भागसूचना
षष्टितमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
दुःखित दमयन्तीका वार्ष्णेयके द्वारा कुमार-कुमारीको कुण्डिनपुर भेजना
मूलम् (वचनम्)
बृहदश्व उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
दमयन्ती ततो दृष्ट्वा पुण्यश्लोकं नराधिपम्।
उन्मत्तवदनुन्मत्ता देवने गतचेतसम् ॥ १ ॥
भयशोकसमाविष्टा राजन् भीमसुता ततः।
चिन्तयामास तत् कार्यं सुमहत् पार्थिवं प्रति ॥ २ ॥
मूलम्
दमयन्ती ततो दृष्ट्वा पुण्यश्लोकं नराधिपम्।
उन्मत्तवदनुन्मत्ता देवने गतचेतसम् ॥ १ ॥
भयशोकसमाविष्टा राजन् भीमसुता ततः।
चिन्तयामास तत् कार्यं सुमहत् पार्थिवं प्रति ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
बृहदश्व मुनि कहते हैं— राजन्! तदनन्तर दमयन्तीने देखा कि पुण्यश्लोक महाराज नल उन्मत्तकी भाँति द्यूतक्रीडामें आसक्त हैं। वह स्वयं सावधान थी। उनकी वैसी अवस्था देख भीमकुमारी भय और शोकसे व्याकुल हो गयी और महाराजके हितके लिये किसी महत्त्वपूर्ण कार्यका चिन्तन करने लगी॥१-२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सा शङ्कमाना तत् पापं चिकीर्षन्ती च तत्प्रियम्।
नलं च हृतसर्वस्वमुपलभ्येदमब्रवीत् ॥ ३ ॥
मूलम्
सा शङ्कमाना तत् पापं चिकीर्षन्ती च तत्प्रियम्।
नलं च हृतसर्वस्वमुपलभ्येदमब्रवीत् ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उसके मनमें यह आशंका हो गयी कि राजापर बहुत बड़ा कष्ट आनेवाला है। वह उनका प्रिय एवं हित करना चाहती थी। अतः महाराजके सर्वस्वका अपहरण होता जान धायको बुलाकर (इस प्रकार बोली)॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
बृहत्सेनामतियशां तां धात्रीं परिचारिकाम्।
हितां सर्वार्थकुशलामनुरक्तां सुभाषिताम् ॥ ४ ॥
मूलम्
बृहत्सेनामतियशां तां धात्रीं परिचारिकाम्।
हितां सर्वार्थकुशलामनुरक्तां सुभाषिताम् ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उसकी धायका नाम बृहत्सेना था। वह अत्यन्त यशस्विनी और परिचर्याके कार्यमें निपुण थी। समस्त कार्योंके साधनमें कुशल, हितैषिणी, अनुरागिणी और मधुरभाषिणी थी॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
बृहत्सेने व्रजामात्यानानाय्य नलशासनात् ।
आचक्ष्व यद्धृतं द्रव्यमवशिष्टं च यद् वसु ॥ ५ ॥
मूलम्
बृहत्सेने व्रजामात्यानानाय्य नलशासनात् ।
आचक्ष्व यद्धृतं द्रव्यमवशिष्टं च यद् वसु ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
(दमयन्तीने उससे कहा)—‘बृहत्सेने! तुम मन्त्रियोंके पास जाओ तथा राजा नलकी आज्ञासे उन्हें बुला लाओ। फिर उन्हें यह बताओ कि अमुक-अमुक द्रव्य हारा जा चुका है और अमुक धन अभी अवशिष्ट है’॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततस्ते मन्त्रिणः सर्वे विज्ञाय नलशासनम्।
अपि नो भागधेयं स्यादित्युक्त्वा नलमाव्रजन् ॥ ६ ॥
मूलम्
ततस्ते मन्त्रिणः सर्वे विज्ञाय नलशासनम्।
