भागसूचना
एकोनपञ्चाशत्तमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
संजयके द्वारा धृतराष्ट्रकी बातोंका अनुमोदन और धृतराष्ट्रका संताप
मूलम् (वचनम्)
संजय उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदेतत् कथितं राजंस्त्वया दुर्योधनं प्रति।
सर्वमेतद् यथातत्त्वं नैतन्मिथ्या महीपते ॥ १ ॥
मूलम्
यदेतत् कथितं राजंस्त्वया दुर्योधनं प्रति।
सर्वमेतद् यथातत्त्वं नैतन्मिथ्या महीपते ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
संजय बोला— राजन्! आपने दुर्योधनके विषयमें जो बातें कही हैं, वे सभी यथार्थ हैं। महीपते! आपका वचन मिथ्या नहीं है॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मन्युना हि समाविष्टाः पाण्डवास्ते महौजसः।
दृष्ट्वा कृष्णां सभां नीतां धर्मपत्नीं यशस्विनीम् ॥ २ ॥
दुःशासनस्य ता वाचः श्रुत्वा ते दारुणोदयाः।
कर्णस्य च महाराज जुगुप्सन्तीति मे मतिः ॥ ३ ॥
मूलम्
मन्युना हि समाविष्टाः पाण्डवास्ते महौजसः।
दृष्ट्वा कृष्णां सभां नीतां धर्मपत्नीं यशस्विनीम् ॥ २ ॥
दुःशासनस्य ता वाचः श्रुत्वा ते दारुणोदयाः।
कर्णस्य च महाराज जुगुप्सन्तीति मे मतिः ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महातेजस्वी वे पाण्डव अपनी धर्मपत्नी यशस्विनी कृष्णाको सभामें लायी गयी देखकर क्रोधसे भरे हुए हैं और महाराज! दुःशासन तथा कर्णकी वे कठोर बातें सुनकर पाण्डव आपलोगोंकी निन्दा करते हैं, ऐसा मुझे विश्वास है॥२-३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
श्रुतं हि मे महाराज यथा पार्थेन संयुगे।
एकादशतनुः स्थाणुर्धनुषा परितोषितः ॥ ४ ॥
मूलम्
श्रुतं हि मे महाराज यथा पार्थेन संयुगे।
एकादशतनुः स्थाणुर्धनुषा परितोषितः ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजेन्द्र! मैंने यह भी सुना है कि कुन्तीकुमार अर्जुनने एकादश मूर्तिधारी भगवान् शंकरको भी अपने धनुष-बाणकी कलाद्वारा संतुष्ट किया है॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कैरातं वेषमास्थाय योधयामास फाल्गुनम्।
जिज्ञासुः सर्वदेवेशः कपर्दी भगवान् स्वयम् ॥ ५ ॥
मूलम्
कैरातं वेषमास्थाय योधयामास फाल्गुनम्।
जिज्ञासुः सर्वदेवेशः कपर्दी भगवान् स्वयम् ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जटाजूटधारी सर्वदेवेश्वर भगवान् शंकरने स्वयं ही अर्जुनके बलकी परीक्षा लेनेके लिये किरातवेष धारण करके उनके साथ युद्ध किया था॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत्रैनं लोकपालास्ते दर्शयामासुरर्जुनम् ।
अस्त्रहेतोः पराक्रान्तं तपसा कौरवर्षभम् ॥ ६ ॥
मूलम्
तत्रैनं लोकपालास्ते दर्शयामासुरर्जुनम् ।
अस्त्रहेतोः पराक्रान्तं तपसा कौरवर्षभम् ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वहाँ अस्त्रप्राप्तिके लिये विशेष उद्योगशील कुरु-कुलरत्न अर्जुनको उनकी तपस्यासे प्रसन्न होकर उन लोकपालोंने भी दर्शन दिया था॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नैतदुत्सहते चान्यो लब्धुमन्यत्र फाल्गुनात्।
साक्षाद् दर्शनमेतेषामीश्वराणां नरो भुवि ॥ ७ ॥
मूलम्
नैतदुत्सहते चान्यो लब्धुमन्यत्र फाल्गुनात्।
साक्षाद् दर्शनमेतेषामीश्वराणां नरो भुवि ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस संसारमें अर्जुनको छोड़कर दूसरा कोई मनुष्य ऐसा नहीं है, जो इन लोकेश्वरोंका साक्षात् दर्शन प्राप्त कर सके॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
महेश्वरेण यो राजन् न जीर्णो ह्यष्टमूर्तिना।
कस्तमुत्सहते वीरो युद्धे जरयितुं पुमान् ॥ ८ ॥
मूलम्
महेश्वरेण यो राजन् न जीर्णो ह्यष्टमूर्तिना।
कस्तमुत्सहते वीरो युद्धे जरयितुं पुमान् ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! अष्टमूर्ति1 भगवान् महेश्वर भी जिसे युद्धमें पराजित न कर सके, उन्हीं वीरवर अर्जुनको दूसरा कौन वीर पुरुष जीतनेका साहस कर सकता है॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आसादितमिदं घोरं तुमुलं लोमहर्षणम्।
