०६८ दमयन्तीसुदेवसंवादः

भागसूचना

अष्टषष्टितमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

विदर्भराजका नल-दमयन्तीकी खोजके लिये ब्राह्मणोंको भेजना, सुदेव ब्राह्मणका चेदिराजके भवनमें जाकर मन-ही-मन दमयन्तीके गुणोंका चिन्तन और उससे भेंट करना

मूलम् (वचनम्)

बृहदश्व उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

हृतराज्ये नले भीमः सभार्ये च वनं गते।
द्विजान् प्रस्थापयामास नलदर्शनकाङ्क्षया ॥ १ ॥

मूलम्

हृतराज्ये नले भीमः सभार्ये च वनं गते।
द्विजान् प्रस्थापयामास नलदर्शनकाङ्क्षया ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

बृहदश्व मुनि कहते हैं— राजन्! राज्यका अपहरण हो जानेपर जब राजा नल पत्नीसहित वनमें चले गये, तब विदर्भनरेश भीमने नलका पता लगानेके लिये बहुत-से ब्राह्मणोंको इधर-उधर भेजा॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

संदिदेश च तान् भीमो वसु दत्त्वा च पुष्कलम्।
मृगयध्वं नलं चैव दमयन्तीं च मे सुताम् ॥ २ ॥

मूलम्

संदिदेश च तान् भीमो वसु दत्त्वा च पुष्कलम्।
मृगयध्वं नलं चैव दमयन्तीं च मे सुताम् ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजा भीमने प्रचुर धन देकर ब्राह्मणोंको यह संदेश दिया—‘आपलोग राजा नल और मेरी पुत्री दमयन्तीकी खोज करें॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अस्मिन् कर्मणि सम्पन्ने विज्ञाते निषधाधिपे।
गवां सहस्रं दास्यामि यो वस्तावानयिष्यति ॥ ३ ॥

मूलम्

अस्मिन् कर्मणि सम्पन्ने विज्ञाते निषधाधिपे।
गवां सहस्रं दास्यामि यो वस्तावानयिष्यति ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘निषधनरेश नलका पता लग जानेपर जब यह कार्य सम्पन्न हो जायगा, तब मैं आपलोगोंमेंसे जो भी नल-दमयन्तीको यहाँ ले आयेगा, उसे एक हजार गौएँ दूँगा॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अग्रहारांश्च दास्यामि ग्रामं नगरसम्मितम्।
न चेच्छक्याविहानेतुं दमयन्ती नलोऽपि वा ॥ ४ ॥
ज्ञातमात्रेऽपि दास्यामि गवां दशशतं धनम्।

मूलम्

अग्रहारांश्च दास्यामि ग्रामं नगरसम्मितम्।
न चेच्छक्याविहानेतुं दमयन्ती नलोऽपि वा ॥ ४ ॥
ज्ञातमात्रेऽपि दास्यामि गवां दशशतं धनम्।

अनुवाद (हिन्दी)

‘साथ ही जीविकाके लिये अग्रहार (करमुक्त भूमि) दूँगा और ऐसा गाँव दे दूँगा, जो आयमें नगरके समान होगा। यदि नल-दमयन्तीमेंसे किसी एकको या दोनोंको ही यहाँ ले आना सम्भव न हो सके तो केवल उनका पता लग जानेपर भी मैं एक हजार गोधन दान करूँगा’॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इत्युक्तास्ते ययुर्हृष्टा ब्राह्मणाः सर्वतो दिशम् ॥ ५ ॥
पुरराष्ट्राणि चिन्वन्तो नैषधं सह भार्यया।
नैव क्वापि प्रपश्यन्ति नलं वा भीमपुत्रिकाम् ॥ ६ ॥
ततश्चेदिपुरीं रम्यां सुदेवो नाम वै द्विजः।
विचिन्वानोऽथ वैदर्भीमपश्यद् राजवेश्मनि ॥ ७ ॥

