०७६ नलदमयन्तीसमागमः

भागसूचना

षट्‌सप्ततितमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

दमयन्ती और बाहुककी बातचीत, नलका प्राकट्य और नल-दमयन्ती-मिलन

मूलम् (वचनम्)

बृहदश्व उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

सर्वं विकारं दृष्ट्वा तु पुण्यश्लोकस्य धीमतः।
आगत्य केशिनी सर्वं दमयन्त्यै न्यवेदयत् ॥ १ ॥

मूलम्

सर्वं विकारं दृष्ट्वा तु पुण्यश्लोकस्य धीमतः।
आगत्य केशिनी सर्वं दमयन्त्यै न्यवेदयत् ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

बृहदश्व मुनि कहते हैं— युधिष्ठिर! परम बुद्धिमान् पुण्यश्लोक राजा नलके सम्पूर्ण विकारोंको देखकर केशिनीने दमयन्तीको आकर बताया॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दमयन्ती ततो भूयः प्रेषयामास केशिनीम्।
मानुः सकाशं दुःखार्ता नलदर्शनकाङ्क्षया ॥ २ ॥

मूलम्

दमयन्ती ततो भूयः प्रेषयामास केशिनीम्।
मानुः सकाशं दुःखार्ता नलदर्शनकाङ्क्षया ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अब दमयन्ती नलके दर्शनकी अभिलाषासे दुःखातुर हो गयी। उसने केशिनीको पुनः अपनी माँके पास भेजा॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

परीक्षितो मे बहुशो बाहुको नलशङ्कया।
रूपे मे संशयस्त्वेकः स्वयमिच्छामि वेदितुम् ॥ ३ ॥

मूलम्

परीक्षितो मे बहुशो बाहुको नलशङ्कया।
रूपे मे संशयस्त्वेकः स्वयमिच्छामि वेदितुम् ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

(और यह कहलाया—) ‘माँ! मेरे मनमें बाहुकके ही नलके होनेका संदेह था, जिसकी मैंने बार-बार परीक्षा करा ली है और सब लक्षण तो मिल गये हैं। केवल नलके रूपमें संदेह रह गया है। इस संदेहका निवारण करनेके लिये मैं स्वयं पता लगाना चाहती हूँ॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स वा प्रवेश्यतां मातर्मां वानुज्ञातुमर्हसि।
विदितं वाथवा ज्ञातं पितुर्मे संविधीयताम् ॥ ४ ॥

मूलम्

स वा प्रवेश्यतां मातर्मां वानुज्ञातुमर्हसि।
विदितं वाथवा ज्ञातं पितुर्मे संविधीयताम् ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘माताजी! या तो बाहुकको महलमें बुलाओ या मुझे ही बाहुकके निकट जानेकी आज्ञा दो। तुम अपनी रुचिके अनुसार पिताजीसे सूचित करके अथवा उन्हें इसकी सूचना दिये बिना इसकी व्यवस्था कर सकती हो’॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमुक्ता तु वैदर्भ्या सा देवी भीममब्रवीत्।
दुहितुस्तमभिप्रायमन्वजानात् स पार्थिवः ॥ ५ ॥

मूलम्

एवमुक्ता तु वैदर्भ्या सा देवी भीममब्रवीत्।
दुहितुस्तमभिप्रायमन्वजानात् स पार्थिवः ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

दमयन्तीके ऐसा कहनेपर महारानीने विदर्भनरेश भीमसे अपनी पुत्रीका यह अभिप्राय बताया। सब बातें सुनकर महाराजने आज्ञा दे दी॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सा वै पित्राभ्यनुज्ञाता मात्रा च भरतर्षभ।
नलं प्रवेशयामास यत्र तस्याः प्रतिश्रयः ॥ ६ ॥
तां स्म दृष्ट्वैव सहसा दमयन्तीं नलो नृपः।
आविष्टः शोकदुःखाभ्यां बभूवाश्रुपरिप्लुतः ॥ ७ ॥

