भागसूचना
त्रिपञ्चाशत्तमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
नल-दमयन्तीके गुणोंका वर्णन, उनका परस्पर अनुराग और हंसका दमयन्ती और नलको एक-दूसरेके संदेश सुनाना
मूलम् (वचनम्)
बृहदश्व उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
आसीद् राजा नलो नाम वीरसेनसुतो बली।
उपपन्नो गुणैरिष्टै रूपवानश्वकोविदः ॥ १ ॥
मूलम्
आसीद् राजा नलो नाम वीरसेनसुतो बली।
उपपन्नो गुणैरिष्टै रूपवानश्वकोविदः ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
बृहदश्वने कहा— धर्मराज! निषधदेशमें वीरसेनके पुत्र नल नामसे प्रसिद्ध एक बलवान् राजा हो गये हैं। वे उत्तम गुणोंसे सम्पन्न, रूपवान् और अश्वसंचालनकी कलामें कुशल थे॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अतिष्ठन्मनुजेन्द्राणां मूर्ध्नि देवपतिर्यथा ।
उपर्युपरि सर्वेषामादित्य इव तेजसा ॥ २ ॥
ब्रह्मण्यो वेदविच्छूरो निषधेषु महीपतिः।
अक्षप्रियः सत्यवादी महानक्षौहिणीपतिः ॥ ३ ॥
मूलम्
अतिष्ठन्मनुजेन्द्राणां मूर्ध्नि देवपतिर्यथा ।
उपर्युपरि सर्वेषामादित्य इव तेजसा ॥ २ ॥
ब्रह्मण्यो वेदविच्छूरो निषधेषु महीपतिः।
अक्षप्रियः सत्यवादी महानक्षौहिणीपतिः ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे देवराज इन्द्र सम्पूर्ण देवताओंके शिरमौर हैं, उसी प्रकार राजा नलका स्थान समस्त राजाओंके ऊपर था। वे तेजमें भगवान् सूर्यके समान सर्वोपरि थे। निषधदेशके महाराज नल बड़े ब्राह्मणभक्त, वेदवेत्ता, शूरवीर, द्यूत-क्रीड़ाके प्रेमी, सत्यवादी, महान् और एक अक्षौहिणी सेनाके स्वामी थे॥२-३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ईप्सितो वरनारीणामुदारः संयतेन्द्रियः ।
रक्षिता धन्विनां श्रेष्ठः साक्षादिव मनुः स्वयम् ॥ ४ ॥
मूलम्
ईप्सितो वरनारीणामुदारः संयतेन्द्रियः ।
रक्षिता धन्विनां श्रेष्ठः साक्षादिव मनुः स्वयम् ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे श्रेष्ठ स्त्रियोंको प्रिय थे और उदार, जितेन्द्रिय, प्रजाजनोंके रक्षक तथा साक्षात् मनुके समान धनुर्धरोंमें उत्तम थे॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तथैवासीद् विदर्भेषु भीमो भीमपराक्रमः।
शूरः सर्वगुणैर्युक्तः प्रजाकामः स चाप्रजः ॥ ५ ॥
मूलम्
तथैवासीद् विदर्भेषु भीमो भीमपराक्रमः।
शूरः सर्वगुणैर्युक्तः प्रजाकामः स चाप्रजः ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसी प्रकार उन दिनों विदर्भदेशमें भयानक पराक्रमी भीम नामक राजा राज्य करते थे। वे शूरवीर और सर्व-सद्गुणसम्पन्न थे। उन्हें कोई संतान नहीं थी। अतः संतानप्राप्तिकी कामना उनके हृदयमें सदा बनी रहती थी॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स प्रजार्थे परं यत्नमकरोत् सुसमाहितः।
तमभ्यगच्छद् ब्रह्मर्षिर्दमनो नाम भारत ॥ ६ ॥
मूलम्
स प्रजार्थे परं यत्नमकरोत् सुसमाहितः।
तमभ्यगच्छद् ब्रह्मर्षिर्दमनो नाम भारत ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भारत! राजा भीमने अत्यन्त एकाग्रचित्त होकर संतानप्राप्तिके लिये महान् प्रयत्न किया। उन्हीं दिनों उनके यहाँ दमन नामक ब्रह्मर्षि पधारे॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तं स भीमः प्रजाकामस्तोषयामास धर्मवित्।
