भागसूचना
पञ्चसप्ततितमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
दमयन्तीके आदेशसे केशिनीद्वारा बाहुककी परीक्षा तथा बाहुकका अपने लड़के-लड़कियोंको देखकर उनसे प्रेम करना
मूलम् (वचनम्)
बृहदश्व उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
दमयन्ती तु तच्छ्रुत्वा भृशं शोकपरायणा।
शङ्कमाना नलं तं वै केशिनीमिदमब्रवीत् ॥ १ ॥
मूलम्
दमयन्ती तु तच्छ्रुत्वा भृशं शोकपरायणा।
शङ्कमाना नलं तं वै केशिनीमिदमब्रवीत् ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
बृहदश्व मुनि कहते हैं— युधिष्ठिर! यह सब सुनकर दमयन्ती अत्यन्त शोकमग्न हो गयी। उसके हृदयमें निश्चितरूपसे बाहुकके नल होनेका संदेह हो गया और वह केशिनीसे इस प्रकार बोली—॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गच्छ केशिनि भूयस्त्वं परीक्षां कुरु बाहुके।
अब्रुवाणा समीपस्था चरितान्यस्य लक्षय ॥ २ ॥
मूलम्
गच्छ केशिनि भूयस्त्वं परीक्षां कुरु बाहुके।
अब्रुवाणा समीपस्था चरितान्यस्य लक्षय ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘केशिनि! फिर जाओ और बाहुककी परीक्षा करो। अबकी बार तुम कुछ बोलना मत। निकट रहकर उसके चरित्रोंपर दृष्टि रखना॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदा च किंचित् कुर्यात् स कारणं तत्र भामिनि।
तत्र संचेष्टमानस्य लक्षयन्ती विचेष्टितम् ॥ ३ ॥
मूलम्
यदा च किंचित् कुर्यात् स कारणं तत्र भामिनि।
तत्र संचेष्टमानस्य लक्षयन्ती विचेष्टितम् ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘भामिनि! जब वह कोई काम करे तो उस कार्यको करते समय उसकी प्रत्येक चेष्टा और उसके कारणपर लक्ष्य रखना॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न चास्य प्रतिबन्धेन देयोऽग्निरपि केशिनि।
याचते न जलं देयं सर्वथा त्वरमाणया ॥ ४ ॥
मूलम्
न चास्य प्रतिबन्धेन देयोऽग्निरपि केशिनि।
याचते न जलं देयं सर्वथा त्वरमाणया ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘केशिनि! वह आग्रह करे तो भी उसे आग न देना और माँगनेपर भी किसी प्रकार जल्दीमें आकर पानी भी न देना॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतत् सर्वं समीक्ष्य त्वं चरितं मे निवेदय।
निमित्तं यत् त्वया दृष्टं बाहुके दैवमानुषम् ॥ ५ ॥
यच्चान्यदपि पश्येथास्तच्चाख्येयं त्वया मम।
मूलम्
एतत् सर्वं समीक्ष्य त्वं चरितं मे निवेदय।
निमित्तं यत् त्वया दृष्टं बाहुके दैवमानुषम् ॥ ५ ॥
यच्चान्यदपि पश्येथास्तच्चाख्येयं त्वया मम।
अनुवाद (हिन्दी)
‘बाहुकके इन सब चरित्रोंकी समीक्षा करके फिर मुझे सब बात बताना। बाहुकमें यदि तुम्हें कोई दिव्य अथवा मानवोचित विशेषता दिखायी दे तथा और भी जो कोई विशेषता दृष्टिगोचर हो तो उसपर भी दृष्टि रखना और मुझे आकर बताना’॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दमयन्त्यैवमुक्ता सा जगामाथ च केशिनी ॥ ६ ॥
निशम्याथ हयज्ञस्य लिङ्गानि पुनरागमत्।
मूलम्
दमयन्त्यैवमुक्ता सा जगामाथ च केशिनी ॥ ६ ॥
निशम्याथ हयज्ञस्य लिङ्गानि पुनरागमत्।
अनुवाद (हिन्दी)
दमयन्तीके ऐसा कहनेपर केशिनी पुनः वहाँ गयी और अश्वविद्याविशारद बाहुकके लक्षणोंका अवलोकन करके वह फिर लौट आयी॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सा तत् सर्वं यथावृत्तं दमयन्त्यै न्यवेदयत्।
निमित्तं यत् तया दृष्टं बाहुके दैवमानुषम् ॥ ७ ॥
मूलम्
सा तत् सर्वं यथावृत्तं दमयन्त्यै न्यवेदयत्।