मूलम्

इत्युक्तास्ते ययुर्हृष्टा ब्राह्मणाः सर्वतो दिशम् ॥ ५ ॥
पुरराष्ट्राणि चिन्वन्तो नैषधं सह भार्यया।
नैव क्वापि प्रपश्यन्ति नलं वा भीमपुत्रिकाम् ॥ ६ ॥
ततश्चेदिपुरीं रम्यां सुदेवो नाम वै द्विजः।
विचिन्वानोऽथ वैदर्भीमपश्यद् राजवेश्मनि ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजाके ऐसा कहनेपर वे सब ब्राह्मण बड़े प्रसन्न होकर सब दिशाओंमें चले गये और नगर तथा राष्ट्रोंमें पत्नीसहित निषधनरेश नलका अनुसंधान करने लगे; परंतु कहीं भी वे नल अथवा भीमकुमारी दमयन्तीको नहीं देख पाते थे। तदनन्तर सुदेव नामक ब्राह्मणने पता लगाते हुए रमणीय चेदिनगरीमें जाकर वहाँ राजमहलमें विदर्भकुमारी दमयन्तीको देखा॥५—७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पुण्याहवाचने राज्ञः सुनन्दासहितां स्थिताम्।
मन्दं प्रख्यायमानेन रूपेणाप्रतिमेन ताम् ॥ ८ ॥
निबद्धां धूमजालेन प्रभामिव विभावसोः।
तां समीक्ष्य विशालाक्षीमधिकं मलिनां कृशाम्।
तर्कयामास भैमीति कारणैरुपपादयन् ॥ ९ ॥

मूलम्

पुण्याहवाचने राज्ञः सुनन्दासहितां स्थिताम्।
मन्दं प्रख्यायमानेन रूपेणाप्रतिमेन ताम् ॥ ८ ॥
निबद्धां धूमजालेन प्रभामिव विभावसोः।
तां समीक्ष्य विशालाक्षीमधिकं मलिनां कृशाम्।
तर्कयामास भैमीति कारणैरुपपादयन् ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वह राजाके पुण्याहवाचनके समय सुनन्दाके साथ खड़ी थी। उसका अनुपम रूप (मैलसे आवृत होनेके कारण) मन्द-मन्द प्रकाशित हो रहा था, मानो अग्निकी प्रभा धूमसमूहसे आवृत हो रही हो। विशाल नेत्रोंवाली उस राजकुमारीको अधिक मलिन और दुर्बल देख उपर्युक्त कारणोंसे उसकी पहचान करते हुए सुदेवने निश्चय किया कि यह भीमकुमारी दमयन्ती ही है॥८-९॥

मूलम् (वचनम्)

सुदेव उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथेयं मे पुरा दृष्टा तथारूपेयमङ्गना।
कृतार्थोऽस्म्यद्य दृष्ट्वेमां लोककान्तामिव श्रियम् ॥ १० ॥

मूलम्

यथेयं मे पुरा दृष्टा तथारूपेयमङ्गना।
कृतार्थोऽस्म्यद्य दृष्ट्वेमां लोककान्तामिव श्रियम् ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सुदेव मन-ही-मन बोले— मैंने पहले जिस रूपमें इस कल्याणमयी राजकन्याको देखा है, वैसी ही यह आज भी है। लोककमनीय लक्ष्मीकी भाँति इस भीमकुमारीको देखकर आज मैं कृतार्थ हो गया हूँ॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पूर्णचन्द्रनिभां श्यामां चारुवृत्तपयोधराम् ।
कुर्वन्तीं प्रभया देवीं सर्वा वितिमिरा दिशः ॥ ११ ॥

मूलम्

पूर्णचन्द्रनिभां श्यामां चारुवृत्तपयोधराम् ।
कुर्वन्तीं प्रभया देवीं सर्वा वितिमिरा दिशः ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यह श्यामा युवती पूर्ण चन्द्रमाके समान कान्तिमती है। इसके स्तन बड़े मनोहर हैं। यह देवी अपनी प्रभासे सम्पूर्ण दिशाओंको आलोकित कर रही है॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

