०४८ धृतराष्ट्रचिन्ता

भागसूचना

अष्टचत्वारिंशोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

दुःखित धृतराष्ट्रका संजयके सम्मुख अपने पुत्रोंके लिये चिन्ता करना

मूलम् (वचनम्)

जनमेजय उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

अत्यद्भुतमिदं कर्म पार्थस्यामिततेजसः ।
धृतराष्ट्रो महाप्राज्ञः श्रुत्वा विप्र किमब्रवीत् ॥ १ ॥

मूलम्

अत्यद्भुतमिदं कर्म पार्थस्यामिततेजसः ।
धृतराष्ट्रो महाप्राज्ञः श्रुत्वा विप्र किमब्रवीत् ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जनमेजयने पूछा— ब्रह्मन्! अमित तेजस्वी कुन्तीकुमार अर्जुनका यह कर्म तो अत्यन्त अद्भुत है। परम बुद्धिमान् राजा धृतराष्ट्रने भी यह सब अवश्य सुना होगा। उसे सुनकर उन्होंने क्या कहा था? यह बतलाइये॥१॥

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

शक्रलोकगतं पार्थं श्रुत्वा राजाम्बिकासुतः।
द्वैपायनादृषिश्रेष्ठात् संजयं वाक्यमब्रवीत् ॥ २ ॥

मूलम्

शक्रलोकगतं पार्थं श्रुत्वा राजाम्बिकासुतः।
द्वैपायनादृषिश्रेष्ठात् संजयं वाक्यमब्रवीत् ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजीने कहा— जनमेजय! अम्बिकानन्दन राजा धृतराष्ट्रने ऋषि द्वैपायन व्यासके मुखसे अर्जुनके इन्द्रलोकगमनका समाचार सुनकर संजयसे यह बात कही॥२॥

मूलम् (वचनम्)

धृतराष्ट्र उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

श्रुतं मे सूत कार्त्स्न्येन कर्म पार्थस्य धीमतः।
कच्चित् तवापि विदितं याथातथ्येन सारथे ॥ ३ ॥

मूलम्

श्रुतं मे सूत कार्त्स्न्येन कर्म पार्थस्य धीमतः।
कच्चित् तवापि विदितं याथातथ्येन सारथे ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

धृतराष्ट्र बोले— सूत! मैंने परम बुद्धिमान् कुन्तीकुमार अर्जुनका सारा वृत्तान्त सुना है। सारथे! क्या तुम्हें भी इस विषयमें यथार्थ बातें ज्ञात हुई हैं?॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रमत्तो ग्राम्यधर्मेषु मन्दात्मा पापनिश्चयः।
मम पुत्रः सुदुर्बुद्धिः पृथिवीं घातयिष्यति ॥ ४ ॥

मूलम्

प्रमत्तो ग्राम्यधर्मेषु मन्दात्मा पापनिश्चयः।
मम पुत्रः सुदुर्बुद्धिः पृथिवीं घातयिष्यति ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मेरा मूढ़बुद्धि पुत्र तो विषयभोगोंमें फँसा हुआ है। उसका विचार सदा पापपूर्ण ही बना रहता है। प्रमादमें पड़ा हुआ वह अत्यन्त दुर्बुद्धि दुर्योधन एक दिन सारे भूमण्डलका नाश करा देगा॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यस्य नित्यमृता वाचः स्वैरेष्वपि महात्मनः।
त्रैलोक्यमपि तस्य स्याद् योद्धा यस्य धनंजयः ॥ ५ ॥

मूलम्

यस्य नित्यमृता वाचः स्वैरेष्वपि महात्मनः।
त्रैलोक्यमपि तस्य स्याद् योद्धा यस्य धनंजयः ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिन महात्माके मुखसे हँसीमें भी सदा सत्य ही बातें निकलती हैं और जिनकी ओरसे लड़नेवाले धनंजय-जैसे योद्धा हैं, उन धर्मराज युधिष्ठिरके लिये इस कौरव-राज्यको जीतनेकी तो बात ही क्या है, वे तीनों लोकोंपर अधिकार प्राप्त कर सकते हैं॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अस्यतः कर्णिनाराचांस्तीक्ष्णाग्रांश्च शिलाशितान् ।
कोऽर्जुनस्याग्रतस्तिष्ठेदपि मृत्युर्जरातिगः ॥ ६ ॥

