०६७ अश्वाध्यक्षो नलः

भागसूचना

सप्तषष्टितमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

राजा नलका ऋतुपर्णके यहाँ अश्वाध्यक्षके पदपर नियुक्त होना और वहाँ दमयन्तीके लिये निरन्तर चिन्तित रहना तथा उनकी जीवलसे बातचीत

मूलम् (वचनम्)

बृहदश्व उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्मिन्नन्तर्हिते नागे प्रययौ नैषधो नलः।
ऋतुपर्णस्य नगरं प्राविशद् दशमेऽहनि ॥ १ ॥

मूलम्

तस्मिन्नन्तर्हिते नागे प्रययौ नैषधो नलः।
ऋतुपर्णस्य नगरं प्राविशद् दशमेऽहनि ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

बृहदश्व मुनि कहते हैं— कर्कोटक नागके अन्तर्धान हो जानेपर निषधनरेश नलने दसवें दिन राजा ऋतुपर्णके नगरमें प्रवेश किया॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स राजानमुपातिष्ठद् बाहुकोऽहमिति ब्रुवन्।
अश्वानां वाहने युक्तः पृथिव्यां नास्ति मत्समः ॥ २ ॥

मूलम्

स राजानमुपातिष्ठद् बाहुकोऽहमिति ब्रुवन्।
अश्वानां वाहने युक्तः पृथिव्यां नास्ति मत्समः ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे बाहुक नामसे अपना परिचय देते हुए राजा ऋतुपर्णके यहाँ उपस्थित हुए और बोले—‘घोड़ोंको हाँकनेकी कलामें इस पृथ्वीपर मेरे समान दूसरा कोई नहीं है॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अर्थकृच्छ्रेषु चैवाहं प्रष्टव्यो नैपुणेषु च।
अन्नसंस्कारमपि च जानाम्यन्यैर्विशेषतः ॥ ३ ॥

मूलम्

अर्थकृच्छ्रेषु चैवाहं प्रष्टव्यो नैपुणेषु च।
अन्नसंस्कारमपि च जानाम्यन्यैर्विशेषतः ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘मैं इन दिनों अर्थसंकटमें हूँ। आपको किसी भी कलाकी निपुणताके विषयमें सलाह लेनी हो तो मुझसे पूछ सकते हैं। अन्न-संस्कार (भाँतिं-भाँतिकी रसोई बनानेका कार्य) भी मैं दूसरोंकी अपेक्षा विशेष जानता हूँ॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यानि शिल्पानि लोकेऽस्मिन् यच्चैवान्यत् सुदुष्करम्।
सर्वं यतिष्ये तत् कर्तुमृतुपर्ण भरस्व माम् ॥ ४ ॥

मूलम्

यानि शिल्पानि लोकेऽस्मिन् यच्चैवान्यत् सुदुष्करम्।
सर्वं यतिष्ये तत् कर्तुमृतुपर्ण भरस्व माम् ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘इस जगत्‌में जितनी भी शिल्पकलाएँ हैं तथा दूसरे भी जो अत्यन्त कठिन कार्य हैं, मैं उन सबको अच्छी तरह करनेका प्रयत्न कर सकता हूँ। महाराज ऋतुपर्ण! आप मेरा भरण-पोषण कीजिये’॥४॥

मूलम् (वचनम्)

ऋतुपर्ण उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

वस बाहुक भद्रं ते सर्वमेतत् करिष्यसि।
शीघ्रयाने सदा बुद्धिर्ध्रियते मे विशेषतः ॥ ५ ॥

मूलम्

वस बाहुक भद्रं ते सर्वमेतत् करिष्यसि।
शीघ्रयाने सदा बुद्धिर्ध्रियते मे विशेषतः ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ऋतुपर्णने कहा— बाहुक! तुम्हारा भला हो। तुम मेरे यहाँ निवास करो। ये सब कार्य तुम्हें करने होंगे। मेरे मनमें सदा यही विचार विशेषतः रहता है कि मैं शीघ्रतापूर्वक कहीं भी पहुँच सकूँ॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स त्वमातिष्ठ योगं तं येन शीघ्रा हया मम।
भवेयुरश्वाध्यक्षोऽसि वेतनं ते शतं शतम् ॥ ६ ॥

मूलम्

स त्वमातिष्ठ योगं तं येन शीघ्रा हया मम।
भवेयुरश्वाध्यक्षोऽसि वेतनं ते शतं शतम् ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अतः तुम ऐसा उपाय करो, जिससे मेरे घोड़े शीघ्रगामी हो जायँ। आजसे तुम हमारे अश्वाध्यक्ष हो। दस हजार मुद्राएँ तुम्हारा वार्षिक वेतन है॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्वामुपस्थास्यतश्चैव नित्यं वार्ष्णेयजीवलौ ।
एताभ्यां रंस्यसे सार्धं वस वै मयि बाहुक ॥ ७ ॥

