भागसूचना
अष्टसप्ततितमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
राजा नलका पुष्करको जूएमें हराना और उसको राजधानीमें भेजकर अपने नगरमें प्रवेश करना
मूलम् (वचनम्)
बृहदश्व उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
स मासमुष्य कौन्तेय भीममामन्त्र्य नैषधः।
पुरादल्पपरीवारो जगाम निषधान् प्रति ॥ १ ॥
मूलम्
स मासमुष्य कौन्तेय भीममामन्त्र्य नैषधः।
पुरादल्पपरीवारो जगाम निषधान् प्रति ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
बृहदश्व मुनि कहते हैं— युधिष्ठिर! निषध-नरेश एक मासतक कुण्डिनपुरमें रहकर राजा भीमकी आज्ञा ले थोड़े-से सेवकोंसहित वहाँसे निषधदेशकी ओर प्रस्थित हुए॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रथेनैकेन शुभ्रेण दन्तिभिः परिषोडशैः।
पञ्चाशद्भिर्हयैश्चैव षट्शतैश्च पदातिभिः ॥ २ ॥
मूलम्
रथेनैकेन शुभ्रेण दन्तिभिः परिषोडशैः।
पञ्चाशद्भिर्हयैश्चैव षट्शतैश्च पदातिभिः ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उनके साथ चारों ओरसे सोलह हाथियोंद्वारा घिरा हुआ एक सुन्दर रथ, पचास घोड़े और छः सौ पैदल सैनिक थे॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स कम्पयन्निव महीं त्वरमाणो महीपतिः।
प्रविवेशाथ संरब्धस्तरसैव महामनाः ॥ ३ ॥
मूलम्
स कम्पयन्निव महीं त्वरमाणो महीपतिः।
प्रविवेशाथ संरब्धस्तरसैव महामनाः ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महामना राजा नलने इन सबके द्वारा पृथ्वीको कम्पित-सी करते हुए बड़ी उतावलीके साथ रोषावेशमें भरे वेगपूर्वक निषधदेशकी राजधानीमें प्रवेश किया॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः पुष्करमासाद्य वीरसेनसुतो नलः।
उवाच दीव्याव पुनर्बहुवित्तं मयार्जितम् ॥ ४ ॥
दमयन्ती च यच्चान्यन्मम किंचन विद्यते।
एष वै मम संन्यासस्तव राज्यं तु पुष्कर ॥ ५ ॥
पुनः प्रवर्ततां द्यूतमिति मे निश्चिता मतिः।
एकपाणेन भद्रं ते प्राणयोश्च पणावहे ॥ ६ ॥
मूलम्
ततः पुष्करमासाद्य वीरसेनसुतो नलः।
उवाच दीव्याव पुनर्बहुवित्तं मयार्जितम् ॥ ४ ॥
दमयन्ती च यच्चान्यन्मम किंचन विद्यते।
एष वै मम संन्यासस्तव राज्यं तु पुष्कर ॥ ५ ॥
पुनः प्रवर्ततां द्यूतमिति मे निश्चिता मतिः।
एकपाणेन भद्रं ते प्राणयोश्च पणावहे ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर वीरसेनपुत्र नलने पुष्करके पास जाकर कहा—‘अब हम दोनों फिरसे जूआ खेलें। मैंने बहुत धन प्राप्त किया है। दमयन्ती तथा अन्य जो कुछ भी मेरे पास है, यह सब मेरी ओरसे दाँवपर लगाया जायगा और पुष्कर! तुम्हारी ओरसे सारा राज्य ही दाँवपर रखा जायगा। इस एक पणके साथ हम दोनोंमें फिर जूएका खेल प्रारम्भ हो, यह मेरा निश्चित विचार है। तुम्हारा भला हो, यदि ऐसा न कर सको तो हम दोनों अपने प्राणोंकी बाजी लगावें॥४—६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जित्वा परस्वमाहृत्य राज्यं वा यदि वा वसु।
प्रतिपाणः प्रदातव्यः परमो धर्म उच्यते ॥ ७ ॥
मूलम्
जित्वा परस्वमाहृत्य राज्यं वा यदि वा वसु।