मूलम्

सा वै पित्राभ्यनुज्ञाता मात्रा च भरतर्षभ।
नलं प्रवेशयामास यत्र तस्याः प्रतिश्रयः ॥ ६ ॥
तां स्म दृष्ट्वैव सहसा दमयन्तीं नलो नृपः।
आविष्टः शोकदुःखाभ्यां बभूवाश्रुपरिप्लुतः ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतकुलभूषण! पिता और माताकी आज्ञा ले दमयन्तीने नलको राजभवनके भीतर जहाँ वह स्वयं रहती थी, बुलवाया। दमयन्तीको सहसा सामने उपस्थित देख राजा नल शोक और दुःखसे व्याप्त हो नेत्रोंसे आँसू बहाने लगे॥६-७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तं तु दृष्ट्वा तथायुक्तं दमयन्ती नलं तदा।
तीव्रशोकसमाविष्टा बभूव वरवर्णिनी ॥ ८ ॥

मूलम्

तं तु दृष्ट्वा तथायुक्तं दमयन्ती नलं तदा।
तीव्रशोकसमाविष्टा बभूव वरवर्णिनी ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस समय नलको उस अवस्थामें देखकर सुन्दरी दमयन्ती भी तीव्र शोकसे व्याकुल हो गयी॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः काषायवसना जटिला मलपङ्किनी।
दमयन्ती महाराज बाहुकं वाक्यमब्रवीत् ॥ ९ ॥

मूलम्

ततः काषायवसना जटिला मलपङ्किनी।
दमयन्ती महाराज बाहुकं वाक्यमब्रवीत् ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाराज! तदनन्तर मलिन वस्त्र पहने, जटा धारण किये, मैल और पंकसे मलिन दमयन्तीने बाहुकसे पूछा—॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पूर्वं दृष्टस्त्वया कश्चिद् धर्मज्ञो नाम बाहुक।
सुप्तामुत्सृज्य विपिने गतो यः पुरुषः स्त्रियम् ॥ १० ॥

मूलम्

पूर्वं दृष्टस्त्वया कश्चिद् धर्मज्ञो नाम बाहुक।
सुप्तामुत्सृज्य विपिने गतो यः पुरुषः स्त्रियम् ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘बाहुक! तुमने पहले किसी ऐसे धर्मज्ञ पुरुषको देखा है, जो अपनी सोयी हुई पत्नीको वनमें अकेली छोड़कर चले गये थे॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अनागसं प्रियां भार्यां विजने श्रममोहिताम्।
अपहाय तु को गच्छेत् पुण्यश्लोकमृते नलम् ॥ ११ ॥

मूलम्

अनागसं प्रियां भार्यां विजने श्रममोहिताम्।
अपहाय तु को गच्छेत् पुण्यश्लोकमृते नलम् ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘पुण्यश्लोक महाराज नलके सिवा दूसरा कौन होगा, जो एकान्तमें थकावटके कारण अचेत सोयी हुई अपनी निर्दोष प्रियतमा पत्नीको छोड़कर जा सकता हो॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

किमु तस्य मया बाल्यादपराद्धं महीपतेः।
यो मामुत्सृज्य विपिने गतवान् निद्रयार्दिताम् ॥ १२ ॥

मूलम्

किमु तस्य मया बाल्यादपराद्धं महीपतेः।
यो मामुत्सृज्य विपिने गतवान् निद्रयार्दिताम् ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘न जाने उन महाराजका मैंने बचपनसे ही क्या अपराध किया था, जो नींदकी मारी हुई मुझ असहाय अबलाको जंगलमें छोड़कर चल दिये॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

साक्षाद् देवानपाहाय वृतो यः स पुरा मया।
अनुव्रतां साभिकामां पुत्रिणीं त्यक्तवान् कथम् ॥ १३ ॥

मूलम्

साक्षाद् देवानपाहाय वृतो यः स पुरा मया।
अनुव्रतां साभिकामां पुत्रिणीं त्यक्तवान् कथम् ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘पहले स्वयंवरके समय साक्षात् देवताओंको छोड़कर मैंने उनका वरण किया था। मैं उनकी अनुगत भक्त, निरन्तर उन्हें चाहनेवाली और पुत्रवती हूँ, तो भी उन्होंने कैसे मुझे त्याग दिया?॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अग्नौ पाणिं गृहीत्वा तु देवानामग्रतस्तथा।
भविष्यामीति सत्यं तु प्रतिश्रुत्य क्व तद् गतम् ॥ १४ ॥

