०६६ नलकर्कोटकसंवादः

भागसूचना

षट्‌षष्टितमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

राजा नलके द्वारा दावानलसे कर्कोटक नागकी रक्षा तथा नागद्वारा नलको आश्वासन

मूलम् (वचनम्)

बृहदश्व उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

उत्सृज्य दमयन्तीं तु नलो राजा विशाम्पते।
ददर्श दावं दह्यन्तं, महान्तं गहने वने ॥ १ ॥

मूलम्

उत्सृज्य दमयन्तीं तु नलो राजा विशाम्पते।
ददर्श दावं दह्यन्तं, महान्तं गहने वने ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

बृहदश्व मुनि कहते हैं— युधिष्ठिर! दमयन्तीको छोड़कर जब राजा नल आगे बढ़ गये, तब एक गहन वनमें उन्होंने महान् दावानल प्रज्वलित होते देखा॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत्र शुश्राव शब्दं वै मध्ये भूतस्य कस्यचित्।
अभिधाव नलेत्युच्चैः पुण्यश्लोकेति चासकृत् ॥ २ ॥
मा भैरिति नलश्चोक्त्वा मध्यमग्नेः प्रविश्य तम्।
ददर्श नागराजानं शयानं कुण्डलीकृतम् ॥ ३ ॥

मूलम्

तत्र शुश्राव शब्दं वै मध्ये भूतस्य कस्यचित्।
अभिधाव नलेत्युच्चैः पुण्यश्लोकेति चासकृत् ॥ २ ॥
मा भैरिति नलश्चोक्त्वा मध्यमग्नेः प्रविश्य तम्।
ददर्श नागराजानं शयानं कुण्डलीकृतम् ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उसीके बीचमें उन्हें किसी प्राणीका यह शब्द सुनायी पड़ा—‘पुण्यश्लोक महाराज नल! दौड़िये, मुझे बचाइये।’ उच्च स्वरसे बार-बार दुहरायी गयी इस वाणीको सुनकर राजा नलने कहा—‘डरो मत’। इतना कहकर वे आगके भीतर घुस गये। वहाँ उन्होंने देखा, एक नागराज कुण्डलाकार पड़ा हुआ सो रहा है॥२-३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स नागः प्राञ्जलिर्भूत्वा वेपमानो नलं तदा।
उवाच मां विद्धि राजन् नागं कर्कोटकं नृप ॥ ४ ॥
मया प्रलब्धो ब्रह्मर्षिर्नारदः सुमहातपाः।
तेन मन्युपरीतेन शप्तोऽस्मि मनुजाधिप ॥ ५ ॥
तिष्ठ त्वं स्थावर इव यावदेव नलः क्वचित्।
इतो नेता हि तत्र त्वं शापान्मोक्ष्यसि मत्कृतात् ॥ ६ ॥

मूलम्

स नागः प्राञ्जलिर्भूत्वा वेपमानो नलं तदा।
उवाच मां विद्धि राजन् नागं कर्कोटकं नृप ॥ ४ ॥
मया प्रलब्धो ब्रह्मर्षिर्नारदः सुमहातपाः।
तेन मन्युपरीतेन शप्तोऽस्मि मनुजाधिप ॥ ५ ॥
तिष्ठ त्वं स्थावर इव यावदेव नलः क्वचित्।
इतो नेता हि तत्र त्वं शापान्मोक्ष्यसि मत्कृतात् ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस नागने हाथ जोड़कर काँपते हुए नलसे उस समय इस प्रकार कहा—‘राजन्! मुझे कर्कोटक नाग समझिये। नरेश्वर! एक दिन मेरे द्वारा महातपस्वी ब्रह्मर्षि नारद ठगे गये, अतः मनुजेश्वर! उन्होंने क्रोधसे आविष्ट होकर मुझे शाप दे दिया—‘तुम स्थावर वृक्षकी भाँति एक जगह पड़े रहो, जब कभी राजा नल आकर तुम्हें यहाँसे अन्यत्र ले जायँगे, तभी तुम मेरे शापसे छुटकारा पा सकोगे’॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्य शापान्न शक्तोऽस्मि पदाद् विचलितुं पदम्।
उपदेक्ष्यामि ते श्रेयस्त्रातुमर्हति मां भवान् ॥ ७ ॥

