०५४ इन्द्रनारदसंवादः

भागसूचना

चतुष्पञ्चाशत्तमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

स्वर्गमें नारद और इन्द्रकी बातचीत, दमयन्तीके स्वयंवरके लिये राजाओं तथा लोकपालोंका प्रस्थान

मूलम् (वचनम्)

बृहदश्व उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

दमयन्ती तु तच्छ्रुत्वा वचो हंसस्य भारत।
ततः प्रभृति न स्वस्था नलं प्रति बभूव सा॥१॥

मूलम्

दमयन्ती तु तच्छ्रुत्वा वचो हंसस्य भारत।
ततः प्रभृति न स्वस्था नलं प्रति बभूव सा॥१॥

अनुवाद (हिन्दी)

बृहदश्व मुनि कहते हैं— भारत! दमयन्तीने जबसे हंसकी बातें सुनीं, तबसे राजा नलके प्रति अनुरक्त हो जानेके कारण वह अस्वस्थ रहने लगी॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततश्चिन्तापरा दीना विवर्णवदना कृशा।
बभूव दमयन्ती तु निःश्वासपरमा तदा ॥ २ ॥

मूलम्

ततश्चिन्तापरा दीना विवर्णवदना कृशा।
बभूव दमयन्ती तु निःश्वासपरमा तदा ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर उसके मनमें सदा चिन्ता बनी रहती थी। स्वभावमें दैन्य आ गया। चेहरेका रंग फीका पड़ गया और दमयन्ती दिन-दिन दुबली होने लगी। उस समय वह प्रायः लंबी साँसें खींचती रहती थी॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ऊर्ध्वदृष्टिर्ध्यानपरा बभूवोन्मत्तदर्शना ।
पाण्डुवर्णा क्षणेनाथ हृच्छयाविष्टचेतना ॥ ३ ॥

मूलम्

ऊर्ध्वदृष्टिर्ध्यानपरा बभूवोन्मत्तदर्शना ।
पाण्डुवर्णा क्षणेनाथ हृच्छयाविष्टचेतना ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ऊपरकी ओर निहारती हुई सदा नलके ध्यानमें परायण रहती थी। देखनेमें उन्मत्त-सी जान पड़ती थी। उसका शरीर पाण्डुवर्णका हो गया। कामवेदनाकी अधिकतासे उसकी चेतना क्षण-क्षणमें विलुप्त-सी हो जाती थी॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न शय्यासनभोगेषु रतिं विन्दति कर्हिचित्।
न नक्तं न दिवा शेते हाहेति रुदती पुनः॥४॥

मूलम्

न शय्यासनभोगेषु रतिं विन्दति कर्हिचित्।
न नक्तं न दिवा शेते हाहेति रुदती पुनः॥४॥

अनुवाद (हिन्दी)

उसकी शय्या, आसन तथा भोग-सामग्रियोंमें कहीं भी प्रीति नहीं होती थी। वह न तो रातमें सोती और न दिनमें ही। बारंबार ‘हाय-हाय’ करके रोती ही रहती थी॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तामस्वस्थां तदाकारां सख्यस्ता जज्ञुरिङ्गितैः।
ततो विदर्भपतये दमयन्त्याः सखीजनः ॥ ५ ॥
न्यवेदयत् तामस्वस्थां दमयन्तीं नरेश्वरे।
तच्छ्रुत्वा नृपतिर्भीमो दमयन्तीं सखीगणात् ॥ ६ ॥
चिन्तयामास तत् कार्यं सुमहत् स्वां सुतां प्रति।
किमर्थं दुहिता मेऽद्य नातिस्वस्थेव लक्ष्यते ॥ ७ ॥

