भागसूचना
सप्ततितमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
पर्णादका दमयन्तीसे बाहुकरूपधारी नलका समाचार बताना और दमयन्तीका ऋतुपर्णके यहाँ सुदेव नामक ब्राह्मणको स्वयंवरका संदेश देकर भेजना
मूलम् (वचनम्)
बृहदश्व उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथ दीर्घस्य कालस्य पर्णादो नाम वै द्विजः।
प्रत्येत्य नगरं भैमीमिदं वचनमब्रवीत् ॥ १ ॥
मूलम्
अथ दीर्घस्य कालस्य पर्णादो नाम वै द्विजः।
प्रत्येत्य नगरं भैमीमिदं वचनमब्रवीत् ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
बृहदश्व मुनि कहते हैं— राजन्! तदनन्तर दीर्घ-कालके पश्चात् पर्णाद नामक ब्राह्मण विदर्भदेशकी राजधानीमें लौटकर आये और दमयन्तीसे इस प्रकार बोले—॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नैषधं मृगयानेन दमयन्ति मया नलम्।
अयोध्यां नगरीं गत्वा भाङ्गासुरिमुपस्थितः ॥ २ ॥
मूलम्
नैषधं मृगयानेन दमयन्ति मया नलम्।
अयोध्यां नगरीं गत्वा भाङ्गासुरिमुपस्थितः ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘दमयन्ती! मैं निषधनरेश नलको ढूँढ़ता हुआ अयोध्या नगरीमें गया और वहाँ राजा ऋतुपर्णके दरबारमें उपस्थित हुआ॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
श्रावितश्च मया वाक्यं त्वदीयं स महाजने।
ऋतुपर्णो महाभागो यथोक्तं वरवर्णिनि ॥ ३ ॥
तच्छ्रुत्वा नाब्रवीत् किंचिदृतुपर्णो नराधिपः।
न च पारिषदः कश्चिद् भाष्यमाणो मयासकृत् ॥ ४ ॥
मूलम्
श्रावितश्च मया वाक्यं त्वदीयं स महाजने।
ऋतुपर्णो महाभागो यथोक्तं वरवर्णिनि ॥ ३ ॥
तच्छ्रुत्वा नाब्रवीत् किंचिदृतुपर्णो नराधिपः।
न च पारिषदः कश्चिद् भाष्यमाणो मयासकृत् ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘वहाँ बहुत लोगोंकी भीड़में मैंने तुम्हारा वाक्य महाभाग ऋतुपर्णको सुनाया। वरवर्णिनि! उस बातको सुनकर राजा ऋतुपर्ण कुछ न बोले। मेरे बार-बार कहनेपर भी उनका कोई सभासद् भी इसका उत्तर न दे सका॥३-४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनुज्ञातं तु मां राज्ञा विजने कश्चिदब्रवीत्।
ऋतुपर्णस्य पुरुषो बाहुको नाम नामतः ॥ ५ ॥
मूलम्
अनुज्ञातं तु मां राज्ञा विजने कश्चिदब्रवीत्।
ऋतुपर्णस्य पुरुषो बाहुको नाम नामतः ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘परंतु ऋतुपर्णके यहाँ बाहुक नामधारी एक पुरुष है, उसने जब मैं राजासे विदा लेकर लौटने लगा, तब मुझसे एकान्तमें आकर तुम्हारी बातोंका उत्तर दिया॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सूतस्तस्य नरेन्द्रस्य विरूपो ह्रस्वबाहुकः।
शीघ्रयानेषु कुशलो मृष्टकर्ता च भोजने ॥ ६ ॥
मूलम्
सूतस्तस्य नरेन्द्रस्य विरूपो ह्रस्वबाहुकः।
शीघ्रयानेषु कुशलो मृष्टकर्ता च भोजने ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘वह महाराज ऋतुपर्णका सारथि है। उसकी भुजाएँ छोटी हैं तथा वह देखनेमें कुरूप भी है। वह घोड़ोंको शीघ्र हाँकनेमें कुशल है और अपने बनाये हुए भोजनमें बड़ा मिठास उत्पन्न कर देता है॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स विनिःश्वस्य बहुशो रुदित्वा च पुनः पुनः।
कुशलं चैव मां पृष्ट्वा पश्चादिदमभाषत ॥ ७ ॥
मूलम्
स विनिःश्वस्य बहुशो रुदित्वा च पुनः पुनः।
