भागसूचना
(तीर्थयात्रापर्व)
अशीतितमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
अर्जुनके लिये द्रौपदी-सहित पाण्डवोंकी चिन्ता
मूलम् (वचनम्)
जनमेजय उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
भगवन् काम्यकात् पार्थे गते मे प्रपितामहे।
वाण्डवाः किमकुर्वंस्ते तमृते सव्यसाचिनम् ॥ १ ॥
मूलम्
भगवन् काम्यकात् पार्थे गते मे प्रपितामहे।
वाण्डवाः किमकुर्वंस्ते तमृते सव्यसाचिनम् ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जनमेजयने पूछा— भगवन्! मेरे प्रपितामह अर्जुनके काम्यकवनसे चले जानेपर उनसे अलग रहते हुए शेष पाण्डवोंने कौन-सा कार्य किया?॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स हि तेषां महेष्वासो गतिरासीदनीकजित्।
आदित्यानां यथा विष्णुस्तथैव प्रतिभाति मे ॥ २ ॥
मूलम्
स हि तेषां महेष्वासो गतिरासीदनीकजित्।
आदित्यानां यथा विष्णुस्तथैव प्रतिभाति मे ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे सैन्यविजयी, महान् धनुर्धर अर्जुन ही उन सबके आश्रय थे। जैसे आदित्योंमें विष्णु हैं, वैसे ही पाण्डवोंमें मुझे धनंजय जान पड़ते हैं॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेनेन्द्रसमवीर्येण संग्रामेष्वनिवर्तिना ।
विनाभूता वने वीराः कथमासन् पितामहाः ॥ ३ ॥
मूलम्
तेनेन्द्रसमवीर्येण संग्रामेष्वनिवर्तिना ।
विनाभूता वने वीराः कथमासन् पितामहाः ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे संग्रामसे कभी पीछे न हटनेवाले और इन्द्रके समान पराक्रमी थे। उनके बिना मेरे अन्य वीर पितामह वनमें कैसे रहते थे?॥३॥
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
गते तु पाण्डवे तात काम्यकात् सत्यविक्रमे।
बभूवुः पाण्डवेयास्ते दुःखशोकपरायणाः ॥ ४ ॥
मूलम्
गते तु पाण्डवे तात काम्यकात् सत्यविक्रमे।
बभूवुः पाण्डवेयास्ते दुःखशोकपरायणाः ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— तात! सत्यपराक्रमी पाण्डुकुमार अर्जुनके काम्यकवनसे चले जानेपर सभी पाण्डव उनके लिये दुःख और शोकमें मग्न रहने लगे॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आक्षिप्तसूत्रा मणयश्छिन्नपक्षा इव द्विजाः।
अप्रीतमनसः सर्वे बभूवुरथ पाण्डवाः ॥ ५ ॥
मूलम्
आक्षिप्तसूत्रा मणयश्छिन्नपक्षा इव द्विजाः।
अप्रीतमनसः सर्वे बभूवुरथ पाण्डवाः ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे मणियोंकी मालाका सूत टूट जाय अथवा पक्षियोंके पंख कट जायँ, वैसी दशामें उन मणियों और पक्षियोंकी जो अवस्था होती है, वैसी ही अर्जुनके बिना पाण्डवोंकी थी। उन सबके मनमें तनिक भी प्रसन्नता नहीं थी॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वनं तु तदभूत् तेन हीनमक्लिष्टकर्मणा।
कुबेरेण यथा हीनं वनं चैत्ररथं तथा ॥ ६ ॥
मूलम्
वनं तु तदभूत् तेन हीनमक्लिष्टकर्मणा।
