०७४ नलकेशिनीसंवादः

भागसूचना

चतुःसप्ततितमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

बाहुक-केशिनी-संवाद

मूलम् (वचनम्)

दमयन्त्युवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

गच्छ केशिनि जानीहि क एष रथवाहकः।
उपविष्टो रथोपस्थे विकृतो ह्रस्वबाहुकः ॥ १ ॥

मूलम्

गच्छ केशिनि जानीहि क एष रथवाहकः।
उपविष्टो रथोपस्थे विकृतो ह्रस्वबाहुकः ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

दमयन्ती बोली— केशिनी! जाओ और पता लगाओ कि यह छोटी-छोटी बाँहोंवाला कुरूप रथवाहक, जो रथके पिछले भागमें बैठा है, कौन है?॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अभ्येत्य कुशलं भद्रे मृदुपूर्वं समाहिता।
पृच्छेथाः पुरुषं ह्येनं यथातत्त्वमनिन्दिते ॥ २ ॥

मूलम्

अभ्येत्य कुशलं भद्रे मृदुपूर्वं समाहिता।
पृच्छेथाः पुरुषं ह्येनं यथातत्त्वमनिन्दिते ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भद्रे! इसके निकट जाकर सावधानीके साथ मधुर वाणीमें कुशल पूछना। अनिन्दिते! साथ ही इस पुरुषके विषयमें ठीक-ठीक बातें जाननेकी चेष्टा करना॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अत्र मे महती शङ्का भवेदेष नलो नृपः।
यथा च मनसस्तुष्टिर्हृदयस्य च निर्वृतिः ॥ ३ ॥

मूलम्

अत्र मे महती शङ्का भवेदेष नलो नृपः।
यथा च मनसस्तुष्टिर्हृदयस्य च निर्वृतिः ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसके विषयमें मुझे बड़ी भारी शंका है। सम्भव है, इस वेषमें राजा नल ही हों। मेरे मनमें जैसा संतोष है और हृदयमें जैसी शान्ति है, इसे मेरी उक्त धारणा पुष्ट हो रही है॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ब्रूयाश्चैनं कथान्ते त्वं पर्णादवचनं यथा।
प्रतिवाक्यं च सुश्रोणि बुद्ध्येथास्त्वमनिन्दिते ॥ ४ ॥

मूलम्

ब्रूयाश्चैनं कथान्ते त्वं पर्णादवचनं यथा।
प्रतिवाक्यं च सुश्रोणि बुद्ध्येथास्त्वमनिन्दिते ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सुश्रोणि! तुम बातचीतके सिलसिलेमें इसके सामने पर्णाद ब्राह्मणवाली बात कहना और अनिन्दिते! यह जो उत्तर दे, उसे अच्छी तरह समझना॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः समाहिता गत्वा दूती बाहुकमब्रवीत्।
दमयन्त्यपि कल्याणी प्रासादस्था ह्युपैक्षत ॥ ५ ॥

मूलम्

ततः समाहिता गत्वा दूती बाहुकमब्रवीत्।
दमयन्त्यपि कल्याणी प्रासादस्था ह्युपैक्षत ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब वह दूती बड़ी सावधानीसे वहाँ जाकर बाहुकसे वार्तालाप करने लगी और कल्याणी दमयन्ती भी महलमें उसके लौटनेकी प्रतीक्षामें बैठी रही॥५॥

मूलम् (वचनम्)

केशिन्युवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्वागतं ते मनुष्येन्द्र कुशलं ते ब्रवीम्यहम्।
दमयन्त्या वचः साधु निबोध पुरुषर्षभ ॥ ६ ॥

मूलम्

स्वागतं ते मनुष्येन्द्र कुशलं ते ब्रवीम्यहम्।
दमयन्त्या वचः साधु निबोध पुरुषर्षभ ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

केशिनीने कहा— नरेन्द्र! आपका स्वागत है! मैं आपका कुशल समाचार पूछती हूँ। पुरुषश्रेष्ठ! दमयन्तीकी कही हुई ये उत्तम बातें सुनिये॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कदा वै प्रस्थिता यूयं किमर्थमिह चागताः।
तत् त्वं ब्रूहि यथान्यायं वैदर्भी श्रोतुमिच्छति ॥ ७ ॥

