०५८ कलि-देवसंवादः

भागसूचना

अष्टपञ्चाशत्तमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

देवताओंके द्वारा नलके गुणोंका गान और उनके निषेध करनेपर भी नलके विरुद्ध कलियुगका कोप

मूलम् (वचनम्)

बृहदश्व उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

वृते तु नैषधे भैम्या लोकपाला महौजसः।
यान्तो ददृशुरायान्तं द्वापरं कलिना सह ॥ १ ॥

मूलम्

वृते तु नैषधे भैम्या लोकपाला महौजसः।
यान्तो ददृशुरायान्तं द्वापरं कलिना सह ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

बृहदश्व मुनि कहते हैं— राजन्! भीमकुमारी दमयन्तीद्वारा निषधनरेश नलका वरण हो जानेपर जब महातेजस्वी लोकपालगण स्वर्गलोकको जा रहे थे, उस समय मार्गमें उन्होंने देखा कि कलियुगके साथ द्वापर आ रहा है॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथाब्रवीत् कलिं शक्रः सम्प्रेक्ष्य बलवृत्रहा।
द्वापरेण सहायेन कले ब्रूहि क्व यास्यसि ॥ २ ॥

मूलम्

अथाब्रवीत् कलिं शक्रः सम्प्रेक्ष्य बलवृत्रहा।
द्वापरेण सहायेन कले ब्रूहि क्व यास्यसि ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कलियुगको देखकर बल और वृत्रासुरका नाश करनेवाले इन्द्रने पूछा—‘कले! बताओ तो सही द्वापरके साथ कहाँ जा रहे हो?’॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततोऽब्रवीत् कलिः शक्रं दमयन्त्याः स्वयंवरम्।
गत्वा हि वरयिष्ये तां मनो हि मम तां गतम्॥३॥

मूलम्

ततोऽब्रवीत् कलिः शक्रं दमयन्त्याः स्वयंवरम्।
गत्वा हि वरयिष्ये तां मनो हि मम तां गतम्॥३॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब कलिने इन्द्रसे कहा—‘देवराज! मैं दमयन्तीके स्वयंवरमें जाकर उसका वरण करूँगा; क्योंकि मेरा मन उसके प्रति आसक्त हो गया है’॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तमब्रवीत् प्रहस्येन्द्रो निर्वृत्तः स स्वयंवरः।
वृतस्तया नलो राजा पतिरस्मत्समीपतः ॥ ४ ॥

मूलम्

तमब्रवीत् प्रहस्येन्द्रो निर्वृत्तः स स्वयंवरः।
वृतस्तया नलो राजा पतिरस्मत्समीपतः ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब इन्द्रने हँसकर कहा—‘वह स्वयंवर तो हो गया। हमारे समीप ही दमयन्तीने राजा नलको अपना पति चुन लिया॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमुक्तस्तु शक्रेण कलिः कोपसमन्वितः।
देवानामन्त्र्य तान् सर्वानुवाचेदं वचस्तदा ॥ ५ ॥

मूलम्

एवमुक्तस्तु शक्रेण कलिः कोपसमन्वितः।
देवानामन्त्र्य तान् सर्वानुवाचेदं वचस्तदा ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इन्द्रके ऐसा कहनेपर कलियुगको क्रोध चढ़ आया और उसी समय उसने उन सब देवताओंको सम्बोधित करके यह बात कही—॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

देवानां मानुषं मध्ये यत् सा पतिमविन्दत।
ततस्तस्या भवेन्न्याय्यं विपुलं दण्डधारणम् ॥ ६ ॥

मूलम्

देवानां मानुषं मध्ये यत् सा पतिमविन्दत।
ततस्तस्या भवेन्न्याय्यं विपुलं दण्डधारणम् ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘दमयन्तीने देवताओंके बीचमें मनुष्यका पतिरूपमें वरण किया है। अतः उसे बड़ा भारी दण्ड देना उचित प्रतीत होता है’॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमुक्ते तु कलिना प्रत्यूचुस्ते दिवौकसः।
अस्माभिः समनुज्ञाते दमयन्त्या नलो वृतः ॥ ७ ॥

मूलम्

एवमुक्ते तु कलिना प्रत्यूचुस्ते दिवौकसः।
अस्माभिः समनुज्ञाते दमयन्त्या नलो वृतः ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कलियुगके ऐसा कहनेपर देवताओंने उत्तर दिया—‘दमयन्तीने हमारी आज्ञा लेकर नलका वरण किया है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