प्रतिपाणः प्रदातव्यः परमो धर्म उच्यते ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जूएके दाँवमें दूसरेका राज्य या धन जीतकर रख लिया जाय तो उसे यदि वह पुनः खेलना चाहे तो प्रतिपण (बदलेका दाव) देना चाहिये, यह परम धर्म कहा गया है॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न चेद् वाञ्छसि त्वं द्यूतं युद्धद्यूतं प्रवर्तताम्।
द्वैरथेनास्तु वै शान्तिस्तव वा मम वा नृप ॥ ८ ॥
मूलम्
न चेद् वाञ्छसि त्वं द्यूतं युद्धद्यूतं प्रवर्तताम्।
द्वैरथेनास्तु वै शान्तिस्तव वा मम वा नृप ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘यदि तुम पासोंसे जूआ खेलना न चाहो तो बाणोंद्वारा युद्धका जूआ प्रारम्भ होना चाहिये। राजन्! द्वैरथयुद्धके द्वारा तुम्हारी अथवा मेरी शान्ति हो जाय॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वंशभोज्यमिदं राज्यमर्थितव्यं यथा तथा।
येन केनाप्युपायेन वृद्धानामिति शासनम् ॥ ९ ॥
मूलम्
वंशभोज्यमिदं राज्यमर्थितव्यं यथा तथा।
येन केनाप्युपायेन वृद्धानामिति शासनम् ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘यह राज्य हमारी वंशपरम्पराके उपभोगमें आनेवाला है। जिस-किसी उपायसे भी जैसे-तैसे इसका उद्धार करना चाहिये; ऐसा वृद्ध पुरुषोंका उपदेश है॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
द्वयोरेकतरे बुद्धिः क्रियतामद्य पुष्कर।
कैतवेनाक्षवत्यां तु युद्धे वा ना ताम्यतां धनुः ॥ १० ॥
मूलम्
द्वयोरेकतरे बुद्धिः क्रियतामद्य पुष्कर।
कैतवेनाक्षवत्यां तु युद्धे वा ना ताम्यतां धनुः ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘पुष्कर! आज तुम दोमेंसे एकमें मन लगाओ। छलपूर्वक जूआ खेलो अथवा युद्धके लिये धनुषपर प्रत्यञ्चा चढ़ाओ’॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नैषधेनैवमुक्तस्तु पुष्करः प्रहसन्निव ।
ध्रुवमात्मजयं मत्वा प्रत्याह पृथिवीपतिम् ॥ ११ ॥
मूलम्
नैषधेनैवमुक्तस्तु पुष्करः प्रहसन्निव ।
ध्रुवमात्मजयं मत्वा प्रत्याह पृथिवीपतिम् ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
निषधराज नलके ऐसा कहनेपर पुष्करने अपनी विजयको अवश्यम्भावी मानकर हँसते हुए उनसे कहा—॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दिष्ट्या त्वयार्जितं वित्तं प्रतिपाणाय नैषध।
दिष्ट्या च दुष्कृतं कर्म दमयन्त्याः क्षयं गतम् ॥ १२ ॥
मूलम्
दिष्ट्या त्वयार्जितं वित्तं प्रतिपाणाय नैषध।
दिष्ट्या च दुष्कृतं कर्म दमयन्त्याः क्षयं गतम् ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘नैषध! सौभाग्यकी बात है कि तुमने दाँवपर लगानेके लिये धनका उपार्जन कर लिया है। यह भी आनन्दकी बात है कि दमयन्तीके दुष्कर्मोंका क्षय हो गया॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दिष्ट्या च ध्रियसे राजन् सदारोऽद्य महाभुज।
धनेनानेन वै भैमी जितेन समलंकृता ॥ १३ ॥
मामुपस्थास्यति व्यक्तं दिवि शक्रमिवाप्सराः।
नित्यशो हि स्मरामि त्वां प्रतीक्षेऽपि च नैषध ॥ १४ ॥
मूलम्
दिष्ट्या च ध्रियसे राजन् सदारोऽद्य महाभुज।
धनेनानेन वै भैमी जितेन समलंकृता ॥ १३ ॥
मामुपस्थास्यति व्यक्तं दिवि शक्रमिवाप्सराः।
