०६१ नलेन वनगमनम्

भागसूचना

एकषष्टितमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

नलका जूएमें हारकर दमयन्तीके साथ वनको जाना और पक्षियोंद्वारा आपद्ग्रस्त नलके वस्त्रका अपहरण

मूलम् (वचनम्)

बृहदश्व उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततस्तु याते वार्ष्णेये पुण्यश्लोकस्य दीव्यतः।
पुष्करेण हृतं राज्यं यच्चान्यद् वसु किंचन ॥ १ ॥

मूलम्

ततस्तु याते वार्ष्णेये पुण्यश्लोकस्य दीव्यतः।
पुष्करेण हृतं राज्यं यच्चान्यद् वसु किंचन ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

बृहदश्व मुनि कहते हैं— युधिष्ठिर! तदनन्तर वार्ष्णेयके चले जानेपर जूआ खेलनेवाले पुण्यश्लोक महाराज नलके सारे राज्य और जो कुछ धन था, उन सबका जूएमें पुष्करने अपहरण कर लिया॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

हृतराज्यं नलं राजन् प्रहसन् पुष्करोऽब्रवीत्।
द्यूतं प्रवर्ततां भूयः प्रतिपाणोऽस्ति कस्तव ॥ २ ॥

मूलम्

हृतराज्यं नलं राजन् प्रहसन् पुष्करोऽब्रवीत्।
द्यूतं प्रवर्ततां भूयः प्रतिपाणोऽस्ति कस्तव ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! राज्य हार जानेपर नलसे पुष्करने हँसते हुए कहा कि ‘क्या फिर जूआ आरम्भ हो? अब तुम्हारे पास दाँवपर लगानेके लिये क्या है?’॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शिष्टा ते दमयन्त्येका सर्वमन्यज्जितं मया।
दमयन्त्याः पणः साधु वर्ततां यदि मन्यसे ॥ ३ ॥

मूलम्

शिष्टा ते दमयन्त्येका सर्वमन्यज्जितं मया।
दमयन्त्याः पणः साधु वर्ततां यदि मन्यसे ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘तुम्हारे पास केवल दमयन्ती शेष रह गयी है और सब वस्तुएँ तो मैंने जीत ली हैं, यदि तुम्हारी राय हो तो दमयन्तीको दाँवपर रखकर एक बार फिर जूआ खेला जाय’॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पुष्करेणैवमुक्तस्य पुण्यश्लोकस्य मन्युना ।
व्यदीर्यतेव हृदयं न चैनं किंचिदब्रवीत् ॥ ४ ॥

मूलम्

पुष्करेणैवमुक्तस्य पुण्यश्लोकस्य मन्युना ।
व्यदीर्यतेव हृदयं न चैनं किंचिदब्रवीत् ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पुष्करके ऐसा कहनेपर पुण्यश्लोक महाराज नलका हृदय शोकसे विदीर्ण-सा हो गया, परंतु उन्होंने उससे कुछ कहा नहीं॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः पुष्करमालोक्य नलः परममन्युमान्।
उत्सृज्य सर्वगात्रेभ्यो भूषणानि महायशाः ॥ ५ ॥
एकवासा ह्यसंवीतः सुहृच्छोकविवर्धनः ।
निश्चक्राम ततो राजा त्यक्त्वा सुविपुलां श्रियम् ॥ ६ ॥

मूलम्

ततः पुष्करमालोक्य नलः परममन्युमान्।
उत्सृज्य सर्वगात्रेभ्यो भूषणानि महायशाः ॥ ५ ॥
एकवासा ह्यसंवीतः सुहृच्छोकविवर्धनः ।
निश्चक्राम ततो राजा त्यक्त्वा सुविपुलां श्रियम् ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर महायशस्वी नलने अत्यन्त दुःखित हो पुष्करकी ओर देखकर अपने सब अंगोंके आभूषण उतार दिये और केवल एक अधोवस्त्र धारण करके चादर ओढ़े बिना ही अपनी विशाल सम्पत्तिको त्यागकर सुहृदोंका शोक बढ़ाते हुए वे राजभवनसे निकल पड़े॥५-६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दमयन्त्येकवस्त्राथ गच्छन्तं पृष्ठतोऽन्वगात् ।
स तया बाह्यतः सार्धं त्रिरात्रं नैषधोऽवसत् ॥ ७ ॥