मूलम्

अग्नौ पाणिं गृहीत्वा तु देवानामग्रतस्तथा।
भविष्यामीति सत्यं तु प्रतिश्रुत्य क्व तद् गतम् ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘अग्निके समीप और देवताओंके समक्ष मेरा हाथ पकड़कर और ‘मैं तेरा ही अनुगत होकर रहूँगा’ ऐसी प्रतिज्ञा करके जिन्होंने मुझे अपनाया था, उनका वह सत्य कहाँ चला गया?’॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दमयन्त्या ब्रुवन्त्यास्तु सर्वमेतदरिंदम ।
शोकजं वारि नेत्राभ्यामसुखं प्रास्रवद् बहु ॥ १५ ॥

मूलम्

दमयन्त्या ब्रुवन्त्यास्तु सर्वमेतदरिंदम ।
शोकजं वारि नेत्राभ्यामसुखं प्रास्रवद् बहु ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

शत्रुदमन युधिष्ठिर! दमयन्ती जब ये सब बातें कह रही थी, उस समय नलके नेत्रोंसे शोकजनित दुःखपूर्ण आँसुओंकी अजस्र धारा बहती जा रही थी॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अतीव कृष्णसाराभ्यां रक्तान्ताभ्यां जलं तु तत्।
परिस्रवन् नलो दृष्ट्वा शोकार्तामिदमब्रवीत् ॥ १६ ॥

मूलम्

अतीव कृष्णसाराभ्यां रक्तान्ताभ्यां जलं तु तत्।
परिस्रवन् नलो दृष्ट्वा शोकार्तामिदमब्रवीत् ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उनकी आँखोंकी पुतलियाँ काली थीं और नेत्रके किनारे कुछ-कुछ लाल थे। उनसे निरन्तर अश्रुधारा बहाते हुए नलने दमयन्तीको शोकसे आतुर देख इस प्रकार कहा—॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मम राज्यं प्रणष्टं यन्नाहं तत् कृतवान् स्वयम्।
कलिना तत् कृतं भीरु यच्च त्वामहमत्यजम् ॥ १७ ॥

मूलम्

मम राज्यं प्रणष्टं यन्नाहं तत् कृतवान् स्वयम्।
कलिना तत् कृतं भीरु यच्च त्वामहमत्यजम् ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘भीरु! मेरा जो राज्य नष्ट हो गया और मैंने जो तुम्हें त्याग दिया, वह सब कलियुगकी करतूत थी। मैंने स्वयं कुछ नहीं किया था॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यत् त्वया धर्मकृच्छ्रे तु शापेनाभिहतः पुरा।
वनस्थया दुःखितया शोचन्त्या मां दिवानिशम् ॥ १८ ॥
स मच्छरीरे त्वच्छापाद् दह्यमानोऽवसत् कलिः।
त्वच्छापदग्धः सततं सोऽग्नावग्निरिवाहितः ॥ १९ ॥

मूलम्

यत् त्वया धर्मकृच्छ्रे तु शापेनाभिहतः पुरा।
वनस्थया दुःखितया शोचन्त्या मां दिवानिशम् ॥ १८ ॥
स मच्छरीरे त्वच्छापाद् दह्यमानोऽवसत् कलिः।
त्वच्छापदग्धः सततं सोऽग्नावग्निरिवाहितः ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘पहले जब तुम वनमें दुखी होकर दिन-रात मेरे लिये शोक करती थी और उस समय धर्मसंकटमें पड़नेपर तुमने जिसे शाप दे दिया था, वही कलियुग मेरे शरीरमें तुम्हारी शापग्निसे दग्ध होता हुआ निवास करता था, जैसे आगमें रखी हुई आग हो; उसी प्रकार वह कलि तुम्हारे शापसे दग्ध हो सदा मेरे भीतर रहता था॥१८-१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मम च व्यवसायेन तपसा चैव निर्जितः।
दुःखस्यान्तेन चानेन भवितव्यं हि नौ शुभे ॥ २० ॥

मूलम्

मम च व्यवसायेन तपसा चैव निर्जितः।
दुःखस्यान्तेन चानेन भवितव्यं हि नौ शुभे ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘शुभे! मेरे व्यवसाय (उद्योग) तथा तपस्यासे कलियुग परास्त हो चुका है। अतः अब हमारे दुःखोंका अन्त हो जाना चाहिये॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विमुच्य मां गतः पापस्ततोऽहमिह चागतः।
त्वदर्थं विपुलश्रोणि न हि मेऽन्यत् प्रयोजनम् ॥ २१ ॥