मूलम्

कदा वै प्रस्थिता यूयं किमर्थमिह चागताः।
तत् त्वं ब्रूहि यथान्यायं वैदर्भी श्रोतुमिच्छति ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

विदर्भराजकुमारी यह सुनना चाहती हैं कि आपलोग अयोध्यासे कब चले हैं और किस लिये यहाँ आये हैं? आप न्यायके अनुसार ठीक-ठीक बतायें॥७॥

मूलम् (वचनम्)

बाहुक उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

श्रुतः स्वयंवसे राज्ञा कोसलेन महात्मना।
द्वितीयो दमयन्त्या वै भविता श्व इति द्विजात् ॥ ८ ॥

मूलम्

श्रुतः स्वयंवसे राज्ञा कोसलेन महात्मना।
द्वितीयो दमयन्त्या वै भविता श्व इति द्विजात् ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

बाहुक बोला— महात्मा कोसलराजने एक ब्राह्मणके मुखसे सुना था कि कल दमयन्तीका द्वितीय स्वयंवर होनेवाला है॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

श्रुत्वैतत् प्रस्थितो राजा शतयोजनयायिभिः।
हयैर्वातजवैर्मुख्यैरहमस्य च सारथिः ॥ ९ ॥

मूलम्

श्रुत्वैतत् प्रस्थितो राजा शतयोजनयायिभिः।
हयैर्वातजवैर्मुख्यैरहमस्य च सारथिः ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यह सुनकर राजा हवाके समान वेगवाले और सौ योजनतक दौड़नेवाले अच्छे घोड़ोंसे जुते हुए रथपर सवार हो विदर्भदेशके लिये प्रस्थित हो गये। इस यात्रामें मैं ही इनका सारथि था॥९॥

मूलम् (वचनम्)

केशिन्युवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथ योऽसौ तृतीयो वः स कुतः कस्य वा पुनः।
त्वं च कस्य कथं चेदं त्वयि कर्म समाहितम्॥१०॥

मूलम्

अथ योऽसौ तृतीयो वः स कुतः कस्य वा पुनः।
त्वं च कस्य कथं चेदं त्वयि कर्म समाहितम्॥१०॥

अनुवाद (हिन्दी)

केशिनीने पूछा— आपलोगोंमेंसे जो तीसरा व्यक्ति है, वह कहाँसे आया है अथवा किसका सेवक है? ऐसे ही आप कौन हैं, किसके पुत्र हैं और आपपर इस कार्यका भार कैसे आया है?॥१०॥

मूलम् (वचनम्)

बाहुक उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

पुण्यश्लोकस्य वै सूतो वार्ष्णेय इति विश्रुतः।
स नले विद्रुते भद्रे भाङ्गासुरिमुपस्थितः ॥ ११ ॥

मूलम्

पुण्यश्लोकस्य वै सूतो वार्ष्णेय इति विश्रुतः।
स नले विद्रुते भद्रे भाङ्गासुरिमुपस्थितः ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

बाहुक बोला— भद्रे! उस तीसरे व्यक्तिका नाम वार्ष्णेय है। वह पुण्यश्लोक राजा नलका सारथि है। नलके वनमें निकल जानेपर वह ऋतुपर्णकी सेवामें चला गया है॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अहमप्यश्वकुशलः सूतत्वे च प्रतिष्ठितः।
ऋतुपर्णेन सारथ्ये भोजने च वृतः स्वयम् ॥ १२ ॥

मूलम्

अहमप्यश्वकुशलः सूतत्वे च प्रतिष्ठितः।
ऋतुपर्णेन सारथ्ये भोजने च वृतः स्वयम् ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मैं भी अश्वविद्यामें कुशल हूँ और सारथिके कार्यमें भी निपुण हूँ, इसलिये राजा ऋतुपर्णने स्वयं ही मुझे वेतन देकर सारथिके पदपर नियुक्त कर लिया॥१२॥

मूलम् (वचनम्)

केशिन्युवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथ जानाति वार्ष्णेयः क्व नु राजा नलो गतः।
कथं च त्वयि वा तेन कथितं स्यात् तु बाहुक॥१३॥

मूलम्

अथ जानाति वार्ष्णेयः क्व नु राजा नलो गतः।
कथं च त्वयि वा तेन कथितं स्यात् तु बाहुक॥१३॥

