भागसूचना
एकोनसप्ततितमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
दमयन्तीका अपने पिताके यहाँ जाना और वहाँसे नलको ढूँढ़नेके लिये अपना संदेश देकर ब्राह्मणोंको भेजना
मूलम् (वचनम्)
सुदेव उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
विदर्भराजो धर्मात्मा भीमो नाम महाद्युतिः।
सुतेयं तस्य कल्याणी दमयन्तीति विश्रुता ॥ १ ॥
मूलम्
विदर्भराजो धर्मात्मा भीमो नाम महाद्युतिः।
सुतेयं तस्य कल्याणी दमयन्तीति विश्रुता ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सुदेवने कहा— देवि! विदर्भदेशके राजा महा-तेजस्वी भीम बड़े धर्मात्मा हैं। यह उन्हींकी पुत्री है। इस कल्याणस्वरूपा राजकन्याका नाम दमयन्ती है॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
राजा तु नैषधो नाम वीरसेनसुतो नलः।
भार्येयं तस्य कल्याणी पुण्यश्लोकस्य धीमतः ॥ २ ॥
मूलम्
राजा तु नैषधो नाम वीरसेनसुतो नलः।
भार्येयं तस्य कल्याणी पुण्यश्लोकस्य धीमतः ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वीरसेनपुत्र नल निषधदेशके सुप्रसिद्ध राजा हैं। उन्हीं (परम) बुद्धिमान् पुण्यश्लोक नलकी यह कल्याणमयी पत्नी है॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स द्यूतेन जितो भ्रात्रा हृतराज्यो महीपतिः।
दमयन्त्या गतः सार्धं न प्राज्ञायत कस्यचित् ॥ ३ ॥
मूलम्
स द्यूतेन जितो भ्रात्रा हृतराज्यो महीपतिः।
दमयन्त्या गतः सार्धं न प्राज्ञायत कस्यचित् ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
एक दिन राजा नल अपने भाईके द्वारा जूएमें हार गये। उसीमें उनका सारा राज्य चला गया। वे दमयन्तीके साथ वनमें चले गये। तबसे अबतक किसीको उनका पता नहीं लगा॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ते वयं दमयन्त्यर्थे चरामः पृथिवीमिमाम्।
सेयमासादिता बाला तव पुत्रनिवेशने ॥ ४ ॥
मूलम्
ते वयं दमयन्त्यर्थे चरामः पृथिवीमिमाम्।
सेयमासादिता बाला तव पुत्रनिवेशने ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
हम अनेक ब्राह्मण दमयन्तीको ढूँढ़नेके लिये इस पृथ्वीपर विचर रहे हैं। आज आपके पुत्रके महलमें मुझे यह राजकुमारी मिली है॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अस्या रूपेण सदृशी मानुषी न हि विद्यते।
अस्या ह्येष भ्रुवोर्मध्ये सहजः पिप्लुरुत्तमः ॥ ५ ॥
मूलम्
अस्या रूपेण सदृशी मानुषी न हि विद्यते।
अस्या ह्येष भ्रुवोर्मध्ये सहजः पिप्लुरुत्तमः ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
रूपमें इसकी समानता करनेवाली कोई भी मानवकन्या नहीं है। इसके दोनों भौंहोंके बीच एक जन्मजात उत्तम तिलका चिह्न है॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
श्यामायाः पद्मसंकाशो लक्षितोऽन्तर्हितो मया।
मलेन संवृतो ह्यस्याश्छन्नोऽभ्रेणेव चन्द्रमाः ॥ ६ ॥
मूलम्
श्यामायाः पद्मसंकाशो लक्षितोऽन्तर्हितो मया।
