भागसूचना
पञ्चाशत्तमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
वनमें पाण्डवोंका आहार
मूलम् (वचनम्)
जनमेजय उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदिदं शोचितं राज्ञा धृतराष्ट्रेण वै मुने।
प्रव्राज्य पाण्डवान् वीरान् सर्वमेतन्निरर्थकम् ॥ १ ॥
मूलम्
यदिदं शोचितं राज्ञा धृतराष्ट्रेण वै मुने।
प्रव्राज्य पाण्डवान् वीरान् सर्वमेतन्निरर्थकम् ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जनमेजय बोले— मुने! वीर पाण्डवोंको वनमें निर्वासित करके राजा धृतराष्ट्रने जो इतना शोक किया, यह सब व्यर्थ था॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कथं च राजा पुत्रं तमुपेक्षेताल्पचेतसम्।
दुर्योधनं पाण्डुपुत्रान् कोपयानं महारथान् ॥ २ ॥
मूलम्
कथं च राजा पुत्रं तमुपेक्षेताल्पचेतसम्।
दुर्योधनं पाण्डुपुत्रान् कोपयानं महारथान् ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस मन्दबुद्धि राजकुमार दुर्योधनको ही किसी तरह त्याग देना उनके लिये सर्वथा उचित था जो महारथी पाण्डवोंको अपने दुर्व्यवहारसे कुपित करता जा रहा था॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
किमासीत् पाण्डुपुत्राणां वने भोजनमुच्यताम्।
वानेयमथवा कृष्टमेतदाख्यातु नो भवान् ॥ ३ ॥
मूलम्
किमासीत् पाण्डुपुत्राणां वने भोजनमुच्यताम्।
वानेयमथवा कृष्टमेतदाख्यातु नो भवान् ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
विप्रवर! बताइये, पाण्डवलोग वनमें क्या भोजन करते थे? जंगली फल-मूल या खेतीसे पैदा हुआ ग्रामीण अन्न? इसका आप स्पष्ट वर्णन कीजिये॥३॥
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
वानेयांश्च मृगांश्चैव शुद्धैर्बाणैर्निपातितान् ।
ब्राह्मणानां निवेद्याग्रमभुञ्जन् पुरुषर्षभाः ॥ ४ ॥
मूलम्
वानेयांश्च मृगांश्चैव शुद्धैर्बाणैर्निपातितान् ।
ब्राह्मणानां निवेद्याग्रमभुञ्जन् पुरुषर्षभाः ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजीने कहा— राजन्! पुरुषश्रेष्ठ पाण्डव जंगली फल-मूल और खेतीसे पैदा हुए अन्नादि भी पहले ब्राह्मणोंको निवेदन करके फिर स्वयं खाते थे एवं सब लोगोंकी रक्षाके लिये केवल बाणोंके द्वारा ही हिंसक पशुओंको मारा करते थे॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तांस्तु शूरान् महेष्वासांस्तदा निवसतो वने।
अन्वयुर्ब्राह्मणा राजन् साग्नयोऽनग्नयस्तथा ॥ ५ ॥
मूलम्
तांस्तु शूरान् महेष्वासांस्तदा निवसतो वने।
अन्वयुर्ब्राह्मणा राजन् साग्नयोऽनग्नयस्तथा ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! उन दिनों वनमें निवास करनेवाले महाधनुर्धर शूरवीर पाण्डवोंके साथ बहुत-से साग्निक (अग्निहोत्री) और निरग्निक (अग्निहोत्ररहित) ब्राह्मण भी रहते थे॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ब्राह्मणानां सहस्राणि स्नातकानां महात्मनाम्।
दश मोक्षविदां तत्र यान् बिभर्ति युधिष्ठिरः ॥ ६ ॥
मूलम्
ब्राह्मणानां सहस्राणि स्नातकानां महात्मनाम्।
दश मोक्षविदां तत्र यान् बिभर्ति युधिष्ठिरः ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजा युधिष्ठिर जिनका पालन करते थे, वे महात्मा, स्नातक, मोक्षवेत्ता ब्राह्मण दस हजारकी संख्यामें थे॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रुरून् कृष्णमृगांश्चैव मेध्यांश्चान्यान् वनेचरान्।
बाणैरुन्मथ्य विविधैर्ब्राह्मणेभ्यो न्यवेदयत् ॥ ७ ॥
मूलम्
रुरून् कृष्णमृगांश्चैव मेध्यांश्चान्यान् वनेचरान्।