मूलम्

दमयन्त्येकवस्त्राथ गच्छन्तं पृष्ठतोऽन्वगात् ।
स तया बाह्यतः सार्धं त्रिरात्रं नैषधोऽवसत् ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

दमयन्तीके शरीरपर भी एक ही वस्त्र था। वह जाते हुए राजा नलके पीछे हो ली। वे उसके साथ नगरसे बाहर तीन राततक टिके रहे॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पुष्करस्तु महाराज घोषयामास वै पुरे।
नले यः सम्यगातिष्ठेत् स गच्छेद् वध्यतां मम ॥ ८ ॥

मूलम्

पुष्करस्तु महाराज घोषयामास वै पुरे।
नले यः सम्यगातिष्ठेत् स गच्छेद् वध्यतां मम ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाराज! पुष्करने उस नगरमें यह घोषणा करा दी—डुग्गी पिटवा दी कि ‘जो नलके साथ अच्छा बर्ताव करेगा, वह मेरा वध्य होगा’॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पुष्करस्य तु वाक्येन तस्य विद्वेषणेन च।
पौरा न तस्य सत्कारं कृतवन्तो युधिष्ठिर ॥ ९ ॥

मूलम्

पुष्करस्य तु वाक्येन तस्य विद्वेषणेन च।
पौरा न तस्य सत्कारं कृतवन्तो युधिष्ठिर ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिर! पुष्करके उस वचनसे और नलके प्रति पुष्करका द्वेष होनेसे पुरवासियोंने राजा नलका कोई सत्कार नहीं किया॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स तथा नगराभ्याशे सत्कारार्हो न सस्कृतः।
त्रिरात्रमुषितो राजा जलमात्रेण वर्तयन् ॥ १० ॥

मूलम्

स तथा नगराभ्याशे सत्कारार्हो न सस्कृतः।
त्रिरात्रमुषितो राजा जलमात्रेण वर्तयन् ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार राजा नल अपने नगरके समीप तीन राततक केवल जलमात्रका आहार करके टिके रहे। वे सर्वथा सत्कारके योग्य थे तो भी उनका सत्कार नहीं किया गया॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पीड्यमानः क्षुधा तत्र फलमूलानि कर्षयन्।
प्रातिष्ठत ततो राजा दमयन्ती तमन्वगात् ॥ ११ ॥

मूलम्

पीड्यमानः क्षुधा तत्र फलमूलानि कर्षयन्।
प्रातिष्ठत ततो राजा दमयन्ती तमन्वगात् ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वहाँ भूखसे पीड़ित हो फल-मूल आदि जुटाते हुए राजा नल वहाँसे अन्यत्र चले गये। केवल दमयन्ती उनके पीछे-पीछे गयी॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

क्षुधया पीड्यमानस्तु नलो बहुतिथेऽहनि।
अपश्यच्छकुनान्‌ कांश्चिद्धिरण्यसदृशच्छदान् ॥ १२ ॥

मूलम्

क्षुधया पीड्यमानस्तु नलो बहुतिथेऽहनि।
अपश्यच्छकुनान्‌ कांश्चिद्धिरण्यसदृशच्छदान् ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसी प्रकार नल बहुत दिनोंतक क्षुधासे पीड़ित रहे। एक दिन उन्होंने कुछ ऐसे पक्षी देखे, जिनकी पाँखें सोनेकी-सी थीं॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स चिन्तयामास तदा निषधाधिपतिर्बली।
अस्ति भक्ष्यो ममाद्यायं वसु चेदं भविष्यति ॥ १३ ॥

