०७७ ऋतुपर्णाय अश्वविद्याबोधनम्

भागसूचना

सप्तसप्ततितमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

नलके प्रकट होनेपर विदर्भनगरमें महान् उत्सवका आयोजन, ऋतुपर्णके साथ नलका वार्तालाप और ऋतुपर्णका नलसे अश्वविद्या सीखकर अयोध्या जाना

मूलम् (वचनम्)

बृहदश्व उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथ तां व्युषितो रात्रिं नलो राजा स्वलंकृतः।
वैदर्भ्या सहितः काले ददर्श वसुधाधिपम् ॥ १ ॥

मूलम्

अथ तां व्युषितो रात्रिं नलो राजा स्वलंकृतः।
वैदर्भ्या सहितः काले ददर्श वसुधाधिपम् ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

बृहदश्व मुनि कहते हैं— युधिष्ठिर! तदनन्तर वह रात बीतनेपर राजा नल वस्त्राभूषणोंसे अलंकृत हो दमयन्तीके साथ यथासमय राजा भीमसे मिले॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततोऽभिवादयामास प्रयतः श्वशुरं नलः।
ततोऽनु दमयन्ती च ववन्दे पितरं शुभा ॥ २ ॥

मूलम्

ततोऽभिवादयामास प्रयतः श्वशुरं नलः।
ततोऽनु दमयन्ती च ववन्दे पितरं शुभा ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

स्नानादिसे पवित्र हुए राजा नलने विनीतभावसे श्वशुरको प्रणाम किया। तत्पश्चात् शुभलक्षणा दमयन्तीने भी पिताकी वन्दना की॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तं भीमः प्रतिजग्राह पुत्रवत् परया मुदा।
यथार्हं पूजयित्वा च समाश्वासयत प्रभुः ॥ ३ ॥
नलेन सहितां तत्र दमयन्तीं पतिव्रताम्।

मूलम्

तं भीमः प्रतिजग्राह पुत्रवत् परया मुदा।
यथार्हं पूजयित्वा च समाश्वासयत प्रभुः ॥ ३ ॥
नलेन सहितां तत्र दमयन्तीं पतिव्रताम्।

अनुवाद (हिन्दी)

राजा भीमने बड़ी प्रसन्नताके साथ नलको पुत्रकी भाँति अपनाया और नलसहित पतिव्रता दमयन्तीका यथायोग्य आदर-सत्कार करके उन्हें आश्वासन दिया॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तामर्हणां नलो राजा प्रतिगृह्य यथाविधि ॥ ४ ॥
परिचर्यां स्वकां तस्मै यथावत् प्रत्यवेदयत्।
ततो बभूव नगरे सुमहान् हर्षजः स्वनः ॥ ५ ॥
जनस्य सम्प्रहृष्टस्य नलं दृष्ट्वा तथाऽऽगतम्।

मूलम्

तामर्हणां नलो राजा प्रतिगृह्य यथाविधि ॥ ४ ॥
परिचर्यां स्वकां तस्मै यथावत् प्रत्यवेदयत्।
ततो बभूव नगरे सुमहान् हर्षजः स्वनः ॥ ५ ॥
जनस्य सम्प्रहृष्टस्य नलं दृष्ट्वा तथाऽऽगतम्।

अनुवाद (हिन्दी)

राजा नलने उस पूजाको विधिपूर्वक स्वीकार करके अपनी ओरसे भी श्वशुरका सेवा-सत्कार किया। तदनन्तर विदर्भनगरमें राजा नलको इस प्रकार आया देख हर्षोल्लासमें भरी हुई जनताका महान् आनन्दजनित कोलाहल होने लगा॥४-५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अशोभयच्च नगरं पताकाध्वजमालिनम् ॥ ६ ॥
सिक्ताः सुमृष्टपुष्पाढ्या राजमार्गाः स्वलंकृताः।
द्वारि द्वारि च पौराणां पुष्पभङ्गः प्रकल्पितः ॥ ७ ॥

मूलम्

अशोभयच्च नगरं पताकाध्वजमालिनम् ॥ ६ ॥
सिक्ताः सुमृष्टपुष्पाढ्या राजमार्गाः स्वलंकृताः।
द्वारि द्वारि च पौराणां पुष्पभङ्गः प्रकल्पितः ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

