भागसूचना
सप्तपञ्चाशत्तमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
स्वयंवरमें दमयन्तीद्वारा नलका वरण, देवताओंका नलको वर देना, देवताओं और राजाओंका प्रस्थान, नल-दमयन्तीका विवाह एवं नलका यज्ञानुष्ठान और संतानोत्पादन
मूलम् (वचनम्)
बृहदश्व उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथ काले शुभे प्राप्ते तिथौ पुण्ये क्षणे तथा।
आजुहाव महीपालान् भीमो राजा स्वयंवरे ॥ १ ॥
मूलम्
अथ काले शुभे प्राप्ते तिथौ पुण्ये क्षणे तथा।
आजुहाव महीपालान् भीमो राजा स्वयंवरे ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
बृहदश्व मुनि कहते हैं— राजन्! तदनन्तर शुभ समय, उत्तम तिथि तथा पुण्यदायक अवसर आनेपर राजा भीमने समस्त भूपालोंको स्वयंवरके लिये बुलाया॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तच्छ्रुत्वा पृथिवीपालाः सर्वे हृच्छयपीडिताः।
त्वरिताः समुपाजग्मुर्दमयन्तीमभीप्सवः ॥ २ ॥
मूलम्
तच्छ्रुत्वा पृथिवीपालाः सर्वे हृच्छयपीडिताः।
त्वरिताः समुपाजग्मुर्दमयन्तीमभीप्सवः ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यह सुनकर सब भूपाल कामपीड़ित हो दमयन्तीको पानेकी इच्छासे तुरंत चल दिये॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कनकस्तम्भरुचिरं तोरणेन विराजितम् ।
विविशुस्ते नृपा रङ्गं महासिंहा इवाचलम् ॥ ३ ॥
मूलम्
कनकस्तम्भरुचिरं तोरणेन विराजितम् ।
विविशुस्ते नृपा रङ्गं महासिंहा इवाचलम् ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
रंगमण्डप सोनेके खम्भोंसे सुशोभित था। तोरणसे उसकी शोभा और बढ़ गयी थी। जैसे बड़े-बड़े सिंह पर्वतकी गुफामें प्रवेश करते हैं, उसी प्रकार उन नरेशोंने रंगमण्डपमें प्रवेश किया॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत्रासनेषु विविधेष्वासीनाः पृथिवीक्षितः ।
सुरभिस्रग्धराः सर्वे प्रमृष्टमणिकुण्डलाः ॥ ४ ॥
मूलम्
तत्रासनेषु विविधेष्वासीनाः पृथिवीक्षितः ।
सुरभिस्रग्धराः सर्वे प्रमृष्टमणिकुण्डलाः ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वहाँ सब भूपाल भिन्न-भिन्न आसनोंपर बैठ गये। सबने सुगन्धित फूलोंकी माला धारण कर रखी थी और सबके कानोंमें विशुद्ध मणिमय कुण्डल झिलमिला रहे थे॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तां राजसमितिं पुण्यां नागैर्भोगवतीमिव।
सम्पूर्णां पुरुषव्याघ्रैर्व्याघ्रैर्गिरिगुहामिव ॥ ५ ॥
मूलम्
तां राजसमितिं पुण्यां नागैर्भोगवतीमिव।
सम्पूर्णां पुरुषव्याघ्रैर्व्याघ्रैर्गिरिगुहामिव ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
व्याघ्रोंसे भरी हुई पर्वतकी गुफा तथा नागोंसे सुशोभित भोगवती पुरीकी भाँति वह पुण्यमयी राजसभा नरश्रेष्ठ भूपालोंसे भरी दिखायी देती थी॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत्र स्म पीना दृश्यन्ते बाहवः परिघोपमाः।
आकारवर्णसुश्लक्ष्णाः पञ्चशीर्षा इवोरगाः ॥ ६ ॥
मूलम्
तत्र स्म पीना दृश्यन्ते बाहवः परिघोपमाः।