अपि नो भागधेयं स्यादित्युक्त्वा नलमाव्रजन् ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब वे सब मन्त्री राजा नलका आदेश जानकर ‘हमारा अहोभाग्य है’, ऐसा कहते हुए नलके पास आये॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तास्तु सर्वाः प्रकृतयो द्वितीयं समुपस्थिताः।
न्यवेदयद् भीमसुता न च तत् प्रत्यनन्दत ॥ ७ ॥
मूलम्
तास्तु सर्वाः प्रकृतयो द्वितीयं समुपस्थिताः।
न्यवेदयद् भीमसुता न च तत् प्रत्यनन्दत ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे सारी (मन्त्री आदि) प्रकृतियाँ दूसरी बार राजद्वारपर उपस्थित हुईं। दमयन्तीने इसकी सूचना महाराज नलको दी, परन्तु उन्होंने इस बातका अभिनन्दन नहीं किया॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वाक्यमप्रतिनन्दन्तं भर्तारमभिवीक्ष्य सा ।
दमयन्ती पुनर्वेश्म व्रीडिता प्रविवेश ह ॥ ८ ॥
निशम्य सततं चाक्षान् पुण्यश्लोकपराङ्मुखान्।
नलं च हृतसर्वस्वं धात्रीं पुनरुवाच ह ॥ ९ ॥
बृहत्सेने पुनर्गच्छ वार्ष्णेयं नलशासनात्।
सूतमानय कल्याणि महत् कार्यमुपस्थितम् ॥ १० ॥
मूलम्
वाक्यमप्रतिनन्दन्तं भर्तारमभिवीक्ष्य सा ।
दमयन्ती पुनर्वेश्म व्रीडिता प्रविवेश ह ॥ ८ ॥
निशम्य सततं चाक्षान् पुण्यश्लोकपराङ्मुखान्।
नलं च हृतसर्वस्वं धात्रीं पुनरुवाच ह ॥ ९ ॥
बृहत्सेने पुनर्गच्छ वार्ष्णेयं नलशासनात्।
सूतमानय कल्याणि महत् कार्यमुपस्थितम् ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पतिको अपनी बातका प्रसन्नतापूर्वक उत्तर देते न देख दमयन्ती लज्जित हो पुनः महलके भीतर चली गयी। वहाँ फिर उसने सुना कि सारे पासे लगातार पुण्यश्लोक राजा नलके विपरीत पड़ रहे हैं और उनका सर्वस्व अपहृत हो रहा है। तब उसने पुनः धायसे कहा—‘बृहत्सेने! फिर राजा नलकी आज्ञासे जाओ और वार्ष्णेय सूतको बुला लाओ। कल्याणि! एक बहुत बड़ा कार्य उपस्थित हुआ है’॥८—१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
बृहत्सेना तु सा श्रुत्वा दमयन्त्याः प्रभाषितम्।
वार्ष्णेयमानयामास पुरुषैराप्तकारिभिः ॥ ११ ॥
वार्ष्णेयं तु ततो भैमी सान्त्वयञ्श्लक्ष्णया गिरा।
उवाच देशकालज्ञा प्राप्तकालमनिन्दिता ॥ १२ ॥
मूलम्
बृहत्सेना तु सा श्रुत्वा दमयन्त्याः प्रभाषितम्।
वार्ष्णेयमानयामास पुरुषैराप्तकारिभिः ॥ ११ ॥
वार्ष्णेयं तु ततो भैमी सान्त्वयञ्श्लक्ष्णया गिरा।
उवाच देशकालज्ञा प्राप्तकालमनिन्दिता ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
बृहत्सेनाने दमयन्तीकी बात सुनकर विश्वसनीय पुरुषोंद्वारा वार्ष्णेयको बुलाया। तब अनिन्द्य स्वभाववाली और देश-कालको जाननेवाली भीमकुमारी दमयन्तीने वार्ष्णेयको मधुर वाणीमें सान्त्वना देते हुए यह समयोचित बात कही—॥११-१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जानीषे त्वं यथा राजा सम्यग् वृत्तः सदा त्वयि।
तस्य त्वं विषमस्थस्य साहाय्यं कर्तुमर्हसि ॥ १३ ॥
मूलम्
जानीषे त्वं यथा राजा सम्यग् वृत्तः सदा त्वयि।