मलेन संवृतो ह्यस्याश्छन्नोऽभ्रेणेव चन्द्रमाः ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मैंने देखा है, इस श्यामा राजकुमारीके ललाटमें वह कमलके समान चिह्न छिपा हुआ है। मेघमालासे ढँके हुए चन्द्रमाकी भाँति उसका वह चिह्न मैलसे ढक गया है॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
चिह्नभूतो विभूत्यर्थमयं धात्रा विनिर्मितः।
प्रतिपत्कलुषस्येन्दोर्लेखा नातिविराजते ॥ ७ ॥
न चास्या नश्यते रूपं वपुर्मलसमाचितम्।
असंस्कृतमभिव्यक्तं भाति काञ्चनसंनिभम् ॥ ८ ॥
अनेन वपुषा बाला पिप्लुनानेन सूचिता।
लक्षितेयं मया देवी निभृतोऽग्निरिवोष्मणा ॥ ९ ॥
मूलम्
चिह्नभूतो विभूत्यर्थमयं धात्रा विनिर्मितः।
प्रतिपत्कलुषस्येन्दोर्लेखा नातिविराजते ॥ ७ ॥
न चास्या नश्यते रूपं वपुर्मलसमाचितम्।
असंस्कृतमभिव्यक्तं भाति काञ्चनसंनिभम् ॥ ८ ॥
अनेन वपुषा बाला पिप्लुनानेन सूचिता।
लक्षितेयं मया देवी निभृतोऽग्निरिवोष्मणा ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
विधाताके द्वारा निर्मित यह चिह्न इसके भावी ऐश्वर्यका सूचक है। इस समय यह प्रतिपदाकी मलिन चन्द्रकलाके समान अधिक शोभा नहीं पा रही है। इसका सुवर्ण-जैसा सुन्दर शरीर मैलसे व्याप्त और संस्कारशून्य (मार्जन आदिसे रहित) होनेपर भी स्पष्ट रूपसे उद्भासित हो रहा है। इसका रूप-सौन्दर्य नष्ट नहीं हुआ है। जैसे छिपी हुई आग अपनी गरमीसे पहचान ली जाती है, उसी प्रकार यद्यपि देवी दमयन्ती मलिन शरीरसे युक्त है तो भी इस ललाटवर्ती तिलके चिह्नसे ही मैंने इसे पहचान लिया है॥७—९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तच्छ्रुत्वा वचनं तस्य सुदेवस्य विशाम्पते।
सुनन्दा शोधयामास पिप्लुप्रच्छादनं मलम् ॥ १० ॥
मूलम्
तच्छ्रुत्वा वचनं तस्य सुदेवस्य विशाम्पते।
सुनन्दा शोधयामास पिप्लुप्रच्छादनं मलम् ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिर! सुदेवका यह वचन सुनकर सुनन्दाने दमयन्तीके ललाटवर्ती चिह्नको ढँकनेवाली मैल धो दी॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स मलेनापकृष्टेन पिप्लुस्तस्या व्यरोचत।
दमयन्त्या यथा व्यभ्रे नभसीव निशाकरः ॥ ११ ॥
मूलम्
स मलेनापकृष्टेन पिप्लुस्तस्या व्यरोचत।
दमयन्त्या यथा व्यभ्रे नभसीव निशाकरः ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मैल धुल जानेपर उसके ललाटका वह चिह्न उसी प्रकार चमक उठा, जैसे बादलरहित आकाशमें चन्द्रमा प्रकाशित होता है॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पिप्लुं दृष्ट्वा सुनन्दा च राजमाता च भारत।
रुदत्यौ तां परिष्वज्य मुहूर्तमिव तस्थतुः ॥ १२ ॥
मूलम्
पिप्लुं दृष्ट्वा सुनन्दा च राजमाता च भारत।
रुदत्यौ तां परिष्वज्य मुहूर्तमिव तस्थतुः ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भारत! उस चिह्नको देखकर सुनन्दा और राजमाता दोनों रोने लगीं और दमयन्तीको हृदयसे लगाये दो घड़ीतक स्तब्ध खड़ी रहीं॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उत्सृज्य बाष्पं शनकै राजमातेदमब्रवीत्।
भगिन्या दुहिता मेऽसि पिप्लुनानेन सूचिता ॥ १३ ॥
मूलम्
उत्सृज्य बाष्पं शनकै राजमातेदमब्रवीत्।