आकारवर्णसुश्लक्ष्णाः पञ्चशीर्षा इवोरगाः ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वहाँ भूमिपालोंकी (पाँच अँगुलियोंसे युक्त) परिघ-जैसी मोटी भुजाएँ आकार-प्रकार और रंगमें अत्यन्त सुन्दर तथा पाँच मस्तकवाले सर्पके समान दिखायी देती थीं॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुकेशान्तानि चारूणि सुनासाक्षिभ्रुवाणि च।
मुखानि राज्ञां शोभन्ते नक्षत्राणि यथा दिवि ॥ ७ ॥
मूलम्
सुकेशान्तानि चारूणि सुनासाक्षिभ्रुवाणि च।
मुखानि राज्ञां शोभन्ते नक्षत्राणि यथा दिवि ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे आकाशमें तारे प्रकाशित होते हैं, उसी प्रकार सुन्दर केशान्तभागसे विभूषित एवं रुचिर नासिका, नेत्र और भौंहोंसे युक्त राजाओंके मनोहर मुख सुशोभित हो रहे थे॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दमयन्ती ततो रङ्गं प्रविवेश शुभानना।
मुष्णन्ती प्रभया राज्ञां चक्षूंषि च मनांसि च ॥ ८ ॥
मूलम्
दमयन्ती ततो रङ्गं प्रविवेश शुभानना।
मुष्णन्ती प्रभया राज्ञां चक्षूंषि च मनांसि च ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर अपनी प्रभासे राजाओंके नयनोंको लुभाती और चित्तको चुराती हुई सुन्दर मुखवाली दमयन्तीने रंगभूमिमें प्रवेश किया॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्या गात्रेषु पतिता तेषां दृष्टिर्महात्मनाम्।
तत्र तत्रैव सक्ताऽभून्न चचाल च पश्यताम् ॥ ९ ॥
मूलम्
तस्या गात्रेषु पतिता तेषां दृष्टिर्महात्मनाम्।
तत्र तत्रैव सक्ताऽभून्न चचाल च पश्यताम् ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वहाँ आते ही दमयन्तीके अंगोंपर उन महामना नरेशोंकी दृष्टि पड़ी। उसे देखनेवाले राजाओंमेंसे जिसकी दृष्टि दमयन्तीके जिस अंगपर पड़ी, वहीं लग गयी, वहाँसे हट न सकी॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः संकीर्त्यमानेषु राज्ञां नामसु भारत।
ददर्श भैमी पुरुषान् पञ्चतुल्याकृतीनिह ॥ १० ॥
मूलम्
ततः संकीर्त्यमानेषु राज्ञां नामसु भारत।
ददर्श भैमी पुरुषान् पञ्चतुल्याकृतीनिह ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भारत! तत्पश्चात् राजाओंके नाम, रूप, यश और पराक्रम आदिका परिचय दिया जाने लगा। भीमकुमारी दमयन्तीने आगे बढ़कर देखा, यहाँ तो एक जगह पाँच पुरुष एक ही आकृतिके बैठे हुए हैं॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तान् समीक्ष्य ततः सर्वान् निर्विशेषाकृतीन् स्थितान्।
संदेहादथ वैदर्भी नाभ्यजानान्नलं नृपम् ॥ ११ ॥
मूलम्
तान् समीक्ष्य ततः सर्वान् निर्विशेषाकृतीन् स्थितान्।
संदेहादथ वैदर्भी नाभ्यजानान्नलं नृपम् ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन सबके रूप-रंग आदिमें कोई अन्तर नहीं था। वे पाँचों नलके ही समान दिखायी देते थे। उन्हें एक जगह स्थित देखकर संदेह उत्पन्न हो जानेसे विदर्भराजकुमारी वास्तविक राजा नलको पहचान न सकी॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यं यं हि ददृशे तेषां तं तं मेने नलं नृपम्।