कुबेरेण यथा हीनं वनं चैत्ररथं तथा ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अनायास ही महान् कर्म करनेवाले अर्जुनके बिना वह वन उसी प्रकार शोभाशून्य-सा हो गया, जैसे कुबेरके बिना चैत्ररथ वन॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तमृते ते नरव्याघ्राः पाण्डवा जनमेजय।
मुदमप्राप्नुवन्तो वै काम्यके न्यवसंस्तदा ॥ ७ ॥
मूलम्
तमृते ते नरव्याघ्राः पाण्डवा जनमेजय।
मुदमप्राप्नुवन्तो वै काम्यके न्यवसंस्तदा ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जनमेजय! अर्जुनके बिना वे नरश्रेष्ठ पाण्डव आनन्दशून्य हो काम्यकवनमें रह रहे थे॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ब्राह्मणार्थे पराक्रान्ताः शुद्धैर्बाणैर्महारथाः ।
निघ्नन्तो भरतश्रेष्ठ मेध्यान् बहुविधान् मृगान् ॥ ८ ॥
मूलम्
ब्राह्मणार्थे पराक्रान्ताः शुद्धैर्बाणैर्महारथाः ।
निघ्नन्तो भरतश्रेष्ठ मेध्यान् बहुविधान् मृगान् ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भरतश्रेष्ठ! वे महारथी वीर शुद्ध बाणोंद्वारा ब्राह्मणोंके (बाघम्बर आदिके) लिये पराक्रम करके नाना प्रकारके पवित्र1 मृगोंको मारा करते थे॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नित्यं हि पुरुषव्याघ्रा वन्याहारमरिंदमाः।
उपाकृत्य उपाहृत्य ब्राह्मणेभ्यो न्यवेदयन् ॥ ९ ॥
मूलम्
नित्यं हि पुरुषव्याघ्रा वन्याहारमरिंदमाः।
उपाकृत्य उपाहृत्य ब्राह्मणेभ्यो न्यवेदयन् ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे नरश्रेष्ठ और शत्रुदमन पाण्डव प्रतिदिन ब्राह्मणोंके लिये जंगली फल-मूलका आहार संगृहीत करके उन्हें अर्पित करते थे॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्वे संन्यवसंस्तत्र सोत्कण्ठाः पुरुषर्षभाः।
अहृष्टमनसः सर्वे गते राजन् धनंजये ॥ १० ॥
मूलम्
सर्वे संन्यवसंस्तत्र सोत्कण्ठाः पुरुषर्षभाः।
अहृष्टमनसः सर्वे गते राजन् धनंजये ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! धनंजयके चले जानेपर वे सभी नरश्रेष्ठ वहाँ खिन्नचित्त हो उन्हींके लिये उत्कण्ठित होकर रहते थे॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विशेषतस्तु पाञ्चाली स्मरन्ती मध्यमं पतिम्।
उद्विग्नं पाण्डवश्रेष्ठमिदं वचनमब्रवीत् ॥ ११ ॥
मूलम्
विशेषतस्तु पाञ्चाली स्मरन्ती मध्यमं पतिम्।
उद्विग्नं पाण्डवश्रेष्ठमिदं वचनमब्रवीत् ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
विशेषतः पांचालराजकुमारी द्रौपदी अपने मझले पति अर्जुनका स्मरण करती हुई सदा उद्विग्न रहनेवाले पाण्डवशिरोमणि युधिष्ठिरसे इस प्रकार बोली—॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
योऽर्जुनेनार्जुनस्तुल्यो द्विबाहुर्बहुबाहुना ।
तमृते पाण्डवश्रेष्ठ वनं न प्रतिभाति मे ॥ १२ ॥
मूलम्
योऽर्जुनेनार्जुनस्तुल्यो द्विबाहुर्बहुबाहुना ।
तमृते पाण्डवश्रेष्ठ वनं न प्रतिभाति मे ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘पाण्डवश्रेष्ठ! जो दो भुजावाले अर्जुन सहस्रबाहु अर्जुनके समान पराक्रमी हैं, उनके बिना यह वन मुझे अच्छा नहीं लगता॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शून्यामिव प्रपश्यामि तत्र तत्र महीमिमाम्।