मूलम्

स चिन्तयामास तदा निषधाधिपतिर्बली।
अस्ति भक्ष्यो ममाद्यायं वसु चेदं भविष्यति ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन्हें देखकर (क्षुधातुर और आपत्तिग्रस्त होनेके कारण) बलवान् निषधनरेशके मनमें यह बात आयी कि ‘यह पक्षियोंका समुदाय ही आज मेरा भक्ष्य हो सकता है और इनकी ये पाँखें मेरे लिये धन हो जायँगी’॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततस्तान् परिधानेन वाससा स समावृणोत्।
तस्य तद् वस्त्रमादाय सर्वे जग्मुर्विहायसा ॥ १४ ॥

मूलम्

ततस्तान् परिधानेन वाससा स समावृणोत्।
तस्य तद् वस्त्रमादाय सर्वे जग्मुर्विहायसा ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर उन्होंने अपने अधोवस्त्रसे उन पक्षियोंको ढँक दिया। किंतु वे सब पक्षी उनका वह वस्त्र लेकर आकाशमें उड़ गये॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उत्पतन्तः खगा वाक्यमेतदाहुस्ततो नलम्।
दृष्ट्वा दिग्वाससं भूमौ स्थितं दीनमधोमुखम् ॥ १५ ॥

मूलम्

उत्पतन्तः खगा वाक्यमेतदाहुस्ततो नलम्।
दृष्ट्वा दिग्वाससं भूमौ स्थितं दीनमधोमुखम् ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उड़ते हुए उन पक्षियोंने राजा नलको दीनभावसे नीचे मुँह किये धरतीपर नग्न खड़ा देख उनसे कहा—॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वयमक्षाः सुदुर्बुद्धे तव वासो जिहीर्षवः।
आगता न हि नः प्रीतिः सवाससि गते त्वयि॥१६॥

मूलम्

वयमक्षाः सुदुर्बुद्धे तव वासो जिहीर्षवः।
आगता न हि नः प्रीतिः सवाससि गते त्वयि॥१६॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘ओ खोटी बुद्धिवाले नरेश! हम (पक्षी नहीं,) पासे हैं और तुम्हारा वस्त्र अपहरण करनेकी इच्छासे ही यहाँ आये थे। तुम वस्त्र पहने हुए ही वहाँसे चले आये थे, इससे हमें प्रसन्नता नहीं हुई थी’॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तान् समीपगतानक्षानात्मानं च विवाससम्।
पुण्यश्लोकस्तदा राजन् दमयन्तीमथाब्रवीत् ॥ १७ ॥
येषां प्रकोपादैश्वर्यात् प्रच्युतोऽहमनिन्दिते ।
प्राणयात्रां न विन्देयं दुःखितः क्षुधयान्वितः ॥ १८ ॥
येषां कृते न सत्कारमकुर्वन् मयि नैषधाः।
इमे ते शकुना भूत्वा वासो भीरु हरन्ति मे॥१९॥

मूलम्

तान् समीपगतानक्षानात्मानं च विवाससम्।
पुण्यश्लोकस्तदा राजन् दमयन्तीमथाब्रवीत् ॥ १७ ॥
येषां प्रकोपादैश्वर्यात् प्रच्युतोऽहमनिन्दिते ।
प्राणयात्रां न विन्देयं दुःखितः क्षुधयान्वितः ॥ १८ ॥
येषां कृते न सत्कारमकुर्वन् मयि नैषधाः।
इमे ते शकुना भूत्वा वासो भीरु हरन्ति मे॥१९॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! उन पासोंको नजदीकसे जाते देख और अपने-आपको नग्नावस्थामें पाकर पुण्यश्लोक नलने उस समय दमयन्तीसे कहा—‘सती साध्वी रानी! जिनके क्रोधसे मेरा ऐश्वर्य छिन गया, मैं क्षुधापीड़ित एवं दुःखित होकर जीवन-निर्वाहके लिये अन्नतक नहीं पा रहा हूँ और जिनके कारण निषधदेशकी प्रजाने मेरा सत्कार नहीं किया, भीरु! वे ही ये पासे हैं, जो पक्षी होकर मेरा वस्त्र लिये जा रहे हैं॥१७—१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वैषम्यं परमं प्राप्तो दुःखितो गतचेतनः।
भर्ता तेऽहं निबोधेदं वचनं हितमात्मनः ॥ २० ॥