निमित्तं यत् तया दृष्टं बाहुके दैवमानुषम् ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उसने बाहुकमें जो दिव्य अथवा मानवोचित विशेषताएँ देखीं, उनका यथावत् समाचार पूर्णरूपसे दमयन्तीको बताया॥७॥
मूलम् (वचनम्)
केशिन्युवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
दृढं शुच्युपचारोऽसौ न मया मानुषः क्वचित्।
दृष्टपूर्वः श्रुतो वापि दमयन्ति तथाविधः ॥ ८ ॥
मूलम्
दृढं शुच्युपचारोऽसौ न मया मानुषः क्वचित्।
दृष्टपूर्वः श्रुतो वापि दमयन्ति तथाविधः ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
केशिनीने कहा— दमयन्ती! उसका प्रत्येक व्यवहार अत्यन्त पवित्र है। ऐसा मनुष्य तो मैंने कहीं भी पहले न तो देखा है और न सुना ही है॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ह्रस्वमासाद्य संचारं नासौ विनमते क्वचित्।
तं तु दृष्ट्वा यथाऽसंगमुत्सर्पति यथासुखम् ॥ ९ ॥
मूलम्
ह्रस्वमासाद्य संचारं नासौ विनमते क्वचित्।
तं तु दृष्ट्वा यथाऽसंगमुत्सर्पति यथासुखम् ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
किसी छोटे-से-छोटे दरवाजेपर जाकर भी वह झुकता नहीं है। उसे देखकर बड़ी आसानीके साथ दरवाजा ही इस प्रकार ऊँचा हो जाता है कि जिससे मस्तकका उससे स्पर्श न हो॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
संकटेऽप्यस्य सुमहान् विवरो जायतेऽधिकः।
ऋतुपर्णस्य चार्थाय भोजनीयमनेकशः ॥ १० ॥
प्रेषितं तत्र राज्ञा तु मांसं चैव प्रभूतवत्।
तस्य प्रक्षालनार्थाय कुम्भास्तत्रोपकल्पिताः ॥ ११ ॥
मूलम्
संकटेऽप्यस्य सुमहान् विवरो जायतेऽधिकः।
ऋतुपर्णस्य चार्थाय भोजनीयमनेकशः ॥ १० ॥
प्रेषितं तत्र राज्ञा तु मांसं चैव प्रभूतवत्।
तस्य प्रक्षालनार्थाय कुम्भास्तत्रोपकल्पिताः ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
संकुचित स्थानमें भी उसके लिये बहुत बड़ा अवकाश बन जाता है। राजा भीमने ऋतुपर्णके लिये अनेक प्रकारके भोज्य पदार्थ भेजे थे। उसमें प्रचुर मात्रामें केला आदि फलोंका गूदा भी था,1 उसको धोनेके लिये वहाँ खाली घड़े रख दिये थे॥१०-११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ते तेनावेक्षिताः कुम्भाः पूर्णा एवाभवंस्ततः।
ततः प्रक्षालनं कृत्वा समधिश्रित्य बाहुकः ॥ १२ ॥
तृणमुष्टिं समादाय सवितुस्तं समादधत्।
अथ प्रज्वलितस्तत्र सहसा हव्यवाहनः ॥ १३ ॥
मूलम्
ते तेनावेक्षिताः कुम्भाः पूर्णा एवाभवंस्ततः।
ततः प्रक्षालनं कृत्वा समधिश्रित्य बाहुकः ॥ १२ ॥
तृणमुष्टिं समादाय सवितुस्तं समादधत्।
अथ प्रज्वलितस्तत्र सहसा हव्यवाहनः ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
परंतु बाहुकके देखते ही वे सारे घड़े पानीसे भर गये। उससे खाद्य पदार्थोंको धोकर बाहुकने चूल्हेपर चढ़ा दिया। फिर एक मुट्ठी तिनका लेकर सूर्यकी किरणोंसे ही उसे उद्दीप्त किया। फिर तो देखते-ही-देखते सहसा उसमें आग प्रज्वलित हो गयी॥१२-१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तदद्भुततमं दृष्ट्वा विस्मिताहमिहागता ।
अन्यच्च तस्मिन् सुमहदाश्चर्यं लक्षितं मया ॥ १४ ॥
मूलम्
तदद्भुततमं दृष्ट्वा विस्मिताहमिहागता ।
अन्यच्च तस्मिन् सुमहदाश्चर्यं लक्षितं मया ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यह अद्भुत बात देखकर मैं आश्चर्यचकित होकर यहाँ आयी हूँ। बाहुकमें एक और भी बड़े आश्चर्यकी बात देखी है॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदग्निमपि संस्पृश्य नैवासौ दह्यते शुभे।