मूलम्

विमुच्य मां गतः पापस्ततोऽहमिह चागतः।
त्वदर्थं विपुलश्रोणि न हि मेऽन्यत् प्रयोजनम् ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘सुन्दरी! पापी कलियुग मुझे छोड़कर चला गया, इसीसे मैं तुम्हारी प्राप्तिका उद्देश्य लेकर यहाँ आया हूँ। इसके सिवा, मेरे आगमनका दूसरा कोई प्रयोजन नहीं है॥२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कथं नु नारी भर्तारमनुरक्तमनुव्रतम्।
उत्सृज्य वरयेदन्यं यथा त्वं भीरु कर्हिचित् ॥ २२ ॥

मूलम्

कथं नु नारी भर्तारमनुरक्तमनुव्रतम्।
उत्सृज्य वरयेदन्यं यथा त्वं भीरु कर्हिचित् ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘भीरु! कोई भी स्त्री कभी अपने अनुरक्त एवं भक्त पतिको त्यागकर दूसरे पुरुषका वरण कैसे कर सकती है? जैसा कि तुम करने जा रही हो॥२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दूताश्चरन्ति पृथिवीं कृत्स्नां नृपतिशासनात्।
भैमी किल स्म भर्तारं द्वितीयं वरयिष्यति ॥ २३ ॥

मूलम्

दूताश्चरन्ति पृथिवीं कृत्स्नां नृपतिशासनात्।
भैमी किल स्म भर्तारं द्वितीयं वरयिष्यति ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘विदर्भनरेशकी आज्ञासे सारी पृथ्वीपर दूत विचरते हैं और यह घोषणा कर रहे हैं कि दमयन्ती द्वितीय पतिका वरण करेगी॥२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्वैरवृत्ता यथाकाममनुरूपमिवात्मनः ।
श्रुत्वैव चैवं त्वरितो भाङ्गासुरिरुपस्थितः ॥ २४ ॥

मूलम्

स्वैरवृत्ता यथाकाममनुरूपमिवात्मनः ।
श्रुत्वैव चैवं त्वरितो भाङ्गासुरिरुपस्थितः ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘दमयन्ती स्वेच्छाचारिणी है और अपनी रुचिके अनुसार किसी अनुरूप पतिका वरण कर सकती है’, यह सुनकर ही राजा ऋतुपर्ण बड़ी उतावलीके साथ यहाँ उपस्थित हुए हैं’॥२४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दमयन्ती तु तच्छ्रुत्वा नलस्य परिदेवितम्।
प्राञ्जलिर्वेपमाना च भीता वचनमब्रवीत् ॥ २५ ॥

मूलम्

दमयन्ती तु तच्छ्रुत्वा नलस्य परिदेवितम्।
प्राञ्जलिर्वेपमाना च भीता वचनमब्रवीत् ॥ २५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

दमयन्ती नलका यह विलाप सुनकर काँप उठी और भयभीत हो हाथ जोड़कर यह वचन बोली॥२५॥

मूलम् (वचनम्)

दमयन्त्युवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

न मामर्हसि कल्याण दोषेण परिशङ्कितुम्।
मया हि देवानुत्सृज्य वृतस्त्वं निषधाधिप ॥ २६ ॥

मूलम्

न मामर्हसि कल्याण दोषेण परिशङ्कितुम्।
मया हि देवानुत्सृज्य वृतस्त्वं निषधाधिप ॥ २६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

दमयन्तीने कहा— कल्याणमय निषधनरेश! आपको मुझपर दोषारोपण करते हुए मेरे चरित्रपर संदेह नहीं करना चाहिये। (आपके प्रति अनन्य प्रेमके कारण ही) मैंने देवताओंको छोड़कर आपका वरण किया है॥२६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तवाभिगमनार्थं तु सर्वतो ब्राह्मणा गताः।
वाक्यानि मम गाथाभिर्गायमाना दिशो दश ॥ २७ ॥

मूलम्

तवाभिगमनार्थं तु सर्वतो ब्राह्मणा गताः।
वाक्यानि मम गाथाभिर्गायमाना दिशो दश ॥ २७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

आपका पता लगानेके लिये ही चारों ओर ब्राह्मणलोग भेजे गये और वे मेरी कही हुई बातोंको सब दिशाओंमें गाथाके रूपमें गाते फिरे॥२७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततस्त्वां ब्राह्मणो विद्वान् पर्णादो नाम पार्थिव।
अभ्यगच्छत् कोसलायामृतुपर्णनिवेशने ॥ २८ ॥

