भागसूचना
त्रिसप्ततितमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
ऋतुपर्णका कुण्डिनपुरमें प्रवेश, दमयन्तीका विचार तथा भीमके द्वारा ऋतुपर्णका स्वागत
मूलम् (वचनम्)
बृहदश्व उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो विदर्भान् सम्प्राप्तं सायाह्ने सत्यविक्रमम्।
ऋतुपर्णं जना राज्ञे भीमाय प्रत्यवेदयन् ॥ १ ॥
मूलम्
ततो विदर्भान् सम्प्राप्तं सायाह्ने सत्यविक्रमम्।
ऋतुपर्णं जना राज्ञे भीमाय प्रत्यवेदयन् ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
बृहदश्व मुनि कहते हैं— युधिष्ठिर! तदनन्तर शाम होते-होते सत्यपराक्रमी राजा ऋतुपर्ण विदर्भराज्यमें जा पहुँचे। लोगोंने राजा भीमको इस बातकी सूचना दी॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स भीमवचनाद् राजा कुण्डिनं प्राविशत् पुरम्।
नादयन् रथघोषेण सर्वाः स विदिशो दिशः ॥ २ ॥
मूलम्
स भीमवचनाद् राजा कुण्डिनं प्राविशत् पुरम्।
नादयन् रथघोषेण सर्वाः स विदिशो दिशः ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीमके अनुरोधसे राजा ऋतुपर्णने अपने रथकी घर्घराहटद्वारा सम्पूर्ण दिशा-विदिशाओंको प्रतिध्वनित करते हुए कुण्डिनपुरमें प्रवेश किया॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततस्तं रथनिर्घोषं नलाश्वास्तत्र शुश्रुवुः।
श्रुत्वा तु समहृष्यन्त पुरेव नलसंनिधौ ॥ ३ ॥
मूलम्
ततस्तं रथनिर्घोषं नलाश्वास्तत्र शुश्रुवुः।
श्रुत्वा तु समहृष्यन्त पुरेव नलसंनिधौ ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नलके घोड़े वहीं रहते थे, उन्होंने रथका वह घोष सुना। सुनकर वे उतने ही प्रसन्न और उत्साहित हुए, जितने कि पहले नलके समीप रहा करते थे॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दमयन्ती तु शुश्राव रथघोषं नलस्य तम्।
यथा मेघस्य नदतो गम्भीरं जलदागमे ॥ ४ ॥
मूलम्
दमयन्ती तु शुश्राव रथघोषं नलस्य तम्।
यथा मेघस्य नदतो गम्भीरं जलदागमे ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
दमयन्तीने भी नलके रथकी वह घर्घराहट सुनी, मानो वर्षाकालमें गरजते हुए मेघोंका गम्भीर घोष सुनायी देता हो॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
परं विस्मयमापन्ना श्रुत्वा नादं महास्वनम्।
नलेन संगृहीतेषु पुरेव नलवाजिषु।
सदृशं रथनिर्घोषं मेने भौमी तथा हयाः ॥ ५ ॥
मूलम्
परं विस्मयमापन्ना श्रुत्वा नादं महास्वनम्।
नलेन संगृहीतेषु पुरेव नलवाजिषु।
सदृशं रथनिर्घोषं मेने भौमी तथा हयाः ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वह महाभयंकर रथनाद सुनकर उसे बड़ा विस्मय हुआ। पूर्वकालमें राजा नल जब घोड़ोंकी बाग सँभालते थे, उन दिनों उनके रथसे जैसी गम्भीर ध्वनि प्रकट होती थी, वैसी ही उस समयके रथकी घर्घराहट भी दमयन्ती और उसके घोड़ोंको जान पड़ी॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रासादस्थाश्च शिखिनः शालास्थाश्चैव वारणाः।
हयाश्च शुश्रुवुस्तस्य रथघोषं महीपतेः ॥ ६ ॥
मूलम्