सा चिन्तयन्ती बुद्ध्याथ तर्कयामास भाविनी ॥ १२ ॥
मूलम्
यं यं हि ददृशे तेषां तं तं मेने नलं नृपम्।
सा चिन्तयन्ती बुद्ध्याथ तर्कयामास भाविनी ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वह उनमेंसे जिस-जिस व्यक्तिपर दृष्टि डालती, उसी-उसीको राजा नल समझने लगती थी। वह भाविनी राजकन्या बुद्धिसे सोच-विचारकर मन-ही-मन तर्क करने लगी॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कथं हि देवाञ्जानीयां कथं विद्यां नलं नृपम्।
एवं संचिन्तयन्ती सा वैदर्भी भृशदुःखिता ॥ १३ ॥
मूलम्
कथं हि देवाञ्जानीयां कथं विद्यां नलं नृपम्।
एवं संचिन्तयन्ती सा वैदर्भी भृशदुःखिता ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अहो! मैं कैसे देवताओंको जानूँ और किस प्रकार राजा नलको पहिचानूँ।’ इस चिन्तामें पड़कर विदर्भराजकुमारी दमयन्तीको बड़ा दुःख हुआ॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
श्रुतानि देवलिङ्गानि तर्कयामास भारत।
देवानां यानि लिङ्गानि स्थविरेभ्यः श्रुतानि मे ॥ १४ ॥
तानीह तिष्ठतां भूमावेकस्यापि न लक्षये।
सा विनिश्चित्य बहुधा विचार्य च पुनः पुनः ॥ १५ ॥
शरणं प्रति देवानां प्राप्तकालममन्यत।
मूलम्
श्रुतानि देवलिङ्गानि तर्कयामास भारत।
देवानां यानि लिङ्गानि स्थविरेभ्यः श्रुतानि मे ॥ १४ ॥
तानीह तिष्ठतां भूमावेकस्यापि न लक्षये।
सा विनिश्चित्य बहुधा विचार्य च पुनः पुनः ॥ १५ ॥
शरणं प्रति देवानां प्राप्तकालममन्यत।
अनुवाद (हिन्दी)
भारत! उसने अपने सुने हुए देवचिह्नोंपर भी विचार किया। वह मन-ही-मन कहने लगी ‘मैंने बड़े-बूढ़े पुरुषोंसे देवताओंकी पहचान करानेवाले जो लक्षण या चिह्न सुन रखे हैं, उन्हें यहाँ भूमिपर बैठे हुए इन पाँच पुरुषोंमेंसे किसी एकमें भी नहीं देख पाती हूँ।’ उसने अनेक प्रकारसे निश्चय और बार-बार विचार करके देवताओंकी शरणमें जाना ही समयोचित कर्तव्य समझा॥१४-१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वाचा च मनसा चैव नमस्कारं प्रयुज्य सा ॥ १६ ॥
देवेभ्यः प्राञ्जलिर्भूत्वा वेपमानेदमब्रवीत् ।
हंसानां वचनं श्रुत्वा यथा मे नैषधो वृतः।
पतित्वे तेन सत्येन देवास्तं प्रदिशन्तु मे ॥ १७ ॥
मूलम्
वाचा च मनसा चैव नमस्कारं प्रयुज्य सा ॥ १६ ॥
देवेभ्यः प्राञ्जलिर्भूत्वा वेपमानेदमब्रवीत् ।
हंसानां वचनं श्रुत्वा यथा मे नैषधो वृतः।
पतित्वे तेन सत्येन देवास्तं प्रदिशन्तु मे ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तत्पश्चात् मन एवं वाणीद्वारा देवताओंको नमस्कार करके दोनों हाथ जोड़कर काँपती हुई वह इस प्रकार बोली—‘मैंने हंसोंकी बात सुनकर निषधनरेश नलका पतिरूपमें वरण कर लिया है। इस सत्यके प्रभावसे देवतालोग स्वयं ही मुझे राजा नलकी पहचान करा दें॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मनसा वचसा चैव यथा नाभिचराम्यहम्।
तेन सत्येन विबुधास्तमेव प्रदिशन्तु मे ॥ १८ ॥
