०७१ ऋतुपर्णेन विदर्भगमनम्

भागसूचना

एकसप्ततितमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

राजा ऋतुपर्णका विदर्भदेशको प्रस्थान, राजा नलके विषयमें वार्ष्णेयका विचार और बाहुककी अद्भुत अश्वसंचालन-कलासे वार्ष्णेय और ऋतुपर्णका प्रभावित होना

मूलम् (वचनम्)

बृहदश्व उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

श्रुत्वा वचः सुदेवस्य ऋतुपर्णो नराधिपः।
सान्त्ययन् श्लक्ष्णया वाचा बाहुकं प्रत्यभाषत ॥ १ ॥

मूलम्

श्रुत्वा वचः सुदेवस्य ऋतुपर्णो नराधिपः।
सान्त्ययन् श्लक्ष्णया वाचा बाहुकं प्रत्यभाषत ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

बृहदश्व मुनि कहते हैं— युधिष्ठिर! सुदेवकी वह बात सुनकर राजा ऋतुपर्णने मधुर वाणीसे सान्त्वना देते हुए बाहुकसे कहा—॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विदर्भान् यातुमिच्छामि दमयन्त्याः स्वयंवरम्।
एकाह्ना हयतत्त्वज्ञ मन्यसे यदि बाहुक ॥ २ ॥

मूलम्

विदर्भान् यातुमिच्छामि दमयन्त्याः स्वयंवरम्।
एकाह्ना हयतत्त्वज्ञ मन्यसे यदि बाहुक ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘बाहुक! तुम अश्वविद्याके तत्त्वज्ञ हो, यदि मेरी बात मानो तो मैं दमयन्तीके स्वयंवरमें सम्मिलित होनेके लिये एक ही दिनमें विदर्भदेशकी राजधानीमें पहुँचना चाहता हूँ’॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमुक्तस्य कौन्तेय तेन राज्ञा नलस्य ह।
व्यदीर्यत मनो दुःखात् प्रदध्यौ च महामनाः ॥ ३ ॥

मूलम्

एवमुक्तस्य कौन्तेय तेन राज्ञा नलस्य ह।
व्यदीर्यत मनो दुःखात् प्रदध्यौ च महामनाः ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कुन्तीनन्दन! राजा ऋतुपर्णके ऐसा कहनेपर राजा नलका मन अत्यन्त दुःखसे विदीर्ण होने लगा। महामना नल बहुत देरतक किसी भारी चिन्तामें निमग्न हो गये॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दमयन्ती वदेदेतत् कुर्याद् दुःखेन मोहिता।
अस्मदर्थे भवेद् वायमुपायश्चिन्तितो महान् ॥ ४ ॥

मूलम्

दमयन्ती वदेदेतत् कुर्याद् दुःखेन मोहिता।
अस्मदर्थे भवेद् वायमुपायश्चिन्तितो महान् ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे सोचने लगे—‘क्या दमयन्ती ऐसी बात कह सकती है? अथवा सम्भव है, दुःखसे मोहित होकर वह ऐसा कार्य कर ले। कहीं ऐसा तो नहीं है कि उसने मेरी प्राप्तिके लिये यह महान् उपाय सोच निकाला हो?॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नृशंसं बत वैदर्भी भर्तृकामा तपस्विनी।
मया क्षुद्रेण निकृता कृपणा पापबुद्धिना ॥ ५ ॥
स्त्रीस्वभावश्चलो लोके मम दोषश्च दारुणः।
स्यादेवमपि कुर्यात् सा विवासाद् गतसौहृदा ॥ ६ ॥

मूलम्

नृशंसं बत वैदर्भी भर्तृकामा तपस्विनी।
मया क्षुद्रेण निकृता कृपणा पापबुद्धिना ॥ ५ ॥
स्त्रीस्वभावश्चलो लोके मम दोषश्च दारुणः।
स्यादेवमपि कुर्यात् सा विवासाद् गतसौहृदा ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘तपस्विनी एवं दीन विदर्भराजकुमारीको मुझ नीच एवं पापबुद्धि पुरुषने धोखा दिया है, इसीलिये वह ऐसा निष्ठुर कार्य करनेको उद्यत हो गयी। संसारमें स्त्रीका चंचल स्वभाव प्रसिद्ध है। मेरा अपराध भी भयंकर है। सम्भव है मेरे प्रवाससे उसका हार्दिक स्नेह कम हो गया हो, अतः वह ऐसा भी कर ले॥५-६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मम शोकेन संविग्ना नैराश्यात् तनुमध्यमा।
नैवं सा कर्हिचित् कुर्यात् सापत्या च विशेषतः ॥ ७ ॥