प्रासादस्थाश्च शिखिनः शालास्थाश्चैव वारणाः।
हयाश्च शुश्रुवुस्तस्य रथघोषं महीपतेः ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महलपर बैठे हुए मयूरों, गजशालामें बँधे हुए गजराजों और अश्वशालाके अश्वोंने राजाके रथका वह अद्भुत घोष सुना॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तच्छ्रुत्वा रथनिर्घोषं वारणाः शिखिनस्तथा।
प्रणेदुरुन्मुखा राजन् मेघनाद इवोत्सुकाः ॥ ७ ॥
मूलम्
तच्छ्रुत्वा रथनिर्घोषं वारणाः शिखिनस्तथा।
प्रणेदुरुन्मुखा राजन् मेघनाद इवोत्सुकाः ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! रथकी उस आवाजको सुनकर हाथी और मयूर अपना मुँह ऊपर उठाकर उसी प्रकार उत्कण्ठापूर्वक अपनी बोली बोलने लगे, जैसे वे मेघोंकी गर्जना होनेपर बोला करते हैं॥७॥
मूलम् (वचनम्)
दमयन्त्युवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथासौ रथनिर्घोषः पूरयन्निव मेदिनीम्।
ममाह्लादयते चेतो नल एष महीपतिः ॥ ८ ॥
मूलम्
यथासौ रथनिर्घोषः पूरयन्निव मेदिनीम्।
ममाह्लादयते चेतो नल एष महीपतिः ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
(उस समय) दमयन्तीने (मन-ही-मन) कहा— अहो! रथकी वह घर्घराहट इस पृथ्वीको गुँजाती हुई जिस प्रकार मेरे मनको आह्लाद प्रदान कर रही है, उससे जान पड़ता है, ये महाराज नल ही पधारे हैं॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अद्य चन्द्राभवक्त्रं तं न पश्यामि नलं यदि।
असंख्येयगुणं वीरं विनङ्क्ष्यामि न संशयः ॥ ९ ॥
मूलम्
अद्य चन्द्राभवक्त्रं तं न पश्यामि नलं यदि।
असंख्येयगुणं वीरं विनङ्क्ष्यामि न संशयः ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
आज यदि असंख्य गुणोंसे विभूषित तथा चन्द्रमाके समान मुखवाले वीरवर नलको न देखूँगी तो अपने इस जीवनका अन्त कर दूँगी, इसमें संशय नहीं है॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदि वै तस्य वीरस्य बाह्वोर्नाद्याहमन्तरम्।
प्रविशामि सुखस्पर्शं न भविष्याम्यसंशयम् ॥ १० ॥
मूलम्
यदि वै तस्य वीरस्य बाह्वोर्नाद्याहमन्तरम्।
प्रविशामि सुखस्पर्शं न भविष्याम्यसंशयम् ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
आज यदि मैं उन वीरशिरोमणि नलकी दोनों भुजाओंके मध्यभागमें, जिसका स्पर्श अत्यन्त सुखद है, प्रवेश न कर सकी तो अवश्य जीवित न रह सकूँगी॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदि मां मेघनिर्घोषो नोपगच्छति नैषधः।
अद्य चामीकरप्रख्यं प्रवेक्ष्यामि हुताशनम् ॥ ११ ॥
मूलम्
यदि मां मेघनिर्घोषो नोपगच्छति नैषधः।
अद्य चामीकरप्रख्यं प्रवेक्ष्यामि हुताशनम् ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यदि रथद्वारा मेघके समान गम्भीर गर्जना करनेवाले निषधदेशके स्वामी महाराज नल आज मेरे पास नहीं पधारेंगे तो मैं सुवर्णके समान देदीप्यमान दहकती हुई आगमें प्रवेश कर जाऊँगी॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदि मां सिंहविक्रान्तो मत्तवारणविक्रमः।