मूलम्

अस्यतः कर्णिनाराचांस्तीक्ष्णाग्रांश्च शिलाशितान् ।
कोऽर्जुनस्याग्रतस्तिष्ठेदपि मृत्युर्जरातिगः ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो पत्थरपर रगड़कर तेज किये गये हैं, जिनके अग्रभाग बड़े तीखे हैं, उन कर्णि नामक नाराचोंका प्रहार करनेवाले अर्जुनके आगे कौन योद्धा ठहर सकता है? जराविजयी मृत्यु भी उनका सामना नहीं कर सकती॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मम पुत्रा दुरात्मानः सर्वे मृत्युवशानुगाः।
येषां युद्धं दुराधर्षैः पाण्डवैः प्रत्युपस्थितम् ॥ ७ ॥

मूलम्

मम पुत्रा दुरात्मानः सर्वे मृत्युवशानुगाः।
येषां युद्धं दुराधर्षैः पाण्डवैः प्रत्युपस्थितम् ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मेरे सभी दुरात्मा पुत्र मृत्युके वशमें हो गये हैं; क्योंकि उनके सामने दुर्धर्ष वीर पाण्डवोंके साथ युद्ध करनेका अवसर उपस्थित हुआ है॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तथैव च न पश्यामि युधि गाण्डीवधन्वनः।
अनिशं चिन्तयानोऽपि य एनमुदियाद् रथी ॥ ८ ॥

मूलम्

तथैव च न पश्यामि युधि गाण्डीवधन्वनः।
अनिशं चिन्तयानोऽपि य एनमुदियाद् रथी ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मैं दिन-रात विचार करनेपर भी यह नहीं समझ पाता कि युद्धमें ‘गाण्डीवधन्वा’ अर्जुनका सामना कौन रथी कर सकता है?॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

द्रोणकर्णौ प्रतीयातां यदि भीष्मोऽपि वा रणे।
महान् स्यात् संशयो लोके तत्र पश्यामि नो जयम्॥९॥

मूलम्

द्रोणकर्णौ प्रतीयातां यदि भीष्मोऽपि वा रणे।
महान् स्यात् संशयो लोके तत्र पश्यामि नो जयम्॥९॥

अनुवाद (हिन्दी)

द्रोण और कर्ण उस अर्जुनका सामना कर सकते हैं। भीष्म भी युद्धमें उनसे लोहा ले सकते हैं; परंतु तो भी मेरे मनमें महान् संशय ही बना हुआ है। मुझे इस लोकमें अपने पक्षकी जीत नहीं दिखायी देती॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

घृणी कर्णः प्रमादी च आचार्यः स्थविरो गुरुः।
अमर्षी बलवान् पार्थः संरम्भी दृढविक्रमः ॥ १० ॥
सम्भवेत् तुमुलं युद्धं सर्वशोऽप्यपराजितम्।
सर्वे ह्यस्त्रविदः शूराः सर्वे प्राप्ता महद् यशः ॥ ११ ॥

मूलम्

घृणी कर्णः प्रमादी च आचार्यः स्थविरो गुरुः।
अमर्षी बलवान् पार्थः संरम्भी दृढविक्रमः ॥ १० ॥
सम्भवेत् तुमुलं युद्धं सर्वशोऽप्यपराजितम्।
सर्वे ह्यस्त्रविदः शूराः सर्वे प्राप्ता महद् यशः ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कर्ण दयालु और प्रमादी है। आचार्य द्रोण वृद्ध एवं गुरु हैं। उधर कुन्तीकुमार अर्जुन अत्यन्त अमर्षमें भरे हुए और बलवान् हैं। उद्योगी और दृढ़ पराक्रमी हैं। सब ओरसे घमासान युद्ध छिड़नेकी सम्भावना हो गयी है। युद्धमें पाण्डवोंकी पराजय नहीं हो सकती; क्योंकि उनकी ओर सभी अस्त्रविद्याके विद्वान् शूरवीर और महान् यशस्वी हैं॥१०-११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अपि सर्वेश्वरत्वं हि ते वाञ्छन्त्यपराजिताः।
वधे नूनं भवेच्छान्तिरेतेषां फाल्गुनस्य वा ॥ १२ ॥

मूलम्

अपि सर्वेश्वरत्वं हि ते वाञ्छन्त्यपराजिताः।
वधे नूनं भवेच्छान्तिरेतेषां फाल्गुनस्य वा ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