मूलम्

मम शोकेन संविग्ना नैराश्यात् तनुमध्यमा।
नैवं सा कर्हिचित् कुर्यात् सापत्या च विशेषतः ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘क्योंकि पतली कमरवाली वह युवती मेरे शोकसे अत्यन्त उद्विग्न हो उठी होगी और मेरे मिलनेकी आशा न होनेके कारण उसने ऐसा विचार कर लिया होगा, परंतु मेरा हृदय कहता है कि वह कभी ऐसा नहीं कर सकती। विशेषतः वह संतानवती है। इसलिये भी उससे ऐसी आशा नहीं की जा सकती॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यदत्र सत्यं वासत्यं गत्वा वेत्स्यामि निश्चयम्।
ऋतुपर्णस्य वै काममात्मार्थं च करोम्यहम् ॥ ८ ॥

मूलम्

यदत्र सत्यं वासत्यं गत्वा वेत्स्यामि निश्चयम्।
ऋतुपर्णस्य वै काममात्मार्थं च करोम्यहम् ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘इसमें कितना सत्य या असत्य है—इसे मैं वहाँ जाकर ही निश्चितरूपसे जान सकूँगा, अतः मैं अपने लिये ही ऋतुपर्णकी इस कामनाको पूर्ण करूँगा’॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इति निश्चित्य मनसा बाहुको दीनमानसः।
कृताञ्जलिरुवाचेदमृतुपर्णं जनाधिपम् ॥ ९ ॥
प्रतिजानामि ते वाक्यं गमिष्यामि नराधिप।
एकाह्ना पुरुषव्याघ्र विदर्भनगरीं नृप ॥ १० ॥

मूलम्

इति निश्चित्य मनसा बाहुको दीनमानसः।
कृताञ्जलिरुवाचेदमृतुपर्णं जनाधिपम् ॥ ९ ॥
प्रतिजानामि ते वाक्यं गमिष्यामि नराधिप।
एकाह्ना पुरुषव्याघ्र विदर्भनगरीं नृप ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मन-ही-मन ऐसा निश्चय करके दीनहृदय बाहुकने दोनों हाथ जोड़कर राजा ऋतुपर्णसे इस प्रकार कहा—‘नरेश्वर! पुरुषसिंह! मैंने आपकी आज्ञा सुनी है, मैं प्रतिज्ञापूर्वक कहता हूँ कि मैं एक ही दिनमें विदर्भदेशकी राजधानीमें आपके साथ जा पहुँचूँगा’॥९-१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः परीक्षामश्वानां चक्रे राजन् स बाहुकः।
अश्वशालामुपागम्य भाङ्गासुरिनृपाज्ञया ॥ ११ ॥

मूलम्

ततः परीक्षामश्वानां चक्रे राजन् स बाहुकः।
अश्वशालामुपागम्य भाङ्गासुरिनृपाज्ञया ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिर! तदनन्तर बाहुकने अश्वशालामें जाकर राजा ऋतुपर्णकी आज्ञासे अश्वोंकी परीक्षा की॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स त्वर्यमाणो बहुश ऋतुपर्णेन बाहुकः।
अश्वाञ्जिज्ञासमानो वै विचार्य च पुनः पुनः।
अध्यगच्छत्‌ कृशानश्वान् समर्थानध्वनि क्षमान् ॥ १२ ॥