नाभिगच्छति राजेन्द्रो विनङ्क्ष्यामि न संशयः ॥ १२ ॥
मूलम्
यदि मां सिंहविक्रान्तो मत्तवारणविक्रमः।
नाभिगच्छति राजेन्द्रो विनङ्क्ष्यामि न संशयः ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यदि सिंहके समान पराक्रमी और मतवाले हाथीके समान मस्तानी चालसे चलनेवाले राजराजेश्वर नल मेरे पास नहीं आयेंगे तो आज अपने जीवनको नष्ट कर दूँगी, इसमें संशय नहीं है॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न स्मराम्यनृतं किंचिन्न स्मराम्यपकारताम्।
न च पर्युषितं वाक्यं स्वैरेष्वपि कदाचन ॥ १३ ॥
मूलम्
न स्मराम्यनृतं किंचिन्न स्मराम्यपकारताम्।
न च पर्युषितं वाक्यं स्वैरेष्वपि कदाचन ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मुझे याद नहीं कि स्वेच्छापूर्वक अर्थात् हँसी-मजाकमें भी मैं कभी झूठ बोली हूँ, स्मरण नहीं कि कभी किसीका मेरेद्वारा अपकार हुआ हो तथा यह भी स्मरण नहीं कि मैंने प्रतिज्ञा की हुई बातका उल्लंघन किया हो॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रभुः क्षमावान् वीरश्च दाता चाप्यधिको नृपैः।
रहोऽनीचानुवर्ती च क्लीबवन्मम नैषधः ॥ १४ ॥
मूलम्
प्रभुः क्षमावान् वीरश्च दाता चाप्यधिको नृपैः।
रहोऽनीचानुवर्ती च क्लीबवन्मम नैषधः ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मेरे निषधराज नल शक्तिशाली, क्षमाशील, वीर, दाता, सब राजाओंसे श्रेष्ठ, एकान्तमें भी नीच कर्मसे दूर रहनेवाले तथा परायी स्त्रीके लिये नपुंसकतुल्य हैं॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुणांस्तस्य स्मरन्त्या मे तत्पराया दिवानिशम्।
हृदयं दीर्यत इदं शोकात् प्रियविनाकृतम् ॥ १५ ॥
मूलम्
गुणांस्तस्य स्मरन्त्या मे तत्पराया दिवानिशम्।
हृदयं दीर्यत इदं शोकात् प्रियविनाकृतम् ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मैं (सदा) उन्हींके गुणोंका स्मरण करती और दिन-रात उन्हींके परायण रहती हूँ। प्रियतम नलके बिना मेरा यह हृदय उनके विरहशोकसे विदीर्ण-सा होता रहता है॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं विलपमाना सा नष्टसंज्ञेव भारत।
आरुरोह महद् वेश्म पुण्यश्लोकदिदृक्षया ॥ १६ ॥
मूलम्
एवं विलपमाना सा नष्टसंज्ञेव भारत।
आरुरोह महद् वेश्म पुण्यश्लोकदिदृक्षया ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भारत! इस प्रकार विलाप करती हुई दमयन्ती अचेत-सी हो गयी। वह पुण्यश्लोक नलके दर्शनकी इच्छासे ऊँचे महलकी छतपर जा चढ़ी॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो मध्यमकक्षायां ददर्श रथमास्थितम्।
ऋतुपर्णं महीपालं सहवार्ष्णेयबाहुकम् ॥ १७ ॥
मूलम्
ततो मध्यमकक्षायां ददर्श रथमास्थितम्।
ऋतुपर्णं महीपालं सहवार्ष्णेयबाहुकम् ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वहाँसे उसने देखा, वार्ष्णेय और बाहुकके साथ रथपर बैठे हुए महाराज ऋतुपर्ण मध्यम कक्षा (परकोटे)-में पहुँच गये हैं॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततोऽवतीर्य वार्ष्णेयो बाहुकश्च रथोत्तमात्।