भगिन्या दुहिता मेऽसि पिप्लुनानेन सूचिता ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तत्पश्चात् राजमाताने आँसू बहाते हुए धीरेसे कहा—‘बेटी! तुम मेरी बहिनकी पुत्री हो। इस चिह्नके कारण मैंने भी तुम्हें पहचान लिया॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अहं च तव माता च राज्ञस्तस्य महात्मनः।
सुते दशार्णाधिपतेः सुदाम्नश्चारुदर्शने ॥ १४ ॥
मूलम्
अहं च तव माता च राज्ञस्तस्य महात्मनः।
सुते दशार्णाधिपतेः सुदाम्नश्चारुदर्शने ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘सुन्दरी! मैं और तुम्हारी माता दोनों दशार्णदेशके स्वामी महामना राजा सुदामाकी पुत्रियाँ हैं॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भीमस्य राज्ञः सा दत्ता वीरबाहोरहं पुनः।
त्वं तु जाता मया दृष्टा दशार्णेषु पितुर्गृहे ॥ १५ ॥
मूलम्
भीमस्य राज्ञः सा दत्ता वीरबाहोरहं पुनः।
त्वं तु जाता मया दृष्टा दशार्णेषु पितुर्गृहे ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘तुम्हारी माँका ब्याह राजा भीमके साथ हुआ और मेरा चेदिराज वीरबाहुके साथ। तुम्हारा जन्म दशार्णदेशमें मेरे पिताके ही घरपर हुआ और मैंने अपनी आँखों देखा॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथैव ते पितुर्गेहं तथैव मम भामिनि।
यथैव च ममैश्वर्यं दमयन्ति तथा तव ॥ १६ ॥
मूलम्
यथैव ते पितुर्गेहं तथैव मम भामिनि।
यथैव च ममैश्वर्यं दमयन्ति तथा तव ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘भामिनि! तुम्हारे लिये जैसा पिताका घर है, वैसा ही मेरा घर है। दमयन्ती! यह सारा ऐश्वर्य जैसे मेरा है, उसी प्रकार तुम्हारा भी है’॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तां प्रहृष्टेन मनसा दमयन्ती विशाम्पते।
प्रणम्य मातुर्भगिनीमिदं वचनमब्रवीत् ॥ १७ ॥
मूलम्
तां प्रहृष्टेन मनसा दमयन्ती विशाम्पते।
प्रणम्य मातुर्भगिनीमिदं वचनमब्रवीत् ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिर! तब दमयन्तीने प्रसन्न हृदयसे अपनी मौसीको प्रणाम करके कहा—॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अज्ञायमानापि सती सुखमस्म्युषिता त्वयि।
सर्वकामैः सुविहिता रक्षयमाणा सदा त्वया ॥ १८ ॥
मूलम्
अज्ञायमानापि सती सुखमस्म्युषिता त्वयि।
सर्वकामैः सुविहिता रक्षयमाणा सदा त्वया ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘माँ! यद्यपि तुम मुझे पहचानती नहीं थी, तब भी मैं तुम्हारे यहाँ बड़े सुखसे रही हूँ। तुमने मेरी इच्छानुसार सारी सुविधाएँ कर दीं और सदा तुम्हारे द्वारा मेरी रक्षा होती रही॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुखात् सुखतरो वासो भविष्यति न संशयः।
चिरविप्रोषितां मातर्मामनुज्ञातुमर्हसि ॥ १९ ॥
मूलम्
सुखात् सुखतरो वासो भविष्यति न संशयः।
चिरविप्रोषितां मातर्मामनुज्ञातुमर्हसि ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘अब यदि मैं यहाँ रहूँ तो यह मेरे लिये अधिक-से-अधिक सुखदायक होगा, इसमें संशय नहीं है, किंतु मैं बहुत दिनोंसे प्रवासमें भटक रही हूँ, अतः माताजी! मुझे विदर्भ जानेकी आज्ञा दीजिये॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दारकौ च हि मे नीतौ वसतस्तत्र बालकौ।