कुशलं चैव मां पृष्ट्वा पश्चादिदमभाषत ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘बाहुकने बार-बार लंबी साँसें खींचकर अनेक बार रोदन किया और मुझसे कुशल-समाचार पूछकर फिर वह इस प्रकार कहने लगा—॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वैषम्यमपि सम्प्राप्ता गोपायन्ति कुलस्त्रियः।
आत्मानमात्मना सत्यो जितः स्वर्गो न संशयः ॥ ८ ॥
मूलम्
वैषम्यमपि सम्प्राप्ता गोपायन्ति कुलस्त्रियः।
आत्मानमात्मना सत्यो जितः स्वर्गो न संशयः ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘उत्तम कुलकी स्त्रियाँ बड़े भारी संकटमें पड़कर भी स्वयं अपनी रक्षा करती हैं। ऐसा करके वे सत्य और स्वर्ग दोनोंपर विजय पा लेती हैं, इसमें संशय नहीं है॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रहिता भर्तृभिश्चैव न कुप्यन्ति कदाचन।
प्राणांश्चारित्रकवचान् धारयन्ति वरस्त्रियः ॥ ९ ॥
मूलम्
रहिता भर्तृभिश्चैव न कुप्यन्ति कदाचन।
प्राणांश्चारित्रकवचान् धारयन्ति वरस्त्रियः ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘श्रेष्ठ नारियाँ अपने पतियोंसे परित्यक्त होनेपर भी कभी क्रोध नहीं करतीं। वे सदाचाररूपी कवचसे आवृत प्राणोंको धारण करती हैं॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विषमस्थेन मूढेन परिभ्रष्टसुखेन च।
यत् सा तेन परित्यक्ता तत्र न क्रोद्धुमर्हति ॥ १० ॥
मूलम्
विषमस्थेन मूढेन परिभ्रष्टसुखेन च।
यत् सा तेन परित्यक्ता तत्र न क्रोद्धुमर्हति ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘वह पुरुष बड़े संकटमें था, सुखके साधनोंसे वंचित होकर किंकर्तव्यविमूढ हो गया था। ऐसी दशामें यदि उसने अपनी पत्नीका परित्याग किया है तो इसके लिये पत्नीको उसपर क्रोध नहीं करना चाहिये॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्राणयात्रां परिप्रेप्सोः शकुनैर्हृतवाससः ।
आधिभिर्दह्यमानस्य श्यामा न क्रोद्धुमर्हति ॥ ११ ॥
मूलम्
प्राणयात्रां परिप्रेप्सोः शकुनैर्हृतवाससः ।
आधिभिर्दह्यमानस्य श्यामा न क्रोद्धुमर्हति ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जीविका पानेके लिये चेष्टा करते समय पक्षियोंने जिसके वस्त्रका अपहरण कर लिया था और जो अनेक प्रकारकी मानसिक चिन्ताओंसे दग्ध हो रहा था, उस पुरुषपर श्यामाको क्रोध नहीं करना चाहिये॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सत्कृतासत्कृता वापि पतिं दृष्ट्वा तथागतम्।
भ्रष्टराज्यं श्रिया हीनं क्षुधितं व्यसनाप्लुतम् ॥ १२ ॥
मूलम्
सत्कृतासत्कृता वापि पतिं दृष्ट्वा तथागतम्।
भ्रष्टराज्यं श्रिया हीनं क्षुधितं व्यसनाप्लुतम् ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘पतिने उसका सत्कार किया हो या असत्कार—उसे चाहिये कि पतिको वैसे संकटमें पड़ा देखकर उसे क्षमा कर दे; क्योंकि वह राज्य और लक्ष्मीसे वंचित हो भूखसे पीड़ित एवं विपत्तिके अथाह सागरमें डूबा हुआ था’॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्य तद् वचनं श्रुत्वा त्वरितोऽहमिहागतः।
श्रुत्वा प्रमाणं भवती राज्ञश्चैव निवेदय ॥ १३ ॥
मूलम्
तस्य तद् वचनं श्रुत्वा त्वरितोऽहमिहागतः।
श्रुत्वा प्रमाणं भवती राज्ञश्चैव निवेदय ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘बाहुककी वह बात सुनकर मैं तुरंत यहाँ चला आया। यह सब सुनकर अब कर्तव्याकर्तव्यके निर्णयमें तुम्हीं प्रमाण हो। (तुम्हारी इच्छा हो तो) महाराजको भी ये बातें सूचित कर दो’॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतच्छ्रुत्वाश्रुपूर्णाक्षी पर्णादस्य विशाम्पते ।