बाणैरुन्मथ्य विविधैर्ब्राह्मणेभ्यो न्यवेदयत् ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे रुरुमृग, कृष्णमृग तथा अन्य जो मेध्य (पवित्र)1 हिंसक वनजन्तु थे, उन सबको विविध बाणोंद्वारा मारकर उनके चर्म ब्राह्मणोंको आसनादि बनानेके लिये अर्पित कर देते थे॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न तत्र कश्चिद् दुर्वर्णो व्याधितो वापि दृश्यते।
कृशो वा दुर्बलो वापि दीनो भीतोऽपि वा पुनः॥८॥
मूलम्
न तत्र कश्चिद् दुर्वर्णो व्याधितो वापि दृश्यते।
कृशो वा दुर्बलो वापि दीनो भीतोऽपि वा पुनः॥८॥
अनुवाद (हिन्दी)
वहाँ उन ब्राह्मणोंमेंसे कोई भी ऐसा नहीं दिखायी देता था, जिसके शरीरका रंग दूषित हो अथवा जो किसी रोगसे ग्रस्त हो। उनमेंसे कोई कृशकाय, दुर्बल, दीन अथवा भयभीत भी नहीं जान पड़ता था॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पुत्रानिव प्रियान् भ्रातॄञ्ज्ञातीनिव सहोदरान्।
पुपोष कौरवश्रेष्ठो धर्मराजो युधिष्ठिरः ॥ ९ ॥
मूलम्
पुत्रानिव प्रियान् भ्रातॄञ्ज्ञातीनिव सहोदरान्।
पुपोष कौरवश्रेष्ठो धर्मराजो युधिष्ठिरः ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कुरुकुलतिलक धर्मराज युधिष्ठिर अपने भाइयोंका प्रिय पुत्रोंकी भाँति तथा ज्ञातिजनोंका सहोदर भाइयोंके समान पालन-पोषण करते थे॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पतींश्च द्रौपदी सर्वान् द्विजातींश्च यशस्विनी।
मातृवद् भोजयित्वाग्रे शिष्टमाहारयत् तदा ॥ १० ॥
मूलम्
पतींश्च द्रौपदी सर्वान् द्विजातींश्च यशस्विनी।
मातृवद् भोजयित्वाग्रे शिष्टमाहारयत् तदा ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसी प्रकार यशस्विनी द्रौपदी भी पतियों तथा समस्त द्विजातियोंको माताके समान पहले भोजन कराकर पीछे बचा-खुचा आप खाती थी॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्राचीं राजा दक्षिणां भीमसेनो
यमौ प्रतीचीमथ वाप्युदीचीम् ।
धनुर्धराणां सहितो मृगाणां
क्षयं चक्रुर्नित्यमेवोपगम्य ॥ ११ ॥
मूलम्
प्राचीं राजा दक्षिणां भीमसेनो
यमौ प्रतीचीमथ वाप्युदीचीम् ।
धनुर्धराणां सहितो मृगाणां
क्षयं चक्रुर्नित्यमेवोपगम्य ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजा युधिष्ठिर पूर्व दिशामें, भीमसेन दक्षिण दिशामें तथा नकुल-सहदेव पश्चिम एवं उत्तर दिशामें और कभी सब मिलकर नित्य वनमें निकल जाते और धनुषधारी (डाकुओं) तथा हिंसक पशुओंका संहार किया करते थे॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तथा तेषां वसतां काम्यके वै
विहीनानामर्जुनेनोत्सुकानाम् ।
पञ्चैव वर्षाणि तथा व्यतीयु-
रधीयतां जपतां जुह्वतां च ॥ १२ ॥
मूलम्
तथा तेषां वसतां काम्यके वै
विहीनानामर्जुनेनोत्सुकानाम् ।
पञ्चैव वर्षाणि तथा व्यतीयु-
रधीयतां जपतां जुह्वतां च ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार काम्यकवनमें अर्जुनसे वियुक्त एवं उनके लिये उत्कण्ठित होकर निवास करनेवाले पाण्डवोंके पाँच वर्ष व्यतीत हो गये। इतने समयतक उनका स्वाध्याय, जप और होम सदा पूर्ववत् चलता रहा॥१२॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि इन्द्रलोकाभिगमनपर्वणि पार्थाहारकथने पञ्चाशत्तमोऽध्यायः ॥ ५० ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्वके अन्तर्गत इन्द्रलोकाभिगमनपर्वमें पाण्डवोंके भोजनका वर्णनविषयक पचासवाँ अध्याय पूरा हुआ॥५०॥
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सिंह-व्याघ्रादि हिंसक जानवरोंको मार देनेसे वे मारनेवालेको पवित्र करनेवाले हैं; इसलिये उनको पवित्र कहा गया है। ↩︎