पित्रा विहीनौ शोकार्तौ मया चैव कथं नु तौ॥२०॥
मूलम्
दारकौ च हि मे नीतौ वसतस्तत्र बालकौ।
पित्रा विहीनौ शोकार्तौ मया चैव कथं नु तौ॥२०॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘मैंने अपने बच्चोंको पहले ही कुण्डिनपुर भेज दिया था। वे वहीं रहते हैं। पितासे तो उनका वियोग हो ही गया है; मुझसे भी वे बिछुड़ गये हैं, ऐसी दशामें वे शोकार्त बालक कैसे रहते होंगे?॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदि चापि प्रियं किंचिन्मयि कर्तुमिहेच्छसि।
विदर्भान् यातुमिच्छामि शीघ्रं मे यानमादिश ॥ २१ ॥
बाढमित्येव तामुक्त्वा हृष्टा मातृष्वसा नृप।
गुप्तां बलेन महता पुत्रस्यानुमते ततः ॥ २२ ॥
प्रास्थापयद् राजमाता श्रीमतीं नरवाहिना।
यानेन भरतश्रेष्ठ स्वन्नपानपरिच्छदाम् ॥ २३ ॥
मूलम्
यदि चापि प्रियं किंचिन्मयि कर्तुमिहेच्छसि।
विदर्भान् यातुमिच्छामि शीघ्रं मे यानमादिश ॥ २१ ॥
बाढमित्येव तामुक्त्वा हृष्टा मातृष्वसा नृप।
गुप्तां बलेन महता पुत्रस्यानुमते ततः ॥ २२ ॥
प्रास्थापयद् राजमाता श्रीमतीं नरवाहिना।
यानेन भरतश्रेष्ठ स्वन्नपानपरिच्छदाम् ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘माँ! यदि तुम मेरा कुछ भी प्रिय करना चाहती हो तो मेरे लिये शीघ्र किसी सवारीकी व्यवस्था कर दो। मैं विदर्भदेश जाना चाहती हूँ।’ राजन्! तब ‘बहुत अच्छा’ कहकर दमयन्तीकी मौसीने प्रसन्नतापूर्वक अपने पुत्रकी राय लेकर सुन्दरी दमयन्तीको पालकीपर बिठाकर विदा किया। उसकी रक्षाके लिये बहुत बड़ी सेना दे दी। भरतश्रेष्ठ! राजमाताने दमयन्तीके साथ खाने-पीनेकी तथा अन्य आवश्यक सामग्रियोंकी अच्छी व्यवस्था कर दी॥२१—२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः सा न चिरादेव विदर्भानगमत् पुनः।
तां तु बन्धुजनः सर्वः प्रहृष्टः समपूजयत् ॥ २४ ॥
मूलम्
ततः सा न चिरादेव विदर्भानगमत् पुनः।
तां तु बन्धुजनः सर्वः प्रहृष्टः समपूजयत् ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर वहाँसे विदा हो वह थोड़े ही दिनोंमें विदर्भदेशकी राजधानीमें जा पहुँची। उसके आगमनसे माता-पिता आदि सभी बन्धु-बान्धव बड़े प्रसन्न हुए और सबने उसका स्वागत-सत्कार किया॥२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्वान् कुशलिनो दृष्ट्वा बान्धवान् दारकौ च तौ।
मातरं पितरं चोभौ सर्वं चैव सखीजनम् ॥ २५ ॥
देवताः पूजयामास ब्राह्मणांश्च यशस्विनी।
परेण विधिना देवी दमयन्ती विशाम्पते ॥ २६ ॥
मूलम्
सर्वान् कुशलिनो दृष्ट्वा बान्धवान् दारकौ च तौ।
मातरं पितरं चोभौ सर्वं चैव सखीजनम् ॥ २५ ॥
देवताः पूजयामास ब्राह्मणांश्च यशस्विनी।
परेण विधिना देवी दमयन्ती विशाम्पते ॥ २६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! समस्त बन्धु-बान्धवों, दोनों बच्चों, माता-पिता और सम्पूर्ण सखियोंको सकुशल देखकर यशस्विनी देवी दमयन्तीने उत्तम विधिके साथ देवताओं और ब्राह्मणोंका पूजन किया॥२५-२६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अतर्पयत् सुदेवं च गोसहस्रेण पार्थिवः।
