष्य सहस्र गोदानका फल पाता है। नागोद्भेदतीर्थमें स्नान करनेसे उसे नागलोककी प्राप्ति होती है॥११३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शशयानं च राजेन्द्र तीर्थमासाद्य दुर्लभम्।
शशरूपप्रतिच्छन्नाः पुष्करा यत्र भारत ॥ ११४ ॥
सरस्वत्यां महाराज अनुसंवत्सरं च ते।
दृश्यन्ते भरतश्रेष्ठ वृत्तां वै कार्तिकीं सदा ॥ ११५ ॥
तत्र स्नात्वा नरव्याघ्र द्योतते शशिवत् सदा।
गोसहस्रफलं चैव प्राप्नुयाद् भरतर्षभ ॥ ११६ ॥

मूलम्

शशयानं च राजेन्द्र तीर्थमासाद्य दुर्लभम्।
शशरूपप्रतिच्छन्नाः पुष्करा यत्र भारत ॥ ११४ ॥
सरस्वत्यां महाराज अनुसंवत्सरं च ते।
दृश्यन्ते भरतश्रेष्ठ वृत्तां वै कार्तिकीं सदा ॥ ११५ ॥
तत्र स्नात्वा नरव्याघ्र द्योतते शशिवत् सदा।
गोसहस्रफलं चैव प्राप्नुयाद् भरतर्षभ ॥ ११६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजेन्द्र! शशयान नामक तीर्थ अत्यन्त दुर्लभ है। उसमें जाकर स्नान करे। महाराज भारत! वहाँ सरस्वती नदीमें प्रतिवर्ष कार्तिकी पूर्णिमाको शश (खरगोश)-के रूपमें छिपे हुए पुष्करतीर्थ देखे जाते हैं। भरतश्रेष्ठ! नरव्याघ्र! वहाँ स्नान करके मनुष्य सदा चन्द्रमाके समान प्रकाशित होता है। भरतकुलतिलक! उसे सहस्र गोदानका फल भी मिलता है॥११४—११६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कुमारकोटिमासाद्य नियतः कुरुनन्दन ।
तत्राभिषेकं कुर्वीत पितृदेवार्चने रतः ॥ ११७ ॥

मूलम्

कुमारकोटिमासाद्य नियतः कुरुनन्दन ।
तत्राभिषेकं कुर्वीत पितृदेवार्चने रतः ॥ ११७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कुरुनन्दन! वहाँसे कुमारकोटितीर्थमें जाकर वहाँ नियमपूर्वक स्नान करे और देवता तथा पितरोंके पूजनमें तत्पर रहे॥११७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गवामयुतमाप्नोति कुलं चैव समुद्धरेत्।
ततो गच्छेत धर्मज्ञ रुद्रकोटिं समाहितः ॥ ११८ ॥
पुरा यत्र महाराज मुनिकोटिः समागता।
हर्षेण महताविष्टा रुद्रदर्शनकाङ्क्षया ॥ ११९ ॥
अहं पूर्वमहं पूर्वं द्रक्ष्यामि वृषभध्वजम्।
एवं सम्प्रस्थिता राजन्नृषयः किल भारत ॥ १२० ॥

मूलम्

गवामयुतमाप्नोति कुलं चैव समुद्धरेत्।
ततो गच्छेत धर्मज्ञ रुद्रकोटिं समाहितः ॥ ११८ ॥
पुरा यत्र महाराज मुनिकोटिः समागता।
हर्षेण महताविष्टा रुद्रदर्शनकाङ्क्षया ॥ ११९ ॥
अहं पूर्वमहं पूर्वं द्रक्ष्यामि वृषभध्वजम्।
एवं सम्प्रस्थिता राजन्नृषयः किल भारत ॥ १२० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ऐसा करनेसे मनुष्य दस हजार गोदानका फल पाता है और अपने कुलका उद्धार कर देता है। धर्मज्ञ! वहाँसे एकाग्रचित्त हो रुद्रकोटितीर्थमें जाय। महाराज! रुद्रकोटि वह स्थान है, जहाँ पूर्वकालमें एक करोड़ मुनि बड़े हर्षमें भरकर भगवान् रुद्रके दर्शनकी अभिलाषासे आये थे। भारत! ‘भगवान् वृषभध्वजका दर्शन पहले मैं करूँगा, मैं करूँगा’ ऐसा संकल्प करके वे महर्षि वहाँके लिये प्रस्थित हुए थे॥११८—१२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो योगेश्वरेणापि योगमास्थाय भूपते।
तेषां मन्युप्रणाशार्थमृषीणां भावितात्मनाम् ॥ १२१ ॥
सृष्टा कोटीति रुद्राणामृषीणामग्रतः स्थिता।
मया पूर्वतरं दृष्ट इति ते मेनिरे पृथक् ॥ १२२ ॥
तेषां तुष्टो महादेवो मुनीनां भावितात्मनाम्।
भक्त्या परमया राजन् वरं तेषां प्रदिष्टवान् ॥ १२३ ॥

