भागसूचना
एकाशीतितमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
युधिष्ठिरके पास देवर्षि नारदका आगमन और तीर्थयात्राके फलके सम्बन्धमें पूछनेपर नारदजीद्वारा भीष्म-पुलस्त्य-संवादकी प्रस्तावना
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
धनंजयोत्सुकानां तु भ्रातॄणां कृष्णया सह।
श्रुत्वा वाक्यानि विमना धर्मराजोऽप्यजायत ॥ १ ॥
मूलम्
धनंजयोत्सुकानां तु भ्रातॄणां कृष्णया सह।
श्रुत्वा वाक्यानि विमना धर्मराजोऽप्यजायत ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! धनंजयके लिये उत्सुक द्रौपदीसहित सब भाइयोंके पूर्वोक्त वचन सुनकर धर्मराज युधिष्ठिरका भी मन बहुत उदास हो गया॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथापश्यन्महात्मानं देवर्षिं तत्र नारदम्।
दीप्यमानं श्रिया ब्राह्म्या हुतार्चिषमिवानलम् ॥ २ ॥
मूलम्
अथापश्यन्महात्मानं देवर्षिं तत्र नारदम्।
दीप्यमानं श्रिया ब्राह्म्या हुतार्चिषमिवानलम् ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इतनेमें ही उन्होंने देखा, महात्मा देवर्षि नारद वहाँ उपस्थित हैं, जो अपने ब्राह्म तेजसे देदीप्यमान हो घीकी आहुतिसे प्रज्वलित हुई अग्निके समान प्रकाशित हो रहे हैं॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तमागतमभिप्रेक्ष्य भ्रातृभिः सह धर्मराट्।
प्रत्युत्थाय यथान्यायं पूजां चक्रे महात्मने ॥ ३ ॥
मूलम्
तमागतमभिप्रेक्ष्य भ्रातृभिः सह धर्मराट्।
प्रत्युत्थाय यथान्यायं पूजां चक्रे महात्मने ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन्हें आया देख भाइयोंसहित धर्मराजने उठकर उन महात्माका यथायोग्य सत्कार किया॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स तैः परिवृतः श्रीमान् भ्रातृभिः कुरुसत्तमः।
विबभावतिदीप्तौजा देवैरिव शतक्रतुः ॥ ४ ॥
मूलम्
स तैः परिवृतः श्रीमान् भ्रातृभिः कुरुसत्तमः।
विबभावतिदीप्तौजा देवैरिव शतक्रतुः ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अपने भाइयोंसे घिरे हुए अत्यन्त तेजस्वी कुरुश्रेष्ठ श्रीमान् युधिष्ठिर देवताओंसे घिरे हुए देवराज इन्द्रकी भाँति सुशोभित हो रहे थे॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथा च वेदान् सावित्री याज्ञसेनी तथा पतीन्।
न जहौ धर्मतः पार्थान् मेरुमर्कप्रभा यथा ॥ ५ ॥
मूलम्
यथा च वेदान् सावित्री याज्ञसेनी तथा पतीन्।
न जहौ धर्मतः पार्थान् मेरुमर्कप्रभा यथा ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे गायत्री चारों वेदोंका और सूर्यकी प्रभा मेरु पर्वतका त्याग नहीं करती, उसी प्रकार याज्ञसेनी द्रौपदीने भी धर्मतः अपने पति कुन्तीकुमारोंका परित्याग नहीं किया॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रतिगृह्य च तां पूजां नारदो भगवानृषिः।
आश्वासयद् धर्मसुतं युक्तरूपमिवानघ ॥ ६ ॥
मूलम्
प्रतिगृह्य च तां पूजां नारदो भगवानृषिः।
आश्वासयद् धर्मसुतं युक्तरूपमिवानघ ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
निष्पाप जनमेजय! उनकी वह पूजा ग्रहण करके देवर्षि भगवान् नारदने धर्मपुत्र युधिष्ठिरको उचित सान्त्वना दी॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उवाच च महात्मानं धर्मराजं युधिष्ठिरम्।
ब्रूहि धर्मभृतां श्रेष्ठ केनार्थः किं ददानि ते ॥ ७ ॥
मूलम्
उवाच च महात्मानं धर्मराजं युधिष्ठिरम्।
ब्रूहि धर्मभृतां श्रेष्ठ केनार्थः किं ददानि ते ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तत्पश्चात् वे महात्मा धर्मराज युधिष्ठिरसे इस प्रकार बोले—‘धर्मात्माओंमें श्रेष्ठ नरेश! बोलो, तुम्हें किस वस्तुकी आवश्यकता है? मैं तुम्हें क्या दूँ?’॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथ धर्मसुतो राजा प्रणम्य भ्रातृभिः सह।