प्रीतो दृष्ट्वैव तनयां ग्रामेण द्रविणेन च ॥ २७ ॥
मूलम्
अतर्पयत् सुदेवं च गोसहस्रेण पार्थिवः।
प्रीतो दृष्ट्वैव तनयां ग्रामेण द्रविणेन च ॥ २७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजा भीम अपनी पुत्रीको देखकर अत्यन्त प्रसन्न हुए। उन्होंने एक हजार गौ, एक गाँव तथा धन देकर सुदेव ब्राह्मणको संतुष्ट किया॥२७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सा व्युष्टा रजनीं तत्र पितुर्वेश्मनि भाविनी।
विश्रान्ता मातरं राजन्निदं वचनमब्रवीत् ॥ २८ ॥
मूलम्
सा व्युष्टा रजनीं तत्र पितुर्वेश्मनि भाविनी।
विश्रान्ता मातरं राजन्निदं वचनमब्रवीत् ॥ २८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिर! भाविनी दमयन्तीने उस रातमें पिताके घरमें विश्राम किया। सबेरा होनेपर उसने मातासे कहा—॥२८॥
मूलम् (वचनम्)
दमयन्त्युवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
मां चेदिच्छसि जीवन्तीं मातः सत्यं ब्रवीमि ते।
नलस्य नरवीरस्य यतस्वानयने पुनः ॥ २९ ॥
मूलम्
मां चेदिच्छसि जीवन्तीं मातः सत्यं ब्रवीमि ते।
नलस्य नरवीरस्य यतस्वानयने पुनः ॥ २९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
दमयन्ती बोली— माँ! यदि मुझे जीवित देखना चाहती हो तो मैं तुमसे सच कहती हूँ, नरवीर महाराज नलकी खोज करानेका पुनः प्रयत्न करो॥२९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दमयन्त्या तथोक्ता तु सा देवी भृशदुःखिता।
बाष्पेणापिहिता राज्ञी नोत्तरं किंचिदब्रवीत् ॥ ३० ॥
मूलम्
दमयन्त्या तथोक्ता तु सा देवी भृशदुःखिता।
बाष्पेणापिहिता राज्ञी नोत्तरं किंचिदब्रवीत् ॥ ३० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
दमयन्तीके ऐसा कहनेपर महारानीकी आँखें आँसुओंसे भर आयीं। वे अत्यन्त दुःखी हो गयीं और तत्काल उसे कोई उत्तर न दे सकीं॥३०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तदवस्थां तु तां दृष्ट्वा सर्वमन्तःपुरं तदा।
हाहाभूतमतीवासीद् भृशं च प्ररुरोद ह ॥ ३१ ॥
मूलम्
तदवस्थां तु तां दृष्ट्वा सर्वमन्तःपुरं तदा।
हाहाभूतमतीवासीद् भृशं च प्ररुरोद ह ॥ ३१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब महारानीकी यह दयनीय अवस्था देख उस समय सारे अन्तःपुरमें हाहाकार मच गया। सब-के-सब फूट-फूटकर रोने लगे॥३१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो भीमं महाराजं भार्या वचनमब्रवीत्।
दमयन्ती तव सुता भर्तारमनुशोचति ॥ ३२ ॥
मूलम्
ततो भीमं महाराजं भार्या वचनमब्रवीत्।
दमयन्ती तव सुता भर्तारमनुशोचति ॥ ३२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर महाराज भीमसे उनकी पत्नीने कहा—‘प्राणनाथ! आपकी पुत्री दमयन्ती अपने पतिके लिये निरन्तर शोकमें डूबी रहती है॥३२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अपकृष्य च लज्जां सा स्वयमुक्तवती नृप।
प्रयतन्तां तव प्रेष्याः पुण्यश्लोकस्य मार्गणे ॥ ३३ ॥
मूलम्
अपकृष्य च लज्जां सा स्वयमुक्तवती नृप।