मूलम्

ततस्त्वां ब्राह्मणो विद्वान् पर्णादो नाम पार्थिव।
अभ्यगच्छत् कोसलायामृतुपर्णनिवेशने ॥ २८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! इसी योजनाके अनुसार पर्णाद नामक विद्वान् ब्राह्मण अयोध्यापुरीमें ऋतुपर्णके राजभवनमें गये थे॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तेन वाक्ये कृते सम्यक् प्रतिवाक्ये तथाऽऽहृते।
उपायोऽयं मया दृष्टो नैषधानयने तव ॥ २९ ॥

मूलम्

तेन वाक्ये कृते सम्यक् प्रतिवाक्ये तथाऽऽहृते।
उपायोऽयं मया दृष्टो नैषधानयने तव ॥ २९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन्होंने वहाँ मेरी बात उपस्थित की और वहाँसे आपके द्वारा प्राप्त हुआ ठीक-ठीक उत्तर वे ले आये। निषधराज! इसके बाद आपको यहाँ बुलानेके लिये मुझे यह उपाय सूझा (कि एक ही दिनके बाद होनेवाले स्वयंवरका समाचार देकर ऋतुपर्णको बुलाया जाय)॥२९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्वामृते न हि लोकेऽन्य एकाह्ना पृथिवीपते।
समर्थो योजनशतं गन्तुमश्वैर्नराधिप ॥ ३० ॥

मूलम्

त्वामृते न हि लोकेऽन्य एकाह्ना पृथिवीपते।
समर्थो योजनशतं गन्तुमश्वैर्नराधिप ॥ ३० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नरेश्वर! पृथ्वीनाथ! मैं यह अच्छी तरह जानती हूँ कि इस जगत्‌में आपके सिवा दूसरा कोई ऐसा पुरुष नहीं है, जो एक ही दिनमें घोड़े जुते हुए रथकी सवारीसे सौ योजन दूरतक जानेमें समर्थ हो॥३०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्पृशेयं तेन सत्येन पादावेतौ महीपते।
यथा नासत्कृतं किंचिन्मनसापि चराम्यहम् ॥ ३१ ॥

मूलम्

स्पृशेयं तेन सत्येन पादावेतौ महीपते।
यथा नासत्कृतं किंचिन्मनसापि चराम्यहम् ॥ ३१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महीपते! मैं मनसे भी कभी कोई असदाचरण नहीं करती हूँ और इसी सत्यकी शपथ खाकर आपके इन दोनों चरणोंका स्पर्श करती हूँ॥३१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अयं चरति लोकेऽस्मिन् भूतसाक्षी सदागतिः।
एष मे मुञ्चतु प्राणान् यदि पापं चराम्यहम् ॥ ३२ ॥

मूलम्

अयं चरति लोकेऽस्मिन् भूतसाक्षी सदागतिः।
एष मे मुञ्चतु प्राणान् यदि पापं चराम्यहम् ॥ ३२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ये सदा गतिशील वायुदेवता इस जगत्‌में निरन्तर विचरते रहते हैं, अतः ये सम्पूर्ण भूतोंके साक्षी हैं। यदि मैंने पाप किया है तो ये मेरे प्राणोंका हरण कर लें॥३२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथा चरति तिग्मांशुः परेण भुवनं सदा।
स मुञ्चतु मम प्राणान् यदि पापं चराम्यहम् ॥ ३३ ॥

मूलम्

यथा चरति तिग्मांशुः परेण भुवनं सदा।
स मुञ्चतु मम प्राणान् यदि पापं चराम्यहम् ॥ ३३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रचण्ड किरणोंवाले सूर्यदेव समस्त भुवनोंके ऊपर विचरते हैं, (अतः वे भी सबके शुभाशुभ कर्म देखते रहते हैं।) यदि मैंने पाप किया है तो ये मेरे प्राणोंका हरण कर लें॥३३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

चन्द्रमाः सर्वभूतानामन्तश्चरति साक्षिवत् ।
स मुञ्चतु मम प्राणान् यदि पापं चराम्यहम् ॥ ३४ ॥

मूलम्

चन्द्रमाः सर्वभूतानामन्तश्चरति साक्षिवत् ।
स मुञ्चतु मम प्राणान् यदि पापं चराम्यहम् ॥ ३४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