मूलम्

तस्य शापान्न शक्तोऽस्मि पदाद् विचलितुं पदम्।
उपदेक्ष्यामि ते श्रेयस्त्रातुमर्हति मां भवान् ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘राजन्! नारदजीके उस शापसे मैं एक पग भी चल नहीं सकता; आप मुझे बचाइये, मैं आपको कल्याणकारी उपदेश दूँगा॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सखा च ते भविष्यामि मत्समो नास्ति पन्नगः।
लघुश्च ते भविष्यामि शीघ्रमादाय गच्छ माम् ॥ ८ ॥

मूलम्

सखा च ते भविष्यामि मत्समो नास्ति पन्नगः।
लघुश्च ते भविष्यामि शीघ्रमादाय गच्छ माम् ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘साथ ही मैं आपका मित्र हो जाऊँगा। सर्पोंमें मेरे-जैसा प्रभावशाली दूसरा कोई नहीं है। मैं आपके लिये हलका हो जाऊँगा। आप शीघ्र मुझे लेकर यहाँसे चल दीजिये’॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमुक्त्वा स नागेन्द्रो बभूवाङ्‌गुष्ठमात्रकः।
तं गृहीत्वा नलः प्रायाद् देशं दावविवर्जितम् ॥ ९ ॥

मूलम्

एवमुक्त्वा स नागेन्द्रो बभूवाङ्‌गुष्ठमात्रकः।
तं गृहीत्वा नलः प्रायाद् देशं दावविवर्जितम् ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इतना कहकर नागराज कर्कोटक अँगूठेके बराबर हो गया। उसे लेकर राजा नल वनके उस प्रदेशकी ओर चले गये, जहाँ दावानल नहीं था॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आकाशदेशमासाद्य विमुक्तं कृष्णवर्त्मना ।
उत्स्रष्टुकामं तं नागः पुनः कर्कोटकोऽब्रवीत् ॥ १० ॥

मूलम्

आकाशदेशमासाद्य विमुक्तं कृष्णवर्त्मना ।
उत्स्रष्टुकामं तं नागः पुनः कर्कोटकोऽब्रवीत् ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अग्निके प्रभावसे रहित आकाश-देशमें पहुँचनेपर जब नलने उस नागको छोड़नेका विचार किया, उस समय कर्कोटकने फिर कहा—॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पदानि गणयन् गच्छ स्वानि नैषध कानिचित्।
तत्र तेऽहं महाबाहो श्रेयो धास्यामि यत् परम् ॥ ११ ॥

मूलम्

पदानि गणयन् गच्छ स्वानि नैषध कानिचित्।
तत्र तेऽहं महाबाहो श्रेयो धास्यामि यत् परम् ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘नैषध! आप अपने कुछ पग गिनते हुए चलिये। महाबाहो! ऐसा करनेपर मैं आपके लिये परम कल्याणका साधन करूँगा’॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः संख्यातुमारब्धमदशद् दशमे पदे।
तस्य दष्टस्य तद् रूपं क्षिप्रमन्तरधीयत ॥ १२ ॥

मूलम्

ततः संख्यातुमारब्धमदशद् दशमे पदे।
तस्य दष्टस्य तद् रूपं क्षिप्रमन्तरधीयत ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब राजा नलने अपने पग गिनने आरम्भ किये। पग गिनते-गिनते जब राजा नलने ‘दश’ कहा, तब नागने उन्हें डँस लिया। उसके डँसते ही उनका पहला रूप तत्काल अन्तर्हित (होकर श्यामवर्ण) हो गया॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स दृष्ट्वा विस्मितस्तस्थावात्मानं विकृतं नलः।
स्वरूपधारिणं नागं ददर्श स महीपतिः ॥ १३ ॥

मूलम्

स दृष्ट्वा विस्मितस्तस्थावात्मानं विकृतं नलः।
स्वरूपधारिणं नागं ददर्श स महीपतिः ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अपने रूपको इस प्रकार विकृत (गौरवर्णसे श्यामवर्ण) हुआ देख राजा नलको बड़ा विस्मय हुआ। उन्होंने अपने पूर्वस्वरूपको धारण करके खड़े हुए कर्कोटक नागको देखा॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः कर्कोटको नागः सान्त्वयन् नलमब्रवीत्।
मया तेऽन्तर्हितं रूपं न त्वां विद्युर्जना इति ॥ १४ ॥