प्रयतन्तां तव प्रेष्याः पुण्यश्लोकस्य मार्गणे ॥ ३३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘नरेश्वर! उसने लाज छोड़कर स्वयं अपने मुँहसे कहा है, अतः आपके सेवक पुण्यश्लोक महाराज नलका पता लगानेका प्रयत्न करें’॥३३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तया प्रदेशितो राजा ब्राह्मणान् वशवर्तिनः।
प्रास्थापयद् दिशः सर्वा यतध्वं नलमार्गणे ॥ ३४ ॥
मूलम्
तया प्रदेशितो राजा ब्राह्मणान् वशवर्तिनः।
प्रास्थापयद् दिशः सर्वा यतध्वं नलमार्गणे ॥ ३४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महारानीसे प्रेरित हो राजा भीमने अपने अधीनस्थ ब्राह्मणोंको यह कहकर सब दिशाओंमें भेजा कि ‘आपलोग नलको ढूँढ़नेकी चेष्टा करें’॥३४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो विदर्भाधिपतेर्नियोगाद् ब्राह्मणास्तदा ।
दमयन्तीमथो सृत्वा प्रस्थिताःस्मेत्यथाब्रुवन् ॥ ३५ ॥
मूलम्
ततो विदर्भाधिपतेर्नियोगाद् ब्राह्मणास्तदा ।
दमयन्तीमथो सृत्वा प्रस्थिताःस्मेत्यथाब्रुवन् ॥ ३५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तत्पश्चात् विदर्भनरेशकी आज्ञासे ब्राह्मणलोग प्रस्थित हो दमयन्तीके पास जाकर बोले—‘राजकुमारी! हम सब नलका पता लगाने जा रहे हैं (क्या आपको कुछ कहना है?)’॥३५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथ तानब्रवीद् भैमी सर्वराष्ट्रेष्विदं वचः।
ब्रुवध्वं जनसंसत्सु तत्र तत्र पुनः पुनः ॥ ३६ ॥
मूलम्
अथ तानब्रवीद् भैमी सर्वराष्ट्रेष्विदं वचः।
ब्रुवध्वं जनसंसत्सु तत्र तत्र पुनः पुनः ॥ ३६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब भीमकुमारीने उन ब्राह्मणोंसे कहा—‘सब राष्ट्रोंमें घूम-घूमकर जनसमुदायमें आपलोग बार-बार मेरी यह बात बोलें—॥३६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्व नु त्वं कितवच्छित्त्वा वस्त्रार्धं प्रस्थितो मम।
उत्सृज्य विपिने सुप्तामनुरक्तां प्रियां प्रिय ॥ ३७ ॥
मूलम्
क्व नु त्वं कितवच्छित्त्वा वस्त्रार्धं प्रस्थितो मम।
उत्सृज्य विपिने सुप्तामनुरक्तां प्रियां प्रिय ॥ ३७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘ओ जुआरी प्रियतम! तुम वनमें सोयी हुई और अपने पतिमें अनुराग रखनेवाली मुझ प्यारी पत्नीको छोड़कर तथा मेरे आधे वस्त्रको फाड़कर कहाँ चल दिये?॥३७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सा वै यथा त्वया दृष्टा तथाऽऽस्ते त्वत्प्रतीक्षिणी।
दह्यमाना भृशं बाला वस्त्रार्धेनाभिसंवृता ॥ ३८ ॥
मूलम्
सा वै यथा त्वया दृष्टा तथाऽऽस्ते त्वत्प्रतीक्षिणी।
दह्यमाना भृशं बाला वस्त्रार्धेनाभिसंवृता ॥ ३८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘उसे तुमने जिस अवस्थामें देखा था, उसी अवस्थामें वह आज भी है और तुम्हारे आगमनकी प्रतीक्षा कर रही है। आधे वस्त्रसे अपने शरीरको ढँककर वह युवती तुम्हारी विरहाग्निमें निरन्तर जल रही है॥३८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्या रुदत्याः सततं तेन शोकेन पार्थिव।
प्रसादं कुरु वै वीर प्रतिवाक्यं ददस्व च ॥ ३९ ॥