का च सर्वगुणोपेतं नाश्रयेत नलं नृपम्।
यो वेद धर्मानखिलान् यथावच्चरितव्रतः ॥ ८ ॥
योऽधीते चतुरो वेदान् सर्वानाख्यानपञ्चमान्।
नित्यं तृप्ता गृहे यस्य देवा यज्ञेषु धर्मतः।
अहिंसानिरतो यश्च सत्यवादी दृढव्रतः ॥ ९ ॥
यस्मिन् दाक्ष्यं धृतिर्ज्ञानं तपः शौचं दमः शमः।
ध्रुवाणि पुरुषव्याघ्रे लोकपालसमे नृपे ॥ १० ॥
एवंरूपं नलं यो वै कामयेच्छपितुं कले।
आत्मानं स शपेन्मूढो हन्यादात्मानमात्मना ॥ ११ ॥

मूलम्

का च सर्वगुणोपेतं नाश्रयेत नलं नृपम्।
यो वेद धर्मानखिलान् यथावच्चरितव्रतः ॥ ८ ॥
योऽधीते चतुरो वेदान् सर्वानाख्यानपञ्चमान्।
नित्यं तृप्ता गृहे यस्य देवा यज्ञेषु धर्मतः।
अहिंसानिरतो यश्च सत्यवादी दृढव्रतः ॥ ९ ॥
यस्मिन् दाक्ष्यं धृतिर्ज्ञानं तपः शौचं दमः शमः।
ध्रुवाणि पुरुषव्याघ्रे लोकपालसमे नृपे ॥ १० ॥
एवंरूपं नलं यो वै कामयेच्छपितुं कले।
आत्मानं स शपेन्मूढो हन्यादात्मानमात्मना ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘राजा नल सर्वगुणसम्पन्न हैं। कौन स्त्री उनका वरण नहीं करेगी? जिन्होंने भलीभाँति ब्रह्मचर्यव्रतका पालन करके चारों वेदों तथा पंचम वेद समस्त इतिहास-पुराणका भी अध्ययन किया है, जो सब धर्मोंको जानते हैं, जिनके घरपर पंचयज्ञोंमें धर्मके अनुसार सम्पूर्ण देवता नित्य तृप्त होते हैं, जो अहिंसा-परायण, सत्यवादी तथा दृढ़तापूर्वक व्रतका पालन करनेवाले हैं, जिन नरश्रेष्ठ लोकपाल-सदृश तेजस्वी नलमें दक्षता, धैर्य, ज्ञान, तप, शौच, शम और दम आदि गुण नित्य निवास करते हैं। कले! ऐसे राजा नलको जो मूढ़ शाप देनेकी इच्छा रखता है, वह मानो अपनेको ही शाप देता है। अपने द्वारा अपना ही विनाश करता है॥८—११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवंगुणं नलं यो वै कामयेच्छपितुं कले।
कृच्छ्रे स नरके मज्जेदगाधे विपुले ह्रदे।
एवमुक्त्वा कलिं देवा द्वापरं च दिवं ययुः ॥ १२ ॥

मूलम्

एवंगुणं नलं यो वै कामयेच्छपितुं कले।
कृच्छ्रे स नरके मज्जेदगाधे विपुले ह्रदे।
एवमुक्त्वा कलिं देवा द्वापरं च दिवं ययुः ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘ऐसे सद्‌गुणसम्पन्न महाराज नलको जो शाप देनेकी कामना करेगा, वह कष्टसे भरे हुए अगाध एवं विशाल नरककुण्डमें निमग्न होगा।’ कलियुग और द्वापरसे ऐसा कहकर देवतालोग स्वर्गमें चले गये॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो गतेषु देवेषु कलिर्द्वापरमब्रवीत्।
संहर्तुं नोत्सहे कोपं नले वत्स्यामि द्वापर ॥ १३ ॥
भ्रंशयिष्यामि तं राज्यान्न भैम्या सह रंस्यते।
त्वमप्यक्षान् समाविश्य साहाय्यं कर्तुमर्हसि ॥ १४ ॥

मूलम्

ततो गतेषु देवेषु कलिर्द्वापरमब्रवीत्।
संहर्तुं नोत्सहे कोपं नले वत्स्यामि द्वापर ॥ १३ ॥
भ्रंशयिष्यामि तं राज्यान्न भैम्या सह रंस्यते।
त्वमप्यक्षान् समाविश्य साहाय्यं कर्तुमर्हसि ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर देवताओंके चले जानेपर कलियुगने द्वापरसे कहा—‘द्वापर! मैं अपने क्रोधका उपसंहार नहीं कर सकता। नलके भीतर निवास करूँगा और उन्हें राज्यसे वंचित कर दूँगा। जिससे वे दमयन्तीसे रमण नहीं कर सकेंगे। तुम्हें भी जूएके पासोंमें प्रवेश करके मेरी सहायता करनी चाहिये’॥१३-१४॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि नलोपाख्यानपर्वणि कलिदेवसंवादे अष्टपञ्चाशत्तमोऽध्यायः ॥ ५८ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्वके अन्तर्गत नलोपाख्यानपर्वमें कलि-देवता-संवादविषयक अट्ठावनवाँ अध्याय पूरा हुआ॥५८॥