छन्देन चोदकं तस्य वहत्यावर्जितं द्रुतम् ॥ १५ ॥
मूलम्
यदग्निमपि संस्पृश्य नैवासौ दह्यते शुभे।
छन्देन चोदकं तस्य वहत्यावर्जितं द्रुतम् ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
शुभे! वह अग्निका स्पर्श करके भी जलता नहीं है। पात्रमें रखा हुआ थोड़ा-सा जल भी उसकी इच्छाके अनुसार तुरंत ही प्रवाहित हो जाता है॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अतीव चान्यत् सुमहदाश्चर्यं दृष्टवत्यहम्।
यत् स पुष्पाण्युपादाय हस्ताभ्यां ममृदे शनैः ॥ १६ ॥
मृद्यमानानि पाणिभ्यां तेन पुष्पाणि नान्यथा।
भूय एव सुगन्धीनि हृषितानि भवन्ति हि।
एतान्यद्भुतलिङ्गानि दृष्ट्वाहं द्रुतमागता ॥ १७ ॥
मूलम्
अतीव चान्यत् सुमहदाश्चर्यं दृष्टवत्यहम्।
यत् स पुष्पाण्युपादाय हस्ताभ्यां ममृदे शनैः ॥ १६ ॥
मृद्यमानानि पाणिभ्यां तेन पुष्पाणि नान्यथा।
भूय एव सुगन्धीनि हृषितानि भवन्ति हि।
एतान्यद्भुतलिङ्गानि दृष्ट्वाहं द्रुतमागता ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
एक और भी अत्यन्त आश्चर्यजनक बात मुझे उसमें दिखायी दी है। वह फूल लेकर उन्हें हाथोंसे धीरे-धीरे मसलता था। हाथोंसे मसलनेपर भी वे फूल विकृत नहीं होते थे अपितु और भी सुगन्धित और विकसित हो जाते थे। ये अद्भुत लक्षण देखकर मैं शीघ्रतापूर्वक यहाँ आयी हूँ॥१६-१७॥
मूलम् (वचनम्)
बृहदश्व उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
दमयन्ती तु तच्छ्रुत्वा पुण्यश्लोकस्य चेष्टितम्।
अमन्यत नलं प्राप्तं कर्मचेष्टाभिसूचितम् ॥ १८ ॥
मूलम्
दमयन्ती तु तच्छ्रुत्वा पुण्यश्लोकस्य चेष्टितम्।
अमन्यत नलं प्राप्तं कर्मचेष्टाभिसूचितम् ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
बृहदश्व मुनि कहते हैं— युधिष्ठिर! दमयन्तीने पुण्यश्लोक महाराज नलकी-सी बाहुककी सारी चेष्टाओंको सुनकर मन-ही-मन यह निश्चय कर लिया कि महाराज नल ही आये हैं। अपने कार्यों और चेष्टाओंद्वारा वे पहचान लिये गये हैं॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सा शङ्कमाना भर्तारं बाहुकं पुनरिङ्गितैः।
केशिनीं श्लक्ष्णया वाचा रुदती पुनरब्रवीत् ॥ १९ ॥
पुनर्गच्छ प्रमत्तस्य बाहुकस्योपसंस्कृतम् ।
महानसाद् द्रुतं मांसमानयस्वेह भाविनि ॥ २० ॥
सा गत्वा बाहुकस्याग्रे तन्मांसमपकृष्य च।
अत्युष्णमेव त्वरिता तत्क्षणात् प्रियकारिणी ॥ २१ ॥
मूलम्
सा शङ्कमाना भर्तारं बाहुकं पुनरिङ्गितैः।
केशिनीं श्लक्ष्णया वाचा रुदती पुनरब्रवीत् ॥ १९ ॥
पुनर्गच्छ प्रमत्तस्य बाहुकस्योपसंस्कृतम् ।
महानसाद् द्रुतं मांसमानयस्वेह भाविनि ॥ २० ॥
सा गत्वा बाहुकस्याग्रे तन्मांसमपकृष्य च।
अत्युष्णमेव त्वरिता तत्क्षणात् प्रियकारिणी ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
चेष्टाओंद्वारा उसके मनमें यह प्रबल आशंका जम गयी कि बाहुक मेरे पति ही हैं। फिर तो वह रोने लगी और मधुर वाणीमें केशिनीसे बोली—‘सखि! एक बार फिर जाओ और जब बाहुक असावधान हो तो उसके द्वारा विशेषविधिसे उबालकर तैयार किया गया फलोंका गूदा रसोई घरमेंसे शीघ्र उठा लाओ।’ केशिनी दमयन्तीकी प्रियकारिणी सखी थी। वह तुरंत गयी और जब बाहुकका ध्यान दूसरी ओर गया तब उसके उबाले हुए गरम-गरम फलोंके गूदेमेंसे थोड़ा-सा निकालकर तत्काल ले आयी॥१९—२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दमयन्त्यै ततः प्रादात् केशिनी कुरुनन्दन।
सो चिता नलसिद्धस्य मांसस्य बहुशः पुरा ॥ २२ ॥
मूलम्
दमयन्त्यै ततः प्रादात् केशिनी कुरुनन्दन।