मूलम्

स त्वर्यमाणो बहुश ऋतुपर्णेन बाहुकः।
अश्वाञ्जिज्ञासमानो वै विचार्य च पुनः पुनः।
अध्यगच्छत्‌ कृशानश्वान् समर्थानध्वनि क्षमान् ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ऋतुपर्ण बाहुकको बार-बार उत्तेजित करने लगे, अतः उसने अच्छी तरह विचार करके अश्वोंकी परीक्षा कर ली और ऐसे अश्वोंको चुना, जो देखनेमें दुबले होनेपर भी मार्ग तय करनेमें शक्तिशाली एवं समर्थ थे॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तेजोबलसमायुक्तान् कुलशीलसमन्वितान् ।
वर्जिताल्ँलक्षणैर्हीनैः पृथुप्रोथान् महाहनून् ॥ १३ ॥

मूलम्

तेजोबलसमायुक्तान् कुलशीलसमन्वितान् ।
वर्जिताल्ँलक्षणैर्हीनैः पृथुप्रोथान् महाहनून् ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे तेज और बलसे युक्त थे। वे अच्छी जातिके और अच्छे स्वभावके थे। उनमें अशुभ लक्षणोंका सर्वथा अभाव था। उनकी नाक मोटी और थूथन (ठोड़ी) चौड़ी थी॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शूद्धान् दशभिरावर्तैः सिन्धुजान् वातरंहसः।
दृष्ट्वा तानब्रवीद्‌ राजा किंचित् कोपसमन्वितः ॥ १४ ॥

मूलम्

शूद्धान् दशभिरावर्तैः सिन्धुजान् वातरंहसः।
दृष्ट्वा तानब्रवीद्‌ राजा किंचित् कोपसमन्वितः ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे वायुके समान वेगशाली सिन्धुदेशके घोड़े थे। वे दस आवर्त (भँवरियों)-के चिह्नोंसे युक्त होनेके कारण निर्दोष थे। उन्हें देखकर राजा ऋतुपर्णने कुछ कुपित होकर कहा—॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

किमिदं प्रार्थितं कर्तुं प्रलब्धव्या न ते वयम्।
कथमल्पबलप्राणा वक्ष्यन्तीमे हया मम।
महदध्वानमपि च गन्तव्यं कथमीदृशैः ॥ १५ ॥

मूलम्

किमिदं प्रार्थितं कर्तुं प्रलब्धव्या न ते वयम्।
कथमल्पबलप्राणा वक्ष्यन्तीमे हया मम।
महदध्वानमपि च गन्तव्यं कथमीदृशैः ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘क्या तुमसे ऐसे ही घोड़े चुननेके लिये कहा था, तुम मुझे धोखा तो नहीं दे रहे हो। ये अल्प बल और शक्तिवाले घोड़े कैसे मेरा इतना बड़ा रास्ता तय कर सकेंगे? ऐसे घोड़ोंसे इतनी दूरतक रथ कैसे ले जाया जायगा?’॥१५॥

मूलम् (वचनम्)

बाहुक उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

एको ललाटे द्वौ मूर्ध्नि द्वौ द्वौ पार्श्वोपपार्श्वयोः।
द्वौ द्वौ वक्षसि विज्ञेयौ प्रयाणे चैक एव तु॥१६॥

मूलम्

एको ललाटे द्वौ मूर्ध्नि द्वौ द्वौ पार्श्वोपपार्श्वयोः।
द्वौ द्वौ वक्षसि विज्ञेयौ प्रयाणे चैक एव तु॥१६॥

अनुवाद (हिन्दी)

बाहुकने कहा— राजन्! ललाटमें एक, मस्तकमें दो, पार्श्वभागमें दो, उपपार्श्वभागमें भी दो, छातीमें दोनों ओर दो दो और पीठमें एक—इस प्रकार कुल बारह भँवरियोंको पहचानकर घोड़े रथमें जोतने चाहिये॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एते हया गमिष्यन्ति विदर्भान् नात्र संशयः।
यानन्यान् मन्यसे राजन् ब्रूहि तान् योजयामि ते ॥ १७ ॥

मूलम्

एते हया गमिष्यन्ति विदर्भान् नात्र संशयः।
यानन्यान् मन्यसे राजन् ब्रूहि तान् योजयामि ते ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ये मेरे चुने हुए घोड़े अवश्य विदर्भदेशकी राजधानीतक पहुँचेंगे, इसमें संशय नहीं है। महाराज! इन्हें छोड़कर आप जिनको ठीक समझें, उन्हींको मैं रथमें जोत दूँगा॥१७॥