चित्तके अभिमानी देवता चन्द्रमा समस्त प्राणियोंके अन्तःकरणमें साक्षीरूपसे विचरते हैं। यदि मैंने पाप किया है तो वे मेरे प्राणोंका हरण कर लें॥३४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एते देवास्त्रयः कृत्स्नं त्रैलोक्यं धारयन्ति वै।
विब्रुवन्तु यथा सत्यमेतद् देवास्त्यजन्तु माम् ॥ ३५ ॥

मूलम्

एते देवास्त्रयः कृत्स्नं त्रैलोक्यं धारयन्ति वै।
विब्रुवन्तु यथा सत्यमेतद् देवास्त्यजन्तु माम् ॥ ३५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ये पूर्वोक्त तीन देवता सम्पूर्ण त्रिलोकीको धारण करते हैं। मेरे कथनमें कितनी सचाई है, इसे देवतालोग स्वयं स्पष्ट करें। यदि मैं झूठ बोलती हूँ तो देवता मेरा त्याग कर दें॥३५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमुक्तस्तथा वायुरन्तरिक्षादभाषत ।
नैषा कृतवती पापं नल सत्यं ब्रवीमि ते ॥ ३६ ॥

मूलम्

एवमुक्तस्तथा वायुरन्तरिक्षादभाषत ।
नैषा कृतवती पापं नल सत्यं ब्रवीमि ते ॥ ३६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

दमयन्तीके ऐसा कहनेपर अन्तरिक्षलोकसे वायु-देवताने कहा—‘नल! मैं तुमसे सत्य कहता हूँ, इस दमयन्तीने कभी कोई पाप नहीं किया है॥३६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

राजञ्छीलनिधिः स्फीतो दमयन्त्या सुरक्षितः।
साक्षिणो रक्षिणश्चास्या वयं त्रीन् परिवत्सरान् ॥ ३७ ॥

मूलम्

राजञ्छीलनिधिः स्फीतो दमयन्त्या सुरक्षितः।
साक्षिणो रक्षिणश्चास्या वयं त्रीन् परिवत्सरान् ॥ ३७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘राजन्! दमयन्तीने अपने शीलकी उज्ज्वल निधिको सदा सुरक्षित रखा है। हमलोग तीन वर्षोंतक निरन्तर इसके रक्षक और साक्षी रहे हैं॥३७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उपायो विहितश्चायं त्वदर्थमतुलोऽनया ।
न ह्येकाह्ना शतं गन्ता त्वामृतेऽन्यः पुमानिह ॥ ३८ ॥

मूलम्

उपायो विहितश्चायं त्वदर्थमतुलोऽनया ।
न ह्येकाह्ना शतं गन्ता त्वामृतेऽन्यः पुमानिह ॥ ३८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘तुम्हारी प्राप्तिके लिये दमयन्तीने यह अनुपम उपाय ढूँढ़ निकाला था; क्योंकि इस जगत्‌में तुम्हारे सिवा दूसरा कोई पुरुष नहीं है, जो एक दिनमें सौ योजन (रथद्वारा) जा सके॥३८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उपपन्ना त्वया भैमी त्वं च भैम्या महीपते।
नात्र शङ्का त्वया कार्या संगच्छ सह भार्यया ॥ ३९ ॥

मूलम्

उपपन्ना त्वया भैमी त्वं च भैम्या महीपते।
नात्र शङ्का त्वया कार्या संगच्छ सह भार्यया ॥ ३९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘राजन्! भीमकुमारी दमयन्ती तुम्हारे योग्य है और तुम दमयन्तीके योग्य हो। तुम्हें इसके चरित्रके विषयमें कोई शंका नहीं करनी चाहिये। तुम अपनी पत्नीसे निःशंक होकर मिलो’॥३९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तथा ब्रुवति वायौ तु पुष्पवृष्टिः पपात ह।
देवदुन्दुभयो नेदुर्ववौ च पवनः शिवः ॥ ४० ॥

मूलम्

तथा ब्रुवति वायौ तु पुष्पवृष्टिः पपात ह।
देवदुन्दुभयो नेदुर्ववौ च पवनः शिवः ॥ ४० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वायुदेवके ऐसा कहते समय आकाशसे फूलोंकी वर्षा हो रही थी, देवताओंकी दुन्दुभियाँ बज रही थीं और मंगलमय पवन चलने लगा॥४०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तदद्भुतमयं दृष्ट्वा नलो राजाथ भारत।
दमयन्त्यां विशङ्कां तामुपाकर्षदरिंदमः ॥ ४१ ॥