विदर्भनरेशने ध्वजा, पताकाओंकी पंक्तियोंसे कुण्डिनपुरको अद्भुत शोभासे सम्पन्न किया। सड़कोंको खूब झाड़-बुहारकर उनपर छिड़काव किया गया था। फूलोंसे उन्हें अच्छी तरह सजाया गया था। पुरवासियोंके द्वार-द्वारपर सुगंध फैलानेके लिये राशि-राशि फूल बिखेरे गये थे॥६-७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अर्चितानि च सर्वाणि देवतायतनानि च।
ऋतुपर्णोऽपि शुश्राव बाहुकच्छद्मिनं नलम् ॥ ८ ॥
दमयन्त्या समायुक्तं जहृषे च नराधिपः।

मूलम्

अर्चितानि च सर्वाणि देवतायतनानि च।
ऋतुपर्णोऽपि शुश्राव बाहुकच्छद्मिनं नलम् ॥ ८ ॥
दमयन्त्या समायुक्तं जहृषे च नराधिपः।

अनुवाद (हिन्दी)

सम्पूर्ण देवमन्दिरोंकी सजावट और देवमूर्तियोंकी पूजा की गयी थी। राजा ऋतुपर्णने भी जब यह सुना कि बाहुकके वेषमें राजा नल ही थे और अब वे दमयन्तीसे मिले हैं, तब उन्हें बड़ा हर्ष हुआ॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तमानाय्य नलं राजा क्षमयामास पार्थिवम् ॥ ९ ॥

मूलम्

तमानाय्य नलं राजा क्षमयामास पार्थिवम् ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन्होंने राजा नलको बुलवाकर उनसे क्षमा माँगी ॥ ९ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स च तं क्षमयामास हेतुभिर्बुद्धिसम्मितः।
स सत्कृतो महीपालो नैषधं विस्मिताननः ॥ १० ॥
उवाच वाक्यं तत्त्वज्ञो नैषधं वदतां वरः।

मूलम्

स च तं क्षमयामास हेतुभिर्बुद्धिसम्मितः।
स सत्कृतो महीपालो नैषधं विस्मिताननः ॥ १० ॥
उवाच वाक्यं तत्त्वज्ञो नैषधं वदतां वरः।

अनुवाद (हिन्दी)

बुद्धिमान् नलने भी अनेक युक्तियोंद्वारा उनसे क्षमा-याचना की। नलसे आदर-सत्कार पाकर वक्ताओंमें श्रेष्ठ एवं तत्त्वज्ञ राजा ऋतुपर्ण मुसकराते हुए मुखसे बोले—॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दिष्ट्या समेतो दारैः स्वैर्भवानित्यभ्यनन्दत ॥ ११ ॥

मूलम्

दिष्ट्या समेतो दारैः स्वैर्भवानित्यभ्यनन्दत ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘निषधनरेश! यह बड़े सौभाग्यकी बात है कि आप अपनी बिछुड़ी हुई पत्नीसे मिले।’ ऐसा कहकर उन्होंने नलका अभिनन्दन किया॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

किंचित् तु नापराधं ते कृतवानस्मि नैषध।
अज्ञातवासे वसतो मद्‌गृहे वसुधाधिप ॥ १२ ॥

मूलम्

किंचित् तु नापराधं ते कृतवानस्मि नैषध।
अज्ञातवासे वसतो मद्‌गृहे वसुधाधिप ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

(और पुनः कहा—) ‘नैषध! भूपालशिरोमणे! आप मेरे घरपर जब अज्ञातवासकी अवस्थामें रहते थे, उस समय मैंने आपका कोई अपराध तो नहीं किया है?॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यदि वाबुद्धिपूर्वाणि यदि बुद्ध्यापि कानिचित्।
मया कृतान्यकार्याणि तानि त्वं क्षन्तुमर्हसि ॥ १३ ॥

मूलम्

यदि वाबुद्धिपूर्वाणि यदि बुद्ध्यापि कानिचित्।
मया कृतान्यकार्याणि तानि त्वं क्षन्तुमर्हसि ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘उन दिनों यदि मैंने बिना जाने या जान-बूझकर आपके साथ अनुचित बर्ताव किये हों तो उन्हें आप क्षमा कर दें’॥१३॥

मूलम् (वचनम्)

नल उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

न मेऽपराधं कृतवांस्त्वं स्वल्पमपि पार्थिव।
कृतेऽपि च न मे कोपः क्षन्तव्यं हि मया तव॥१४॥

मूलम्

न मेऽपराधं कृतवांस्त्वं स्वल्पमपि पार्थिव।
कृतेऽपि च न मे कोपः क्षन्तव्यं हि मया तव॥१४॥

अनुवाद (हिन्दी)