उवाच प्राञ्जलिर्भूत्वा नारदं देवसम्मितम् ॥ ८ ॥
मूलम्
अथ धर्मसुतो राजा प्रणम्य भ्रातृभिः सह।
उवाच प्राञ्जलिर्भूत्वा नारदं देवसम्मितम् ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब भाइयोंसहित धर्मनन्दन राजा युधिष्ठिरने देवतुल्य नारदजीको प्रणाम करके हाथ जोड़कर कहा—॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्वयि तुष्टे महाभाग सर्वलोकाभिपूजिते।
कृतमित्येव मन्येऽहं प्रसादात् तव सुव्रत ॥ ९ ॥
मूलम्
त्वयि तुष्टे महाभाग सर्वलोकाभिपूजिते।
कृतमित्येव मन्येऽहं प्रसादात् तव सुव्रत ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘महाभाग! उत्तम व्रतका पालन करनेवाले सहर्षे! सम्पूर्ण विश्वके द्वारा पूजित आप महात्माके संतुष्ट होनेपर मैं ऐसा समझता हूँ कि आपकी कृपासे मेरा सब कार्य पूरा हो गया॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदि त्वहमनुग्राह्यो भ्रातृभिः सहितोऽनघ।
संदेहं मे मुनिश्रेष्ठ तत्त्वतश्छेत्तुमर्हसि ॥ १० ॥
मूलम्
यदि त्वहमनुग्राह्यो भ्रातृभिः सहितोऽनघ।
संदेहं मे मुनिश्रेष्ठ तत्त्वतश्छेत्तुमर्हसि ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘निष्पाप मुनिश्रेष्ठ! यदि भाइयोंसहित मैं आपकी कृपाका पात्र होऊँ तो आप मेरे संदेहको सम्यक् प्रकारसे नष्ट कर दीजिये’॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रदक्षिणां यः कुरुते पृथिवीं तीर्थतत्परः।
किं फलं तस्य कार्त्स्न्येन तद्भवान् वक्तुमर्हति ॥ ११ ॥
मूलम्
प्रदक्षिणां यः कुरुते पृथिवीं तीर्थतत्परः।
किं फलं तस्य कार्त्स्न्येन तद्भवान् वक्तुमर्हति ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जो मनुष्य तीर्थयात्रामें तत्पर होकर इस पृथ्वीकी परिक्रमा करता है, उसे क्या फल मिलता है? यह आप पूर्णरूपसे बतानेकी कृपा करें’॥११॥
मूलम् (वचनम्)
नारद उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
शृणु राजन्नवहितो यथा भीष्मेण धीमता।
पुलस्त्यस्य सकाशाद् वै सर्वमेतदुपश्रुतम् ॥ १२ ॥
मूलम्
शृणु राजन्नवहितो यथा भीष्मेण धीमता।
पुलस्त्यस्य सकाशाद् वै सर्वमेतदुपश्रुतम् ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नारदजीने कहा— राजन्! सावधान होकर सुनो, बुद्धिमान् भीष्मजीने महर्षि पुलस्त्यके मुखसे ये सब बातें जिस प्रकार सुनी थीं, वह सब मैं तुम्हें बता रहा हूँ॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पुरा भागीरथीतीरे भीष्मो धर्मभृतां वरः।
पित्र्यं व्रतं समास्थाय न्यवसन्मुनिभिः सह ॥ १३ ॥
शुभे देशे तथा राजन् पुण्ये देवर्षिसेविते।
गङ्गाद्वारे महाभाग देवगन्धर्वसेविते ॥ १४ ॥
मूलम्
पुरा भागीरथीतीरे भीष्मो धर्मभृतां वरः।
पित्र्यं व्रतं समास्थाय न्यवसन्मुनिभिः सह ॥ १३ ॥
शुभे देशे तथा राजन् पुण्ये देवर्षिसेविते।
गङ्गाद्वारे महाभाग देवगन्धर्वसेविते ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाभाग! पहलेकी बात है, देवताओं और गन्धर्वोंसे सेवित गंगाद्वार (हरिद्वार)-तीर्थमें भागीरथीके पवित्र, शुभ एवं देवर्षिसेवित तट-प्रदेशमें श्रेष्ठ धर्मात्मा भीष्मजी पितृसम्बन्धी (श्राद्ध, तर्पण आदि) व्रतका आश्रय ले महर्षियोंके साथ रहते थे॥१३-१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स पितॄंस्तर्पयामास देवांश्च परमद्युतिः।
ऋषींश्च तर्पयामास विधिदृष्टेन कर्मणा ॥ १५ ॥
मूलम्
स पितॄंस्तर्पयामास देवांश्च परमद्युतिः।
ऋषींश्च तर्पयामास विधिदृष्टेन कर्मणा ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