नित्यशो हि स्मरामि त्वां प्रतीक्षेऽपि च नैषध ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘महाबाहु नरेश! सौभाग्यसे तुम पत्नीसहित अभी जीवित हो। इसी धनको जीत लेनेपर दमयन्ती शृंगार करके निश्चय ही मेरी सेवामें उपस्थित होगी, ठीक उसी तरह, जैसे स्वर्गलोककी अप्सरा देवराज इन्द्रकी सेवामें जाती है। नैषध! मैं प्रतिदिन तुम्हारी याद करता हूँ और तुम्हारी राह भी देखा करता हूँ॥१३-१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
देवनेन मम प्रीतिर्न भवत्यसुहृद्गणैः।
जित्वा त्वद्य वरारोहां दमयन्तीमनिन्दिताम् ॥ १५ ॥
कृतकृत्यो भविष्यामि सा हि मे नित्यशो हृदि।
मूलम्
देवनेन मम प्रीतिर्न भवत्यसुहृद्गणैः।
जित्वा त्वद्य वरारोहां दमयन्तीमनिन्दिताम् ॥ १५ ॥
कृतकृत्यो भविष्यामि सा हि मे नित्यशो हृदि।
अनुवाद (हिन्दी)
‘शत्रुओंके साथ जूआ खेलनेसे मुझे कभी तृप्ति ही नहीं होती। आज श्रेष्ठ अंगोंवाली अनिन्द्य सुन्दरी दमयन्तीको जीतकर मैं कृतार्थ हो जाऊँगा; क्योंकि वह सदा मेरे हृदयमन्दिरमें निवास करती है’॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
श्रुत्वा तु तस्य वा वाचो बह्वबद्धप्रलापिनः ॥ १६ ॥
इयेष स शिरश्छेत्तुं खड्गेन कुपितो नलः।
स्मयंस्तु रोषताम्राक्षस्तमुवाच नलो नृपः ॥ १७ ॥
मूलम्
श्रुत्वा तु तस्य वा वाचो बह्वबद्धप्रलापिनः ॥ १६ ॥
इयेष स शिरश्छेत्तुं खड्गेन कुपितो नलः।
स्मयंस्तु रोषताम्राक्षस्तमुवाच नलो नृपः ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार बहुत-से असम्बद्ध प्रलाप करनेवाले पुष्करकी ये बातें सुनकर राजा नलको बड़ा क्रोध हुआ। उन्होंने तलवारसे उसका सिर काट लेनेकी इच्छा की। रोषसे उनकी आँखें लाल हो गयीं तो भी राजा नलने हँसते हुए उससे कहा—॥१६-१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पणावः किं व्याहरसे जितो न व्याहरिष्यसि।
ततः प्रावर्तत द्यूतं पुष्करस्य नलस्य च ॥ १८ ॥
एकपाणेन वीरेण नलेन स पराजितः।
स रत्नकोशनिचयैः प्राणेन पणितोऽपि च ॥ १९ ॥
मूलम्
पणावः किं व्याहरसे जितो न व्याहरिष्यसि।
ततः प्रावर्तत द्यूतं पुष्करस्य नलस्य च ॥ १८ ॥
एकपाणेन वीरेण नलेन स पराजितः।
स रत्नकोशनिचयैः प्राणेन पणितोऽपि च ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘अब हम दोनों जूआ प्रारम्भ करें, तुम अभी व्यर्थ बकवाद क्यों करते हो? हार जानेपर ऐसी बातें न कर सकोगे।’ तदनन्तर पुष्कर तथा राजा नलमें एक ही दाँव लगानेकी शर्त रखकर जूएका खेल प्रारम्भ हुआ। तब वीर नलने पुष्करको हरा दिया। पुष्करने रत्न, खजाना तथा प्राणोंतककी बाजी लगा दी थी॥१८-१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जित्वा च पुष्करं राजा प्रहसन्निदमब्रवीत्।
मम सर्वमिदं राज्यमव्यग्रं हतकण्टकम् ॥ २० ॥
वैदर्भी न त्वया शक्या राजापसद वीक्षितुम्।
तस्यास्त्वं सपरीवारो मूढ दासत्वमागतः ॥ २१ ॥
मूलम्
जित्वा च पुष्करं राजा प्रहसन्निदमब्रवीत्।
मम सर्वमिदं राज्यमव्यग्रं हतकण्टकम् ॥ २० ॥
वैदर्भी न त्वया शक्या राजापसद वीक्षितुम्।