मूलम्

ततो योगेश्वरेणापि योगमास्थाय भूपते।
तेषां मन्युप्रणाशार्थमृषीणां भावितात्मनाम् ॥ १२१ ॥
सृष्टा कोटीति रुद्राणामृषीणामग्रतः स्थिता।
मया पूर्वतरं दृष्ट इति ते मेनिरे पृथक् ॥ १२२ ॥
तेषां तुष्टो महादेवो मुनीनां भावितात्मनाम्।
भक्त्या परमया राजन् वरं तेषां प्रदिष्टवान् ॥ १२३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! तब योगेश्वर भगवान् शिवने भी योगका आश्रय ले, उन शुद्धात्मा महर्षियोंके शोककी शान्तिके लिये करोड़ों शिवलिंगोंकी सृष्टि कर दी, जो उन सभी ऋषियोंके आगे उपस्थित थे; इससे उन सबने अलग-अलग भगवान्‌का दर्शन किया। राजन्! उन शुद्धचेता मुनियोंकी उत्तम भक्तिसे संतुष्ट हो महादेवजीने उन्हें वर दिया॥१२१—१२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अद्य प्रभृति युष्माकं धर्मवृद्धिर्भविष्यति।
तत्र स्नात्वा नरव्याघ्र रुद्रकोट्यां नरः शुचिः ॥ १२४ ॥
अश्वमेधमवाप्नोति कुलं चैव समुद्धरेत्।

मूलम्

अद्य प्रभृति युष्माकं धर्मवृद्धिर्भविष्यति।
तत्र स्नात्वा नरव्याघ्र रुद्रकोट्यां नरः शुचिः ॥ १२४ ॥
अश्वमेधमवाप्नोति कुलं चैव समुद्धरेत्।

अनुवाद (हिन्दी)

महर्षियो! आजसे तुम्हारे धर्मकी उत्तरोत्तर वृद्धि होती रहेगी। नरश्रेष्ठ! उस रुद्रकोटिमें स्नान करके शुद्ध हुआ मनुष्य अश्वमेधयज्ञका फल पाता और अपने कुलका उद्धार कर देता है॥१२४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो गच्छेत राजेन्द्र संगमं लोकविश्रुतम् ॥ १२५ ॥
सरस्वत्या महापुण्यं केशवं समुपासते।
यत्र ब्रह्मादयो देवा ऋषयश्च तपोधनाः ॥ १२६ ॥

मूलम्

ततो गच्छेत राजेन्द्र संगमं लोकविश्रुतम् ॥ १२५ ॥
सरस्वत्या महापुण्यं केशवं समुपासते।
यत्र ब्रह्मादयो देवा ऋषयश्च तपोधनाः ॥ १२६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजेन्द्र! तदनन्तर परम पुण्यमय लोकविख्यात सरस्वतीसंगमतीर्थमें जाय, जहाँ ब्रह्मा आदि देवता और तपस्याके धनी महर्षि भगवान् केशवकी उपासना करते हैं॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अभिगच्छन्ति राजेन्द्र चैत्रशुक्लचतुर्दशीम् ।
तत्र स्नात्वा नरव्याघ्र विन्देद् बहुसुवर्णकम्।
सर्वपापविशुद्धात्मा ब्रह्मलोकं च गच्छति ॥ १२७ ॥

मूलम्

अभिगच्छन्ति राजेन्द्र चैत्रशुक्लचतुर्दशीम् ।
तत्र स्नात्वा नरव्याघ्र विन्देद् बहुसुवर्णकम्।
सर्वपापविशुद्धात्मा ब्रह्मलोकं च गच्छति ॥ १२७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजेन्द्र! वहाँ लोग चैत्र शुक्ल चतुर्दशीको विशेषरूपसे जाते हैं। पुरुषसिंह! वहाँ स्नान करनेसे प्रचुर सुवर्णराशिकी प्राप्ति होती है और सब पापोंसे शुद्धचित्त होकर मनुष्य ब्रह्मलोकको जाता है॥१२७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ऋषीणां यत्र सत्राणि समाप्तानि नराधिप।
तत्रावसानमासाद्य गोसहस्रफलं लभेत् ॥ १२८ ॥

मूलम्

ऋषीणां यत्र सत्राणि समाप्तानि नराधिप।
तत्रावसानमासाद्य गोसहस्रफलं लभेत् ॥ १२८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नरेश्वर! जहाँ ऋषियोंके सत्र समाप्त हुए हैं, वहाँ अवसानतीर्थमें जाकर मनुष्य सहस्र गोदानका फल पाता है॥१२८॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि तीर्थयात्रापर्वणि पुलस्त्यतीर्थयात्रायां द्व्यशीतितमोऽध्यायः ॥ ८२ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्वके अन्तर्गत तीर्थयात्रापर्वमें पुलस्त्यकथिततीर्थयात्राविषयक बयासीवाँ अध्याय पूरा हुआ॥८२॥


  1. यद्यपि यहाँ पुलस्त्यजी भीष्मजीको यह प्रसंग सुना रहे हैं, तथापि इस संवादको नारदजीने युधिष्ठिरके समक्ष उपस्थित किया है; अतः नारदजी युधिष्ठिरको सम्बोधित करें, इसमें कोई अनुपपत्ति नहीं है। ↩︎