तस्य त्वं विषमस्थस्य साहाय्यं कर्तुमर्हसि ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘सूत! तुम जानते हो कि महाराज तुम्हारे प्रति कैसा अच्छा बर्ताव करते थे। आज वे विषम संकटमें पड़ गये हैं, अतः तुम्हें भी उनकी सहायता करनी चाहिये॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथा यथा हि नृपतिः पुष्करेणैव जीयते।
तथा तथास्य वै द्यूते रागो भूयोऽभिवर्धते ॥ १४ ॥
मूलम्
यथा यथा हि नृपतिः पुष्करेणैव जीयते।
तथा तथास्य वै द्यूते रागो भूयोऽभिवर्धते ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘राजा जैसे-जैसे पुष्करसे पराजित हो रहे हैं, वैसे-ही-वैसे जूएमें उनकी आसक्ति बढ़ती जा रही है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथा च पुष्करस्याक्षाः पतन्ति वशवर्तिनः।
तथा विपर्ययश्चापि नलस्याक्षेषु दृश्यते ॥ १५ ॥
मूलम्
यथा च पुष्करस्याक्षाः पतन्ति वशवर्तिनः।
तथा विपर्ययश्चापि नलस्याक्षेषु दृश्यते ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जैसे पुष्करके पासे उसकी इच्छाके अनुसार पड़ रहे हैं, वैसे ही नलके पासे विपरीत पड़ते देखे जा रहे हैं॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुहृत्स्वजनवाक्यानि यथावन्न शृणोति च।
ममापि च तथा वाक्यं नाभिनन्दति मोहितः ॥ १६ ॥
नूनं मन्ये न दोषोऽस्ति नैषधस्य महात्मनः।
यत् तु मे वचनं राजा नाभिनन्दति मोहितः ॥ १७ ॥
मूलम्
सुहृत्स्वजनवाक्यानि यथावन्न शृणोति च।
ममापि च तथा वाक्यं नाभिनन्दति मोहितः ॥ १६ ॥
नूनं मन्ये न दोषोऽस्ति नैषधस्य महात्मनः।
यत् तु मे वचनं राजा नाभिनन्दति मोहितः ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘वे सुहृदों और स्वजनोंके वचन अच्छी तरह नहीं सुनते हैं। जूएने उन्हें ऐसा मोहित कर रखा है कि इस समय वे मेरी बातका भी आदर नहीं कर रहे हैं। मैं इसमें महामना नैषधका निश्चय ही कोई दोष नहीं मानती। जूएसे मोहित होनेके कारण ही राजा मेरी बातका अभिनन्दन नहीं कर रहे हैं॥१६-१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शरणं त्वां प्रपन्नास्मि सारथे कुरु मद्वचः।
न हि मे शुध्यते भावः कदाचित् विनशेदपि ॥ १८ ॥
मूलम्
शरणं त्वां प्रपन्नास्मि सारथे कुरु मद्वचः।
न हि मे शुध्यते भावः कदाचित् विनशेदपि ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘सारथे! मैं तुम्हारी शरणमें आयी हूँ, मेरी बात मानो। मेरे मनमें अशुभ विचार आते हैं, इससे अनुमान होता है कि राजा नलका राज्यसे च्युत होना सम्भव है॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नलस्य दयितानश्वान् योजयित्वा मनोजवान्।
इदमारोप्य मिथुनं कुण्डिनं यातुमर्हसि ॥ १९ ॥
मूलम्
नलस्य दयितानश्वान् योजयित्वा मनोजवान्।
इदमारोप्य मिथुनं कुण्डिनं यातुमर्हसि ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘तुम महाराजके प्रिय, मनके समान वेगशाली अश्वोंको रथमें जोतकर उसपर इन दोनों बच्चोंको बिठा लो और कुण्डिनपुरको चले जाओ’॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मम ज्ञातिषु निक्षिप्य दारकौ स्यन्दनं तथा।