मूलम्

त्वामुपस्थास्यतश्चैव नित्यं वार्ष्णेयजीवलौ ।
एताभ्यां रंस्यसे सार्धं वस वै मयि बाहुक ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वार्ष्णेय और जीवल—ये दोनों सारथि तुम्हारी सेवामें रहेंगे। बाहुक! इन दोनोंके साथ तुम बड़े सुखसे रहोगे। तुम मेरे यहाँ रहो॥७॥

मूलम् (वचनम्)

बृहदश्व उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमुक्तो नलस्तेन न्यवसत् तत्र पूजितः।
ऋतुपर्णस्य नगरे सहवार्ष्णेयजीवलः ॥ ८ ॥

मूलम्

एवमुक्तो नलस्तेन न्यवसत् तत्र पूजितः।
ऋतुपर्णस्य नगरे सहवार्ष्णेयजीवलः ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

बृहदश्व मुनि कहते हैं— राजन्! राजाके ऐसा कहनेपर नल वार्ष्णेय और जीवलके साथ सम्मानपूर्वक ऋतुपर्णके नगरमें निवास करने लगे॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स वै तत्रावसद् राजा वैदर्भीमनुचिन्तयन्।
सायं सायं सदा चेमं श्लोकमेकं जगाद ह ॥ ९ ॥

मूलम्

स वै तत्रावसद् राजा वैदर्भीमनुचिन्तयन्।
सायं सायं सदा चेमं श्लोकमेकं जगाद ह ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे दमयन्तीका निरन्तर चिन्तन करते हुए वहाँ रहने लगे। वे प्रतिदिन सायंकाल इस एक श्लोकको पढ़ा करते थे—॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

क्व नु सा क्षुत्पिपासार्ता श्रान्ता शेते तपस्विनी।
स्मरन्ती तस्य मन्दस्य कं वा साद्योपतिष्ठति ॥ १० ॥

मूलम्

क्व नु सा क्षुत्पिपासार्ता श्रान्ता शेते तपस्विनी।
स्मरन्ती तस्य मन्दस्य कं वा साद्योपतिष्ठति ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘भूख-प्याससे पीड़ित और थकी-माँदी वह तपस्विनी उस मन्दबुद्धि पुरुषका स्मरण करती हुई कहाँ सोती होगी तथा अब वह किसके समीप रहती होगी?’॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं ब्रुवन्तं राजानं निशायां जीवलोऽब्रवीत्।
कामेनां शोचसे नित्यं श्रोतुमिच्छामि बाहुक ॥ ११ ॥

मूलम्

एवं ब्रुवन्तं राजानं निशायां जीवलोऽब्रवीत्।
कामेनां शोचसे नित्यं श्रोतुमिच्छामि बाहुक ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

एक दिन रात्रिके समय जब राजा इस प्रकार बोल रहे थे ‘जीवलने पूछा—बाहुक! तुम प्रतिदिन किस स्त्रीके लिये शोक करते हो, मैं सुनना चाहता हूँ॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आयुष्मन् कस्य वा नारी यामेवमनुशोचसि।
तमुवाच नलो राजा मन्दप्रज्ञस्य कस्यचित् ॥ १२ ॥
आसीद् बहुमता नारी तस्यादृढतरं वचः।
स वै केनचिदर्थेन तया मन्दो व्ययुज्यत ॥ १३ ॥

मूलम्

आयुष्मन् कस्य वा नारी यामेवमनुशोचसि।
तमुवाच नलो राजा मन्दप्रज्ञस्य कस्यचित् ॥ १२ ॥
आसीद् बहुमता नारी तस्यादृढतरं वचः।
स वै केनचिदर्थेन तया मन्दो व्ययुज्यत ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘आयुष्मन्! वह किसकी पत्नी है, जिसके लिये तुम इस प्रकार निरन्तर शोकमग्न रहते हो।’ तब राजा नलने उससे कहा—‘किसी अल्पबुद्धि पुरुषके एक स्त्री थी, जो उसके अत्यन्त आदरकी पात्र थी। किंतु उस पुरुषकी बात अत्यन्त दृढ़ नहीं थी। वह अपनी प्रतिज्ञासे फिसल गया। किसी विशेष प्रयोजनसे विवश होकर वह भाग्यहीन पुरुष अपनी पत्नीसे बिछुड़ गया॥१२-१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विप्रयुक्तः स मन्दात्मा भ्रमत्यसुखपीडितः।
दह्यमानः स शोकेन दिवारात्रमतन्द्रितः ॥ १४ ॥