महिष्या सह राजेन्द्र सत्कारेण सुवर्चसम् ॥ ७ ॥
तस्मै प्रसन्नो दमनः सभार्याय वरं ददौ।
कन्यारत्नं कुमारांश्च त्रीनुदारान् महायशाः ॥ ८ ॥
मूलम्
तं स भीमः प्रजाकामस्तोषयामास धर्मवित्।
महिष्या सह राजेन्द्र सत्कारेण सुवर्चसम् ॥ ७ ॥
तस्मै प्रसन्नो दमनः सभार्याय वरं ददौ।
कन्यारत्नं कुमारांश्च त्रीनुदारान् महायशाः ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजेन्द्र! धर्मज्ञ तथा संतानकी इच्छावाले उस भीमने अपनी रानीसहित उन महातेजस्वी मुनिको पूर्ण सत्कार करके संतुष्ट किया। महायशस्वी दमन मुनिने प्रसन्न होकर पत्नीसहित राजा भीमको एक कन्या और तीन उदार पुत्र प्रदान किये॥७-८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दमयन्तीं दमं दान्तं दमनं च सुवर्चसम्।
उपपन्नान् गुणैः सर्वैर्भीमान् भीमपराक्रमान् ॥ ९ ॥
मूलम्
दमयन्तीं दमं दान्तं दमनं च सुवर्चसम्।
उपपन्नान् गुणैः सर्वैर्भीमान् भीमपराक्रमान् ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कन्याका नाम था दमयन्ती और पुत्रोंके नाम थे—दम, दान्त तथा दमन। ये सभी बड़े तेजस्वी थे। राजाके तीनों पुत्र गुणसम्पन्न, भयंकर वीर और भयानक पराक्रमी थे॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दमयन्ती तु रूपेण तेजसा यशसा श्रिया।
सौभाग्येन च लोकेषु यशः प्राप सुमध्यमा ॥ १० ॥
मूलम्
दमयन्ती तु रूपेण तेजसा यशसा श्रिया।
सौभाग्येन च लोकेषु यशः प्राप सुमध्यमा ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सुन्दर कटिप्रदेशवाली दमयन्ती रूप, तेज, यश, श्री और सौभाग्यके द्वारा तीनों लोकोंमें विख्यात यशस्विनी हुई॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथ तां वयसि प्राप्ते दासीनां समलंकृताम्।
शतं शतं सखीनां च पर्युपासच्छचीमिव ॥ ११ ॥
मूलम्
अथ तां वयसि प्राप्ते दासीनां समलंकृताम्।
शतं शतं सखीनां च पर्युपासच्छचीमिव ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जब उसने युवावस्थामें प्रवेश किया, उस समय सौ दासियाँ और सौ सखियाँ वस्त्राभूषणोंसे अलंकृत हो सदा उसकी सेवामें उपस्थित रहती थीं। मानो देवांगनाएँ शचीकी उपासना करती हों॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत्र स्म राजते भैमी सर्वाभरणभूषिता।
सखीमध्येऽनवद्याङ्गी विद्युत्सौदामनी यथा ॥ १२ ॥
मूलम्
तत्र स्म राजते भैमी सर्वाभरणभूषिता।
सखीमध्येऽनवद्याङ्गी विद्युत्सौदामनी यथा ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अनिन्द्द सुन्दर अंगोंवाली भीमकुमारी दमयन्ती सब प्रकारके आभूषणोंसे विभूषित हो सखियोंकी मण्डलीमें वैसी ही शोभा पाती थी, जैसे मेघमालाके बीच विद्युत् प्रकाशित हो रही हो॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अतीव रूपसम्पन्ना श्रीरिवायतलोचना ।
न देवेषु न यक्षेषु तादृग् रूपवती क्वचित् ॥ १३ ॥
मूलम्
अतीव रूपसम्पन्ना श्रीरिवायतलोचना ।