चारुपद्मविशालाक्षीं मन्मथस्य रतीमिव ।
इष्टों समस्तलोकस्य पूर्णचन्द्रप्रभामिव ॥ १२ ॥

मूलम्

चारुपद्मविशालाक्षीं मन्मथस्य रतीमिव ।
इष्टों समस्तलोकस्य पूर्णचन्द्रप्रभामिव ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उसके बड़े-बड़े नेत्र मनोहर कमलोंकी शोभाको लज्जित कर रहे हैं। यह कामदेवकी रति-सी जान पड़ती है। पूर्णिमाके चन्द्रमाकी चाँदनीके समान यह सब लोगोंके लिये प्रिय है॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विदर्भसरसस्तस्माद् दैवदोषादिवोद्धताम् ।
मलपङ्कानुलिप्ताङ्गीं मृणालीमिव चोद्‌धृताम् ॥ १३ ॥
पौर्णमासीमिव निशां राहुग्रस्तनिशाकराम् ।
पतिशोकाकुलां दीनां शुष्कस्रोतां नदीमिव ॥ १४ ॥

मूलम्

विदर्भसरसस्तस्माद् दैवदोषादिवोद्धताम् ।
मलपङ्कानुलिप्ताङ्गीं मृणालीमिव चोद्‌धृताम् ॥ १३ ॥
पौर्णमासीमिव निशां राहुग्रस्तनिशाकराम् ।
पतिशोकाकुलां दीनां शुष्कस्रोतां नदीमिव ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

विदर्भरूपी सरोवरसे यह कमलिनी मानो प्रारब्धके दोषसे निकाल ली गयी है। इसके मलिन अंग कीचड़ लिपटी हुई नलिनीके समान प्रतीत होते हैं। यह उस पूर्णिमाकी रजनीके समान जान पड़ती है, जिसके चन्द्रमापर मानो राहुने ग्रहण लगा रखा हो। पति-शोकसे व्याकुल और दीन होनेके कारण यह सूखे जल-प्रवाहवाली सरिताके समान प्रतीत होती है॥१३-१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विध्वस्तपर्णकमलां वित्रासितविहंगमाम् ।
हस्तिहस्तपरामृष्टां व्याकुलामिव पद्मिनीम् ॥ १५ ॥

मूलम्

विध्वस्तपर्णकमलां वित्रासितविहंगमाम् ।
हस्तिहस्तपरामृष्टां व्याकुलामिव पद्मिनीम् ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसकी दशा उस पुष्करिणीके समान दिखायी देती है, जिसे हाथियोंने अपने शुण्डदण्डसे मथ डाला हो तथा जो नष्ट हुए पत्तोंवाले कमलसे युक्त हो एवं जिसके भीतर निवास करनेवाले पक्षी अत्यन्त भयभीत हो रहे हों। यह दुःखसे अत्यन्त व्याकुल-सी प्रतीत हो रही है॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुकुमारीं सुजाताङ्गीं रत्नगर्भगृहोचिताम् ।
दह्यमानामिवार्केण मृणालीमिव चोद्‌धृताम् ॥ १६ ॥

मूलम्

सुकुमारीं सुजाताङ्गीं रत्नगर्भगृहोचिताम् ।
दह्यमानामिवार्केण मृणालीमिव चोद्‌धृताम् ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मनोहर अंगोंवाली यह सुकुमारी राजकन्या उन महलोंमें रहनेयोग्य है, जिनका भीतरी भाग रत्नोंका बना हुआ है। (इस समय दुःखने इसे ऐसा दुर्बल कर दिया है कि) यह सरोवरसे निकाली और सूर्यकी किरणोंसे जलायी हुई कमलिनीके समान प्रतीत हो रही है॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रूपौदार्यगुणोपेतां मण्डनार्हाममण्डिताम् ।
चन्द्रलेखामिव नवां व्योम्नि नीलाभ्रसंवृताम् ॥ १७ ॥