मूलम्

ततः कर्कोटको नागः सान्त्वयन् नलमब्रवीत्।
मया तेऽन्तर्हितं रूपं न त्वां विद्युर्जना इति ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब कर्कोटक नागने राजा नलको सान्त्वना देते हुए कहा—‘राजन्! मैंने आपके पहले रूपको इसलिये अदृश्य कर दिया है कि लोग आपको पहचान न सकें॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यत्कृते चासि निकृतो दुःखेन महता नल।
विषेण स मदीयेन त्वयि दुःखं निवत्स्यति ॥ १५ ॥

मूलम्

यत्कृते चासि निकृतो दुःखेन महता नल।
विषेण स मदीयेन त्वयि दुःखं निवत्स्यति ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘महाराज नल! जिस कलियुगके कपटसे आपको महान् दुःखका सामना करना पड़ा है, वह मेरे विषसे दग्ध होकर आपके भीतर बड़े कष्टसे निवास करेगा॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विषेण संवृतैर्गात्रैर्यावत् त्वां न विमोक्ष्यति।
तावत् त्वयि महाराज दुःखं वै स निवत्स्यति ॥ १६ ॥

मूलम्

विषेण संवृतैर्गात्रैर्यावत् त्वां न विमोक्ष्यति।
तावत् त्वयि महाराज दुःखं वै स निवत्स्यति ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘कलियुगके सारे अंग मेरे विषसे व्याप्त हो जायँगे। महाराज! वह जबतक आपको छोड़ नहीं देगा, तबतक आपके भीतर बड़े दुःखसे निवास करेगा॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अनागा येन निकृतस्त्वमनर्हो जनाधिप।
क्रोधादसूययित्वा तं रक्षा मे भवतः कृता ॥ १७ ॥

मूलम्

अनागा येन निकृतस्त्वमनर्हो जनाधिप।
क्रोधादसूययित्वा तं रक्षा मे भवतः कृता ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘नरेश्वर! आप छल-कपटद्वारा सताये जानेयोग्य नहीं थे, तो भी जिसने बिना किसी अपराधके आपके साथ कपटका व्यवहार किया है, उसीके प्रति क्रोधसे दोषदृष्टि रखकर मैंने आपकी रक्षा की है॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न ते भयं नरव्याघ्र दंष्ट्रिभ्यः शत्रुतोऽपि वा।
ब्रह्मविद्भ्यश्च भविता मत्प्रसादान्नराधिप ॥ १८ ॥

मूलम्

न ते भयं नरव्याघ्र दंष्ट्रिभ्यः शत्रुतोऽपि वा।
ब्रह्मविद्भ्यश्च भविता मत्प्रसादान्नराधिप ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘नरव्याघ्र महाराज! मेरे प्रसादसे आपको दाढ़ोंवाले जन्तुओं और शत्रुओंसे तथा वेदवेत्ताओंके शाप आदिसे भी कभी भय नहीं होगा॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

राजन् विषनिमित्ता च न ते पीडा भविष्यति।
संग्रामेषु च राजेन्द्र शश्वज्जयमवाप्स्यसि ॥ १९ ॥

मूलम्

राजन् विषनिमित्ता च न ते पीडा भविष्यति।
संग्रामेषु च राजेन्द्र शश्वज्जयमवाप्स्यसि ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘राजन्! आपको विषजनित पीड़ा कभी नहीं होगी। राजेन्द्र! आप युद्धमें भी सदा विजय प्राप्त करेंगे॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गच्छ राजन्नितः सूतो बाहुकोऽहमिति ब्रुवन्।
समीपमृतुपर्णस्य स हि चैवाक्षनैपुणः ॥ २० ॥