न देवेषु न यक्षेषु तादृग् रूपवती क्वचित् ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वह लक्ष्मीके समान अत्यन्त सुन्दर रूपसे सुशोभित थी। उसके नेत्र विशाल थे। देवताओं और यक्षोंमें भी वैसी सुन्दरी कन्या कहीं देखनेमें नहीं आती थी॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मानुषेष्वपि चान्येषु दृष्टपूर्वाथवा श्रुता।
चित्तप्रसादनी बाला देवानामपि सुन्दरी ॥ १४ ॥
मूलम्
मानुषेष्वपि चान्येषु दृष्टपूर्वाथवा श्रुता।
चित्तप्रसादनी बाला देवानामपि सुन्दरी ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मनुष्यों तथा अन्य वर्गके लोगोंमें भी वैसी सुन्दरी पहले न तो कभी देखी गयी थी और न सुननेमें ही आयी थी। उस बालाको देखते ही चित्त प्रसन्न हो जाता था। वह देववर्गमें भी श्रेष्ठ सुन्दरी समझी जाती थी॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नलश्च नरशार्दूलो लोकेष्वप्रतिमो भुवि।
कन्दर्प इव रूपेण मूर्तिमानभवत् स्वयम् ॥ १५ ॥
मूलम्
नलश्च नरशार्दूलो लोकेष्वप्रतिमो भुवि।
कन्दर्प इव रूपेण मूर्तिमानभवत् स्वयम् ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नरश्रेष्ठ नल भी इस भूतलके मनुष्योंमें अनुपम सुन्दर थे। उनका रूप देखकर ऐसा जान पड़ता था, मानो नलके आकारमें स्वयं मूर्तिमान् कामदेव ही उत्पन्न हुआ हो॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्याः समीपे तु नलं प्रशशंसुः कुतूहलात्।
नैषधस्य समीपे तु दमयन्तीं पुनः पुनः ॥ १६ ॥
मूलम्
तस्याः समीपे तु नलं प्रशशंसुः कुतूहलात्।
नैषधस्य समीपे तु दमयन्तीं पुनः पुनः ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
लोग कौतूहलवश दमयन्तीके समीप नलकी प्रशंसा करते थे और निषधराज नलके निकट बार-बार दमयन्तीके सौन्दर्यकी सराहना किया करते थे॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तयोरदृष्टः कामोऽभूच्छृण्वतोः सततं गुणान्।
अन्योन्यं प्रति कौन्तेय स व्यवर्धत हृच्छयः ॥ १७ ॥
मूलम्
तयोरदृष्टः कामोऽभूच्छृण्वतोः सततं गुणान्।
अन्योन्यं प्रति कौन्तेय स व्यवर्धत हृच्छयः ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कुन्तीनन्दन! इस प्रकार निरन्तर एक-दूसरेके गुणोंको सुनते-सुनते उन दोनोंमें बिना देखे ही परस्पर काम (अनुराग) उत्पन्न हो गया। उनकी वह कामना दिन-दिन बढ़ती ही चली गयी॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अशक्नुवन् नलः कामं तदा धारयितुं हृदा।
अन्तःपुरसमीपस्थे वन आस्ते रहोगतः ॥ १८ ॥
मूलम्
अशक्नुवन् नलः कामं तदा धारयितुं हृदा।
अन्तःपुरसमीपस्थे वन आस्ते रहोगतः ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जब राजा नल उस कामवेदनाको हृदयके भीतर छिपाये रखनेमें असमर्थ हो गये, तब वे अन्तःपुरके समीपवर्ती उपवनमें जाकर एकान्तमें बैठ गये॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स ददर्श ततो हंसान् जातरूपपरिष्कृतान्।
वने विचरतां तेषामेकं जग्राह पक्षिणम् ॥ १९ ॥
मूलम्
स ददर्श ततो हंसान् जातरूपपरिष्कृतान्।