अनुवाद (हिन्दी)

केशिनीने पूछा— बाहुक! क्या वार्ष्णेय यह जानता है कि राजा नल कहाँ चले गये, उसने आपसे महाराजके सम्बन्धमें कैसी बात बतायी है?॥१३॥

मूलम् (वचनम्)

बाहुक उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

इहैव पुत्रौ निक्षिप्य नलस्य शुभकर्मणः।
गतस्ततो यथाकामं नैष जानाति नैषधम् ॥ १४ ॥

मूलम्

इहैव पुत्रौ निक्षिप्य नलस्य शुभकर्मणः।
गतस्ततो यथाकामं नैष जानाति नैषधम् ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

बाहुक बोला— भद्रे! पुण्यकर्मा नलके दोनों बालकोंको यहीं रखकर वार्ष्णेय अपनी रुचिके अनुसार अयोध्या चला गया था। यह नलके विषयमें कुछ नहीं जानता है॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न चान्यः पुरुषः कश्चिन्नलं वेत्ति यशस्विनि।
गूढश्चरति लोकेऽस्मिन् नष्टरूपे महीपतिः ॥ १५ ॥

मूलम्

न चान्यः पुरुषः कश्चिन्नलं वेत्ति यशस्विनि।
गूढश्चरति लोकेऽस्मिन् नष्टरूपे महीपतिः ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यशस्विनि! दूसरा कोई पुरुष भी नलको नहीं जानता। राजा नलका पहला रूप अदृश्य हो गया है। वे इस जगत्‌में गूढ़भावसे विचरते हैं॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आत्मैव तु नलं वेद या चास्य तदनन्तरा।
न हि वै स्वानि लिङ्गानि नलः शंसति कर्हिचित्॥१६॥

मूलम्

आत्मैव तु नलं वेद या चास्य तदनन्तरा।
न हि वै स्वानि लिङ्गानि नलः शंसति कर्हिचित्॥१६॥

अनुवाद (हिन्दी)

परमात्मा ही नलको जानते हैं तथा उसकी जो अन्तरात्मा है, वह उन्हें जानती है, दूसरा कोई नहीं; क्योंकि राजा नल अपने लक्षणों या चिह्नोंको कभी दूसरोंके सामने नहीं प्रकट करते हैं॥१६॥

मूलम् (वचनम्)

केशिन्युवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

योऽसावयोध्यां प्रथमं गतोऽसौ ब्राह्मणस्तदा।
इमानि नारीवाक्यानि कथयानः पुनः पुनः ॥ १७ ॥

मूलम्

योऽसावयोध्यां प्रथमं गतोऽसौ ब्राह्मणस्तदा।
इमानि नारीवाक्यानि कथयानः पुनः पुनः ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

केशिनीने कहा— पहली बार अयोध्यामें जब वे ब्राह्मणदेवता गये थे, तब उन्होंने स्त्रियोंकी सिखायी हुई निम्नांकित बातें बार-बार कही थीं—॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

क्व नु त्वं कितवच्छित्त्वा वस्त्रार्धं प्रस्थितो मम।
उत्सृज्य विपिने सुप्तामनुरक्तां प्रियां प्रिय ॥ १८ ॥

मूलम्

क्व नु त्वं कितवच्छित्त्वा वस्त्रार्धं प्रस्थितो मम।
उत्सृज्य विपिने सुप्तामनुरक्तां प्रियां प्रिय ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘ओ जुआरी प्रियतम! तुम अपने प्रति अनुराग रखनेवाली वनमें सोयी हुई मुझ प्यारी पत्नीको छोड़कर तथा मेरे आधे वस्त्रको फाड़कर कहाँ चल दिये?॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सा वै यथा समादिष्टा तथाऽऽस्ते त्वत्प्रतीक्षिणी।
दह्यमाना दिवा रात्रौ वस्त्रार्धेनाभिसंवृता ॥ १९ ॥