मूलम्

रूपौदार्यगुणोपेतां मण्डनार्हाममण्डिताम् ।
चन्द्रलेखामिव नवां व्योम्नि नीलाभ्रसंवृताम् ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यह रूप और उदारता आदि गुणोंसे सम्पन्न है। शृंगार धारण करनेके योग्य होनेपर भी यह शृंगारशून्य है, मानो आकाशमें मेघोंकी काली घटासे आवृत नूतन चन्द्रकला हो॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कामभोगैः प्रियैर्हीनां हीनां बन्धुजनेन च।
देहं संधारयन्तीं हि भर्तृदर्शनकाङ्क्षया ॥ १८ ॥

मूलम्

कामभोगैः प्रियैर्हीनां हीनां बन्धुजनेन च।
देहं संधारयन्तीं हि भर्तृदर्शनकाङ्क्षया ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यह राजकन्या प्रिय कामभोगोंसे वंचित है। अपने बन्धुजनोंसे बिछुड़ी हुई है और पतिके दर्शनकी इच्छासे अपने (दीन-दुर्बल) शरीरको धारण कर रही है॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भर्ता नाम परं नार्या भूषणं भूषणैर्विना।
एषा हि रहिता तेन शोभमाना न शोभते ॥ १९ ॥

मूलम्

भर्ता नाम परं नार्या भूषणं भूषणैर्विना।
एषा हि रहिता तेन शोभमाना न शोभते ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वास्तवमें पति ही नारीका सबसे श्रेष्ठ आभूषण है। उसके होनेसे वह बिना आभूषणोंके सुशोभित होती है; परंतु यह पतिरूप आभूषणसे रहित होनेके कारण शोभामयी होकर भी सुशोभित नहीं हो रही है॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दुष्करं कुरुतेऽत्यन्तं हीनो यदनया नलः।
धारयत्यात्मनो देहं न शोकेनापि सीदति ॥ २० ॥

मूलम्

दुष्करं कुरुतेऽत्यन्तं हीनो यदनया नलः।
धारयत्यात्मनो देहं न शोकेनापि सीदति ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इससे विलग होकर राजा नल यदि अपने शरीरको धारण करते हैं और शोकसे शिथिल नहीं हो रहे हैं तो यह समझना चाहिये कि वे अत्यन्त दुष्कर कर्म कर रहे हैं॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इमामसितकेशान्तां शतपत्रायतेक्षणाम् ।
सुखार्हां दुःखितां दृष्ट्वा ममापि व्यथते मनः ॥ २१ ॥

मूलम्

इमामसितकेशान्तां शतपत्रायतेक्षणाम् ।
सुखार्हां दुःखितां दृष्ट्वा ममापि व्यथते मनः ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

काले-काले केशों और कमलके समान विशाल नेत्रोंसे सुशोभित इस राजकन्याको, जो सदा सुख भोगनेके ही योग्य है, दुःखित देखकर मेरे मनमें भी बड़ी व्यथा हो रही है॥२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कदा नु खलु दुःखस्य पारं यास्यति वै शुभा।
भर्तुः समागमात् साध्वी रोहिणी शशिनो यथा ॥ २२ ॥

मूलम्

कदा नु खलु दुःखस्य पारं यास्यति वै शुभा।
भर्तुः समागमात् साध्वी रोहिणी शशिनो यथा ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे रोहिणी चन्द्रमाके संयोगसे सुखी होती है, उसी प्रकार यह शुभलक्षणा साध्वी राजकुमारी अपने पतिके समागमसे (संतुष्ट हो) कब इस दुःखके समुद्रसे पार हो सकेगी॥२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अस्या नूनं पुनर्लाभान्नैषधः प्रीतिमेष्यति।
राजा राज्यपरिभ्रष्टः पुनर्लब्ध्वा च मेदिनीम् ॥ २३ ॥