दमयन्ती रहोऽभ्येत्य मातरं प्रत्यभाषत ॥ १४ ॥
मूलम्
एतच्छ्रुत्वाश्रुपूर्णाक्षी पर्णादस्य विशाम्पते ।
दमयन्ती रहोऽभ्येत्य मातरं प्रत्यभाषत ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिर! पर्णादका यह कथन सुनकर दमयन्तीके नेत्रोंमें आँसू भर आया। उसने एकान्तमें जाकर अपनी मातासे कहा—॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अयमर्थो न संवेद्यो भीमे मातः कदाचन।
त्वत्संनिधौ नियोक्ष्येऽहं सुदेवं द्विजसत्तमम् ॥ १५ ॥
यथा न नृपतिर्भीमः प्रतिपद्येत मे मतम्।
तथा त्वया प्रकर्तव्यं मम चेत् प्रियमिच्छसि ॥ १६ ॥
मूलम्
अयमर्थो न संवेद्यो भीमे मातः कदाचन।
त्वत्संनिधौ नियोक्ष्येऽहं सुदेवं द्विजसत्तमम् ॥ १५ ॥
यथा न नृपतिर्भीमः प्रतिपद्येत मे मतम्।
तथा त्वया प्रकर्तव्यं मम चेत् प्रियमिच्छसि ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘माँ! पिताजीको यह बात कदापि मालूम न होनी चाहिये। मैं तुम्हारे ही सामने विप्रवर सुदेवको इस कार्यमें लगाऊँगी। तुम ऐसी चेष्टा करो, जिससे पिताजीको मेरा विचार ज्ञात न हो। यदि तुम मेरा प्रिय करना चाहती हो तो तुम्हें इसके लिये सचेष्ट रहना होगा॥१५-१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथा चाहं समानीता सुदेवेनाशु बान्धवान्।
तेनैव मङ्गलेनाशु सुदेवो यातु मा चिरम् ॥ १७ ॥
समानेतुं नलं मातरयोध्यां नगरीमितः।
मूलम्
यथा चाहं समानीता सुदेवेनाशु बान्धवान्।
तेनैव मङ्गलेनाशु सुदेवो यातु मा चिरम् ॥ १७ ॥
समानेतुं नलं मातरयोध्यां नगरीमितः।
अनुवाद (हिन्दी)
‘जैसे सुदेवने मुझे यहाँ लाकर बन्धु-बान्धवोंसे शीघ्र मिला दिया, उसी मंगलमय उद्देश्यकी सिद्धिके लिये सुदेव ब्राह्मण फिर शीघ्र ही यहाँसे अयोध्या जायँ, देर न करें। माँ! वहाँ जानेका उद्देश्य है, महाराज नलको यहाँ ले आना’॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्रान्तं तु ततः पश्चात् पर्णादं द्विजसत्तमम् ॥ १८ ॥
अर्चयामास वैदर्भी धनेनातीव भाविनी।
नले चेहागते तत्र भूयो दास्यामि ते वसु ॥ १९ ॥
मूलम्
विश्रान्तं तु ततः पश्चात् पर्णादं द्विजसत्तमम् ॥ १८ ॥
अर्चयामास वैदर्भी धनेनातीव भाविनी।
नले चेहागते तत्र भूयो दास्यामि ते वसु ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इतनेहीमें विप्रवर पर्णाद जब विश्राम कर चुके, तब विदर्भराजकुमारी दमयन्तीने बहुत धन देकर उनका सत्कार किया और यह भी कहा—‘महाराज नलके यहाँ पधारनेपर मैं आपको और भी धन दूँगी॥१८-१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्वया हि मे बहु कृतं यदन्यो न करिष्यति।
यद् भर्त्राहं समेष्यामि शीघ्रमेव द्विजोत्तम ॥ २० ॥
मूलम्
त्वया हि मे बहु कृतं यदन्यो न करिष्यति।
यद् भर्त्राहं समेष्यामि शीघ्रमेव द्विजोत्तम ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘विप्रवर! आपने मेरा बहुत बड़ा उपकार किया, जो दूसरा नहीं कर सकता; क्योंकि अब मैं अपने स्वामीसे शीघ्र ही मिल सकूँगी’॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स एवमुक्तोऽथाश्वास्य आशीर्वादैः सुमङ्गलैः।
गृहानुपययौ चापि कृतार्थः सुमहामनाः ॥ २१ ॥
मूलम्
स एवमुक्तोऽथाश्वास्य आशीर्वादैः सुमङ्गलैः।