और वे पराजित न होकर सर्वेश्वर सम्राट् बननेकी इच्छा रखते हैं। इन कर्ण आदि योद्धाओंका वध हो जाय अथवा अर्जुन ही मारे जायँ तो इस विवादकी शान्ति हो सकती है॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न तु हन्तार्जुनस्यास्ति जेता वास्य न विद्यते।
मन्युस्तस्य कथं शाम्येन्मन्दान् प्रति समुत्थितः ॥ १३ ॥

मूलम्

न तु हन्तार्जुनस्यास्ति जेता वास्य न विद्यते।
मन्युस्तस्य कथं शाम्येन्मन्दान् प्रति समुत्थितः ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

परंतु अर्जुनको मारनेवाला या जीतनेवाला कोई नहीं है। मेरे मन्दबुद्धि पुत्रोंके प्रति उनका बढ़ा हुआ क्रोध कैसे शान्त हो सकता है?॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्रिदशेशसमो वीरः खाण्डवेऽग्निमतर्पयत् ।
जिगाय पार्थिवान् सर्वान् राजसूये महाक्रतौ ॥ १४ ॥

मूलम्

त्रिदशेशसमो वीरः खाण्डवेऽग्निमतर्पयत् ।
जिगाय पार्थिवान् सर्वान् राजसूये महाक्रतौ ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अर्जुन इन्द्रके समान वीर हैं। उन्होंने खाण्डववनमें अग्निको तृप्त किया तथा राजसूय महायज्ञमें समस्त राजाओंपर विजय पायी॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शेषं कुर्याद् गिरेर्वज्रो निपतन् मूर्ध्नि संजय।
न तु कुर्युः शराः शेषं क्षिप्तास्तात किरीटिना ॥ १५ ॥

मूलम्

शेषं कुर्याद् गिरेर्वज्रो निपतन् मूर्ध्नि संजय।
न तु कुर्युः शराः शेषं क्षिप्तास्तात किरीटिना ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

संजय! पर्वतके शिखरपर गिरनेवाला वज्र भले ही कुछ बाकी छोड़ दे; किंतु तात! किरीटधारी अर्जुनके चलाये हुए बाण कुछ भी शेष नहीं छोड़ेंगे॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथा हि किरणा भानोस्तपन्तीह चराचरम्।
तथा पार्थभुजोत्सृष्टाः शरास्तप्यन्ति मत्सुतान् ॥ १६ ॥

मूलम्

यथा हि किरणा भानोस्तपन्तीह चराचरम्।
तथा पार्थभुजोत्सृष्टाः शरास्तप्यन्ति मत्सुतान् ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे सूर्यकी किरणें चराचर जगत्‌को संतप्त करती हैं, उसी प्रकार अर्जुनकी भुजाओंद्वारा चलाये गये बाण मेरे पुत्रोंको संतप्त कर देंगे॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अपि तद्रथघोषेण भयार्ता सव्यसाचिनः।
प्रतिभाति विदीर्णेव सर्वतो भारती चमूः ॥ १७ ॥

मूलम्

अपि तद्रथघोषेण भयार्ता सव्यसाचिनः।
प्रतिभाति विदीर्णेव सर्वतो भारती चमूः ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मुझे तो आज भी सव्यसाची अर्जुनके रथकी घरघराहटसे सारी कौरव-सेना भयातुर हो छिन्न-भिन्न-सी होती प्रतीत हो रही है॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यदोद्वहन् प्रवपंश्चैव बाणान्
स्थाताऽऽततायी समरे किरीटी ।
सृष्टोऽन्तकः सर्वहरो विधात्रा
भवेद् यथा तद्वदपारणीयः ॥ १८ ॥

मूलम्

यदोद्वहन् प्रवपंश्चैव बाणान्
स्थाताऽऽततायी समरे किरीटी ।
सृष्टोऽन्तकः सर्वहरो विधात्रा
भवेद् यथा तद्वदपारणीयः ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जब किरीटधारी अर्जुन हाथोंमें अस्त्र-शस्त्र लिये (तूणीरसे) बाण निकालते और चलाते हुए समरभूमिमें खड़े होंगे, उस समय उनसे पार पाना असम्भव हो जायगा। वे ऐसे जान पड़ेंगे, मानो विधाताने किसी दूसरे सर्वसंहारकारी यमराजकी सृष्टि कर दी हो॥१८॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि इन्द्रलोकाभिगमनपर्वणि धृतराष्ट्रविलापेऽष्टचत्वारिंशोऽध्यायः ॥ ४८ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्वके अन्तर्गत इन्द्रलोकाभिगमनपर्वमें धृतराष्ट्रविलापविषयक अड़तालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥४८॥