मूलम्

तामस्वस्थां तदाकारां सख्यस्ता जज्ञुरिङ्गितैः।
ततो विदर्भपतये दमयन्त्याः सखीजनः ॥ ५ ॥
न्यवेदयत् तामस्वस्थां दमयन्तीं नरेश्वरे।
तच्छ्रुत्वा नृपतिर्भीमो दमयन्तीं सखीगणात् ॥ ६ ॥
चिन्तयामास तत् कार्यं सुमहत् स्वां सुतां प्रति।
किमर्थं दुहिता मेऽद्य नातिस्वस्थेव लक्ष्यते ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उसकी वैसी आकृति और अस्वस्थ-अवस्थाका क्या कारण है, यह सखियोंने संकेतसे जान लिया। तदनन्तर दमयन्तीकी सखियोंने विदर्भनरेशको उसकी उस अस्वस्थ-अवस्थाके विषयमें सूचना दी। सखियोंके मुखसे दमयन्तीके विषयमें वैसी बात सुनकर राजा भीमने बहुत सोचा-विचारा, परंतु अपनी पुत्रीके लिये कोई विशेष महत्त्वपूर्ण कार्य उन्हें नहीं सूझ पड़ा। वे सोचने लगे कि ‘क्यों मेरी पुत्री आजकल स्वस्थ नहीं दिखायी देती है?’॥५—७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स समीक्ष्य महीपालः स्वां सुतां प्राप्तयौवनाम्।
अपश्यदात्मना कार्यं दमयन्त्याः स्वयंवरम् ॥ ८ ॥

मूलम्

स समीक्ष्य महीपालः स्वां सुतां प्राप्तयौवनाम्।
अपश्यदात्मना कार्यं दमयन्त्याः स्वयंवरम् ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजाने बहुत सोचने-विचारनेके बाद यह निश्चय किया कि मेरी पुत्री अब युवावस्थामें प्रवेश कर चुकी, अतः दमयन्तीके लिये स्वयंवर रचाना ही उन्हें अपना विशेष कर्तव्य दिखायी दिया॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स संनिमन्त्रयामास महीपालान् विशाम्पतिः।
एषोऽनुभूयतां वीराः स्वयंवर इति प्रभो ॥ ९ ॥

मूलम्

स संनिमन्त्रयामास महीपालान् विशाम्पतिः।
एषोऽनुभूयतां वीराः स्वयंवर इति प्रभो ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! विदर्भनरेशने सब राजाओंको इस प्रकार निमन्त्रित किया—‘वीरो! मेरे यहाँ कन्याका स्वयंवर है। आपलोग पधारकर इस उत्सवका आनन्द लें’॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

श्रुत्वा तु पार्थिवाः सर्वे दमयन्त्याः स्वयंवरम्।
अभिजग्मुस्ततो भीमं राजानो भीमशासनात् ॥ १० ॥
हस्त्यश्वरथघोषेण पूरयन्तो वसुन्धराम् ।
विचित्रमाल्याभरणैर्बलैर्दृश्यैः स्वलंकृतैः ॥ ११ ॥

मूलम्

श्रुत्वा तु पार्थिवाः सर्वे दमयन्त्याः स्वयंवरम्।
अभिजग्मुस्ततो भीमं राजानो भीमशासनात् ॥ १० ॥
हस्त्यश्वरथघोषेण पूरयन्तो वसुन्धराम् ।
विचित्रमाल्याभरणैर्बलैर्दृश्यैः स्वलंकृतैः ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

दमयन्तीका स्वयंवर होने जा रहा है, यह सुनकर सभी नरेश विदर्भराज भीमके आदेशसे हाथी, घोड़ों तथा रथोंकी तुमुल ध्वनिसे पृथ्वीको गुँजाते हुए उनकी राजधानीमें गये। उस समय उनके साथ विचित्र माला एवं आभूषणोंसे विभूषित बहुत-से सैनिक देखे जा रहे थे॥१०-११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तेषां भीमो महाबाहुः पार्थिवानां महात्मनाम्।
यथार्हमकरोत् पूजां तेऽवसंस्तत्र पूजिताः ॥ १२ ॥