मूलम् (वचनम्)

ऋतुपर्ण उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्वमेव हयतत्त्वज्ञः कुशलो ह्यसि बाहुक।
यान् मन्यसे समर्थांस्त्वं क्षिप्रं तानेव योजय ॥ १८ ॥

मूलम्

त्वमेव हयतत्त्वज्ञः कुशलो ह्यसि बाहुक।
यान् मन्यसे समर्थांस्त्वं क्षिप्रं तानेव योजय ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ऋतुपर्ण बोले— बाहुक! तुम अश्वविद्याके तत्त्वज्ञ और कुशल हो, अतः तुम जिन्हें इस कार्यमें समर्थ समझो, उन्हींको शीघ्र जोतो॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः सदश्वांश्चतुरः कुलशीलसमन्वितान् ।
योजयामास कुशलो जवयुक्तान् रथे नलः ॥ १९ ॥

मूलम्

ततः सदश्वांश्चतुरः कुलशीलसमन्वितान् ।
योजयामास कुशलो जवयुक्तान् रथे नलः ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब चतुर एवं कुशल राजा नलने अच्छी जाति और उत्तम स्वभावके चार वेगशाली घोड़ोंको रथमें जोता॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो युक्तं रथं राजा समारोहत् त्वरान्वितः।
अथ पर्यपतन् भूमौ जानुभिस्ते हयोत्तमाः ॥ २० ॥

मूलम्

ततो युक्तं रथं राजा समारोहत् त्वरान्वितः।
अथ पर्यपतन् भूमौ जानुभिस्ते हयोत्तमाः ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जुते हुए रथपर राजा ऋतुपर्ण बड़ी उतावलीके साथ सवार हुए। इसलिये उनके चढ़ते ही वे उत्तम घोड़े घुटनोंके बल पृथ्वीपर गिर पड़े॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो नरवरः श्रीमान् नलो राजा विशाम्पते।
सान्त्वयामास तानश्वांस्तेजोबलसमन्वितान् ॥ २१ ॥

मूलम्

ततो नरवरः श्रीमान् नलो राजा विशाम्पते।
सान्त्वयामास तानश्वांस्तेजोबलसमन्वितान् ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिर! तब नरश्रेष्ठ श्रीमान् राजा नलने तेज और बलसे सम्पन्न उन घोड़ोंको पुचकारा॥२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रश्मिभिश्च समुद्यम्य नलो यातुमियेष सः।
सूतमारोप्य वार्ष्णेयं जवमास्थाय वै परम् ॥ २२ ॥
ते चोद्यमाना विधिवद् बाहुकेन हयोत्तमाः।
समुत्पेतुरथाकाशं रथिनं मोहयन्निव ॥ २३ ॥

मूलम्

रश्मिभिश्च समुद्यम्य नलो यातुमियेष सः।
सूतमारोप्य वार्ष्णेयं जवमास्थाय वै परम् ॥ २२ ॥
ते चोद्यमाना विधिवद् बाहुकेन हयोत्तमाः।
समुत्पेतुरथाकाशं रथिनं मोहयन्निव ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

फिर अपने हाथमें बागडोर ले उन्हें काबूमें करके रथको आगे बढ़ानेकी इच्छा की। वार्ष्णेय सारथिको रथपर बैठाकर अत्यन्त वेगका आश्रय ले उन्होंने रथ हाँक दिया। बाहुकके द्वारा विधिपूर्वक हाँके जाते हुए वे उत्तम अश्व रथीको मोहित—से करते हुए इतने तीव्र वेगसे चले, मानो आकाशमें उड़ रहे हों॥२२-२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तथा तु दृष्ट्वा तानश्वान् वहतो वातरंहसः।
अयोध्याधिपतिः श्रीमान् विस्मयं परमं ययौ ॥ २४ ॥