द्रौपदीं परिकर्षद्भिः कोपयद्भिश्च पाण्डवान् ॥ ९ ॥
मूलम्
आसादितमिदं घोरं तुमुलं लोमहर्षणम्।
द्रौपदीं परिकर्षद्भिः कोपयद्भिश्च पाण्डवान् ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भरी सभामें द्रौपदीका वस्त्र खींचकर पाण्डवोंको कुपित करनेवाले आपके पुत्रोंने स्वयं ही इस रोमांचकारी, अत्यन्त भयंकर एवं घमासान युद्धको निमन्त्रित किया है॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यत् तु प्रस्फुरमाणौष्ठो भीमः प्राह वचोऽर्थवत्।
दृष्ट्वा दुर्योधनेनोरू द्रौपद्या दर्शितावुभौ ॥ १० ॥
मूलम्
यत् तु प्रस्फुरमाणौष्ठो भीमः प्राह वचोऽर्थवत्।
दृष्ट्वा दुर्योधनेनोरू द्रौपद्या दर्शितावुभौ ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जब दुर्योधनने द्रौपदीको अपनी दोनों जाँघें दिखायी थीं, उस समय यह देखकर भीमसेनने फड़कते हुए ओठोंसे जो बात कही थी, वह व्यर्थ नहीं हो सकती॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ऊरू भेत्स्यामि ते पाप गदया भीमवेगया।
त्रयोदशानां वर्षाणामन्ते दुर्द्यूतदेविनः ॥ ११ ॥
मूलम्
ऊरू भेत्स्यामि ते पाप गदया भीमवेगया।
त्रयोदशानां वर्षाणामन्ते दुर्द्यूतदेविनः ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन्होंने कहा था—‘पापी दुर्योधन! मैं तेरहवें वर्षके अन्तमें अपनी भयानक वेगवाली गदासे तुझ कपटी जुआरीकी दोनों जाँघें तोड़ डालूँगा’॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्वे प्रहरतां श्रेष्ठाः सर्वे चामिततेजसः।
सर्वे सर्वास्त्रविद्वांसो देवैरपि सुदुर्जयाः ॥ १२ ॥
मूलम्
सर्वे प्रहरतां श्रेष्ठाः सर्वे चामिततेजसः।
सर्वे सर्वास्त्रविद्वांसो देवैरपि सुदुर्जयाः ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सभी पाण्डव प्रहार करनेवाले योद्धाओंमें श्रेष्ठ हैं। सभी अपरिमित तेजसे सम्पन्न हैं तथा सबको सभी अस्त्रोंका परिज्ञान है, अतः वे देवताओंके लिये भी अत्यन्त दुर्जय हैं॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मन्ये मन्युसमुद्धूताः पुत्राणां तव संयुगे।
अन्तं पार्थाः करिष्यन्ति भार्यामर्षसमन्विताः ॥ १३ ॥
मूलम्
मन्ये मन्युसमुद्धूताः पुत्राणां तव संयुगे।
अन्तं पार्थाः करिष्यन्ति भार्यामर्षसमन्विताः ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मेरा तो ऐसा विश्वास है कि अपनी पत्नीके अपमानजनित अमर्षसे युक्त और रोषसे उत्तेजित हो समस्त कुन्तीपुत्र संग्राममें आपके पुत्रोंका संहार कर डालेंगे॥१३॥
मूलम् (वचनम्)
धृतराष्ट्र उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
किं कृतं सूत कर्णेन वदता परुषं वचः।
पर्याप्तं वैरमेतावद् यत् कृष्णा सा सभां गता ॥ १४ ॥
मूलम्
किं कृतं सूत कर्णेन वदता परुषं वचः।
पर्याप्तं वैरमेतावद् यत् कृष्णा सा सभां गता ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
धृतराष्ट्रने कहा— सूत! कर्णने कठोर बातें कहकर क्या किया, पूरा वैर तो इतनेसे ही बढ़ गया कि द्रौपदीको सभामें (केश पकड़कर) लाया गया॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अपीदानीं मम सुतास्तिष्ठेरन् मन्दचेतसः।
येषां भ्राता गुरुर्ज्येष्ठो विनये नावतिष्ठते ॥ १५ ॥
मूलम्
अपीदानीं मम सुतास्तिष्ठेरन् मन्दचेतसः।
येषां भ्राता गुरुर्ज्येष्ठो विनये नावतिष्ठते ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अब भी मेरे मूर्ख पुत्र चुपचाप बैठे हैं। उनका बड़ा भाई दुर्योधन विनय एवं नीतिके मार्गपर नहीं चलता॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ममापि वचनं सूत न शुश्रूषति मन्दभाक्।
दृष्ट्वा मां चक्षुषा हीनं निर्विचेष्टमचेतसम् ॥ १६ ॥
मूलम्
ममापि वचनं सूत न शुश्रूषति मन्दभाक्।
दृष्ट्वा मां चक्षुषा हीनं निर्विचेष्टमचेतसम् ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सूत! वह मन्दभागी दुर्योधन मुझे अन्धा, अकर्मण्य और अविवेकी समझकर मेरी बात भी नहीं सुनना चाहता॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ये चास्य सचिवा मन्दाः कर्णसौबलकादयः।