वने विचरतां तेषामेकं जग्राह पक्षिणम् ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इतनेहीमें उनकी दृष्टि कुछ हंसोंपर पड़ी, जो सुवर्णमय पंखोंसे विभूषित थे। वे उसी उपवनमें विचर रहे थे। राजाने उनमेंसे एक हंसको पकड़ लिया॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततोऽन्तरिक्षगो वाचं व्याजहार नलं तदा।
हन्तव्योऽस्मि न ते राजन् करिष्यामि तव प्रियम् ॥ २० ॥
मूलम्
ततोऽन्तरिक्षगो वाचं व्याजहार नलं तदा।
हन्तव्योऽस्मि न ते राजन् करिष्यामि तव प्रियम् ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब आकाशचारी हंसने उस समय नलसे कहा—‘राजन्! आप मुझे न मारें। मैं आपका प्रिय कार्य करूँगा॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दमयन्तीसकाशे त्वां कथयिष्यामि नैषध।
यथा त्वदन्यं पुरुषं न सा मंस्यति कर्हिचित् ॥ २१ ॥
मूलम्
दमयन्तीसकाशे त्वां कथयिष्यामि नैषध।
यथा त्वदन्यं पुरुषं न सा मंस्यति कर्हिचित् ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘निषधनरेश! मैं दमयन्तीके निकट आपकी ऐसी प्रशंसा करूँगा, जिससे वह आपके सिवा दूसरे किसी पुरुषको मनमें कभी स्थान न देगी’॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमुक्तस्ततो हंसमुत्ससर्ज महीपतिः ।
ते तु हंसाः समुत्पत्य विदर्भानगमंस्ततः ॥ २२ ॥
मूलम्
एवमुक्तस्ततो हंसमुत्ससर्ज महीपतिः ।
ते तु हंसाः समुत्पत्य विदर्भानगमंस्ततः ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
हंसके ऐसा कहनेपर राजा नलने उसे छोड़ दिया। फिर वे हंस वहाँसे उड़कर विदर्भदेशमें गये॥२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विदर्भनगरीं गत्वा दमयन्त्यास्तदान्तिके ।
निपेतुस्ते गरुत्मन्तः सा ददर्श च तान् खगान् ॥ २३ ॥
मूलम्
विदर्भनगरीं गत्वा दमयन्त्यास्तदान्तिके ।
निपेतुस्ते गरुत्मन्तः सा ददर्श च तान् खगान् ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब विदर्भनगरीमें जाकर वे सभी हंस दमयन्तीके निकट उतरे। दमयन्तीने भी उन अद्भुत पक्षियोंको देखा॥२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सा तानद्भुतरूपान् वै दृष्ट्वा सखिगणावृता।
हृष्टा ग्रहीतुं खगमांस्त्वरमाणोपचक्रमे ॥ २४ ॥
मूलम्
सा तानद्भुतरूपान् वै दृष्ट्वा सखिगणावृता।
हृष्टा ग्रहीतुं खगमांस्त्वरमाणोपचक्रमे ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सखियोंसे घिरी हुई राजकुमारी दमयन्ती उन अपूर्व पक्षियोंको देखकर बहुत प्रसन्न हुई और तुरंत ही उन्हें पकड़नेकी चेष्टा करने लगी॥२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथ हंसा विससृपुः सर्वतः प्रमदावने।
एकैकशस्तदा कन्यास्तान् हंसान् समुपाद्रवन् ॥ २५ ॥
मूलम्
अथ हंसा विससृपुः सर्वतः प्रमदावने।
एकैकशस्तदा कन्यास्तान् हंसान् समुपाद्रवन् ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब हंस उस प्रमदावनमें सब ओर विचरण करने लगे। उस समय सभी राजकन्याओंने एक-एक करके उन सभी हंसोंका पीछा किया॥२५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दमयन्ती तु यं हंसं समुपाधावदन्तिके।
स मानुषीं गिरं कृत्वा दमयन्तीमथाब्रवीत् ॥ २६ ॥
मूलम्
दमयन्ती तु यं हंसं समुपाधावदन्तिके।