मूलम्

गच्छ राजन्नितः सूतो बाहुकोऽहमिति ब्रुवन्।
समीपमृतुपर्णस्य स हि चैवाक्षनैपुणः ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘राजन्! अब आप यहाँसे अपनेको बाहुक नामक सूत बताते हुए राजा ऋतुपर्णके समीप जाइये। वे द्यूतविद्यामें बड़े निपुण हैं॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अयोध्यां नगरीं रम्यामद्य वै निषधेश्वर।
स तेऽक्षहृदयं दाता राजाश्वहृदयेन वै ॥ २१ ॥
इक्ष्वाकुकुलजः श्रीमान् मित्रं चैव भविष्यति।
भविष्यसि यदाक्षज्ञः श्रेयसा योक्ष्यसे तदा ॥ २२ ॥

मूलम्

अयोध्यां नगरीं रम्यामद्य वै निषधेश्वर।
स तेऽक्षहृदयं दाता राजाश्वहृदयेन वै ॥ २१ ॥
इक्ष्वाकुकुलजः श्रीमान् मित्रं चैव भविष्यति।
भविष्यसि यदाक्षज्ञः श्रेयसा योक्ष्यसे तदा ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘निषधेश्वर! आप आज ही रमणीय अयोध्यापुरीको चले जाइये। इक्ष्वाकुकुलमें उत्पन्न श्रीमान् राजा ऋतुपर्ण आपसे अश्वविद्याका रहस्य सीखकर बदलेमें आपको द्यूतक्रीड़ाका रहस्य बतलायेंगे और आपके मित्र भी हो जायँगे। जब आप द्यूतविद्याके ज्ञाता होंगे, तब पुनः कल्याणभागी हो जायँगे॥२१-२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सममेष्यसि दारैस्त्वं मा स्म शोके मनः कृथाः।
राज्येन तनयाभ्यां च सत्यमेतद् ब्रवीमि ते ॥ २३ ॥

मूलम्

सममेष्यसि दारैस्त्वं मा स्म शोके मनः कृथाः।
राज्येन तनयाभ्यां च सत्यमेतद् ब्रवीमि ते ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘मैं सच कहता हूँ, आप एक ही साथ अपनी पत्नी, दोनों संतानों तथा राज्यको प्राप्त कर लेंगे; अतः अपने मनमें चिन्ता न कीजिये॥२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्वं रूपं च यदा द्रष्टुमिच्छेथास्त्वं नराधिप।
संस्मर्तव्यस्तदा तेऽहं वासश्चेदं निवासयेः ॥ २४ ॥

मूलम्

स्वं रूपं च यदा द्रष्टुमिच्छेथास्त्वं नराधिप।
संस्मर्तव्यस्तदा तेऽहं वासश्चेदं निवासयेः ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘नरेश्वर! जब आप अपने (पहलेवाले) रूपको देखना चाहें, उस समय मेरा स्मरण करें और इस कपड़ेको ओढ़ लें॥२४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अनेन वाससाच्छन्नः स्वं रूपं प्रतिपत्स्यसे।
इत्युक्त्वा प्रददौ तस्मै दिव्यं वासोयुगं तदा ॥ २५ ॥

मूलम्

अनेन वाससाच्छन्नः स्वं रूपं प्रतिपत्स्यसे।
इत्युक्त्वा प्रददौ तस्मै दिव्यं वासोयुगं तदा ॥ २५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘इस वस्त्रसे आच्छादित होते ही आप अपना पहला रूप प्राप्त कर लेंगे।’ ऐसा कहकर नागने उन्हें दो दिव्य वस्त्र प्रदान किये॥२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं नलं च संदिश्य वासो दत्त्वा च कौरव।
नागराजस्ततो राजंस्तत्रैवान्तरधीयत ॥ २६ ॥

मूलम्

एवं नलं च संदिश्य वासो दत्त्वा च कौरव।
नागराजस्ततो राजंस्तत्रैवान्तरधीयत ॥ २६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कुरुनन्दन युधिष्ठिर! इस प्रकार राजा नलको संदेश और वस्त्र देकर नागराज कर्कोटक वहीं अन्तर्धान हो गया॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि नलोपाख्यानपर्वणि नलकर्कोटकसंवादे षट्‌षष्टितमोऽध्यायः ॥ ६६ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्वके अन्तर्गत नलोपाख्यानपर्वमें नलकर्कोटकसंवादविषयक छाछठवाँ अध्याय पूरा हुआ॥६६॥