अश्वांश्चेमान् यथाकामं वस वान्यत्र गच्छ वा ॥ २० ॥
मूलम्
मम ज्ञातिषु निक्षिप्य दारकौ स्यन्दनं तथा।
अश्वांश्चेमान् यथाकामं वस वान्यत्र गच्छ वा ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘वहाँ इन दोनों बालकोंको, इस रथको और इन घोड़ोंको भी मेरे भाई-बन्धुओंकी देख-रेखमें सौंपकर तुम्हारी इच्छा हो तो वहीं रह जाना या अन्यत्र कहीं चले जाना’॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दमयन्त्यास्तु तद् वाक्यं वार्ष्णेयो नलसारथिः।
न्यवेदयदशेषेण नलामात्येषु मुख्यशः ॥ २१ ॥
मूलम्
दमयन्त्यास्तु तद् वाक्यं वार्ष्णेयो नलसारथिः।
न्यवेदयदशेषेण नलामात्येषु मुख्यशः ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
दमयन्तीकी यह बात सुनकर नलके सारथि वार्ष्णेयने नलके मुख्य-मुख्य मन्त्रियोंसे यह सारा वृत्तान्त निवेदित किया॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तैः समेत्य विनिश्चित्य सोऽनुज्ञातो महीपते।
ययौ मिथुनमारोप्य विदर्भांस्तेन वाहिना ॥ २२ ॥
मूलम्
तैः समेत्य विनिश्चित्य सोऽनुज्ञातो महीपते।
ययौ मिथुनमारोप्य विदर्भांस्तेन वाहिना ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! उनसे मिलकर इस विषयपर भलीभाँति विचार करके उन मन्त्रियोंकी आज्ञा ले सारथि वार्ष्णेयने दोनों बालकोंको रथपर बैठाकर विदर्भ देशको प्रस्थान किया॥२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
हयांस्तत्र विनिक्षिप्य सूतो रथवरं च तम्।
इन्द्रसेनां च तां कन्यामिन्द्रसेनं च बालकम् ॥ २३ ॥
आमन्त्र्य भीमं राजानमार्तः शोचन् नलं नृपम्।
अटमानस्ततोऽयोध्यां जगाम नगरीं तदा ॥ २४ ॥
मूलम्
हयांस्तत्र विनिक्षिप्य सूतो रथवरं च तम्।
इन्द्रसेनां च तां कन्यामिन्द्रसेनं च बालकम् ॥ २३ ॥
आमन्त्र्य भीमं राजानमार्तः शोचन् नलं नृपम्।
अटमानस्ततोऽयोध्यां जगाम नगरीं तदा ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वहाँ पहुँचकर उसने घोड़ोंको, उस श्रेष्ठ रथ-को तथा उस बालिका इन्द्रसेनाको एवं राजकुमार इन्द्रसेनको वहीं रख दिया तथा राजा भीमसे विदा ले आर्तभावसे राजा नलकी दुर्दशाके लिये शोक करता हुआ घूमता-घामता अयोध्या नगरीमें चला गया॥२३-२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ऋतुपर्णं स राजानमुपतस्थे सुदुःखितः।
भृतिं चोपययौ तस्य सारथ्येन महीपते ॥ २५ ॥
मूलम्
ऋतुपर्णं स राजानमुपतस्थे सुदुःखितः।
भृतिं चोपययौ तस्य सारथ्येन महीपते ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिर! वह अत्यन्त दुःखी हो राजा ऋतुपर्णकी सेवामें उपस्थित हुआ और उनका सारथि बनकर जीविका चलाने लगा॥२५॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि नलोपाख्यानपर्वणि कुण्डिनं प्रति कुमारयोः प्रस्थापने षष्टितमोऽध्यायः॥६०॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्वके अन्तर्गत नलोपाख्यानपर्वमें नलकी कन्या और पुत्रको कुण्डिनपुर भेजनेसे सम्बन्ध रखनेवाला साठवाँ अध्याय पूरा हुआ॥६०॥