बह्वाश्चर्यमिदं चापि वनं कुसुमितद्रुमम् ॥ १३ ॥
न तथा रमणीयं वै तमृते सव्यसाचिनम्।
नीलाम्बुदसमप्रख्यं मत्तमातङ्गगामिनम् ॥ १४ ॥
तमृते पुण्डरीकाक्षं काम्यकं नातिभाति मे।
यस्य वा धनुषो घोषः श्रूयते चाशनिस्वनः।
न लभे शर्म वै राजन् स्मरन्ती सव्यसाचिनम् ॥ १५ ॥
मूलम्
शून्यामिव प्रपश्यामि तत्र तत्र महीमिमाम्।
बह्वाश्चर्यमिदं चापि वनं कुसुमितद्रुमम् ॥ १३ ॥
न तथा रमणीयं वै तमृते सव्यसाचिनम्।
नीलाम्बुदसमप्रख्यं मत्तमातङ्गगामिनम् ॥ १४ ॥
तमृते पुण्डरीकाक्षं काम्यकं नातिभाति मे।
यस्य वा धनुषो घोषः श्रूयते चाशनिस्वनः।
न लभे शर्म वै राजन् स्मरन्ती सव्यसाचिनम् ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘मैं यत्र-तत्र यहाँकी जिस-जिस भूमिपर दृष्टि डालती हूँ, सबको सूनी-सी ही पाती हूँ। यह अनेक आश्चर्यसे भरा हुआ और विकसित कुसुमोंसे अलंकृत वृक्षोंवाला काम्यकवन भी सव्यसाची अर्जुनके बिना पहले-जैसा रमणीय नहीं जान पड़ता है। नीलमेघके समान कान्ति और मतवाले गजराजकी-सी गतिवाले उन कमलनयन अर्जुनके बिना यह काम्यकवन मुझे तनिक भी नहीं भाता है। राजन्! जिनके धनुषकी टंकार बिजलीकी गड़गड़ाहटके समान सुनायी देती है, उन सव्यसाचीकी याद करके मुझे तनिक भी चैन नहीं मिलता’॥१३—१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तथा लालप्यमानां तां निशम्य परवीरहा।
भीमसेनो महाराज द्रौपदीमिदमब्रवीत् ॥ १६ ॥
मूलम्
तथा लालप्यमानां तां निशम्य परवीरहा।
भीमसेनो महाराज द्रौपदीमिदमब्रवीत् ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाराज! इस प्रकार विलाप करती हुई द्रौपदीकी बात सुनकर शत्रुवीरोंका संहार करनेवाले भीमसेनने उससे इस प्रकार कहा॥१६॥
मूलम् (वचनम्)
भीम उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
मनःप्रीतिकरं भद्रे यद् ब्रवीषि सुमध्यमे।
तन्मे प्रीणाति हृदयममृतप्राशनोपमम् ॥ १७ ॥
मूलम्
मनःप्रीतिकरं भद्रे यद् ब्रवीषि सुमध्यमे।
तन्मे प्रीणाति हृदयममृतप्राशनोपमम् ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीमसेन बोले— भद्रे! सुमध्यमे! तुम जो कुछ कहती हो, वह मेरे मनको प्रसन्न करनेवाला है। तुम्हारी बात मेरे हृदयको अमृतपानके तुल्य तृप्ति प्रदान करती है॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यस्य दीर्घौ समौ पीनौ भुजौ परिघसंनिभौ।
मौर्वीकृतकिणौ वृत्तौ खड्गायुधधनुर्धरौ ॥ १८ ॥
निष्काङ्गदकृतापीडौ पञ्चशीर्षाविवोरगौ ।
तमृते पुरुषव्याघ्रं नष्टसूर्यमिवाम्बरम् ॥ १९ ॥
मूलम्
यस्य दीर्घौ समौ पीनौ भुजौ परिघसंनिभौ।
मौर्वीकृतकिणौ वृत्तौ खड्गायुधधनुर्धरौ ॥ १८ ॥
निष्काङ्गदकृतापीडौ पञ्चशीर्षाविवोरगौ ।