मूलम्

सा वै यथा समादिष्टा तथाऽऽस्ते त्वत्प्रतीक्षिणी।
दह्यमाना दिवा रात्रौ वस्त्रार्धेनाभिसंवृता ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘उसे तुमने जिस अवस्थामें देखा था, उसी अवस्थामें वह आज भी है और तुम्हारे आगमनकी प्रतीक्षा कर रही है। आधे वस्त्रसे अपने शरीरको ढककर वह युवती दिन-रात तुम्हारी विरहाग्निमें जल रही है॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्या रुदन्त्याः सततं तेन दुःखेन पार्थिव।
प्रसादं कुरु मे वीर प्रतिवाक्यं वदस्व च ॥ २० ॥

मूलम्

तस्या रुदन्त्याः सततं तेन दुःखेन पार्थिव।
प्रसादं कुरु मे वीर प्रतिवाक्यं वदस्व च ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘वीर भूमिपाल! सदा तुम्हारे शोकसे रोती हुई अपनी उसी प्यारी पत्नीपर पुनः कृपा करो और मेरी बातका उत्तर दो’॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्यास्तत् प्रियमाख्यानं प्रवदस्व महामते।
तदेव वाक्यं वैदर्भी श्रोतुमिच्छत्यनिन्दिता ॥ २१ ॥

मूलम्

तस्यास्तत् प्रियमाख्यानं प्रवदस्व महामते।
तदेव वाक्यं वैदर्भी श्रोतुमिच्छत्यनिन्दिता ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘महामते! इसके उत्तरमें आप दमयन्तीको प्रिय लगनेवाली कोई बात कहिये। साध्वी विदर्भकुमारी आपकी उसी बातको पुनः सुनना चाहती हैं’॥२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतच्छ्रुत्वा प्रतिवचस्तस्य दत्तं त्वया किल।
यत् पुरा तत् पुनस्त्वत्तो वैदर्भी श्रोतुमिच्छति ॥ २२ ॥

मूलम्

एतच्छ्रुत्वा प्रतिवचस्तस्य दत्तं त्वया किल।
यत् पुरा तत् पुनस्त्वत्तो वैदर्भी श्रोतुमिच्छति ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

बाहुक! ब्राह्मणके मुखसे यह वचन सुनकर पहले आपने जो उत्तर दिया था, उसीको वैदर्भी आपके मुँहसे पुनः सुनना चाहती हैं॥२२॥

मूलम् (वचनम्)

बृहदश्व उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमुक्तस्य केशिन्या नलस्य कुरुनन्दन।
हृदयं व्यथितं चासीदश्रुपूर्णे च लोचने ॥ २३ ॥

मूलम्

एवमुक्तस्य केशिन्या नलस्य कुरुनन्दन।
हृदयं व्यथितं चासीदश्रुपूर्णे च लोचने ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

बृहदश्व मुनि कहते हैं— युधिष्ठिर! केशिनीके ऐसा कहनेपर राजा नलके हृदयमें बड़ी वेदना हुई। उनकी दोनों आँखें आँसुओंसे भर गयीं॥२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स निगृह्यात्मनो दुःखं दह्यमानो महीपतिः।
वाष्पसंदिग्धया वाचा पुनरेवेदमब्रवीत् ॥ २४ ॥

मूलम्

स निगृह्यात्मनो दुःखं दह्यमानो महीपतिः।
वाष्पसंदिग्धया वाचा पुनरेवेदमब्रवीत् ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

निषधनरेश शोकाग्निसे दग्ध हो रहे थे, तो भी उन्होंने अपने दुःखके वेगको रोककर अश्रुगद्‌गद वाणीमें पुनः यों कहना आरम्भ किया॥२४॥

मूलम् (वचनम्)

बाहुक उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

वैषम्यमपि सम्प्राप्ता गोपायन्ति कुलस्त्रियः।
आत्मानमात्मना सत्यो जितः स्वर्गो न संशयः ॥ २५ ॥

मूलम्

वैषम्यमपि सम्प्राप्ता गोपायन्ति कुलस्त्रियः।
आत्मानमात्मना सत्यो जितः स्वर्गो न संशयः ॥ २५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

बाहुक बोला— उत्तम कुलकी स्त्रियाँ बड़े भारी संकटमें पड़कर भी स्वयं अपनी रक्षा करती हैं। ऐसा करके वे स्वर्ग और सत्य दोनोंपर विजय पा लेती हैं, इसमें संशय नहीं है॥२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रहिता भर्तृभिश्चापि न क्रुध्यन्ति कदाचन।
प्राणांश्चारित्रकवचान् धारयन्ति वरस्त्रियः ॥ २६ ॥