मूलम्
तस्या रुदत्याः सततं तेन शोकेन पार्थिव।
प्रसादं कुरु वै वीर प्रतिवाक्यं ददस्व च ॥ ३९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘वीर भूमिपाल! सदा तुम्हारे शोकसे रोती हुई अपनी उस प्यारी पत्नीपर पुनः कृपा करो और मुझे मेरी बातका उत्तर दो’॥३९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमन्यच्च वक्तव्यं कृपां कुर्याद् यथा मयि।
वायुना धूयमानो हि वनं दहति पावकः ॥ ४० ॥
मूलम्
एवमन्यच्च वक्तव्यं कृपां कुर्याद् यथा मयि।
वायुना धूयमानो हि वनं दहति पावकः ॥ ४० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘ब्राह्मणो! ये तथा और भी बहुत-सी ऐसी बातें आप कहें, जिससे वे मुझपर कृपा करें। वायुकी सहायतासे प्रज्वलित आग सारे वनको जला डालती है (इसी प्रकार विरहकी व्याकुलता मुझे जला रही है)॥४०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भर्तव्या रक्षणीया च पत्नी पत्या हि सर्वदा।
तन्नष्टमुभयं कस्माद् धर्मज्ञस्य सतस्तव ॥ ४१ ॥
मूलम्
भर्तव्या रक्षणीया च पत्नी पत्या हि सर्वदा।
तन्नष्टमुभयं कस्माद् धर्मज्ञस्य सतस्तव ॥ ४१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘प्राणनाथ! पतिको उचित है कि वह सदा अपनी पत्नीका भरण-पोषण एवं संरक्षण करे। आप धर्मज्ञ और साधु पुरुष हैं, आपके ये दोनों कर्तव्य सहसा नष्ट कैसे हो गये?॥४१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ख्यातः प्राज्ञः कुलीनश्च सानुक्रोशो भवान् सदा।
संवृत्तो निरनुक्रोशः शङ्के मद्भाग्यसंक्षयात् ॥ ४२ ॥
मूलम्
ख्यातः प्राज्ञः कुलीनश्च सानुक्रोशो भवान् सदा।
संवृत्तो निरनुक्रोशः शङ्के मद्भाग्यसंक्षयात् ॥ ४२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘आप विख्यात विद्वान्, कुलीन और सदा सबके प्रति दयाभाव रखनेवाले हैं, परंतु मेरे हृदयमें यह संदेह होने लगा है कि आप मेरा भाग्य नष्ट होनेके कारण मेरे प्रति निर्दय हो गये हैं॥४२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत् कुरुष्व नरव्याघ्र दयां मयि नरर्षभ।
आनृशंस्यं परो धर्मस्त्वत्त एव हि मे श्रुतः ॥ ४३ ॥
मूलम्
तत् कुरुष्व नरव्याघ्र दयां मयि नरर्षभ।
आनृशंस्यं परो धर्मस्त्वत्त एव हि मे श्रुतः ॥ ४३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘नरव्याघ्र! नरोत्तम! मुझपर दया करो। मैंने तुम्हारे ही मुखसे सुन रखा है कि दयालुता सबसे बड़ा धर्म है’॥४३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं ब्रुवाणान् यदि वः प्रतिब्रूयात् कथंचन।
स नरः सर्वथा ज्ञेयः कश्चासौ क्व नु वर्तते॥४४॥
मूलम्
एवं ब्रुवाणान् यदि वः प्रतिब्रूयात् कथंचन।
स नरः सर्वथा ज्ञेयः कश्चासौ क्व नु वर्तते॥४४॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘ब्राह्मणो! यदि आपके ऐसी बातें कहनेपर कोई किसी प्रकार भी आपको उत्तर दे तो उस मनुष्यका सब प्रकारसे परिचय प्राप्त कीजियेगा कि वह कौन है और कहाँ रहता है, इत्यादि॥४४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यश्चैवं वचनं श्रुत्वा ब्रूयात् प्रतिवचो नरः।