मूलम्

वैषम्यं परमं प्राप्तो दुःखितो गतचेतनः।
भर्ता तेऽहं निबोधेदं वचनं हितमात्मनः ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘मैं बड़ी विषम परिस्थितिमें पड़ गया हूँ। दुःखके मारे मेरी चेतना लुप्त-सी हो रही है। मैं तुम्हारा पति हूँ, अतः तुम्हारे हितकी बात बता रहा हूँ, इसे सुनो—॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एते गच्छन्ति बहवः पन्थानो दक्षिणापथम्।
अवन्तीमृक्षवन्तं च समतिक्रम्य पर्वतम् ॥ २१ ॥

मूलम्

एते गच्छन्ति बहवः पन्थानो दक्षिणापथम्।
अवन्तीमृक्षवन्तं च समतिक्रम्य पर्वतम् ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘ये बहुत-से मार्ग हैं, जो दक्षिण दिशाकी ओर जाते हैं। यह मार्ग ऋक्षवान् पर्वतको लाँघकर अवन्ती-देशको जाता है॥२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एष विन्ध्यो महाशैलः पयोष्णी च समुद्रगा।
आश्रमाश्च महर्षीणां बहुमूलफलान्विताः ॥ २२ ॥
एष पन्था विदर्भाणामसौ गच्छति कोसलान्।
अतः परं च देशोऽयं दक्षिणे दक्षिणापथः ॥ २३ ॥

मूलम्

एष विन्ध्यो महाशैलः पयोष्णी च समुद्रगा।
आश्रमाश्च महर्षीणां बहुमूलफलान्विताः ॥ २२ ॥
एष पन्था विदर्भाणामसौ गच्छति कोसलान्।
अतः परं च देशोऽयं दक्षिणे दक्षिणापथः ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘यह महान् पर्वत विन्ध्य दिखायी दे रहा है और यह समुद्रगामिनी पयोष्णी नदी है। यहाँ महर्षियोंके बहुत-से आश्रम हैं, जहाँ प्रचुर मात्रामें फल-मूल उपलब्ध हो सकते हैं। यह विदर्भदेशका मार्ग है और वह कोसलदेशको जाता है। दक्षिण दिशामें इसके बादका देश दक्षिणापथ कहलाता है’॥२२-२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतद् वाक्यं नलो राजा दमयन्तीं समाहितः।
उवाचासकृदार्तो हि भैमीमुद्दिश्य भारत ॥ २४ ॥

मूलम्

एतद् वाक्यं नलो राजा दमयन्तीं समाहितः।
उवाचासकृदार्तो हि भैमीमुद्दिश्य भारत ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भारत! राजा नलने एकाग्रचित्त होकर बड़ी आतुरताके साथ दमयन्तीसे उपर्युक्त बातें बार-बार कहीं॥२४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः सा बाष्पकलया वाचा दुःखेन कर्शिता।
उवाच दमयन्ती तं नैषधं करुणं वचः ॥ २५ ॥