गृहानुपययौ चापि कृतार्थः सुमहामनाः ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
दमयन्तीके ऐसा कहनेपर अत्यन्त उदार हृदयवाले पर्णाद अपने परम मंगलमय आशीर्वादोंद्वारा उसे आश्वासन दे कृतार्थ हो अपने घर चले गये॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः सुदेवमाभाष्य दमयन्ती युधिष्ठिर।
अब्रवीत् संनिधौ मातुर्दुःखशोकसमन्विता ॥ २२ ॥
मूलम्
ततः सुदेवमाभाष्य दमयन्ती युधिष्ठिर।
अब्रवीत् संनिधौ मातुर्दुःखशोकसमन्विता ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिर! तदनन्तर दमयन्तीने सुदेव ब्राह्मणको बुलाकर अपनी माताके समीप दुःख-शोकसे पीड़ित होकर कहा—॥२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गत्वा सुदेव नगरीमयोध्यावासिनं नृपम्।
ऋतुपर्णं वचो ब्रूहि सम्पतन्निव कामगः ॥ २३ ॥
मूलम्
गत्वा सुदेव नगरीमयोध्यावासिनं नृपम्।
ऋतुपर्णं वचो ब्रूहि सम्पतन्निव कामगः ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘सुदेवजी! आप इच्छानुसार चलनेवाले द्रुतगामी पक्षीकी भाँति शीघ्रतापूर्वक अयोध्या नगरीमें जाकर वहाँके निवासी राजा ऋतुपर्णसे कहिये—॥२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आस्थास्यति पुनर्भैमी दमयन्ती स्वयंवरम्।
तत्र गच्छन्ति राजानो राजपुत्राश्च सर्वशः ॥ २४ ॥
मूलम्
आस्थास्यति पुनर्भैमी दमयन्ती स्वयंवरम्।
तत्र गच्छन्ति राजानो राजपुत्राश्च सर्वशः ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘भीमकुमारी दमयन्ती पुनः स्वयंवर करेगी। वहाँ बहुत-से राजा और राजकुमार सब ओरसे जा रहे हैं॥२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तथा च गणितः कालः श्वोभूते स भविष्यति।
यदि सम्भावनीयं ते गच्छ शीघ्रमरिंदम ॥ २५ ॥
मूलम्
तथा च गणितः कालः श्वोभूते स भविष्यति।
यदि सम्भावनीयं ते गच्छ शीघ्रमरिंदम ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘उसके लिये समय नियत हो चुका है। कल ही स्वयंवर होगा। शत्रुदमन! यदि आपका वहाँ पहुँचना सम्भव हो तो शीघ्र जाइये॥२५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सूर्योदये द्वितीयं सा भर्तारं वरयिष्यति।
न हि स ज्ञायते वीरो नलो जीवति वा न वा॥२६॥
मूलम्
सूर्योदये द्वितीयं सा भर्तारं वरयिष्यति।
न हि स ज्ञायते वीरो नलो जीवति वा न वा॥२६॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘कल सूर्योदय होनेके बाद वह दूसरे पतिका वरण कर लेगी; क्योंकि वीरवर नल जीवित हैं या नहीं, इसका कुछ पता नहीं लगता है’॥२६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं तया यथोक्तो वै गत्वा राजानमब्रवीत्।
ऋतुपर्णं महाराज सुदेवो ब्राह्मणस्तदा ॥ २७ ॥
मूलम्
एवं तया यथोक्तो वै गत्वा राजानमब्रवीत्।
ऋतुपर्णं महाराज सुदेवो ब्राह्मणस्तदा ॥ २७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाराज! दमयन्तीके इस प्रकार बतानेपर सुदेव ब्राह्मणने राजा ऋतुपर्णके पास जाकर वही बात कही॥२७॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि नलोपाख्यानपर्वणि दमयन्तीपुनःस्वयंवरकथने सप्ततितमोऽध्यायः ॥ ७० ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्वके अन्तर्गत नलोपाख्यानपर्वमें दमयन्तीके पुनः स्वयंवरकी चर्चासे सम्बन्ध रखनेवाला सत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ॥७०॥