तस्यास्त्वं सपरीवारो मूढ दासत्वमागतः ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पुष्करको परास्त करके राजा नलने हँसते हुए उससे कहा—‘नृपाधम! अब यह शान्त और अकण्टक सारा राज्य मेरे अधिकारमें आ गया। विदर्भकुमारी दमयन्तीकी ओर तू आँख उठाकर देख भी नहीं सकता। मूर्ख! आजसे तू परिवारसहित दमयन्तीका दास हो गया॥२०-२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न त्वया तत् कृतं कर्म येनाहं विजितः पुरा।
कलिना तत् कृतं कर्म त्वं च मूढ न बुध्यसे॥२२॥
मूलम्
न त्वया तत् कृतं कर्म येनाहं विजितः पुरा।
कलिना तत् कृतं कर्म त्वं च मूढ न बुध्यसे॥२२॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘पहले तेरे द्वारा जो मैं पराजित हो गया था, उसमें तेरा कोई पुरुषार्थ नहीं था। मूढ़! वह सब कलियुगकी करतूत थी, जिसे तू नहीं जानता है॥२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नाहं परकृतं दोषं त्वय्याधास्ये कथंचन।
यथासुखं वै जीव त्वं प्राणानवसृजामि ते ॥ २३ ॥
मूलम्
नाहं परकृतं दोषं त्वय्याधास्ये कथंचन।
यथासुखं वै जीव त्वं प्राणानवसृजामि ते ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘दूसरे (कलियुग)-के किये हुए अपराधको मैं किसी तरह तेरे मत्थे नहीं मढूँगा। तू सुखपूर्वक जीवित रह। मैं तेरे प्राण तुझे वापस देता हूँ॥२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तथैव सर्वसम्भारं स्वमंशं वितरामि ते।
तथैव च मम प्रीतिस्त्वयि वीर न संशयः ॥ २४ ॥
मूलम्
तथैव सर्वसम्भारं स्वमंशं वितरामि ते।
तथैव च मम प्रीतिस्त्वयि वीर न संशयः ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘तेरा सारा सामान और तेरे हिस्सेका धन भी तुझे लौटाये देता हूँ। वीर! तेरे ऊपर मेरा पूर्ववत् प्रेम बना रहेगा, इसमें संशय नहीं है॥२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सौहार्दं चापि मे त्वत्तो न कदाचित् प्रहास्यति।
पुष्कर त्वं हि मे भ्राता संजीव शरदः शतम्॥२५॥
मूलम्
सौहार्दं चापि मे त्वत्तो न कदाचित् प्रहास्यति।
पुष्कर त्वं हि मे भ्राता संजीव शरदः शतम्॥२५॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘तेरे प्रति जो मेरा सौहार्द रहा है, वह कभी मेरे हृदयसे दूर नहीं होगा। पुष्कर! तू मेरा भाई है, जा, सौ वर्षोंतक जीवित रह’॥२५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं नलः सान्त्वयित्वा भ्रातरं सत्यविक्रमः।
स्वपुरं प्रेषयामास परिष्वज्य पुनः पुनः ॥ २६ ॥
मूलम्
एवं नलः सान्त्वयित्वा भ्रातरं सत्यविक्रमः।
स्वपुरं प्रेषयामास परिष्वज्य पुनः पुनः ॥ २६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार सत्यपराक्रमी राजा नलने अपने भाई पुष्करको सान्त्वना दे बार-बार हृदयसे लगाकर उसकी राजधानीको भेज दिया॥२६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सान्त्वितो नैषधेनैवं पुष्करः प्रत्युवाच तम्।
पुण्यश्लोकं तदा राजन्नभिवाद्य कृताञ्जलिः ॥ २७ ॥
कीर्तिरस्तु तवाक्षय्या जीव वर्षशतं सुखी।
यो मे वितरसि प्राणानधिष्ठानं च पार्थिव ॥ २८ ॥
मूलम्
सान्त्वितो नैषधेनैवं पुष्करः प्रत्युवाच तम्।
पुण्यश्लोकं तदा राजन्नभिवाद्य कृताञ्जलिः ॥ २७ ॥
कीर्तिरस्तु तवाक्षय्या जीव वर्षशतं सुखी।
