०५९ नल-पुष्कर-द्यूतक्रीडा

भागसूचना

एकोनषष्टितमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

नलमें कलियुगका प्रवेश एवं नल और पुष्करकी द्यूतक्रीडा, प्रजा और दमयन्तीके निवारण करनेपर भी राजाका द्यूतसे निवृत्त नहीं होना

मूलम् (वचनम्)

बृहदश्व उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं स समयं कृत्वा द्वापरेण कलिः सह।
आजगाम ततस्तत्र यत्र राजा स नैषधः ॥ १ ॥

मूलम्

एवं स समयं कृत्वा द्वापरेण कलिः सह।
आजगाम ततस्तत्र यत्र राजा स नैषधः ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

बृहदश्व मुनि कहते हैं— राजन्! इस प्रकार द्वापरके साथ संकेत करके कलियुग उस स्थानपर आया, जहाँ निषधराज नल रहते थे॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स नित्यमन्तरप्रेप्सुर्निषधेष्ववसच्चिरम् ।
अथास्य द्वादशे वर्षे ददर्श कलिरन्तरम् ॥ २ ॥

मूलम्

स नित्यमन्तरप्रेप्सुर्निषधेष्ववसच्चिरम् ।
अथास्य द्वादशे वर्षे ददर्श कलिरन्तरम् ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वह प्रतिदिन राजा नलका छिद्र देखता हुआ निषधदेशमें दीर्घकालतक टिका रहा। बारह वर्षोंके बाद एक दिन कलिको एक छिद्र दिखायी दिया॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कृत्वा मूत्रमुपस्पृश्य संध्यामन्वास्त नैषधः।
अकृत्वा पादयोः शौचं तत्रैनं कलिराविशत् ॥ ३ ॥

मूलम्

कृत्वा मूत्रमुपस्पृश्य संध्यामन्वास्त नैषधः।
अकृत्वा पादयोः शौचं तत्रैनं कलिराविशत् ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजा नल उस दिन लघुशंका करके आये और हाथ-मुँह धोकर आचमन करनेके पश्चात् संध्योपासना करने बैठ गये; पैरोंको नहीं धोया। यह छिद्र देखकर कलियुग उनके भीतर प्रविष्ट हो गया॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स समाविश्य च नलं समीपं पुष्करस्य च।
गत्वा पुष्करमाहेदमेहि दीव्य नलेन वै ॥ ४ ॥

मूलम्

स समाविश्य च नलं समीपं पुष्करस्य च।
गत्वा पुष्करमाहेदमेहि दीव्य नलेन वै ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नलमें आविष्ट होकर कलियुगने दूसरा रूप धारण करके पुष्करके पास जाकर कहा—‘चलो, राजा नलके साथ जूआ खेलो॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अक्षद्यूते नलं जेता भवान् हि सहितो मया।
निषधान् प्रतिपद्यस्व जित्वा राज्यं नलं नृपम् ॥ ५ ॥

मूलम्

अक्षद्यूते नलं जेता भवान् हि सहितो मया।
निषधान् प्रतिपद्यस्व जित्वा राज्यं नलं नृपम् ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मेरे साथ रहकर तुम जूएमें अवश्य राजा नलको जीत लोगे। इस प्रकार महाराज नलको उनके राज्यसहित जीतकर निषधदेशको अपने अधिकारमें कर लो’॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमुक्तस्तु कलिना पुष्करो नलमभ्ययात्।
कलिश्चैव वृषो भूत्वा गवां पुष्करमभ्ययात् ॥ ६ ॥

मूलम्

एवमुक्तस्तु कलिना पुष्करो नलमभ्ययात्।
कलिश्चैव वृषो भूत्वा गवां पुष्करमभ्ययात् ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कलिके ऐसा कहनेपर पुष्कर राजा नलके पास गया। कलि भी साँड़ बनकर पुष्करके साथ हो लिया॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आसाद्य तु नलं वीरं पुष्करः परवीरहा।
दीव्यावेत्यब्रवीद् भ्राता वृषेणेति मुहुर्मुहुः ॥ ७ ॥