मूलम्
मनसा वचसा चैव यथा नाभिचराम्यहम्।
तेन सत्येन विबुधास्तमेव प्रदिशन्तु मे ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘यदि मैं मन, वाणी एवं क्रियाद्वारा कभी सदाचारसे च्युत नहीं हुई हूँ तो उस सत्यके प्रभावसे देवतालोग मुझे राजा नलकी ही प्राप्ति करावें॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथा देवैः स मे भर्ता विहितो निषधाधिपः।
तेन सत्येन मे देवास्तमेव प्रदिशन्तु मे ॥ १९ ॥
मूलम्
यथा देवैः स मे भर्ता विहितो निषधाधिपः।
तेन सत्येन मे देवास्तमेव प्रदिशन्तु मे ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘यदि देवताओंने उन निषधनरेश नलको ही मेरा पति निश्चित किया हो तो उस सत्यके प्रभावसे देवता-लोग मुझे उन्हींको बतला दें॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथेदं व्रतमारब्धं नलस्याराधने मया।
तेन सत्येन मे देवास्तमेव प्रदिशन्तु मे ॥ २० ॥
मूलम्
यथेदं व्रतमारब्धं नलस्याराधने मया।
तेन सत्येन मे देवास्तमेव प्रदिशन्तु मे ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘यदि मैंने नलकी आराधनाके लिये ही यह व्रत आरम्भ किया हो तो उस सत्यके प्रभावसे देवता मुझे उन्हींको बतला दें॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्वं चैव रूपं कुर्वन्तु लोकपाला महेश्वराः।
यथाहमभिजानीयां पुण्यश्लोकं नराधिपम् ॥ २१ ॥
मूलम्
स्वं चैव रूपं कुर्वन्तु लोकपाला महेश्वराः।
यथाहमभिजानीयां पुण्यश्लोकं नराधिपम् ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘महेश्वर लोकपालगण अपना रूप प्रकट कर दें, जिससे मैं पुण्यश्लोक महाराज नलको पहचान सकूँ’॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
निशम्य दमयन्त्यास्तत् करुणं प्रतिदेवितम्।
निश्चयं परमं तथ्यमनुरागं च नैषधे ॥ २२ ॥
मनोविशुद्धिं बुद्धिं च भक्तिं रागं च नैषधे।
यथोक्तं चक्रिरे देवाः सामर्थ्यं लिङ्गधारणे ॥ २३ ॥
मूलम्
निशम्य दमयन्त्यास्तत् करुणं प्रतिदेवितम्।
निश्चयं परमं तथ्यमनुरागं च नैषधे ॥ २२ ॥
मनोविशुद्धिं बुद्धिं च भक्तिं रागं च नैषधे।
यथोक्तं चक्रिरे देवाः सामर्थ्यं लिङ्गधारणे ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
दमयन्तीका वह करुण विलाप सुनकर तथा उसके अन्तिम निश्चय, नलविषयक वास्तविक अनुराग, विशुद्ध हृदय, उत्तम बुद्धि तथा नलके प्रति भक्ति एवं प्रेम देखकर देवताओंने दमयन्तीके भीतर वह यथार्थ शक्ति उत्पन्न कर दी, जिससे उसे देवसूचक लक्षणोंका निश्चय हो सके॥२२-२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सापश्यद् विबुधान् सर्वानस्वेदान् स्तब्धलोचनान्।
हृषितस्रग्रजोहीनान् स्थितानस्पृशतः क्षितिम् ॥ २४ ॥
मूलम्
सापश्यद् विबुधान् सर्वानस्वेदान् स्तब्धलोचनान्।