स मानुषीं गिरं कृत्वा दमयन्तीमथाब्रवीत् ॥ २६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
दमयन्ती जिस हंसके निकट दौड़ रही थी, उसने उससे मानवी वाणीमें कहा—॥२६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दमयन्ति नलो नाम निषधेषु महीपतिः।
अश्विनोः सदृशो रूपे न समास्तस्य मानुषाः ॥ २७ ॥
मूलम्
दमयन्ति नलो नाम निषधेषु महीपतिः।
अश्विनोः सदृशो रूपे न समास्तस्य मानुषाः ॥ २७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘राजकुमारी दमयन्ती! सुनो, निषधदेशमें नल नामसे प्रसिद्ध एक राजा हैं, जो अश्विनीकुमारोंके समान सुन्दर हैं। मनुष्योंमें तो कोई उनके समान है ही नहीं॥२७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कन्दर्प इव रूपेण मूर्तिमानभवत् स्वयम्।
तस्य वै यदि भार्या त्वं भवेथा वरवर्णिनि ॥ २८ ॥
सफलं ते भवेज्जन्म रूपं चेदं सुमध्यमे।
वयं हि देवगन्धर्वमनुष्योरगराक्षसान् ॥ २९ ॥
दृष्टवन्तो न चास्माभिर्दृष्टपूर्वस्तथाविधः ।
त्वं चापि रत्नं नारीणां नरेषु च नलो वरः॥३०॥
विशिष्टया विशिष्टेन संगमो गुणवान् भवेत्।
मूलम्
कन्दर्प इव रूपेण मूर्तिमानभवत् स्वयम्।
तस्य वै यदि भार्या त्वं भवेथा वरवर्णिनि ॥ २८ ॥
सफलं ते भवेज्जन्म रूपं चेदं सुमध्यमे।
वयं हि देवगन्धर्वमनुष्योरगराक्षसान् ॥ २९ ॥
दृष्टवन्तो न चास्माभिर्दृष्टपूर्वस्तथाविधः ।
त्वं चापि रत्नं नारीणां नरेषु च नलो वरः॥३०॥
विशिष्टया विशिष्टेन संगमो गुणवान् भवेत्।
अनुवाद (हिन्दी)
‘सुन्दरि! रूपकी दृष्टिसे तो वे मानो स्वयं मूर्तिमान् कामदेव-से ही प्रतीत होते हैं। सुमध्यमे! यदि तुम उनकी पत्नी हो जाओ तो तुम्हारा जन्म और यह मनोहर रूप सफल हो जाय। हमलोगोंने देवता, गन्धर्व, मनुष्य, नाग तथा राक्षसोंको भी देखा है; परंतु हमारी दृष्टिमें अबतक उनके-जैसा कोई भी पुरुष पहले कभी नहीं आया है। तुम रमणियोंमें रत्नस्वरूपा हो और नल पुरुषोंके मुकुटमणि हैं। यदि किसी विशिष्ट नारीका विशिष्ट पुरुषके साथ संयोग हो तो वह विशेष गुणकारी होता है’॥२८—३०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमुक्ता तु हंसेन दमयन्ती विशाम्पते ॥ ३१ ॥
अब्रवीत् तत्र तं हंसं त्वमप्येवं नले वद।
तथेत्युक्त्वाण्डजः कन्यां विदर्भस्य विशाम्पते।
पुनरागम्य निषधान् नले सर्वं न्यवेदयत् ॥ ३२ ॥
मूलम्
एवमुक्ता तु हंसेन दमयन्ती विशाम्पते ॥ ३१ ॥
अब्रवीत् तत्र तं हंसं त्वमप्येवं नले वद।
तथेत्युक्त्वाण्डजः कन्यां विदर्भस्य विशाम्पते।
पुनरागम्य निषधान् नले सर्वं न्यवेदयत् ॥ ३२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! हंसके इस प्रकार कहनेपर दमयन्तीने उससे कहा—‘पक्षिराज! तुम नलके निकट भी ऐसी ही बातें कहना’। राजन्! विदर्भराजकुमारी दमयन्तीसे ‘तथास्तु’ कहकर वह हंस पुनः निषधदेशमें आया और उसने नलसे सब बातें निवेदन कीं॥३१-३२॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि नलोपाख्यानपर्वणि हंसदमयन्तीसंवादे त्रिपञ्चाशत्तमोऽध्यायः ॥ ५३ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्वके अन्तर्गत नलोपाख्यानपर्वमें हंसदमयन्तीसंवादविषयक तिरपनवाँ अध्याय पूरा हुआ॥५३॥