मूलम्

अस्या नूनं पुनर्लाभान्नैषधः प्रीतिमेष्यति।
राजा राज्यपरिभ्रष्टः पुनर्लब्ध्वा च मेदिनीम् ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे कोई राजा एक बार अपने राज्यसे च्युत होकर फिर उसी राज्यभूमिको प्राप्त कर लेनेपर अत्यन्त आनन्दका अनुभव करता है, उसी प्रकार पुनः इसके मिल जानेपर निषधनरेश नलको निश्चय ही बड़ी प्रसन्नता होगी॥२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तुल्यशीलवयोयुक्तां तुल्याभिजनसंवृताम् ।
नैषधोऽर्हति वैदर्भीं तं चेयमसितेक्षणा ॥ २४ ॥

मूलम्

तुल्यशीलवयोयुक्तां तुल्याभिजनसंवृताम् ।
नैषधोऽर्हति वैदर्भीं तं चेयमसितेक्षणा ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

विदर्भकुमारी दमयन्ती राजा नलके समान शील और अवस्थासे युक्त है, उन्हींके तुल्य उत्तम कुलसे सुशोभित है। निषधनरेश नल विदर्भकुमारीके योग्य हैं और यह कजरारे नेत्रोंवाली वैदर्भी नलके योग्य है॥२४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

युक्तं तस्याप्रमेयस्य वीर्यसत्त्ववतो मया।
समाश्वासयितुं भार्यां पतिदर्शनलालसाम् ॥ २५ ॥

मूलम्

युक्तं तस्याप्रमेयस्य वीर्यसत्त्ववतो मया।
समाश्वासयितुं भार्यां पतिदर्शनलालसाम् ॥ २५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजा नलका पराक्रम और धैर्य असीम है। उनकी यह पत्नी पतिदर्शनके लिये लालायित और उत्कण्ठित है, अतः मुझे इससे मिलकर इसे आश्वासन देना चाहिये॥२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अहमाश्वासयाम्येनां पूर्णचन्द्रनिभाननाम् ।
अदृष्टपूर्वां दुःखस्य दुःखार्तां ध्यानतत्पराम् ॥ २६ ॥

मूलम्

अहमाश्वासयाम्येनां पूर्णचन्द्रनिभाननाम् ।
अदृष्टपूर्वां दुःखस्य दुःखार्तां ध्यानतत्पराम् ॥ २६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस पूर्णचन्द्रमुखी राजकुमारीने पहले कभी दुःखको नहीं देखा था। इस समय दुःखसे आतुर हो पतिके ध्यानमें परायण है, अतः मैं इसे आश्वासन देनेका विचार कर रहा हूँ॥२६॥

मूलम् (वचनम्)

बृहदश्व उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं विमृश्य विविधैः कारणैर्लक्षणैश्च ताम्।
उपागम्य ततो भैमीं सुदेवो ब्राह्मणोऽब्रवीत् ॥ २७ ॥
अहं सुदेवो वैदर्भि भ्रातुस्ते दयितः सखा।
भीमस्य वचनाद् राज्ञस्त्वामन्वेष्टुमिहागतः ॥ २८ ॥

मूलम्

एवं विमृश्य विविधैः कारणैर्लक्षणैश्च ताम्।
उपागम्य ततो भैमीं सुदेवो ब्राह्मणोऽब्रवीत् ॥ २७ ॥
अहं सुदेवो वैदर्भि भ्रातुस्ते दयितः सखा।
भीमस्य वचनाद् राज्ञस्त्वामन्वेष्टुमिहागतः ॥ २८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