मूलम्

तथा तु दृष्ट्वा तानश्वान् वहतो वातरंहसः।
अयोध्याधिपतिः श्रीमान् विस्मयं परमं ययौ ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस प्रकार वायुके समान वेगसे रथका वहन करनेवाले उन अश्वोंको देखकर श्रीमान् अयोध्यानरेशको बड़ा विस्मय हुआ॥२४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रथघोषं तु तं श्रुत्वा हयसंग्रहणं च तत्।
वार्ष्णेयश्चिन्तयामास बाहुकस्य हयज्ञताम् ॥ २५ ॥
किं नु स्यान्मातलिरयं देवराजस्य सारथिः।
तथा तल्लक्षणं वीरे बाहुके दृश्यते महत् ॥ २६ ॥

मूलम्

रथघोषं तु तं श्रुत्वा हयसंग्रहणं च तत्।
वार्ष्णेयश्चिन्तयामास बाहुकस्य हयज्ञताम् ॥ २५ ॥
किं नु स्यान्मातलिरयं देवराजस्य सारथिः।
तथा तल्लक्षणं वीरे बाहुके दृश्यते महत् ॥ २६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

रथकी आवाज सुनकर और घोड़ोंको काबूमें करनेकी वह कला देखकर वार्ष्णेयने बाहुकके अश्व-विज्ञानपर सोचना आरम्भ किया। ‘क्या यह देवराज इन्द्रका सारथि मातलि है? इस वीर बाहुकमें मातलिका-सा ही महान् लक्षण देखा जाता है॥२५-२६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शालिहोत्रोऽथ किं नु स्याद्धयानां कुलतत्त्ववित्।
मानुषं समनुप्राप्तो वपुः परमशोभनम् ॥ २७ ॥

मूलम्

शालिहोत्रोऽथ किं नु स्याद्धयानां कुलतत्त्ववित्।
मानुषं समनुप्राप्तो वपुः परमशोभनम् ॥ २७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘अथवा घोड़ोंकी जाति और उनके विषयकी तात्त्विक बातें जाननेवाले ये आचार्य शालिहोत्र तो नहीं हैं, जो परम सुन्दर मानव शरीर धारण करके यहाँ आ पहुँचे हैं॥२७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उताहोस्विद् भवेद् राजा नलः परपुरंजयः।
सोऽयं नृपतिरायात इत्येवं समचिन्तयत् ॥ २८ ॥

मूलम्

उताहोस्विद् भवेद् राजा नलः परपुरंजयः।
सोऽयं नृपतिरायात इत्येवं समचिन्तयत् ॥ २८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘अथवा शत्रुओंकी राजधानीपर विजय पानेवाले साक्षात् राजा नल ही तो इस रूपमें नहीं आ गये हैं? अवश्य वे ही हैं, इस प्रकार वार्ष्णेयने चिन्तन करना प्रारम्भ किया॥२८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथ चेह नलो विद्यां वेत्ति तामेव बाहुकः।
तुल्यं हि लक्षये ज्ञानं बाहुकस्य नलस्य च ॥ २९ ॥

मूलम्

अथ चेह नलो विद्यां वेत्ति तामेव बाहुकः।
तुल्यं हि लक्षये ज्ञानं बाहुकस्य नलस्य च ॥ २९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘राजा नल इस जगत्‌में जिस विद्याको जानते हैं, उसीको बाहुक भी जानता है। बाहुक और नल दोनोंका ज्ञान मुझे एक-सा दिखायी देता है॥२९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अपि चेदं वयस्तुल्यं बाहुकस्य नलस्य च।
नायं नलो महावीर्यस्तद्विद्यश्च भविष्यति ॥ ३० ॥

मूलम्

अपि चेदं वयस्तुल्यं बाहुकस्य नलस्य च।
नायं नलो महावीर्यस्तद्विद्यश्च भविष्यति ॥ ३० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘इसी प्रकार बाहुक और नलकी अवस्था भी एक है। यह महापराक्रमी राजा नल नहीं है तो भी उनके ही समान विद्वान् कोई दूसरा महापुरुष होगा॥३०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रच्छन्ना हि महात्मानश्चरन्ति पृथिवीमिमाम्।
दैवेन विधिना युक्ताः शास्त्रोक्तैश्च निरूपणैः ॥ ३१ ॥