हयांस्तानवमुच्याथ स्थापयामास वै रथम् ॥ १८ ॥
मूलम्
ततोऽवतीर्य वार्ष्णेयो बाहुकश्च रथोत्तमात्।
हयांस्तानवमुच्याथ स्थापयामास वै रथम् ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर वार्ष्णेय और बाहुकने उस उत्तम रथसे उतरकर घोड़े खोल दिये और रथको एक जगह खड़ा कर दिया॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सोऽवतीर्य रथोपस्थादृतुपर्णो नराधिपः ।
उपतस्थे महाराजं भीमं भीमपराक्रमम् ॥ १९ ॥
मूलम्
सोऽवतीर्य रथोपस्थादृतुपर्णो नराधिपः ।
उपतस्थे महाराजं भीमं भीमपराक्रमम् ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसके बाद राजा ऋतुपर्ण रथके पिछले भागसे उतरकर भयानक पराक्रमी महाराज भीमसे मिले॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तं भीमः प्रतिजग्राह पूजया परया ततः।
स तेन पूजितो राज्ञा ऋतुपर्णो नराधिपः ॥ २० ॥
मूलम्
तं भीमः प्रतिजग्राह पूजया परया ततः।
स तेन पूजितो राज्ञा ऋतुपर्णो नराधिपः ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर भीमने बड़े आदर-सत्कारके साथ उन्हें अपनाया और राजा ऋतुपर्णका भलीभाँति आदर-सत्कार किया॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स तत्र कुण्डिने रम्ये वसमानो महीपतिः।
न च किंचित् तदापश्यत् प्रेक्षमाणो मुहुर्मुहुः।
स तु राज्ञा समागम्य विदर्भपतिना तदा ॥ २१ ॥
अकस्मात् सहसा प्राप्तं स्त्रीमन्त्रं न स्म विन्दति।
मूलम्
स तत्र कुण्डिने रम्ये वसमानो महीपतिः।
न च किंचित् तदापश्यत् प्रेक्षमाणो मुहुर्मुहुः।
स तु राज्ञा समागम्य विदर्भपतिना तदा ॥ २१ ॥
अकस्मात् सहसा प्राप्तं स्त्रीमन्त्रं न स्म विन्दति।
अनुवाद (हिन्दी)
भूपाल ऋतुपर्ण रमणीय कुण्डिनपुरमें ठहर गये। उन्हें बार-बार देखनेपर भी वहाँ (स्वयंवर-जैसी) कोई चीज नहीं दिखायी दी। वे विदर्भनरेशसे मिलकर सहसा इस बातको न जान सके कि यह स्त्रियोंकी अकस्मात् गुप्त मन्त्रणामात्र थी॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
किं कार्यं स्वागतं तेऽस्तु राज्ञा पृष्टः स भारत॥२२॥
मूलम्
किं कार्यं स्वागतं तेऽस्तु राज्ञा पृष्टः स भारत॥२२॥
अनुवाद (हिन्दी)
भरतनन्दन युधिष्ठिर! विदर्भराजने स्वागत-पूर्वक ऋतुपर्णसे पूछा—‘आपके यहाँ पधारनेका क्या कारण है?’॥२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नाभिजज्ञे स नृपतिर्दुहित्रर्थे समागतम्।
ऋतुपर्णोऽपि राजा स धीमान् सत्यपराक्रमः ॥ २३ ॥
मूलम्
नाभिजज्ञे स नृपतिर्दुहित्रर्थे समागतम्।
ऋतुपर्णोऽपि राजा स धीमान् सत्यपराक्रमः ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजा भीम यह नहीं जानते थे कि दमयन्तीके लिये ही इनका शुभागमन हुआ है। राजा ऋतुपर्ण भी बड़े बुद्धिमान् और सत्यपराक्रमी थे॥२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
राजानं राजपुत्रं वा न स्म पश्यति कंचन।
नैव स्वयंवरकथां न च विप्रसमागमम् ॥ २४ ॥
ततो व्यगणयद् राजा मनसा कोसलाधिपः।