नलने कहा— ‘राजन्! आपने मेरा कभी थोड़ासा भी अपराध नहीं किया है और यदि किया भी हो तो उसके लिये मेरे हृदयमें क्रोध नहीं है। मुझे आपके प्रत्येक बर्तावको क्षमा ही करना चाहिये’॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पूर्वं ह्यपि सखा मेऽसि सम्बन्धी च जनाधिप।
अत ऊर्ध्वं तु भूयस्त्वं प्रीतिमाहर्तुमर्हसि ॥ १५ ॥

मूलम्

पूर्वं ह्यपि सखा मेऽसि सम्बन्धी च जनाधिप।
अत ऊर्ध्वं तु भूयस्त्वं प्रीतिमाहर्तुमर्हसि ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जनेश्वर! आप पहले भी मेरे सखा और सम्बन्धी थे और इसके बाद भी आपको मुझपर अधिक-से-अधिक प्रेम रखना चाहिये॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सर्वकामैः सुविहितैः सुखमस्म्युषितस्त्वयि ।
न तथा स्वगृहे राजन् यथा तव गृहे सदा॥१६॥

मूलम्

सर्वकामैः सुविहितैः सुखमस्म्युषितस्त्वयि ।
न तथा स्वगृहे राजन् यथा तव गृहे सदा॥१६॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! मेरी समस्त कामनाएँ वहाँ अच्छी तरह पूर्ण की गयीं और इसके कारण मैं सदा आपके यहाँ सुखी रहा। महाराज! आपके भवनमें मुझे जैसा आराम मिला, वैसा अपने घरमें भी नहीं मिला॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इदं चैव हयज्ञानं त्वदीयं मयि तिष्ठति।
तदुपाकर्तुमिच्छामि मन्यसे यदि पार्थिव।
एवमुक्त्वा ददौ विद्यामृतुपर्णाय नैषधः ॥ १७ ॥

मूलम्

इदं चैव हयज्ञानं त्वदीयं मयि तिष्ठति।
तदुपाकर्तुमिच्छामि मन्यसे यदि पार्थिव।
एवमुक्त्वा ददौ विद्यामृतुपर्णाय नैषधः ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

आपका अश्वविज्ञान मेरे पास धरोहरके रूपमें पड़ा है। राजन्! यदि आप ठीक समझें तो मैं उसे आपको देनेकी इच्छा रखता हूँ। ऐसा कहकर निषधराज नलने ऋतुपर्णको अश्वविद्या प्रदान की॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स च तां प्रतिजग्राह विधिदृष्टेन कर्मणा।
गृहीत्वा चाश्वहृदयं राजन् भाङ्गासुरिर्नृपः ॥ १८ ॥
निषधाधिपतेश्चापि दत्त्वाक्षहृदयं नृपः ।
सूतमन्यमुपादाय ययौ स्वपुरमेव ह ॥ १९ ॥

मूलम्

स च तां प्रतिजग्राह विधिदृष्टेन कर्मणा।
गृहीत्वा चाश्वहृदयं राजन् भाङ्गासुरिर्नृपः ॥ १८ ॥
निषधाधिपतेश्चापि दत्त्वाक्षहृदयं नृपः ।
सूतमन्यमुपादाय ययौ स्वपुरमेव ह ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिर! ऋतुपर्णने भी शास्त्रीय विधिके अनुसार उनसे अश्वविद्या ग्रहण की। अश्वोंका रहस्य ग्रहण करके और निषधनरेश नलको पुनः द्यूतविद्याका रहस्य समझाकर दूसरा सारथि साथ ले राजा ऋतुपर्ण अपने नगरको चले गये॥१८-१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ऋतुपर्णे गते राजन् नलो राजा विशाम्पते।
नगरे कुण्डिने कालं नातिदीर्घमिवावसत् ॥ २० ॥

मूलम्

ऋतुपर्णे गते राजन् नलो राजा विशाम्पते।
नगरे कुण्डिने कालं नातिदीर्घमिवावसत् ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! ऋतुपर्णके चले जानेपर राजा नल कुण्डिनपुरमें कुछ समयतक रहे। वह काल उन्हें थोड़े समयके समान ही प्रतीत हुआ॥२०॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि नलोपाख्यानपर्वणि ऋतुपर्णस्वदेशगमने सप्तसप्ततितमोऽध्यायः ॥ ७७ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्वके अन्तर्गत नलोपाख्यानपर्वमें ऋतुपर्णका स्वदेशगमनविषयक सतहत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ॥७७॥