मूलम्

विप्रयुक्तः स मन्दात्मा भ्रमत्यसुखपीडितः।
दह्यमानः स शोकेन दिवारात्रमतन्द्रितः ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘पत्नीसे विलग होकर वह मन्दबुद्धि मानव दिन-रात शोकाग्निसे दग्ध एवं दुःखसे पीड़ित होकर आलस्यसे रहित हो इधर-उधर भटकता रहता है॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

निशाकाले स्मरंस्तस्याः श्लोकमेकं स्म गायति।
स विभ्रमन् महीं सर्वां क्वचिदासाद्य किंचन ॥ १५ ॥
वसत्यनर्हस्तद् दुःखं भूय एवानुसंस्मरन्।

मूलम्

निशाकाले स्मरंस्तस्याः श्लोकमेकं स्म गायति।
स विभ्रमन् महीं सर्वां क्वचिदासाद्य किंचन ॥ १५ ॥
वसत्यनर्हस्तद् दुःखं भूय एवानुसंस्मरन्।

अनुवाद (हिन्दी)

‘रातमें उसीका स्मरण करके वह एक श्लोकको गाया करता है। सारी पृथ्वीका चक्कर लगाकर वह कभी किसी स्थानमें पहुँचा और वहीं निरन्तर उस प्रियतमाका स्मरण करके दुःख भोगता रहता है। यद्यपि वह उस दुःखको भोगनेके योग्य है नहीं॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सा तु तं पुरुषं नारी कृच्छ्रेऽप्यनुगता वने ॥ १६ ॥
त्यक्ता तेनाल्पपुण्येन दुष्करं यदि जीवति।
एका बालानभिज्ञा च मार्गाणामतथोचिता ॥ १७ ॥

मूलम्

सा तु तं पुरुषं नारी कृच्छ्रेऽप्यनुगता वने ॥ १६ ॥
त्यक्ता तेनाल्पपुण्येन दुष्करं यदि जीवति।
एका बालानभिज्ञा च मार्गाणामतथोचिता ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘वह नारी इतनी पतिव्रता थी कि संकटकालमें भी उस पुरुषके पीछे-पीछे वनमें चली गयी; किंतु उस अल्प पुण्यवाले पुरुषने उसे वनमें ही त्याग दिया। अब तो यदि वह जीवित होगी तो बड़े कष्टसे उसके दिन बीतते होंगे। वह स्त्री अकेली थी। उसे मार्गका ज्ञान नहीं था। जिस संकटमें वह पड़ी थी, उसके योग्य वह कदापि नहीं थी॥१६-१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

क्षुत्पिपासापरीताङ्गी दुष्करं यदि जीवति।
श्वापदाचरिते नित्यं वने महति दारुणे ॥ १८ ॥
त्यक्ता तेनाल्पभाग्येन मन्दप्रज्ञेन मारिष।
इत्येवं नैषधो राजा दमयन्तीमनुस्मरन्॥
अज्ञातवासं न्यवसद् राज्ञस्तस्य निवेशने ॥ १९ ॥

मूलम्

क्षुत्पिपासापरीताङ्गी दुष्करं यदि जीवति।
श्वापदाचरिते नित्यं वने महति दारुणे ॥ १८ ॥
त्यक्ता तेनाल्पभाग्येन मन्दप्रज्ञेन मारिष।
इत्येवं नैषधो राजा दमयन्तीमनुस्मरन्॥
अज्ञातवासं न्यवसद् राज्ञस्तस्य निवेशने ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘भूख और प्याससे उसके अंग व्याप्त हो रहे थे। उस दशामें परित्यक्त होकर वह यदि जीवित भी हो तो भी उसका जीवित रहना बहुत कठिन है। आर्य जीवल! अत्यन्त भयंकर विशाल वनमें जहाँ नित्य-निरन्तर हिंसक जन्तु विचरते रहते हैं, उस मन्दबुद्धि एवं मन्दभाग्य पुरुषने उसका त्याग कर दिया था।’ इस प्रकार निषधनरेश राजा नल दमयन्तीका निरन्तर स्मरण करते हुए राजा ऋतुपर्णके यहाँ अज्ञातवास कर रहे थे॥१८-१९॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि नलोपाख्यानपर्वणि नलविलापे सप्तषष्टितमोऽध्यायः ॥ ६७ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्वके अन्तर्गत नलोपाख्यानपर्वमें नलविलापविषयक सड़सठवाँ अध्याय पूरा हुआ॥६७॥