हृषितस्रग्रजोहीनान् स्थितानस्पृशतः क्षितिम् ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अब दमयन्तीने देखा—सम्पूर्ण देवता स्वेदरहित हैं—उनके किसी अंगमें पसीनेकी बूँद नहीं दिखायी देती, उनकी आँखोंकी पलकें नहीं गिरती हैं। उन्होंने जो पुष्पमालाएँ पहन रखी हैं, वे नूतन विकाससे युक्त हैं—कुम्हलाती नहीं हैं। उनपर धूल-कण नहीं पड़ रहे हैं। वे सिंहासनोंपर बैठे हैं, किंतु अपने पैरोंसे पृथ्वीतलका स्पर्श नहीं करते हैं और उनकी परछाईं नहीं पड़ती है॥२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
छायाद्वितीयो म्लानस्रग्रजःस्वेदसमन्वितः ।
भूमिष्ठो नैषधश्चैव निमेषेण च सूचितः ॥ २५ ॥
मूलम्
छायाद्वितीयो म्लानस्रग्रजःस्वेदसमन्वितः ।
भूमिष्ठो नैषधश्चैव निमेषेण च सूचितः ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन पाँचोंमें एक पुरुष ऐसे हैं, जिनकी परछाईं पड़ रही है। उनके गलेकी पुष्पमाला कुम्हला गयी है। उनके अंगोंमें धूल-कण और पसीनेकी बूँदें भी दिखायी पड़ती हैं। वे पृथ्वीका स्पर्श किये बैठे हैं और उनके नेत्रोंकी पलकें गिरती हैं। इन लक्षणोंसे दमयन्तीने निषधराज नलको पहचान लिया॥२५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सा समीक्ष्य तु तान् देवान् पुण्यश्लोकं च भारत।
नैषधं वरयामास भैमी धर्मेण पाण्डव ॥ २६ ॥
मूलम्
सा समीक्ष्य तु तान् देवान् पुण्यश्लोकं च भारत।
नैषधं वरयामास भैमी धर्मेण पाण्डव ॥ २६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भरतकुलभूषण पाण्डुनन्दन! राजकुमारी दमयन्तीने उन देवताओं तथा पुण्यश्लोक नलकी ओर पुनः दृष्टिपात करके धर्मके अनुसार निषधराज नलका ही वरण किया॥२६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विलज्जमाना वस्त्रान्तं जग्राहायतलोचना ।
स्कन्ध देशेऽसृजत् तस्य स्रजं परमशोभनाम् ॥ २७ ॥
वरयामास चैवैनं पतित्वे वरवर्णिनी।
मूलम्
विलज्जमाना वस्त्रान्तं जग्राहायतलोचना ।
स्कन्ध देशेऽसृजत् तस्य स्रजं परमशोभनाम् ॥ २७ ॥
वरयामास चैवैनं पतित्वे वरवर्णिनी।
अनुवाद (हिन्दी)
विशाल नेत्रोंवाली दमयन्तीने लजाते-लजाते नलके वस्त्रका छोर पकड़ लिया और उनके गलेमें परम सुन्दर फूलोंका हार डाल दिया। इस प्रकार वरवर्णिनी दमयन्तीने राजा नलका पतिरूपमें वरण कर लिया॥२७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो हाहेति सहसा मुक्तः शब्दो नराधिपैः ॥ २८ ॥
मूलम्
ततो हाहेति सहसा मुक्तः शब्दो नराधिपैः ॥ २८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
फिर तो दूसरे राजाओंके मुखसे सहसा ‘हाहाकार’-का शब्द निकल पड़ा॥२८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
देवैर्महर्षिभिस्तत्र साधु साध्विति भारत।
विस्मितैरीरितः शब्दः प्रशंसद्भिर्नलं नृपम् ॥ २९ ॥
मूलम्
देवैर्महर्षिभिस्तत्र साधु साध्विति भारत।
विस्मितैरीरितः शब्दः प्रशंसद्भिर्नलं नृपम् ॥ २९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भारत! देवता और महर्षि वहाँ साधुवाद देने लगे। सबने विस्मित होकर राजा नलकी प्रशंसा करते हुए इनके सौभाग्यको सराहा॥२९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दमयन्तीं तु कौरव्य वीरसेनसुतो नृपः।