मूलम्

आसाद्य तु नलं वीरं पुष्करः परवीरहा।
दीव्यावेत्यब्रवीद् भ्राता वृषेणेति मुहुर्मुहुः ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

शत्रुवीरोंका संहार करनेवाले पुष्करने वीरवर नलके पास जाकर उनसे बार-बार कहा—‘हम दोनों धर्मपूर्वक जूआ खेलें।’ पुष्कर राजा नलका भाई लगता था॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न चक्षमे ततो राजा समाह्वानं महामनाः।
वैदर्भ्याः प्रेक्षमाणायाः पणकालममन्यत ॥ ८ ॥

मूलम्

न चक्षमे ततो राजा समाह्वानं महामनाः।
वैदर्भ्याः प्रेक्षमाणायाः पणकालममन्यत ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महामना राजा नल द्यूतके लिये पुष्करके आह्वानको न सह सके। विदर्भराजकुमारी दमयन्तीके देखते-देखते उसी क्षण जूआ खेलनेका उपयुक्त अवसर समझ लिया॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

हिरण्यस्य सुवर्णस्य यानयुग्यस्य वाससाम्।
आविष्टः कलिना द्यूते जीयते स्म नलस्तदा ॥ ९ ॥
तमक्षमदसम्मत्तं सुहृदां न तु कश्चन।
निवारणेऽभवच्छक्तो दीव्यमानमरिंदमम् ॥ १० ॥

मूलम्

हिरण्यस्य सुवर्णस्य यानयुग्यस्य वाससाम्।
आविष्टः कलिना द्यूते जीयते स्म नलस्तदा ॥ ९ ॥
तमक्षमदसम्मत्तं सुहृदां न तु कश्चन।
निवारणेऽभवच्छक्तो दीव्यमानमरिंदमम् ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब कलियुगसे आविष्ट होकर राजा नल हिरण्य, सुवर्ण, रथ आदि वाहन और बहुमूल्य वस्त्र दाँवपर लगाते तथा हार जाते थे। सुहृदोंमें कोई भी ऐसा नहीं था, जो द्यूतक्रीडाके मदसे उन्मत्त शत्रुदमन नलको उस समय जूआ खेलनेसे रोक सके॥९-१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः पौरजनाः सर्वे मन्त्रिभिः सह भारत।
राजानं द्रष्टुमागच्छन् निवारयितुमातुरम् ॥ ११ ॥

मूलम्

ततः पौरजनाः सर्वे मन्त्रिभिः सह भारत।
राजानं द्रष्टुमागच्छन् निवारयितुमातुरम् ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भारत! तदनन्तर समस्त पुरवासी मनुष्य मन्त्रियोंके साथ राजासे मिलने तथा उन आतुर नरेशको द्यूतक्रीडासे रोकनेके लिये वहाँ आये॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः सूत उपागम्य दमयन्त्यै न्यवेदयत्।
एष पौरजनो देवि द्वारि तिष्ठति कार्यवान् ॥ १२ ॥

मूलम्

ततः सूत उपागम्य दमयन्त्यै न्यवेदयत्।
एष पौरजनो देवि द्वारि तिष्ठति कार्यवान् ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसी समय सारथिने महलमें जाकर महारानी दमयन्तीसे निवेदन किया—‘देवि! ये पुरवासीलोग कार्यवश राजद्वारपर खड़े हैं॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

निवेद्यतां नैषधाय सर्वाः प्रकृतयः स्थिताः।
अमृष्यमाणा व्यसनं राज्ञो धर्मार्थदर्शिनः ॥ १३ ॥