मूलम्

तदद्भुतमयं दृष्ट्वा नलो राजाथ भारत।
दमयन्त्यां विशङ्कां तामुपाकर्षदरिंदमः ॥ ४१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिर! यह अद्भुत दृश्य देखकर शत्रुसूदन राजा नलने दमयन्तीके विरुद्ध होनेवाली शंकाको त्याग दिया॥४१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततस्तद् वस्त्रमजरं प्रावृणोद् वसुधाधिपः।
संस्मृत्य नागराजं तं ततो लेभे स्वकं वपुः ॥ ४२ ॥

मूलम्

ततस्तद् वस्त्रमजरं प्रावृणोद् वसुधाधिपः।
संस्मृत्य नागराजं तं ततो लेभे स्वकं वपुः ॥ ४२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर उन भूपालने नागराज कर्कोटकका स्मरण करके उसके दिये हुए अजीर्ण वस्त्रको ओढ़ लिया। उससे उन्हें अपने पूर्वस्वरूपकी प्राप्ति हो गयी॥४२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्वरूपिणं तु भर्तारं दृष्ट्वा भीमसुता तदा।
प्राक्रोशदुच्चैरालिङ्ग्य पुण्यश्लोकमनिन्दिता ॥ ४३ ॥

मूलम्

स्वरूपिणं तु भर्तारं दृष्ट्वा भीमसुता तदा।
प्राक्रोशदुच्चैरालिङ्ग्य पुण्यश्लोकमनिन्दिता ॥ ४३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अपने वास्तविक रूपमें प्रकट हुए अपने पतिदेव पुण्यश्लोक महाराज नलको देखकर सती साध्वी दमयन्ती उनके हृदयसे लगकर उच्च स्वरसे रोने लगी॥४३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भैमीमपि नलो राजा भ्राजमानो यथा पुरा।
सस्वजे स्वसुतौ चापि यथावत् प्रत्यनन्दत ॥ ४४ ॥

मूलम्

भैमीमपि नलो राजा भ्राजमानो यथा पुरा।
सस्वजे स्वसुतौ चापि यथावत् प्रत्यनन्दत ॥ ४४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजा नलका रूप पहलेकी ही भाँति ही प्रकाशित हो रहा था। उन्होंने भी दमयन्तीको छातीसे लगा लिया और अपने दोनों बालकोंको भी प्यार-दुलार करके प्रसन्न किया॥४४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः स्वोरसि विन्यस्य वक्त्रं तस्य शुभानना।
परीता तेन दुःखेन निःशश्वासायतेक्षणा ॥ ४५ ॥

मूलम्

ततः स्वोरसि विन्यस्य वक्त्रं तस्य शुभानना।
परीता तेन दुःखेन निःशश्वासायतेक्षणा ॥ ४५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तत्पश्चात् सुन्दर मुख और विशाल नेत्रोंवाली दमयन्ती नलके मुखको अपने वक्षःस्थलपर रखकर दुःखसे व्याकुल हो लंबी साँसे खींचने लगी॥४५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तथैव मलदिग्धाङ्गीं परिष्वज्य शुचिस्मिताम्।
सुचिरं पुरुषव्याघ्रस्तस्थौ शोकपरिप्लुतः ॥ ४६ ॥

मूलम्

तथैव मलदिग्धाङ्गीं परिष्वज्य शुचिस्मिताम्।
सुचिरं पुरुषव्याघ्रस्तस्थौ शोकपरिप्लुतः ॥ ४६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसी प्रकार पवित्र मुसकान तथा मैलसे भरे हुए अंगोंवाली दमयन्तीको हृदयसे लगाकर पुरुषसिंह नल बहुत देरतक शोकमग्न खड़े रहे॥४६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः सर्वं यथावृत्तं दमयन्त्या नलस्य च।
भीमायाकथयत् प्रीत्या वैदर्भ्या जननी नृप ॥ ४७ ॥