आश्वासयद् वरारोहां प्रहृष्टेनान्तरात्मना ॥ ३० ॥
मूलम्
दमयन्तीं तु कौरव्य वीरसेनसुतो नृपः।
आश्वासयद् वरारोहां प्रहृष्टेनान्तरात्मना ॥ ३० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कुरुनन्दन! वीरसेनकुमार नलने उल्लसित हृदयसे सुन्दरी दमयन्तीको आश्वासन देते हुए कहा—॥३०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यत् त्वं भजसि कल्याणि पुमांसं देवसंनिधौ।
तस्मान्मां विद्धि भर्तारमेवं ते वचने रतम् ॥ ३१ ॥
मूलम्
यत् त्वं भजसि कल्याणि पुमांसं देवसंनिधौ।
तस्मान्मां विद्धि भर्तारमेवं ते वचने रतम् ॥ ३१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘कल्याणी! तुम देवताओंके समीप जो मुझ-जैसे पुरुषका वरण कर रही हो, इस अलौकिक अनुरागके कारण अपने इस पतिको तुम सदा अपनी प्रत्येक आज्ञाके पालनमें तत्पर समझो॥३१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यावच्च मे धरिष्यन्ति प्राणा देहे शुचिस्मिते।
तावत् त्वयि भविष्यामि सत्यमेतद् ब्रवीमि ते ॥ ३२ ॥
मूलम्
यावच्च मे धरिष्यन्ति प्राणा देहे शुचिस्मिते।
तावत् त्वयि भविष्यामि सत्यमेतद् ब्रवीमि ते ॥ ३२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘पवित्र मुसकानवाली देवि! मेरे इस शरीरमें जबतक प्राण रहेंगे, तबतक तुममें मेरा अनन्य अनुराग बना रहेगा, यह मैं तुमसे सच्ची प्रतिज्ञा करके कहता हूँ’॥३२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दमयन्ती तथा वाग्भिरभिनन्द्य कृताञ्जलिः।
तौ परस्परतः प्रीतौ दृष्ट्वा त्वग्निपुरोगमान् ॥ ३३ ॥
तानेव शरणं देवाञ्जग्मतुर्मनसा तदा।
मूलम्
दमयन्ती तथा वाग्भिरभिनन्द्य कृताञ्जलिः।
तौ परस्परतः प्रीतौ दृष्ट्वा त्वग्निपुरोगमान् ॥ ३३ ॥
तानेव शरणं देवाञ्जग्मतुर्मनसा तदा।
अनुवाद (हिन्दी)
इसी प्रकार दमयन्तीने भी हाथ जोड़कर विनीत वचनोंद्वारा महाराज नलका अभिनन्दन किया। वे दोनों एक-दूसरेको पाकर बड़े प्रसन्न हुए। उन्होंने सामने अग्नि आदि देवताओंको देखकर मन-ही-मन उनकी ही शरण ली॥३३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वृते तु नैषधे भैम्या लोकपाला महौजसः ॥ ३४ ॥
प्रहृष्टमनसः सर्वे नलायाष्टौ वरान् ददुः।
मूलम्
वृते तु नैषधे भैम्या लोकपाला महौजसः ॥ ३४ ॥
प्रहृष्टमनसः सर्वे नलायाष्टौ वरान् ददुः।
अनुवाद (हिन्दी)
दमयन्तीने जब नलका वरण कर लिया, तब उन सब महातेजस्वी लोकपालोंने प्रसन्नचित्त होकर नलको आठ वरदान दिये॥३४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रत्यक्षदर्शनं यज्ञे गतिं चानुत्तमां शुभाम् ॥ ३५ ॥
नैषधाय ददौ शक्रः प्रीयमाणः शचीपतिः।
मूलम्
प्रत्यक्षदर्शनं यज्ञे गतिं चानुत्तमां शुभाम् ॥ ३५ ॥
नैषधाय ददौ शक्रः प्रीयमाणः शचीपतिः।
अनुवाद (हिन्दी)
शचीपति इन्द्रने प्रसन्न होकर निषधराज नलको यह वर दिया कि ‘मैं यज्ञमें तुम्हें प्रत्यक्ष दर्शन दूँगा और अन्तमें सर्वोत्तम शुभ गति प्रदान करूँगा’॥३५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अग्निरात्मभवं प्रादाद् यत्र वाञ्छति नैषधः ॥ ३६ ॥