परम तेजस्वी भीष्मजीने वहाँ शास्त्रीय विधिके अनुसार देवताओं, ऋषियों तथा पितरोंका तर्पण किया॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कस्यचित् त्वथ कालस्य जपन्नेव महायशाः।
ददर्शाद्भुतसंकाशं पुलस्त्यमृषिसत्तमम् ॥ १६ ॥
मूलम्
कस्यचित् त्वथ कालस्य जपन्नेव महायशाः।
ददर्शाद्भुतसंकाशं पुलस्त्यमृषिसत्तमम् ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कुछ समयके बाद जब महायशस्वी भीष्मजी जपमें लगे हुए थे, अपने पास ही उन्होंने अद्भुत तेजस्वी मुनिश्रेष्ठ पुलस्त्यजीको देखा॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स तं दृष्ट्वोग्रतपसं दीप्यमानमिव श्रिया।
प्रहर्षमतुलं लेभे विस्मयं परमं ययौ ॥ १७ ॥
मूलम्
स तं दृष्ट्वोग्रतपसं दीप्यमानमिव श्रिया।
प्रहर्षमतुलं लेभे विस्मयं परमं ययौ ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे उग्र तपस्वी महर्षि तेजसे देदीप्यमान हो रहे थे। उन्हें देखकर भीष्मजीको अनुपम प्रसन्नता प्राप्त हुई तथा वे बड़े आश्चर्यमें पड़ गये॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उपस्थितं महाभागं पूजयामास भारत।
भीष्मो धर्मभृतां श्रेष्ठो विधिदृष्टेन कर्मणा ॥ १८ ॥
मूलम्
उपस्थितं महाभागं पूजयामास भारत।
भीष्मो धर्मभृतां श्रेष्ठो विधिदृष्टेन कर्मणा ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भारत! धर्मात्माओंमें श्रेष्ठ भीष्मने वहाँ उपस्थित हुए महाभाग महर्षिका शास्त्रोक्त विधिसे पूजन किया॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शिरसा चार्घ्यमादाय शुचिः प्रयतमानसः।
नाम संकीर्तयामास तस्मिन् ब्रह्मर्षिसत्तमे ॥ १९ ॥
मूलम्
शिरसा चार्घ्यमादाय शुचिः प्रयतमानसः।
नाम संकीर्तयामास तस्मिन् ब्रह्मर्षिसत्तमे ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन्होंने पवित्र एवं एकाग्रचित्त होकर (पुलस्त्यजीके दिये हुए) अर्घ्यको सिरपर धारण करके उन ब्रह्मर्षिश्रेष्ठ पुलस्त्यजीको अपने नामका इस प्रकार परिचय दिया—॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भीष्मोऽहमस्मि भद्रं ते दासोऽस्मि तव सुव्रत।
तव संदर्शनादेव मुक्तोऽहं सर्वकिल्बिषैः ॥ २० ॥
मूलम्
भीष्मोऽहमस्मि भद्रं ते दासोऽस्मि तव सुव्रत।
तव संदर्शनादेव मुक्तोऽहं सर्वकिल्बिषैः ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘सुव्रत! आपका भला हो, मैं आपका दास भीष्म हूँ। आपके दर्शनमात्रसे मैं सब पापोंसे मुक्त हो गया’॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमुक्त्वा महाराज भीष्मो धर्मभृतां वरः।
वाग्यतः प्राञ्जलिर्भूत्वा तूष्णीमासीद् युधिष्ठिर ॥ २१ ॥
मूलम्
एवमुक्त्वा महाराज भीष्मो धर्मभृतां वरः।
वाग्यतः प्राञ्जलिर्भूत्वा तूष्णीमासीद् युधिष्ठिर ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाराज युधिष्ठिर! धनुर्धारियोंमें श्रेष्ठ एवं वाणीको संयममें रखनेवाले भीष्म ऐसा कहकर हाथ जोड़े चुप हो गये॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तं दृष्ट्वा नियमेनाथ स्वाध्यायाम्नायकर्शितम्।
भीष्मं कुरुकुलश्रेष्ठं मुनिः प्रीतमनाभवत् ॥ २२ ॥
मूलम्
तं दृष्ट्वा नियमेनाथ स्वाध्यायाम्नायकर्शितम्।
भीष्मं कुरुकुलश्रेष्ठं मुनिः प्रीतमनाभवत् ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कुरुकुलशिरोमणि भीष्मको नियम, स्वाध्याय तथा वेदोक्त कर्मोंके अनुष्ठानसे दुर्बल हुआ देख पुलस्त्य मुनि मन-ही-मन बड़े प्रसन्न हुए॥२२॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि तीर्थयात्रापर्वणि पार्थनारदसंवादे एकाशीतितमोऽध्यायः ॥ ८१ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्वके अन्तर्गत तीर्थयात्रापर्वमें युधिष्ठिरनारदसंवादविषयक इक्यासीवाँ अध्याय पूरा हुआ॥८१॥