मूलम्

प्रच्छन्ना हि महात्मानश्चरन्ति पृथिवीमिमाम्।
दैवेन विधिना युक्ताः शास्त्रोक्तैश्च निरूपणैः ॥ ३१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘बहुत-से महात्मा प्रच्छन्न रूप धारण करके देवोचित विधि तथा शास्त्रोक्त नियमोंसे युक्त होकर इस पृथ्वीपर विचरते रहते हैं॥३१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भवेन्न मतिभेदो मे गात्रवैरूप्यतां प्रति।
प्रमाणात् परिहीनस्तु भवेदिति मतिर्मम ॥ ३२ ॥

मूलम्

भवेन्न मतिभेदो मे गात्रवैरूप्यतां प्रति।
प्रमाणात् परिहीनस्तु भवेदिति मतिर्मम ॥ ३२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘इसके शरीरकी रूपहीनताको लक्ष्य करके मेरी बुद्धिमें यह भेद नहीं पैदा होता कि यह नल नहीं है, परंतु राजा नलकी जो मोटाई है, उससे यह कुछ दुबला-पतला है। उससे मेरे मनमें यह विचार होता है कि सम्भव है, यह नल न हो॥३२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वयःप्रमाणं तत्तुल्यं रूपेण तु विपर्ययः।
नलं सर्वगुणैर्युक्तं मन्ये बाहुकमन्ततः ॥ ३३ ॥

मूलम्

वयःप्रमाणं तत्तुल्यं रूपेण तु विपर्ययः।
नलं सर्वगुणैर्युक्तं मन्ये बाहुकमन्ततः ॥ ३३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘इसकी अवस्थाका प्रमाण तो उन्हींके समान है, परंतु रूपकी दृष्टिसे तो अन्तर पड़ता है। फिर भी अन्ततः मैं इसी निर्णयपर पहुँचता हूँ कि मेरी रायमें बाहुक सर्वगुणसम्पन्न राजा नल ही हैं’॥३३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं विचार्य बहुशो वार्ष्णेयः पर्यचिन्तयत्।
हृदयेन महाराज पुण्यश्लोकस्य सारथिः ॥ ३४ ॥

मूलम्

एवं विचार्य बहुशो वार्ष्णेयः पर्यचिन्तयत्।
हृदयेन महाराज पुण्यश्लोकस्य सारथिः ॥ ३४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाराज युधिष्ठिर! इस प्रकार पुण्यश्लोक नलके सारथि वार्ष्णेयने बार-बार उपर्युक्त रूपसे विचार करते हुए मन-ही-मन उक्त धारणा बना ली॥३४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ऋतुपर्णश्च राजेन्द्रो बाहुकस्य हयज्ञताम्।
चिन्तयन् मुमुदे राजा सहवार्ष्णेयसारथिः ॥ ३५ ॥

मूलम्

ऋतुपर्णश्च राजेन्द्रो बाहुकस्य हयज्ञताम्।
चिन्तयन् मुमुदे राजा सहवार्ष्णेयसारथिः ॥ ३५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाराज ऋतुपर्ण भी बाहुकके अश्वसंचालन-विषयक ज्ञानपर विचार करके वार्ष्णेय सारथिके साथ बहुत प्रसन्न हुए॥३५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ऐकाग्र्यं च तथोत्साहं हयसंग्रहणं च तत्।
परं यत्नं च सम्प्रेक्ष्य परां मुदमवाप ह ॥ ३६ ॥

मूलम्

ऐकाग्र्यं च तथोत्साहं हयसंग्रहणं च तत्।
परं यत्नं च सम्प्रेक्ष्य परां मुदमवाप ह ॥ ३६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उसकी वह एकाग्रता, वह उत्साह, घोड़ोंको काबूमें रखनेकी वह कला और वह उत्तम प्रयत्न देखकर उन्हें बड़ी प्रसन्नता प्राप्त हुई॥३६॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि नलोपाख्यानपर्वणि ऋतुपर्णविदर्भगमने एकसप्ततितमोऽध्यायः ॥ ७१ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्वके अन्तर्गत नलोपाख्यानपर्वमें ऋतुपर्णका विदर्भदेशमें गमनविषयक इकहत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ॥७१॥