मूलम्

ततः सा बाष्पकलया वाचा दुःखेन कर्शिता।
उवाच दमयन्ती तं नैषधं करुणं वचः ॥ २५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब दमयन्ती अत्यन्त दुःखसे दुर्बल हो नेत्रोंसे आँसू बहाती हुई गद्‌गद वाणीमें राजा नलसे यह करुण वचन बोली—॥२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उद्वेजते मे हृदयं सीदन्त्यङ्गानि सर्वशः।
तव पार्थिव संकल्पं चिन्तयन्त्याः पुनः पुनः ॥ २६ ॥
हृतराज्यं हृतद्रव्यं विवस्त्रं क्षुच्छ्रमान्वितम्।
कथमुत्सृज्य गच्छेयमहं त्वां निर्जने वने ॥ २७ ॥

मूलम्

उद्वेजते मे हृदयं सीदन्त्यङ्गानि सर्वशः।
तव पार्थिव संकल्पं चिन्तयन्त्याः पुनः पुनः ॥ २६ ॥
हृतराज्यं हृतद्रव्यं विवस्त्रं क्षुच्छ्रमान्वितम्।
कथमुत्सृज्य गच्छेयमहं त्वां निर्जने वने ॥ २७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘महाराज! आपका मानसिक संकल्प क्या है, इसपर जब मैं बार-बार विचार करती हूँ, तब मेरा हृदय उद्विग्न हो उठता है और सारे अंग शिथिल हो उठते हैं। आपका राज्य छिन गया। धन नष्ट हो गया। आपके शरीरपर वस्त्रतक नहीं रह गया तथा आप भूख और परिश्रमसे कष्ट पा रहे हैं। ऐसी अवस्थामें इस निर्जन वनमें आपको असहाय छोड़कर मैं कैसे जा सकती हूँ?॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

श्रान्तस्य ते क्षुधार्तस्य चिन्तयानस्य तत् सुखम्।
वने घोरे महाराज नाशयिष्याम्यहं क्लमम् ॥ २८ ॥

मूलम्

श्रान्तस्य ते क्षुधार्तस्य चिन्तयानस्य तत् सुखम्।
वने घोरे महाराज नाशयिष्याम्यहं क्लमम् ॥ २८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘महाराज! जब आप भयंकर वनमें थके-माँदे भूखसे पीड़ित हो अपने पूर्व सुखका चिन्तन करते हुए अत्यन्त दुःखी होने लगेंगे, उस समय मैं सान्त्वनाद्वारा आपके संतापका निवारण करूँगी॥२८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न च भार्यासमं किंचिद् विद्यते भिषजां मतम्।
औषधं सर्वदुःखेषु सत्यमेतद् ब्रवीमि ते ॥ २९ ॥

मूलम्

न च भार्यासमं किंचिद् विद्यते भिषजां मतम्।
औषधं सर्वदुःखेषु सत्यमेतद् ब्रवीमि ते ॥ २९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘चिकित्सकोंका मत है कि समस्त दुःखोंकी शान्तिके लिये पत्नीके समान दूसरी कोई औषध नहीं है; यह मैं आपसे सत्य कहती हूँ’॥२९॥

मूलम् (वचनम्)

नल उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमेतद् यथाऽऽत्थ त्वं दमयन्ति सुमध्यमे।
नास्ति भार्यासमं मित्रं नरस्यार्तस्य भेषजम् ॥ ३० ॥

मूलम्

एवमेतद् यथाऽऽत्थ त्वं दमयन्ति सुमध्यमे।
नास्ति भार्यासमं मित्रं नरस्यार्तस्य भेषजम् ॥ ३० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नलने कहा— सुमध्यमा दमयन्ती! तुम जैसा कहती हो वह ठीक है। दुःखी मनुष्यके लिये पत्नीके समान दूसरा कोई मित्र या औषध नहीं है॥३०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न चाहं त्यक्तकामस्त्वां किमलं भीरु शङ्कसे।
त्यजेयमहमात्मानं न चैव त्वामनिन्दिते ॥ ३१ ॥