मूलम्

तेषां भीमो महाबाहुः पार्थिवानां महात्मनाम्।
यथार्हमकरोत् पूजां तेऽवसंस्तत्र पूजिताः ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाबाहु राजा भीमने वहाँ पधारे हुए उन महामना नरेशोंका यथायोग्य पूजन किया। तत्पश्चात् वे उनसे पूजित हो वहीं रहने लगे॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतस्मिन्नेव काले तु सुराणामृषिसत्तमौ।
अटमानौ महात्मानाविन्द्रलोकमितो गतौ ॥ १३ ॥
नारदः पर्वतश्चैव महाप्राज्ञौ महाव्रतौ।
देवराजस्य भवनं विविशाते सुपूजितौ ॥ १४ ॥

मूलम्

एतस्मिन्नेव काले तु सुराणामृषिसत्तमौ।
अटमानौ महात्मानाविन्द्रलोकमितो गतौ ॥ १३ ॥
नारदः पर्वतश्चैव महाप्राज्ञौ महाव्रतौ।
देवराजस्य भवनं विविशाते सुपूजितौ ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसी समय देवर्षिप्रवर महान् व्रतधारी महाप्राज्ञ नारद और पर्वत दोनों महात्मा इधरसे घूमते हुए इन्द्रलोकमें गये। वहाँ उन्होंने देवराजके भवनमें प्रवेश किया। उस भवनमें उनका विशेष आदर-सत्कार एवं पूजन किया गया॥१३-१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तावर्चयित्वा मघवा ततः कुशलमव्ययम्।
पप्रच्छानामयं चापि तयोः सर्वगतं विभुः ॥ १५ ॥

मूलम्

तावर्चयित्वा मघवा ततः कुशलमव्ययम्।
पप्रच्छानामयं चापि तयोः सर्वगतं विभुः ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन दोनोंकी पूजा करके भगवान् इन्द्रने उनसे उन दोनोंके तथा सम्पूर्ण जगत्‌के कुशल-मंगल एवं स्वस्थताका समाचार पूछा॥१५॥

मूलम् (वचनम्)

नारद उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

आवयोः कुशलं देव सर्वत्रगतमीश्वर।
लोके च मघवन् कृत्स्ने नृपाः कुशलिनो विभो ॥ १६ ॥

मूलम्

आवयोः कुशलं देव सर्वत्रगतमीश्वर।
लोके च मघवन् कृत्स्ने नृपाः कुशलिनो विभो ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब नारदजीने कहा— प्रभो! देवेश्वर! हमलोगोंकी सर्वत्र कुशल है और समस्त लोकमें भी राजालोग सकुशल हैं॥१६॥

मूलम् (वचनम्)

बृहदश्व उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

नारदस्य वचः श्रुत्वा पप्रच्छ बलवृत्रहा।
धर्मज्ञाः पृथिवीपालास्त्यक्तजीवितयोधिनः ॥ १७ ॥
शस्त्रेण निधनं काले ये गच्छन्त्यपराङ्‌मुखाः।
अयं लोकोऽक्षयस्तेषां यथैव मम कामधुक् ॥ १८ ॥

मूलम्

नारदस्य वचः श्रुत्वा पप्रच्छ बलवृत्रहा।
धर्मज्ञाः पृथिवीपालास्त्यक्तजीवितयोधिनः ॥ १७ ॥
शस्त्रेण निधनं काले ये गच्छन्त्यपराङ्‌मुखाः।
अयं लोकोऽक्षयस्तेषां यथैव मम कामधुक् ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

बृहदश्व कहते हैं— राजन्! नारदकी बात सुनकर बल और वृत्रासुरका वध करनेवाले इन्द्रने उनसे पूछा—‘मुने! जो धर्मज्ञ भूपाल अपने प्राणोंका मोह छोड़कर युद्ध करते हैं और पीठ न दिखाकर लड़ते समय किसी शस्त्रके आघातसे मृत्युको प्राप्त होते हैं, उनके लिये हमारा यह स्वर्गलोक अक्षय हो जाता है और मेरी ही तरह उन्हें भी यह मनोवांछित भोग प्रदान करता है॥१७-१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

क्व नु ते क्षत्रियाः शूरा न हि पश्यामि तानहम्।
आगच्छतो महीपालान् दयितानतिथीन् मम ॥ १९ ॥
एवमुक्तस्तु शक्रेण नारदः प्रत्यभाषत।