मूलम्

ततः सर्वं यथावृत्तं दमयन्त्या नलस्य च।
भीमायाकथयत् प्रीत्या वैदर्भ्या जननी नृप ॥ ४७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘राजन्! तदनन्तर (दमयन्तीके द्वारा मालूम होनेपर) दमयन्तीकी माताने अत्यन्त प्रसन्नतापूर्वक राजा भीमसे नल-दमयन्तीका सारा वृत्तान्त यथावत् कह सुनाया’॥४७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततोऽब्रवीन्महाराजः कृतशौचमहं नलम् ।
दमयन्त्या सहोपेतं कल्ये द्रष्टा सुखोषितम् ॥ ४८ ॥

मूलम्

ततोऽब्रवीन्महाराजः कृतशौचमहं नलम् ।
दमयन्त्या सहोपेतं कल्ये द्रष्टा सुखोषितम् ॥ ४८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब महाराज भीमने कहा—‘आज नलको सुखपूर्वक यहीं रहने दो। कल सबेरे स्नान आदिसे शुद्ध हुए दमयन्तीसहित नलसे मैं मिलूँगा’॥४८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततस्तौ सहितौ रात्रिं कथयन्तौ पुरातनम्।
वने विचरितं सर्वमूषतुर्मुदितौ नृप ॥ ४९ ॥

मूलम्

ततस्तौ सहितौ रात्रिं कथयन्तौ पुरातनम्।
वने विचरितं सर्वमूषतुर्मुदितौ नृप ॥ ४९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! तत्पश्चात् वे दोनों दम्पति रातभर वनमें रहनेकी पुरानी घटनाओंको एक-दूसरेसे कहते हुए प्रसन्नतापूर्वक एक साथ रहे॥४९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गृहे भीमस्य नृपतेः परस्परसुखैषिणौ।
वसेतां हृष्टसंकल्पौ वैदर्भी च नलश्च ह ॥ ५० ॥

मूलम्

गृहे भीमस्य नृपतेः परस्परसुखैषिणौ।
वसेतां हृष्टसंकल्पौ वैदर्भी च नलश्च ह ॥ ५० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

एक-दूसरेको सुख देनेकी इच्छा रखनेवाले दमयन्ती और नल राजा भीमके महलमें प्रसन्नचित्त होकर रहे॥५०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स चतुर्थे ततो वर्षे संगम्य सह भार्यया।
सर्वकामैः सुसिद्धार्थो लब्धवान् परमां मुदम् ॥ ५१ ॥

मूलम्

स चतुर्थे ततो वर्षे संगम्य सह भार्यया।
सर्वकामैः सुसिद्धार्थो लब्धवान् परमां मुदम् ॥ ५१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

चौथे वर्षमें अपनी प्यारी पत्नीसे मिलकर सम्पूर्ण कामनाओंसे सफलमनोरथ हो नल अत्यन्त आनन्दमें निमग्न हो गये॥५१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दमयन्त्यपि भर्तारमासाद्याप्यायिता भृशम् ।
अर्धसंजातसस्येव तोयं प्राप्य वसुंधरा ॥ ५२ ॥

मूलम्

दमयन्त्यपि भर्तारमासाद्याप्यायिता भृशम् ।
अर्धसंजातसस्येव तोयं प्राप्य वसुंधरा ॥ ५२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे आधी जमी हुई खेतीसे भरी वसुधा वर्षाका जल पाकर उल्लसित हो उठती है, उसी प्रकार दमयन्ती भी अपने पतिको पाकर बहुत संतुष्ट हुई॥५२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सैवं समेत्य व्यपनीय तन्द्रां
शान्तज्वरा हर्षविवृद्धसत्त्वा ।
रराज भैमी समवाप्तकामा
शीतांशुना रात्रिरिवोदितेन ॥ ५३ ॥

मूलम्

सैवं समेत्य व्यपनीय तन्द्रां
शान्तज्वरा हर्षविवृद्धसत्त्वा ।
रराज भैमी समवाप्तकामा
शीतांशुना रात्रिरिवोदितेन ॥ ५३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे चन्द्रोदयसे रात्रिकी शोभा बढ़ जाती है, उसी प्रकार भीमकुमारी दमयन्ती पतिसे मिलकर आलस्यका त्याग करके निश्चिन्त और हर्षोल्लसित हृदयसे पूर्णकाम होकर अत्यन्त शोभा पाने लगी॥५३॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि नलोपाख्यानपर्वणि नलदमयन्तीसमागमे षट्‌सप्ततितमोऽध्यायः ॥ ७६ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्वके अन्तर्गत नलोपाख्यानपर्वमें नलदमयन्तीसमागमविषयक छिहत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ॥७६॥