बृहदश्व मुनि कहते हैं— युधिष्ठिर! इस प्रकार भाँति-भाँतिके कारणों और लक्षणोंसे दमयन्तीको पहचानकर और अपने कर्तव्यके विषयमें विचार करके सुदेव ब्राह्मण उसके समीप गये और इस प्रकार बोले—‘विदर्भराजकुमारी! मैं तुम्हारे भाईका प्रिय सखा सुदेव हूँ। महाराज भीमकी आज्ञासे तुम्हारी खोज करनेके लिये यहाँ आया हूँ॥२७-२८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कुशली ते पिता राज्ञि जननी भ्रातरश्च ते।
आयुष्मन्तौ कुशलिनौ तत्रस्थौ दारकौ च तौ ॥ २९ ॥

मूलम्

कुशली ते पिता राज्ञि जननी भ्रातरश्च ते।
आयुष्मन्तौ कुशलिनौ तत्रस्थौ दारकौ च तौ ॥ २९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘निषधदेशकी महारानी! तुम्हारे पिता, माता और भाई सब सकुशल हैं और कुण्डिनपुरमें जो तुम्हारे बालक हैं, वे भी कुशलसे हैं॥२९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्वत्कृते बन्धुवर्गाश्च गतसत्त्वा इवासते।
अन्वेष्टारो ब्राह्मणाश्च भ्रमन्ति शतशो महीम् ॥ ३० ॥

मूलम्

त्वत्कृते बन्धुवर्गाश्च गतसत्त्वा इवासते।
अन्वेष्टारो ब्राह्मणाश्च भ्रमन्ति शतशो महीम् ॥ ३० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘तुम्हारे बन्धु-बान्धव तुम्हारी ही चिन्तासे मृतक-तुल्य हो रहे हैं। (तुम्हारी खोज करनेके लिये) सैकड़ों ब्राह्मण इस पृथ्वीपर घूम रहे हैं’॥३०॥

मूलम् (वचनम्)

बृहदश्व उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

अभिज्ञाय सुदेवं तं दमयन्ती युधिष्ठिर।
पर्यपृच्छत तान् सर्वान् क्रमेण सुहृदः स्वकान् ॥ ३१ ॥

मूलम्

अभिज्ञाय सुदेवं तं दमयन्ती युधिष्ठिर।
पर्यपृच्छत तान् सर्वान् क्रमेण सुहृदः स्वकान् ॥ ३१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

बृहदश्व मुनि कहते हैं— युधिष्ठिर! सुदेवको पहचानकर दमयन्तीने क्रमशः अपने सभी सगे-सम्बन्धियोंका कुशल समाचार पूछा॥३१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रुरोद च भृशं राजन् वैदर्भी शोककर्शिता।
दृष्ट्वा सुदेवं सहसा भ्रातुरिष्टं द्विजोत्तमम् ॥ ३२ ॥
रुदतीं तामथो दृष्ट्वा सुनन्दा शोककर्शिता।
सुदेवेन सहैकान्ते कथयन्तीं च भारत ॥ ३३ ॥

मूलम्

रुरोद च भृशं राजन् वैदर्भी शोककर्शिता।
दृष्ट्वा सुदेवं सहसा भ्रातुरिष्टं द्विजोत्तमम् ॥ ३२ ॥
रुदतीं तामथो दृष्ट्वा सुनन्दा शोककर्शिता।
सुदेवेन सहैकान्ते कथयन्तीं च भारत ॥ ३३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! अपने भाईके प्रिय मित्र द्विजश्रेष्ठ सुदेवको सहसा आया देख दमयन्ती शोकसे व्याकुल हो फूट-फूटकर रोने लगी। भारत! तदनन्तर उसे सुदेवके साथ एकान्तमें बात करती तथा रोती देख सुनन्दा शोकसे व्याकुल हो उठी॥३२-३३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जनित्र्यै कथयामास सैरन्ध्री रोदितीति च।
ब्राह्मणेन सहागम्य तां वेद यदि मन्यसे ॥ ३४ ॥