मूलम्

न चाहं त्यक्तकामस्त्वां किमलं भीरु शङ्कसे।
त्यजेयमहमात्मानं न चैव त्वामनिन्दिते ॥ ३१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीरु! मैं तुम्हें त्यागना नहीं चाहता, तुम इतनी अधिक शंका क्यों करती हो? अनिन्दिते! मैं अपने शरीरका त्याग कर सकता हूँ, पर तुम्हें नहीं छोड़ सकता॥३१॥

मूलम् (वचनम्)

दमयन्त्युवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

यदि मां त्वं महाराज न विहातुमिहेच्छसि।
तत् किमर्थं विदर्भाणां पन्थाः समुपदिश्यते ॥ ३२ ॥

मूलम्

यदि मां त्वं महाराज न विहातुमिहेच्छसि।
तत् किमर्थं विदर्भाणां पन्थाः समुपदिश्यते ॥ ३२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

दमयन्तीने कहा— महाराज! यदि आप मुझे त्यागना नहीं चाहते तो विदर्भदेशका मार्ग क्यों बता रहे हैं?॥३२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अवैमि चाहं नृपते न तु मां त्यक्तुमर्हसि।
चेतसा त्वपकृष्टेन मां त्यजेथा महीपते ॥ ३३ ॥

मूलम्

अवैमि चाहं नृपते न तु मां त्यक्तुमर्हसि।
चेतसा त्वपकृष्टेन मां त्यजेथा महीपते ॥ ३३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! मैं जानती हूँ कि आप स्वयं मुझे नहीं त्याग सकते, परंतु महीपते! इस घोर आपत्तिने आपके चित्तको आकर्षित कर लिया है, इस कारण आप मेरा त्याग भी कर सकते हैं॥३३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पन्थानं हि ममाभीक्ष्णमाख्यासि च नरोत्तम।
अतो निमित्तं शोकं मे वर्धयस्यमरोपम ॥ ३४ ॥

मूलम्

पन्थानं हि ममाभीक्ष्णमाख्यासि च नरोत्तम।
अतो निमित्तं शोकं मे वर्धयस्यमरोपम ॥ ३४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नरश्रेष्ठ! आप बार-बार जो मुझे विदर्भदेशका मार्ग बता रहे हैं। देवोपम आर्यपुत्र! इसके कारण आप मेरा शोक ही बढ़ा रहे हैं॥३४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यदि चायमभिप्रायस्तव ज्ञातीन् व्रजेदिति।
सहितावेव गच्छावो विदर्भान् यदि मन्यसे ॥ ३५ ॥

मूलम्

यदि चायमभिप्रायस्तव ज्ञातीन् व्रजेदिति।
सहितावेव गच्छावो विदर्भान् यदि मन्यसे ॥ ३५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यदि आपका यह अभिप्राय हो कि दमयन्ती अपने बन्धु-बान्धवोंके यहाँ चली जाय तो आपकी सम्मति हो तो हम दोनों साथ ही विदर्भदेशको चलें॥३५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विदर्भराजस्तत्र त्वां पूजयिष्यति मानद।
तेन त्वं पूजितो राजन् सुखं वत्स्यसि नो गृहे॥३६॥

मूलम्

विदर्भराजस्तत्र त्वां पूजयिष्यति मानद।
तेन त्वं पूजितो राजन् सुखं वत्स्यसि नो गृहे॥३६॥

अनुवाद (हिन्दी)

मानद! वहाँ विदर्भनरेश आपका पूरा आदर-सत्कार करेंगे। राजन्! उनसे पूजित होकर आप हमारे घरमें सुखपूर्वक निवास कीजियेगा॥३६॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि नलोपाख्यानपर्वणि नलवनयात्रायामेकषष्टितमोऽध्यायः ॥ ६१ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्वके अन्तर्गत नलोपाख्यानपर्वमें नलकी वनयात्राविषयक इकसठवाँ अध्याय पूरा हुआ॥६१॥