मूलम्

रहिता भर्तृभिश्चापि न क्रुध्यन्ति कदाचन।
प्राणांश्चारित्रकवचान् धारयन्ति वरस्त्रियः ॥ २६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रेष्ठ नारियाँ अपने पतियोंसे परित्यक्त होनेपर भी कभी क्रोध नहीं करतीं। वे सदा सदाचाररूपी कवचसे आवृत प्राणोंको धारण करती हैं॥२६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विषमस्थेन मूढेन परिभ्रष्टसुखेन च।
यत् सा तेन परित्यक्ता तत्र न क्रोद्‌धुमर्हति ॥ २७ ॥

मूलम्

विषमस्थेन मूढेन परिभ्रष्टसुखेन च।
यत् सा तेन परित्यक्ता तत्र न क्रोद्‌धुमर्हति ॥ २७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वह पुरुष बड़े संकटमें था तथा सुखके साधनोंसे वञ्चित होकर किंकर्तव्यविमूढ़ हो गया था। ऐसी दशामें यदि उसने अपनी पत्नीका परित्याग किया है, तो इसके लिये पत्नीको उसपर क्रोध नहीं करना चाहिये॥२७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्राणयात्रां परिप्रेप्सोः शकुनैर्हृतवाससः ।
आधिभिर्दह्यमानस्य श्यामा न क्रोद्‌धुमर्हति ॥ २८ ॥

मूलम्

प्राणयात्रां परिप्रेप्सोः शकुनैर्हृतवाससः ।
आधिभिर्दह्यमानस्य श्यामा न क्रोद्‌धुमर्हति ॥ २८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जीविका पानेके लिये चेष्टा करते समय पक्षियोंने जिसके वस्त्रका अपहरण कर लिया था और जो अनेक प्रकारकी मानसिक चिन्ताओंसे दग्ध हो रहा था, उस पुरुषपर श्यामाको क्रोध नहीं करना चाहिये॥२८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सत्कृतासत्कृता वापि पतिं दृष्ट्वा तथाविधम्।
राज्यभ्रष्टं श्रिया हीनं क्षुधितं व्यसनाप्लुतम् ॥ २९ ॥

मूलम्

सत्कृतासत्कृता वापि पतिं दृष्ट्वा तथाविधम्।
राज्यभ्रष्टं श्रिया हीनं क्षुधितं व्यसनाप्लुतम् ॥ २९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पतिने उसका सत्कार किया हो या असत्कार; उसे चाहिये कि पतिको वैसे संकटमें पड़ा देखकर उसे क्षमा कर दे; क्योंकि वह राज्य और लक्ष्मीसे वंचित हो भूखसे पीड़ित एवं विपत्तिके अथाह सागरमें डूबा हुआ था॥२९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं ब्रुवाणस्तद् वाक्यं नलः परमदुर्मनाः।
न वाष्पमशकत् सोढुं प्ररुरोद च भारत ॥ ३० ॥

मूलम्

एवं ब्रुवाणस्तद् वाक्यं नलः परमदुर्मनाः।
न वाष्पमशकत् सोढुं प्ररुरोद च भारत ॥ ३० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार पूर्वोक्त बातें कहते हुए नलका मन अत्यन्त उदास हो गया। भारत! वे अपने उमड़ते हुए आँसुओंको रोक न सके तथा रोने लगे॥३०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः सा केशिनी गत्वा दमयन्त्यै न्यवेदयत्।
तत् सर्वं कथितं चैव विकारं तस्य चैव तम्॥३१॥

मूलम्

ततः सा केशिनी गत्वा दमयन्त्यै न्यवेदयत्।
तत् सर्वं कथितं चैव विकारं तस्य चैव तम्॥३१॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर केशिनीने भीतर जाकर दमयन्तीसे यह सब निवेदन किया। उसने बाहुककी कही हुई सारी बातों और उसके मनोविकारोंको भी यथावत् कह सुनाया॥३१॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि नलोपाख्यानपर्वणि नलकेशिनीसंवादे चतुःसप्ततितमोऽध्यायः ॥ ७४ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्वके अन्तर्गत नलोपाख्यानपर्वमें नल-केशिनीसंवादविषयक चौहत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ॥७४॥