आगतोऽस्मीत्युवाचैनं भवन्तमभिवादकः ॥ २५ ॥
मूलम्
राजानं राजपुत्रं वा न स्म पश्यति कंचन।
नैव स्वयंवरकथां न च विप्रसमागमम् ॥ २४ ॥
ततो व्यगणयद् राजा मनसा कोसलाधिपः।
आगतोऽस्मीत्युवाचैनं भवन्तमभिवादकः ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन्होंने वहाँ किसी भी राजा या राजकुमारको नहीं देखा। ब्राह्मणोंका भी वहाँ समागम नहीं हो रहा था। स्वयंवरकी तो कोई चर्चातक नहीं थी। तब कोशलनरेशने मन-ही-मन कुछ विचार किया और विदर्भराजसे कहा—‘राजन्! मैं आपका अभिवादन करनेके लिये आया हूँ’॥२४-२५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
राजापि च स्मयन् भीमो मनसा समचिन्तयन्।
अधिकं योजनशतं तस्यागमनकारणम् ॥ २६ ॥
ग्रामान् बहूनतिक्रम्य नाध्यगच्छद् यथातथम्।
अल्पकार्यं विनिर्दिष्टं तस्यागमनकारणम् ॥ २७ ॥
मूलम्
राजापि च स्मयन् भीमो मनसा समचिन्तयन्।
अधिकं योजनशतं तस्यागमनकारणम् ॥ २६ ॥
ग्रामान् बहूनतिक्रम्य नाध्यगच्छद् यथातथम्।
अल्पकार्यं विनिर्दिष्टं तस्यागमनकारणम् ॥ २७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यह सुनकर राजा भीम भी मुसकरा दिये और मन-ही-मन सोचने लगे—‘ये बहुत-से गाँवोंको लाँघकर सौ योजनसे भी अधिक दूर चले आये हैं, किंतु कार्य इन्होंने बहुत साधारण बतलाया है। फिर इनके आगमनका क्या कारण है, इसे मैं ठीक-ठीक न जान सका॥२६-२७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पश्चादुदर्के ज्ञास्यामि कारणं यद् भविष्यति।
नैतदेवं स नृपतिस्तं सत्कृत्य व्यसर्जयत् ॥ २८ ॥
मूलम्
पश्चादुदर्के ज्ञास्यामि कारणं यद् भविष्यति।
नैतदेवं स नृपतिस्तं सत्कृत्य व्यसर्जयत् ॥ २८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘अच्छा, जो भी कारण होगा पीछे मालूम कर लूँगा। ये जो कारण बता रहे हैं, इतना ही इनके आगमनका हेतु नहीं है।’ ऐसा विचारकर राजाने उन्हें सत्कारपूर्वक विश्रामके लिये विदा किया॥२८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्राम्यतामित्युवाच क्लान्तोऽसीति पुनः पुनः।
स सत्कृतः प्रहृष्टात्मा प्रीतः प्रीतेन पार्थिवः ॥ २९ ॥
मूलम्
विश्राम्यतामित्युवाच क्लान्तोऽसीति पुनः पुनः।
स सत्कृतः प्रहृष्टात्मा प्रीतः प्रीतेन पार्थिवः ॥ २९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
और कहा—‘आप बहुत थक गये होंगे, अतः विश्राम कीजिये।’ विदर्भनरेशके द्वारा प्रसन्नतापूर्वक आदर-सत्कार पाकर राजा ऋतुपर्णको बड़ी प्रसन्नता हुई॥२९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
राजप्रेष्यैरनुगतो दिष्टं वेश्म समाविशत्।
ऋतुपर्णे गते राजन् वार्ष्णेयसहिते नृपे ॥ ३० ॥
बाहुको रथमादाय रथशालामुपागमत् ।
स मोचयित्वा तानश्वानुपचर्य च शास्त्रतः ॥ ३१ ॥
स्वयं चैतान् समाश्वास्य रथोपस्थ उपाविशत्।
मूलम्
राजप्रेष्यैरनुगतो दिष्टं वेश्म समाविशत्।
ऋतुपर्णे गते राजन् वार्ष्णेयसहिते नृपे ॥ ३० ॥
बाहुको रथमादाय रथशालामुपागमत् ।
स मोचयित्वा तानश्वानुपचर्य च शास्त्रतः ॥ ३१ ॥
स्वयं चैतान् समाश्वास्य रथोपस्थ उपाविशत्।