ते तस्य भूयसो दोषान् वर्धयन्ति विचेतसः ॥ १७ ॥
मूलम्
ये चास्य सचिवा मन्दाः कर्णसौबलकादयः।
ते तस्य भूयसो दोषान् वर्धयन्ति विचेतसः ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कर्ण और शकुनि आदि जो उसके मूर्ख मन्त्री हैं, वे भी विचारशून्य होकर उसके अधिक-से-अधिक दोष बढ़ानेकी ही चेष्टा करते हैं॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्वैरमुक्ता ह्यपि शराः पार्थेनामिततेजसा।
निर्दहेयुर्मम सुतान् किं पुनर्मन्युनेरिताः ॥ १८ ॥
मूलम्
स्वैरमुक्ता ह्यपि शराः पार्थेनामिततेजसा।
निर्दहेयुर्मम सुतान् किं पुनर्मन्युनेरिताः ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अमित तेजस्वी अर्जुनके द्वारा स्वेच्छापूर्वक छोड़े हुए बाण भी मेरे पुत्रोंको जलाकर भस्म कर सकते हैं, फिर क्रोधपूर्वक छोड़े हुए बाणोंके लिये तो कहना ही क्या है?॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पार्थबाहुबलोत्सृष्टा महाचापविनिःसृताः ।
दिव्यास्त्रमन्त्रमुदिताः सादयेयुः सुरानपि ॥ १९ ॥
मूलम्
पार्थबाहुबलोत्सृष्टा महाचापविनिःसृताः ।
दिव्यास्त्रमन्त्रमुदिताः सादयेयुः सुरानपि ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अर्जुनके बाहु-बलद्वारा चलाये और उनके महान् धनुषसे छूटे हुए दिव्यास्त्रमन्त्रोंद्वारा अभिमन्त्रित बाण देवताओंका भी संहार कर सकते हैं॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यस्य मन्त्री च गोप्ता च सुहृच्चैव जनार्दनः।
हरिस्त्रैलोक्यनाथः स किं नु तस्य न निर्जितम् ॥ २० ॥
मूलम्
यस्य मन्त्री च गोप्ता च सुहृच्चैव जनार्दनः।
हरिस्त्रैलोक्यनाथः स किं नु तस्य न निर्जितम् ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिनके मन्त्री, संरक्षक और सुहृद् त्रिभुवननाथ, जनार्दन श्रीहरि हैं, वे किसे नहीं जीत सकते?॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इदं हि सुमहच्चित्रमर्जुनस्येह संजय।
महादेवेन बाहुभ्यां यत् समेत इति श्रुतिः ॥ २१ ॥
मूलम्
इदं हि सुमहच्चित्रमर्जुनस्येह संजय।
महादेवेन बाहुभ्यां यत् समेत इति श्रुतिः ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
संजय! अर्जुनका यह पराक्रम तो बड़े ही आश्चर्यका विषय है कि उन्होंने महादेवजीके साथ बाहुयुद्ध किया, यह मेरे सुननेमें आया है॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रत्यक्षं सर्वलोकस्य खाण्डवे यत् कृतं पुरा।
फाल्गुनेन सहायार्थे वह्नेर्दामोदरेण च ॥ २२ ॥
मूलम्
प्रत्यक्षं सर्वलोकस्य खाण्डवे यत् कृतं पुरा।
फाल्गुनेन सहायार्थे वह्नेर्दामोदरेण च ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
आजसे पहले खाण्डववनमें अग्निदेवकी सहायताके लिये श्रीकृष्ण और अर्जुनने जो कुछ किया है, वह तो सम्पूर्ण जगत्की आँखोंके सामने है॥२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्वथा न हि मे पुत्राः सहामात्याः ससौबलाः।
क्रुद्धे पार्थे च भीमे च वासुदेवे च सात्वते॥२३॥
मूलम्
सर्वथा न हि मे पुत्राः सहामात्याः ससौबलाः।
क्रुद्धे पार्थे च भीमे च वासुदेवे च सात्वते॥२३॥
अनुवाद (हिन्दी)
जब कुन्तीपुत्र अर्जुन, भीमसेन और यदुकुलतिलक वासुदेव श्रीकृष्ण क्रोधमें भरे हुए हैं, तब मुझे यह विश्वास कर लेना चाहिये कि शकुनि तथा अन्य मन्त्रियोंसहित मेरे सभी पुत्र सर्वथा जीवित नहीं रह सकते॥२३॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि इन्द्रलोकाभिगमनपर्वणि धृतराष्ट्रखेदे एकोनपञ्चाशत्तमोऽध्यायः ॥ ४९ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्वके अन्तर्गत इन्द्रलोकाभिगमनपर्वमें धृतराष्ट्रखेदविषयक उनचासवाँ अध्याय पूरा हुआ॥४९॥
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सूर्य, जल, पृथ्वी, अग्नि, वायु, आकाश, दीक्षित ब्राह्मण तथा चन्द्रमा—ये शिवजीकी आठ मूर्तियाँ हैं।[[(विष्णुपुराण १।८।८)]] ↩︎