मूलम्

जनित्र्यै कथयामास सैरन्ध्री रोदितीति च।
ब्राह्मणेन सहागम्य तां वेद यदि मन्यसे ॥ ३४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उसने अपनी मातासे जाकर कहा—‘माँ! सैरन्ध्री एक ब्राह्मणसे मिलकर बहुत रो रही है। यदि तुम ठीक समझो तो इसका कारण जाननेकी चेष्टा करो’॥३४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथ चेदिपतेर्माता राज्ञश्चान्तःपुरात् तदा।
जगाम यत्र सा बाला ब्राह्मणेन सहाभवत् ॥ ३५ ॥

मूलम्

अथ चेदिपतेर्माता राज्ञश्चान्तःपुरात् तदा।
जगाम यत्र सा बाला ब्राह्मणेन सहाभवत् ॥ ३५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर चेदिराजकी माता उस समय अन्तःपुरसे निकलकर उसी स्थानपर गयीं, जहाँ राजकन्या दमयन्ती ब्राह्मणके साथ खड़ी थी॥३५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः सुदेवमानाय्य राजमाता विशाम्पते।
पप्रच्छ भार्या कस्येयं सुता वा कस्य भाविनी ॥ ३६ ॥
कथं च नष्टा ज्ञातिभ्यो भर्तुर्वा वामलोचना।
त्वया च विदिता विप्र कथमेवंगता सती ॥ ३७ ॥

मूलम्

ततः सुदेवमानाय्य राजमाता विशाम्पते।
पप्रच्छ भार्या कस्येयं सुता वा कस्य भाविनी ॥ ३६ ॥
कथं च नष्टा ज्ञातिभ्यो भर्तुर्वा वामलोचना।
त्वया च विदिता विप्र कथमेवंगता सती ॥ ३७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिर! तब राजमाताने सुदेवको बुलाकर पूछा—‘विप्रवर! जान पड़ता है, तुम इसे जानते हो। बताओ, यह सुन्दरी युवती किसकी पत्नी अथवा किसकी पुत्री है? यह सुन्दर नेत्रोंवाली सुन्दरी अपने भाई-बन्धुओं अथवा पतिसे किस प्रकार विलग हुई है? यह सती-साध्वी नारी ऐसी दुरवस्थामें क्यों पड़ गयी?॥३६-३७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतदिच्छाम्यहं श्रोतुं त्वत्तः सर्वमशेषतः।
तत्त्वेन हि ममाचक्ष्व पृच्छन्त्या देवरूपिणीम् ॥ ३८ ॥

मूलम्

एतदिच्छाम्यहं श्रोतुं त्वत्तः सर्वमशेषतः।
तत्त्वेन हि ममाचक्ष्व पृच्छन्त्या देवरूपिणीम् ॥ ३८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘ब्रह्मन्! इस देवरूपिणी नारीके विषयमें यह सारा वृत्तान्त मैं पूर्णरूपसे सुनना चाहती हूँ। मैं जो कुछ पूछती हूँ, वह मुझे ठीक-ठीक बताओ’॥३८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमुक्तस्तया राजन् सुदेवो द्विजसत्तमः।
सुखोपविष्ट आचष्ट दमयन्त्या यथातथम् ॥ ३९ ॥

मूलम्

एवमुक्तस्तया राजन् सुदेवो द्विजसत्तमः।
सुखोपविष्ट आचष्ट दमयन्त्या यथातथम् ॥ ३९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! राजमाताके इस प्रकार पूछनेपर वे द्विजश्रेष्ठ सुदेव सुखपूर्वक बैठकर दमयन्तीका यथार्थ वृत्तान्त बताने लगे॥३९॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि नलोपाख्यानपर्वणि दमयन्तीसुदेवसंवादे अष्टषष्टितमोऽध्यायः ॥ ६८ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्वके अन्तर्गत नलोपाख्यानपर्वमें दमयन्ती-सुदेव-संवादविषयक अरसठवाँ अध्याय पूरा हुआ॥६८॥