अनुवाद (हिन्दी)
फिर वे राजसेवकोंके साथ गये और बताये हुए भवनमें विश्रामके लिये प्रवेश किया। राजन्! वार्ष्णेयसहित ऋतुपर्णके चले जानेपर बाहुक रथ लेकर रथशालामें गया। उसने उन घोड़ोंको खोल दिया और अश्वशास्त्रकी विधिके अनुसार उनकी परिचर्या करनेके बाद घोड़ोंको पुचकारकर उन्हें धीरज देनेके पश्चात् वह स्वयं भी रथके पिछले भागमें जा बैठा॥३०-३१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दमयन्त्यपि शोकार्ता दृष्ट्वा भाङ्गासुरिं नृपम् ॥ ३२ ॥
सूतपुत्रं च वार्ष्णेयं बाहुकं च तथाविधम्।
चिन्तयामास वैदर्भी कस्यैष रथनिःस्वनः ॥ ३३ ॥
मूलम्
दमयन्त्यपि शोकार्ता दृष्ट्वा भाङ्गासुरिं नृपम् ॥ ३२ ॥
सूतपुत्रं च वार्ष्णेयं बाहुकं च तथाविधम्।
चिन्तयामास वैदर्भी कस्यैष रथनिःस्वनः ॥ ३३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
दमयन्ती भी शोकसे आतुर हो राजा ऋतुपर्ण, सूतपुत्र वार्ष्णेय तथा पूर्वोक्त बाहुकको देखकर सोचने लगी—‘यह किसके रथकी घर्घराहट सुनायी पड़ती थी॥३२-३३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नलस्येव महानासीन्न च पश्यामि नैषधम्।
वार्ष्णेयेन भवेन्नूनं विद्या सैवोपशिक्षिता ॥ ३४ ॥
तेनाद्य रथनिर्घोषो नलस्येव महानभूत्।
आहोस्विदृतुपर्णोऽपि यथा राजा नलस्तथा।
यथायं रथनिर्घोषो नैषधस्येव लक्ष्यते ॥ ३५ ॥
मूलम्
नलस्येव महानासीन्न च पश्यामि नैषधम्।
वार्ष्णेयेन भवेन्नूनं विद्या सैवोपशिक्षिता ॥ ३४ ॥
तेनाद्य रथनिर्घोषो नलस्येव महानभूत्।
आहोस्विदृतुपर्णोऽपि यथा राजा नलस्तथा।
यथायं रथनिर्घोषो नैषधस्येव लक्ष्यते ॥ ३५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘वह गम्भीर घोष तो महाराज नलके रथ-जैसा था; परंतु इन आगन्तुकोंमें मुझे निषधराज नल नहीं दिखायी देते। वार्ष्पेयने भी नलके समान ही अश्वविद्या सीख ली हो, निश्चय ही यह सम्भावना की जा सकती है। तभी आज रथकी आवाज बड़े जोरसे सुनायी दे रही थी, जैसे नलके रथ हाँकते समय हुआ करती है। कहीं ऐसा तो नहीं है कि राजा ऋतुपर्ण भी वैसे ही अश्वविद्यामें निपुण हों, जैसे राजा नल हैं; क्योंकि नलके ही समान इनके रथका भी गम्भीर घोष लक्षित होता है’॥३४-३५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं सा तर्कयित्वा तु दमयन्ती विशाम्पते।
दूतीं प्रस्थापयामास नैषधान्वेषणे शुभा ॥ ३६ ॥
मूलम्
एवं सा तर्कयित्वा तु दमयन्ती विशाम्पते।
दूतीं प्रस्थापयामास नैषधान्वेषणे शुभा ॥ ३६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिर! इस प्रकार विचार करके शुभलक्षणा दमयन्तीने नलका पता लगानेके लिये अपनी दूतीको भेजा॥३६॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि नलोपाख्यानपर्वणि ऋतुपर्णस्य भीमपुरप्रवेशे त्रिसप्ततितमोऽध्यायः ॥ ७३ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्वके अन्तर्गत नलोपाख्यानपर्वमें ऋतुपर्णका राजा भीमके नगरमें प्रवेशविषयक तिहत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ॥७३॥