मूलम्

क्व नु ते क्षत्रियाः शूरा न हि पश्यामि तानहम्।
आगच्छतो महीपालान् दयितानतिथीन् मम ॥ १९ ॥
एवमुक्तस्तु शक्रेण नारदः प्रत्यभाषत।

अनुवाद (हिन्दी)

‘वे शूरवीर क्षत्रिय कहाँ हैं? अपने उन प्रिय अतिथियोंको आजकल मैं यहाँ आते नहीं देख रहा हूँ’ इन्द्रके ऐसा पूछनेपर नारदजीने उत्तर दिया॥१९॥

मूलम् (वचनम्)

नारद उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

शृणु मे मघवन् येन न दृश्यन्ते महीक्षितः ॥ २० ॥
विदर्भराज्ञो दुहिता दमयन्तीति विश्रुता।
रूपेण समतिक्रान्ता पृथिव्यां सर्वयोषितः ॥ २१ ॥

मूलम्

शृणु मे मघवन् येन न दृश्यन्ते महीक्षितः ॥ २० ॥
विदर्भराज्ञो दुहिता दमयन्तीति विश्रुता।
रूपेण समतिक्रान्ता पृथिव्यां सर्वयोषितः ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नारदजी बोले— मघवन्! मैं वह कारण बताता हूँ, जिससे राजालोग आजकल यहाँ नहीं दिखायी देते, सुनिये। विदर्भनरेश भीमके यहाँ दमयन्ती नामसे प्रसिद्ध एक कन्या उत्पन्न हुई है, जो मनोहर रूप-सौन्दर्यमें पृथ्वीकी सम्पूर्ण युवतियोंको लाँघ गयी है॥२०-२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्याः स्वयंवरः शक्र भविता न चिरादिव।
तत्र गच्छन्ति राजानो राजपुत्राश्च सर्वशः ॥ २२ ॥

मूलम्

तस्याः स्वयंवरः शक्र भविता न चिरादिव।
तत्र गच्छन्ति राजानो राजपुत्राश्च सर्वशः ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इन्द्र! अब शीघ्र ही उसका स्वयंवर होनेवाला है, उसीमें सब राजा तथा राजकुमार जा रहे हैं॥२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तां रत्नभूतां लोकस्य प्रार्थयन्तो महीक्षितः।
काङ्क्षन्ति स्म विशेषेण बलवृत्रनिषूदन ॥ २३ ॥

मूलम्

तां रत्नभूतां लोकस्य प्रार्थयन्तो महीक्षितः।
काङ्क्षन्ति स्म विशेषेण बलवृत्रनिषूदन ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

बल और वृत्रासुरके नाशक इन्द्र! दमयन्ती सम्पूर्ण जगत्‌का एक अद्भुत रत्न है। इसलिये सब राजा उसे पानेकी विशेष अभिलाषा रखते हैं॥२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतस्मिन् कथ्यमाने तु लोकपालाश्च साग्निकाः।
आजग्मुर्देवराजस्य समीपममरोत्तमाः ॥ २४ ॥

मूलम्

एतस्मिन् कथ्यमाने तु लोकपालाश्च साग्निकाः।
आजग्मुर्देवराजस्य समीपममरोत्तमाः ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यह बात हो ही रही थी कि देवश्रेष्ठ लोकपालगण अग्निसहित देवराजके समीप आये॥२४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततस्ते शुश्रुवुः सर्वे नारदस्य वचो महत्।
श्रुत्वैव चाब्रुवन् हृष्टा गच्छामो वयमप्युत ॥ २५ ॥

मूलम्

ततस्ते शुश्रुवुः सर्वे नारदस्य वचो महत्।
श्रुत्वैव चाब्रुवन् हृष्टा गच्छामो वयमप्युत ॥ २५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर उन सबने नारदजीकी ये विशिष्ट बातें सुनीं। सुनते ही वे सब-के-सब हर्षोल्लाससे परिपूर्ण हो बोले—‘हमलोग भी उस स्वयंवरमें चलें’॥२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः सर्वे महाराज सगणाः सहवाहनाः।
विदर्भानभिजग्मुस्ते यतः सर्वे महीक्षितः ॥ २६ ॥