मूलम्

निवेद्यतां नैषधाय सर्वाः प्रकृतयः स्थिताः।
अमृष्यमाणा व्यसनं राज्ञो धर्मार्थदर्शिनः ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘आप निषधराजसे निवेदन कर दें। धर्म-अर्थका तत्त्व जाननेवाले महाराजके भावी संकटको सहन न कर सकनेके कारण मन्त्रियोंसहित सारी प्रजा द्वारपर खड़ी है’॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः सा बाष्पकलया वाचा दुःखेन कर्शिता।
उवाच नैषधं भैमी शोकोपहतचेतना ॥ १४ ॥

मूलम्

ततः सा बाष्पकलया वाचा दुःखेन कर्शिता।
उवाच नैषधं भैमी शोकोपहतचेतना ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यह सुनकर दुःखसे दुर्बल हुई दमयन्तीने शोकसे अचेत-सी होकर आँसू बहाते हुए गद्‌गदवाणीमें निषध-नरेशसे कहा—॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

राजन् पौरजनो द्वारि त्वां दिदृक्षुरवस्थितः।
मन्त्रिभिः सहितः सर्वै राजभक्तिपुरस्कृतः ॥ १५ ॥
तं द्रष्टुमर्हसीत्येवं पुनः पुनरभाषत।
तं तथा रुचिरापाङ्गीं विलपन्तीं तथाविधाम् ॥ १६ ॥
आविष्टः कलिना राजा नाभ्यभाषत किंचन।
ततस्ते मन्त्रिणः सर्वे ते चैव पुरवासिनः ॥ १७ ॥
नायमस्तीति दुःखार्ता व्रीडिता जग्मुरालयान्।
तथा तदभवद् द्यूतं पुष्करस्य नलस्य च।
युधिष्ठिर बहून् मासान् पुण्यश्लोकस्त्वजीयत ॥ १८ ॥

मूलम्

राजन् पौरजनो द्वारि त्वां दिदृक्षुरवस्थितः।
मन्त्रिभिः सहितः सर्वै राजभक्तिपुरस्कृतः ॥ १५ ॥
तं द्रष्टुमर्हसीत्येवं पुनः पुनरभाषत।
तं तथा रुचिरापाङ्गीं विलपन्तीं तथाविधाम् ॥ १६ ॥
आविष्टः कलिना राजा नाभ्यभाषत किंचन।
ततस्ते मन्त्रिणः सर्वे ते चैव पुरवासिनः ॥ १७ ॥
नायमस्तीति दुःखार्ता व्रीडिता जग्मुरालयान्।
तथा तदभवद् द्यूतं पुष्करस्य नलस्य च।
युधिष्ठिर बहून् मासान् पुण्यश्लोकस्त्वजीयत ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘महाराज! पुरवासी प्रजा राजभक्तिपूर्वक आपसे मिलनेके लिये समस्त मन्त्रियोंके साथ द्वारपर खड़ी है। आप उन्हें दर्शन दें।’ दमयन्तीने इन वाक्योंको बार-बार दुहराया। मनोहर नयनप्रान्तवाली विदर्भ-कुमारी इस प्रकार विलाप करती रह गयी, परंतु कलियुगसे आविष्ट हुए राजाने उससे कोई बाततक न की। तब वे सब मन्त्री और पुरवासी दुःखसे आतुर और लज्जित हो यह कहते हुए अपने-अपने घर चले गये कि ‘यह राजा नल अब राज्यपर अधिक समयतक रहनेवाला नहीं है।’ युधिष्ठिर! पुष्कर और नलकी वह द्यूतक्रीडा कई महीनोंतक चलती रही। पुण्यश्लोक महाराज नल उसमें हारते ही जा रहे थे॥१५—१८॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि नलोपाख्यानपर्वणि नलद्यूते एकोनषष्टितमोऽध्यायः ॥ ५९ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्वके अन्तर्गत नलोपाख्यानपर्वमें नलद्यूतविषयक उनसठवाँ अध्याय पूरा हुआ॥५९॥