लोकानात्मप्रभांश्चैव ददौ तस्मै हुताशनः।
मूलम्
अग्निरात्मभवं प्रादाद् यत्र वाञ्छति नैषधः ॥ ३६ ॥
लोकानात्मप्रभांश्चैव ददौ तस्मै हुताशनः।
अनुवाद (हिन्दी)
हविष्यभोक्ता अग्निदेवने नलको अपने ही समान तेजस्वी लोक प्रदान किये और यह भी कहा कि ‘राजा नल जहाँ चाहेंगे, वहीं मैं प्रकट हो जाऊँगा’॥३६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यमस्त्वन्नरसं प्रादाद् धर्मे च परमां स्थितिम् ॥ ३७ ॥
मूलम्
यमस्त्वन्नरसं प्रादाद् धर्मे च परमां स्थितिम् ॥ ३७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यमराजने यह कहा कि ‘राजा नलकी बनायी हुई रसोईमें उत्तमोत्तम रस एवं स्वाद उपलब्ध होगा और धर्ममें इनकी दृढ़ निष्ठा बनी रहेगी’॥३७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अपां पतिरपां भावं यत्र वाञ्छति नैषधः।
स्रजश्चोत्तमगन्धाढ्याः सर्वे च मिथुनं ददुः ॥ ३८ ॥
मूलम्
अपां पतिरपां भावं यत्र वाञ्छति नैषधः।
स्रजश्चोत्तमगन्धाढ्याः सर्वे च मिथुनं ददुः ॥ ३८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जलके स्वामी वरुणने नलकी इच्छाके अनुसार जल प्रकट होनेका वर दिया और यह भी कहा कि ‘तुम्हारी पुष्पमालाएँ सदा उत्तम गन्धसे सम्पन्न होंगी।’ इस प्रकार सब देवताओंने दो-दो वर दिये॥३८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वरानेवं प्रदायास्य देवास्ते त्रिदिवं गताः।
पार्थिवाश्चानुभूयास्य विवाहं विस्मयान्विताः ॥ ३९ ॥
दमयन्त्याश्च मुदिताः प्रतिजग्मुर्यथागतम् ।
मूलम्
वरानेवं प्रदायास्य देवास्ते त्रिदिवं गताः।
पार्थिवाश्चानुभूयास्य विवाहं विस्मयान्विताः ॥ ३९ ॥
दमयन्त्याश्च मुदिताः प्रतिजग्मुर्यथागतम् ।
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार राजा नलको वरदान देकर वे देवता-लोग स्वर्गलोकको चले गये। स्वयंवरमें आये हुए राजा भी विस्मयविमुग्ध हो नल और दमयन्तीके विवाहोत्सवका-सा अनुभव करते हुए प्रसन्नतापूर्वक जैसे आये थे, वैसे लौट गये॥३९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गतेषु पार्थिवेन्द्रेषु भीमः प्रीतो महामनाः ॥ ४० ॥
विवाहं कारयामास दमयन्त्या नलस्य च।
मूलम्
गतेषु पार्थिवेन्द्रेषु भीमः प्रीतो महामनाः ॥ ४० ॥
विवाहं कारयामास दमयन्त्या नलस्य च।
अनुवाद (हिन्दी)
सब नरेशोंके विदा हो जानेपर महामना भीमने बड़ी प्रसन्नताके साथ नल-दमयन्तीका शास्त्रविधिके अनुसार विवाह कराया॥४०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उष्य तत्र यथाकामं नैषधो द्विपदां वरः ॥ ४१ ॥
भीमेन समनुज्ञातो जगाम नगरं स्वकम्।
मूलम्
उष्य तत्र यथाकामं नैषधो द्विपदां वरः ॥ ४१ ॥
भीमेन समनुज्ञातो जगाम नगरं स्वकम्।
अनुवाद (हिन्दी)