मूलम्

ततः सर्वे महाराज सगणाः सहवाहनाः।
विदर्भानभिजग्मुस्ते यतः सर्वे महीक्षितः ॥ २६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाराज! तदनन्तर वे सब देवता अपने सेवकगणों और वाहनोंके साथ विदर्भदेशमें गये, जहाँ समस्त भूपाल एकत्र हुए थे॥२६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नलोऽपि राजा कौन्तेय श्रुत्वा राज्ञां समागमम्।
अभ्यगच्छददीनात्मा दमयन्तीमनुव्रतः ॥ २७ ॥

मूलम्

नलोऽपि राजा कौन्तेय श्रुत्वा राज्ञां समागमम्।
अभ्यगच्छददीनात्मा दमयन्तीमनुव्रतः ॥ २७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कुन्तीनन्दन! उदारहृदय राजा नल भी विदर्भनगरमें समस्त राजाओंका समागम सुनकर दमयन्तीमें अनुरक्त हो वहाँ गये॥२७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथ देवाः पथि नलं ददृशुर्भूतले स्थितम्।
साक्षादिव स्थितं मूर्त्या मन्मथं रूपसम्पदा ॥ २८ ॥

मूलम्

अथ देवाः पथि नलं ददृशुर्भूतले स्थितम्।
साक्षादिव स्थितं मूर्त्या मन्मथं रूपसम्पदा ॥ २८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस समय देवताओंने पृथ्वीपर मार्गमें खड़े हुए राजा नलको देखा। रूप-सम्पत्तिकी दृष्टिसे वे साक्षात् मूर्तिमान् कामदेव-से जान पड़ते थे॥२८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तं दृष्ट्वा लोकपालास्ते भ्राजमानं यथा रविम्।
तस्थुर्विगतसंकल्पा विस्मिता रूपसम्पदा ॥ २९ ॥

मूलम्

तं दृष्ट्वा लोकपालास्ते भ्राजमानं यथा रविम्।
तस्थुर्विगतसंकल्पा विस्मिता रूपसम्पदा ॥ २९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सूर्यके समान प्रकाशित होनेवाले महाराज नलको देखकर वे लोकपाल उनके रूप-वैभवसे चकित हो दमयन्तीको पानेका संकल्प छोड़ बैठे॥२९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततोऽन्तरिक्षे विष्टभ्य विमानानि दिवौकसः।
अब्रुवन् नैषधं राजन्नवतीर्य नभस्तलात् ॥ ३० ॥

मूलम्

ततोऽन्तरिक्षे विष्टभ्य विमानानि दिवौकसः।
अब्रुवन् नैषधं राजन्नवतीर्य नभस्तलात् ॥ ३० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! तब उन देवताओंने अपने विमानोंको आकाशमें रोक दिया और वहाँसे नीचे उतरकर निषधनरेशसे कहा—॥३०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भो भो निषधराजेन्द्र नल सत्यव्रतो भवान्।
अस्माकं कुरु साहाय्यं दूतो भव नरोत्तम ॥ ३१ ॥

मूलम्

भो भो निषधराजेन्द्र नल सत्यव्रतो भवान्।
अस्माकं कुरु साहाय्यं दूतो भव नरोत्तम ॥ ३१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘निषधदेशके महाराज नरश्रेष्ठ नल! आप सत्य-व्रती हैं, हमलोगोंकी सहायता कीजिये। हमारे दूत बन जाइये’॥३१॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि नलोपाख्यानपर्वणि इन्द्रनारदसंवादे चतुष्पञ्चाशत्तमोऽध्यायः ॥ ५४ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्वके अन्तर्गत नलोपाख्यानपर्वमें इन्द्रनारदसंवादविषयक चौवनवाँ अध्याय पूरा हुआ॥५४॥