तमृते पुरुषव्याघ्रं नष्टसूर्यमिवाम्बरम् ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिनकी दोनों भुजाएँ लम्बी, मोटी, बराबर-बराबर तथा परिघके समान सुशोभित होनेवाली हैं, जिनपर प्रत्यञ्चाकी रगड़का चिह्न बन गया है, जो गोलाकार हैं और जिनमें खड्ग एवं धनुष सुशोभित होते हैं, सोनेके भुजबन्दोंसे विभूषित होकर जो पाँच-पाँच फनवाले दो सर्पोंके समान प्रतीत होती है उन पाँचों अंगुलियोंसे युक्त दोनों भुजाओंसे विभूषित नरश्रेष्ठ अर्जुनके बिना आज यह वन सूर्यहीन आकाशके समान श्रीहीन दिखलायी देता है॥१८-१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यमाश्रित्य महाबाहुं पाञ्चालाः कुरवस्तथा।
सुराणामपि मत्तानां पृतनासु न बिभ्यति ॥ २० ॥
यस्य बाहू समाश्रित्य वयं सर्वे महात्मनः।
मन्यामहे जितानाजौ परान् प्राप्तां च मेदिनीम् ॥ २१ ॥
तमृते फाल्गुनं वीरं न लभे काम्यके धृतिम्।
पश्यामि च दिशः सर्वास्तिमिरेणावृता इव।
मूलम्
यमाश्रित्य महाबाहुं पाञ्चालाः कुरवस्तथा।
सुराणामपि मत्तानां पृतनासु न बिभ्यति ॥ २० ॥
यस्य बाहू समाश्रित्य वयं सर्वे महात्मनः।
मन्यामहे जितानाजौ परान् प्राप्तां च मेदिनीम् ॥ २१ ॥
तमृते फाल्गुनं वीरं न लभे काम्यके धृतिम्।
पश्यामि च दिशः सर्वास्तिमिरेणावृता इव।
अनुवाद (हिन्दी)
जिन महाबाहु अर्जुनका आश्रय लेकर पाञ्चाल और कुरुवंशके वीर युद्धके लिये उद्यत देवताओंकी सेनाका सामना करनेसे भी भयभीत नहीं होते हैं, जिन महात्माके बाहुबलके भरोसे हम सब लोग युद्धमें अपने शत्रुओंको पराजित और इस पृथ्वीका राज्य अपने अधिकारमें आया हुआ मानते हैं, उन वीरवर अर्जुनके बिना हमें काम्यकवनमें धैर्य नहीं प्राप्त हो रहा है। मुझे सारी दिशाएँ अन्धकारसे आच्छन्न-सी दिखायी देती हैं॥२०-२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततोऽब्रवीत् साश्रुकण्ठो नकुलः पाण्डुनन्दनः ॥ २२ ॥
मूलम्
ततोऽब्रवीत् साश्रुकण्ठो नकुलः पाण्डुनन्दनः ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीमसेनकी यह बात सुनकर पाण्डुनन्दन नकुल अश्रुगद्गदकण्ठसे बोले—॥२२॥
मूलम् (वचनम्)
नकुल उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
यस्मिन् दिव्यानि कर्माणि कथयन्ति रणाजिरे।
देवा अपि युधां श्रेष्ठं तमृते का रतिर्वने ॥ २३ ॥
मूलम्
यस्मिन् दिव्यानि कर्माणि कथयन्ति रणाजिरे।
देवा अपि युधां श्रेष्ठं तमृते का रतिर्वने ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नकुलने कहा— जिन महावीर अर्जुनके विषयमें रणप्रांगणके भीतर देवताओंके द्वारा भी दिव्य कर्मोंका वर्णन किया जाता है, उन योद्धाओंमें श्रेष्ठ धनंजयके बिना अब इस वनमें हमें क्या प्रसन्नता है?॥२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उदीचीं यो दिशं गत्वा जित्वा युधि महाबलान्।
गन्धर्वमुख्याञ्छतशो हयाल्ँलेभे महाद्युतिः ॥ २४ ॥
मूलम्
उदीचीं यो दिशं गत्वा जित्वा युधि महाबलान्।
गन्धर्वमुख्याञ्छतशो हयाल्ँलेभे महाद्युतिः ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिन महातेजस्वीने उत्तर दिशामें जाकर महाबली मुख्य-मुख्य गन्धर्वोंको युद्धमें परास्त करके उनसे सैकड़ों घोड़े प्राप्त किये॥२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