मनुष्योंमें श्रेष्ठ निषधनरेश नल अपनी इच्छाके अनुसार कुछ दिनोंतक ससुरालमें रहे, फिर विदर्भनरेश भीमकी आज्ञा ले (दमयन्तीसहित) अपनी राजधानीको चले गये॥४१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अवाप्य नारीरत्नं तु पुण्यश्लोकोऽपि पार्थिवः ॥ ४२ ॥
रेमे सह तया राजञ्छच्येव बलवृत्रहा।
मूलम्
अवाप्य नारीरत्नं तु पुण्यश्लोकोऽपि पार्थिवः ॥ ४२ ॥
रेमे सह तया राजञ्छच्येव बलवृत्रहा।
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! पुण्यश्लोक महाराज नलने भी उस रमणीरत्नको पाकर उसके साथ उसी प्रकार विहार किया, जैसे शचीके साथ इन्द्र करते हैं॥४२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अतीव मुदितो राजा भ्राजमानोंऽशुमानिव ॥ ४३ ॥
अरञ्जयत् प्रजा वीरो धर्मेण परिपालयन्।
मूलम्
अतीव मुदितो राजा भ्राजमानोंऽशुमानिव ॥ ४३ ॥
अरञ्जयत् प्रजा वीरो धर्मेण परिपालयन्।
अनुवाद (हिन्दी)
राजा नल सूर्यके समान प्रकाशित होते थे। वीरवर नल अत्यन्त प्रसन्न रहकर अपनी प्रजाका धर्मपूर्वक पालन करते हुए उसे प्रसन्न रखते थे॥४३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ईजे चाप्यश्वमेधेन ययातिरिव नाहुषः ॥ ४४ ॥
अन्यैश्च बहुभिर्धीमान् क्रतुभिश्चाप्तदक्षिणैः ।
मूलम्
ईजे चाप्यश्वमेधेन ययातिरिव नाहुषः ॥ ४४ ॥
अन्यैश्च बहुभिर्धीमान् क्रतुभिश्चाप्तदक्षिणैः ।
अनुवाद (हिन्दी)
उन बुद्धिमान् नरेशने नहुषनन्दन ययातिकी भाँति अश्वमेध तथा पर्याप्त दक्षिणावाले दूसरे बहुत-से यज्ञोंका भी अनुष्ठान किया॥४४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पुनश्च रमणीयेषु वनेषूपवनेषु च ॥ ४५ ॥
दमयन्त्या सह नलो विजहारामरोपमः।
मूलम्
पुनश्च रमणीयेषु वनेषूपवनेषु च ॥ ४५ ॥
दमयन्त्या सह नलो विजहारामरोपमः।
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर देवतुल्य राजा नलने दमयन्तीके साथ रमणीय वनों और उपवनोंमें विहार किया॥४५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जनयामास च ततो दमयन्त्यां महामनाः।
इन्द्रसेनं सुतं चापि इन्द्रसेनां च कन्यकाम् ॥ ४६ ॥
मूलम्
जनयामास च ततो दमयन्त्यां महामनाः।
इन्द्रसेनं सुतं चापि इन्द्रसेनां च कन्यकाम् ॥ ४६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महामना नलने दमयन्तीके गर्भसे इन्द्रसेन नामक एक पुत्र और इन्द्रसेना नामवाली एक कन्याको जन्म दिया॥४६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं स यजमानश्च विहरंश्च नराधिपः।
ररक्ष वसुसम्पूर्णां वसुधां वसुधाधिपः ॥ ४७ ॥
मूलम्
एवं स यजमानश्च विहरंश्च नराधिपः।
ररक्ष वसुसम्पूर्णां वसुधां वसुधाधिपः ॥ ४७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार यज्ञोंका अनुष्ठान तथा सुखपूर्वक विहार करते हुए महाराज नलने धन-धान्यसे सम्पन्न वसुन्धराका पालन किया॥४७॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि नलोपाख्यानपर्वणि दमयन्तीस्वयंवरे सप्तपञ्चाशत्तमोऽध्यायः ॥ ५७ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्वके अन्तर्गत दमयन्ती-स्वयंवरविषयक सत्तावनवाँ अध्याय पूरा हुआ॥५७॥