यो मे वितरसि प्राणानधिष्ठानं च पार्थिव ॥ २८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! निषधराजके इस प्रकार सान्त्वना देनेपर पुष्करने पुण्यश्लोक नलको हाथ जोड़कर प्रणाम किया और इस प्रकार कहा—‘पृथ्वीनाथ! आप जो मुझे प्राण और निवासस्थान भी वापस दे रहे हैं, इससे आपकी अक्षय कीर्ति बनी रहे। आप सौ वर्षोंतक जीयें और सुखी रहें’॥२७-२८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स तथा सत्कृतो राज्ञा मासमुष्य तदा नृप।
प्रययौ पुष्करो हृष्टःस्वपुरं स्वजनावृतः ॥ २९ ॥
महत्या सेनया सार्धं विनीतैः परिचारकैः।
भ्राजमान इवादित्यो वपुषा पुरुषर्षभ ॥ ३० ॥
मूलम्
स तथा सत्कृतो राज्ञा मासमुष्य तदा नृप।
प्रययौ पुष्करो हृष्टःस्वपुरं स्वजनावृतः ॥ २९ ॥
महत्या सेनया सार्धं विनीतैः परिचारकैः।
भ्राजमान इवादित्यो वपुषा पुरुषर्षभ ॥ ३० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नरश्रेष्ठ युधिष्ठिर! राजा नलके द्वारा इस प्रकार सत्कार पाकर पुष्कर एक मासतक वहाँ टिका रहा और फिर आत्मीय जनोंके साथ प्रसन्नतापूर्वक अपनी राजधानीको चला गया। उसके साथ विशाल सेना और विनयशील सेवक भी थे। वह शरीरसे सूर्यकी भाँति प्रकाशित हो रहा था॥२९-३०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रस्थाप्य पुष्करं राजा वित्तवन्तमनामयम्।
प्रविवेश पुरं श्रीमानत्यर्थमुपशोभिताम् ॥ ३१ ॥
मूलम्
प्रस्थाप्य पुष्करं राजा वित्तवन्तमनामयम्।
प्रविवेश पुरं श्रीमानत्यर्थमुपशोभिताम् ॥ ३१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पुष्करको धन—वित्तके साथ सकुशल घर भेजकर श्रीमान् राजा नलने अपने अत्यन्त शोभासम्पन्न नगरमें प्रवेश किया॥३१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रविश्य सान्त्वयामास पौरांश्च निषधाधिपः।
पौरा जानपदाश्चापि सम्प्रहृष्टतनूरुहाः ॥ ३२ ॥
मूलम्
प्रविश्य सान्त्वयामास पौरांश्च निषधाधिपः।
पौरा जानपदाश्चापि सम्प्रहृष्टतनूरुहाः ॥ ३२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रवेश करके निषधनरेशने पुरवासियोंको सान्त्वना दी। नगर और जनपदके लोग बड़े प्रसन्न हुए। उनके शरीरमें रोमांच हो आया॥३२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ऊचुः प्राञ्जलयः सर्वे सामात्यप्रमुखा जनाः।
अद्य स्म निर्वृता राजन् पुरे जनपदेऽपि च।
उपासितुं पुनः प्राप्ता देवा इव शतक्रतुम् ॥ ३३ ॥
मूलम्
ऊचुः प्राञ्जलयः सर्वे सामात्यप्रमुखा जनाः।
अद्य स्म निर्वृता राजन् पुरे जनपदेऽपि च।
उपासितुं पुनः प्राप्ता देवा इव शतक्रतुम् ॥ ३३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मन्त्री आदि सब लोगोंने हाथ जोड़कर कहा—‘महाराज! आज हम नगर और जनपदके निवासी संतोषसे साँस ले सके हैं। जैसे देवता देवराज इन्द्रकी सेवामें उपस्थित होते हैं, उसी प्रकार अब हमें पुनः आपकी उपासना करने—आपके पास बैठनेका शुभ अवसर प्राप्त हुआ है’॥३३॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि नलोपाख्यानपर्वणि पुष्करपराभवपूर्वकं राज्यप्रत्यानयने अष्टसप्ततितमोऽध्यायः ॥ ७८ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्वके अन्तर्गत नलोपाख्यानपर्वमें पुष्करको हराकर राजा नलके अपने नगरमें आनेसे सम्बन्ध रखनेवाला अठहत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ॥७८॥