तदादाय वचस्तस्य ममावेद्यं द्विजोत्तमाः ॥ ४५ ॥
मूलम्
यश्चैवं वचनं श्रुत्वा ब्रूयात् प्रतिवचो नरः।
तदादाय वचस्तस्य ममावेद्यं द्विजोत्तमाः ॥ ४५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘विप्रवरो! आपके इन वचनोंको सुनकर जो कोई मनुष्य जैसा भी उत्तर दे, उसकी वह बात याद रखकर आपलोग मुझे बतावें॥४५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथा च वो न जानीयाद् ब्रुवतो मम शासनात्।
पुनरागमनं चैव तथा कार्यमतन्द्रितैः ॥ ४६ ॥
मूलम्
यथा च वो न जानीयाद् ब्रुवतो मम शासनात्।
पुनरागमनं चैव तथा कार्यमतन्द्रितैः ॥ ४६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘किसीको भी यह नहीं मालूम होना चाहिये कि आपलोग मेरी आज्ञासे ये बातें कह रहे हैं। जब कोई उत्तर मिल जाय, तब आप आलस्य छोड़कर पुनः यहाँ तुरंत लौट आवें॥४६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदि वासौ समृद्धः स्याद् यदि वाप्यधनो भवेत्।
यदि वाप्यसमर्थः स्याज्ज्ञेयमस्य चिकीर्षितम् ॥ ४७ ॥
मूलम्
यदि वासौ समृद्धः स्याद् यदि वाप्यधनो भवेत्।
यदि वाप्यसमर्थः स्याज्ज्ञेयमस्य चिकीर्षितम् ॥ ४७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘उत्तर देनेवाला पुरुष धनवान् हो या निर्धन, समर्थ हो या असमर्थ, वह क्या करना चाहता है, इस बातको जाननेका प्रयत्न कीजिये’॥४७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमुक्तास्त्वगच्छंस्ते ब्राह्मणाः सर्वतो दिशम्।
नलं मृगयितुं राजंस्तदा व्यसनिनं तथा ॥ ४८ ॥
ते पुराणि सराष्ट्राणि ग्रामान् घोषांस्तथाऽऽश्रमान्।
अन्वेषन्तो नलं राजन् नाधिजग्मुर्द्विजातयः ॥ ४९ ॥
मूलम्
एवमुक्तास्त्वगच्छंस्ते ब्राह्मणाः सर्वतो दिशम्।
नलं मृगयितुं राजंस्तदा व्यसनिनं तथा ॥ ४८ ॥
ते पुराणि सराष्ट्राणि ग्रामान् घोषांस्तथाऽऽश्रमान्।
अन्वेषन्तो नलं राजन् नाधिजग्मुर्द्विजातयः ॥ ४९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! दमयन्तीके ऐसा कहनेपर वे ब्राह्मण संकटमें पड़े हुए राजा नलको ढूँढ़नेके लिये सब दिशाओंकी ओर चले गये। युधिष्ठिर! उन ब्राह्मणोंने नगरों, राष्ट्रों, गाँवों, गोष्ठों तथा आश्रमोंमें भी नलका अन्वेषण किया; किंतु उन्हें कहीं भी उनका पता न लगा॥४८-४९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तच्च वाक्यं तथा सर्वे तत्र तत्र विशाम्पते।
श्रावयांचक्रिरे विप्रा दमयन्त्या यथेरितम् ॥ ५० ॥
मूलम्
तच्च वाक्यं तथा सर्वे तत्र तत्र विशाम्पते।
श्रावयांचक्रिरे विप्रा दमयन्त्या यथेरितम् ॥ ५० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाराज! दमयन्तीने जैसा बताया था, उस वाक्यको सभी ब्राह्मण भिन्न-भिन्न स्थानोंमें जाकर लोगोंको सुनाया करते थे॥५०॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि नलोपाख्यानपर्वणि नलान्वेषणे एकोनसप्ततितमोऽध्यायः ॥ ६९ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्वके अन्तर्गत नलोपाख्यानपर्वमें नलकी खोजविषयक उनहत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ॥६९॥