राज्ञे तित्तिरिकल्माषाञ्छ्रीमतोऽनिलरंहसः ।
प्रादाद् भ्रात्रे प्रियः प्रेम्णा राजसूये महाक्रतौ ॥ २५ ॥
मूलम्
राज्ञे तित्तिरिकल्माषाञ्छ्रीमतोऽनिलरंहसः ।
प्रादाद् भ्रात्रे प्रियः प्रेम्णा राजसूये महाक्रतौ ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिन्होंने महायज्ञ राजसूयमें अपने प्यारे भाई धर्मराज युधिष्ठिरको प्रेमपूर्वक वायुके समान वेगशाली तित्तिरिकल्माष नामक सुन्दर घोड़े भेंट किये थे॥२५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तमृते भीमधन्वानं भीमादवरजं वने।
कामये काम्यके वासं नेदानीममरोपमम् ॥ २६ ॥
मूलम्
तमृते भीमधन्वानं भीमादवरजं वने।
कामये काम्यके वासं नेदानीममरोपमम् ॥ २६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीमके छोटे भाई उन भयंकर धनुर्धर देवोपम अर्जुनके बिना इस समय मुझे इस काम्यकवनमें रहनेकी इच्छा नहीं होती॥२६॥
मूलम् (वचनम्)
सहदेव उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
यो धनानि च कन्याश्च युधि जित्वा महारथः।
आजहार पुरा राज्ञे राजसूये महाक्रतौ ॥ २७ ॥
यः समेतान् मृधे जित्वा यादवानमितद्युतिः।
सुभद्रामाजहारैको वासुदेवस्य सम्मते ॥ २८ ॥
मूलम्
यो धनानि च कन्याश्च युधि जित्वा महारथः।
आजहार पुरा राज्ञे राजसूये महाक्रतौ ॥ २७ ॥
यः समेतान् मृधे जित्वा यादवानमितद्युतिः।
सुभद्रामाजहारैको वासुदेवस्य सम्मते ॥ २८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सहदेवने कहा— जिन महारथी वीरने पहले राजसूय महायज्ञके अवसरपर युद्धमें जीतकर बहुत धन और कन्याएँ महाराज युधिष्ठिरको भेंट की थीं, जिन अनन्त तेजस्वी धनंजयने भगवान् श्रीकृष्णकी सम्मतिसे युद्धके लिये एकत्र हुए समस्त यादवोंको अकेले ही जीतकर सुभद्राका हरण कर लिया था॥२७-२८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्य जिष्णोर्बृसीं दृष्ट्वा शून्यामिव निवेशने।
हृदयं मे महाराज न शाम्यति कदाचन ॥ २९ ॥
वनादस्माद् विवासं तु रोचयेऽहमरिंदम।
न हि नस्तमृते वीरं रमणीयमिदं वनम् ॥ ३० ॥
मूलम्
तस्य जिष्णोर्बृसीं दृष्ट्वा शून्यामिव निवेशने।
हृदयं मे महाराज न शाम्यति कदाचन ॥ २९ ॥
वनादस्माद् विवासं तु रोचयेऽहमरिंदम।
न हि नस्तमृते वीरं रमणीयमिदं वनम् ॥ ३० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाराज! उन्हीं विजयी भ्राता धनंजयके आसनको अब अपनी कुटियामें सूना देखकर मेरे हृदयको कभी शान्ति नहीं मिलती। अतः शत्रुदमन! मैं इस वनसे अन्यत्र चलना पसंद करता हूँ। वीरवर अर्जुनके बिना अब यह वन रमणीय नहीं लगता॥२९–३०॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि तीर्थयात्रापर्वणि अर्जुनानुशोचने अशीतितमोऽध्यायः ॥ ८० ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्वके अन्तर्गत तीर्थयात्रापर्वमें अर्जुनके लिये पाण्डवोंका अनुतापविषयक असीवाँ अध्याय पूरा हुआ॥८०॥
-
जिनके मारनेपर मारनेवाला पवित्र हो जाय, ऐसे हिंसक सिंह-व्याघ्रादि पशुओंको पवित्र मृग कहा जाता है। ↩︎