सो चिता नलसिद्धस्य मांसस्य बहुशः पुरा ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कुरुनन्दन! केशिनीने वह फलोंका गूदा दमयन्तीको दे दिया। उसे पहले अनेक बार नलके द्वारा उबाले हुए फलोंके गूदेके स्वादका अनुभव था॥२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्राश्य मत्वा नलं सूंत प्राक्रोशद् भृशदुःखिता।
वैक्लव्यं परमं गत्वा प्रक्षाल्य च मुखं ततः ॥ २३ ॥
मिथुनं प्रेषयामास केशिन्या सह भारत।
इन्द्रसेनां सह भ्रात्रा समभिज्ञाय बाहुकः ॥ २४ ॥
अभिद्रुत्य ततो राजा परिष्वज्याङ्कमानयत्।
बाहुकस्तु समासाद्य सुतौ सुरसुतोपमौ ॥ २५ ॥
भृशं दुःखपरीतात्मा सुस्वरं प्ररुरोद ह।
नैषधो दर्शयित्वा तु विकारमसकृत् तदा।
उत्सृज्य सहसो पुत्रौ केशिनीमिदमब्रवीत् ॥ २६ ॥
मूलम्
प्राश्य मत्वा नलं सूंत प्राक्रोशद् भृशदुःखिता।
वैक्लव्यं परमं गत्वा प्रक्षाल्य च मुखं ततः ॥ २३ ॥
मिथुनं प्रेषयामास केशिन्या सह भारत।
इन्द्रसेनां सह भ्रात्रा समभिज्ञाय बाहुकः ॥ २४ ॥
अभिद्रुत्य ततो राजा परिष्वज्याङ्कमानयत्।
बाहुकस्तु समासाद्य सुतौ सुरसुतोपमौ ॥ २५ ॥
भृशं दुःखपरीतात्मा सुस्वरं प्ररुरोद ह।
नैषधो दर्शयित्वा तु विकारमसकृत् तदा।
उत्सृज्य सहसो पुत्रौ केशिनीमिदमब्रवीत् ॥ २६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उसे खाकर वह पूर्णरूपसे इस निश्चयपर पहुँच गयी कि बाहुक सारथि वास्तवमें राजा नल हैं। फिर तो वह अत्यन्त दुखी होकर विलाप करने लगी। उस समय उसकी व्याकुलता बहुत बढ़ गयी। भारत! फिर उसने मुँह धोकर केशिनीके साथ अपने बच्चोंको बाहुकके पास भेजा। बाहुकरूपी राजा नलने इन्द्रसेना और उसके भाई इन्द्रसेनको पहचान लिया और दौड़कर दोनों बच्चोंको छातीसे लगाकर गोदमें ले लिया। देवकुमारोंके समान उन दोनों सुन्दर बालकोंको पाकर निषधराज नल अत्यन्त दुःखमग्न हो जोर-जोरसे रोने लगे। उन्होंने बार-बार अपने मनोविकार दिखाये और सहसा दोनों बच्चोंको छोड़कर केशिनीसे इस प्रकार कहा—॥२३—२६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इदं च सदृशं भद्रे मिथुनं मम पुत्रयोः।
अतो दृष्ट्वैव सहसा बाष्पमुत्सृष्टवानहम् ॥ २७ ॥
मूलम्
इदं च सदृशं भद्रे मिथुनं मम पुत्रयोः।
अतो दृष्ट्वैव सहसा बाष्पमुत्सृष्टवानहम् ॥ २७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘भद्रे! ये दोनों बालक मेरे पुत्र और पुत्रीके समान हैं, इसीलिये इन्हें देखकर सहसा मेरे नेत्रोंसे आँसू बहने लगे॥२७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
बहुशः सम्पतन्तीं त्वां जनः संकेतदोषतः।
वयं च देशातिथयो गच्छ भद्रे यथासुखम् ॥ २८ ॥
मूलम्
बहुशः सम्पतन्तीं त्वां जनः संकेतदोषतः।
वयं च देशातिथयो गच्छ भद्रे यथासुखम् ॥ २८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘भद्रे! तुम बार-बार आती-जाती हो, लोग किसी दोषकी आशंका कर लेंगे और हमलोग इस देशके अतिथि हैं; अतः तुम सुखपूर्वक महलमें चली जाओ’॥२८॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि नलोपाख्यानपर्वणि कन्यापुत्रदर्शने पञ्चसप्ततितमोऽध्यायः ॥ ७५ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्वके अन्तर्गत नलोपाख्यानपर्वमें नलका अपनी पुत्री और पुत्रके देखनेसे सम्बन्ध रखनेवाला पचहत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ॥७५॥
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‘मांस’ शब्दका अर्थ ‘संस्कृत-शब्दार्थ-कौस्तुभ’ में फलका गूदा किया गया है। ↩︎