भागसूचना
सप्तचत्वारिंशोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
लोमश मुनिका स्वर्गमें इन्द्र और अर्जुनसे मिलकर उनका संदेश ले काम्यकवनमें आना
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
कदाचिदटमानस्तु महर्षिरुत लोमशः ।
जगाम शक्रभवनं पुरन्दरदिदृक्षया ॥ १ ॥
स समेत्य नमस्कृत्य देवराजं महामुनिः।
ददर्शार्धासनगतं पाण्डवं वासवस्य हि ॥ २ ॥
मूलम्
कदाचिदटमानस्तु महर्षिरुत लोमशः ।
जगाम शक्रभवनं पुरन्दरदिदृक्षया ॥ १ ॥
स समेत्य नमस्कृत्य देवराजं महामुनिः।
ददर्शार्धासनगतं पाण्डवं वासवस्य हि ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! एक समयकी बात है, महर्षि लोमश इधर-उधर घूमते हुए इन्द्रसे मिलनेकी इच्छा लेकर स्वर्गलोकमें गये। उन महामुनिने देवराज इन्द्रसे मिलकर उन्हें नमस्कार किया और देखा, पाण्डुनन्दन अर्जुन इन्द्रके आधे सिंहासनपर बैठे हैं॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः शक्राभ्यनुज्ञात आसने विष्टरोत्तरे।
निषसाद द्विजश्रेष्ठः पूज्यमानो महर्षिभिः ॥ ३ ॥
मूलम्
ततः शक्राभ्यनुज्ञात आसने विष्टरोत्तरे।
निषसाद द्विजश्रेष्ठः पूज्यमानो महर्षिभिः ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर इन्द्रकी आज्ञासे एक उत्तम सिंहासनपर, जहाँ ऊपर कुशका आसन बिछा हुआ था, महर्षियोंसे पूजित द्विजवर लोमशजी बैठे॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्य दृष्ट्वाभवद् बुद्धिः पार्थमिन्द्रासने स्थितम्।
कथं नु क्षत्रियः पार्थः शक्रासनमवाप्तवान् ॥ ४ ॥
मूलम्
तस्य दृष्ट्वाभवद् बुद्धिः पार्थमिन्द्रासने स्थितम्।
कथं नु क्षत्रियः पार्थः शक्रासनमवाप्तवान् ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इन्द्रके सिंहासनपर बैठे हुए कुन्तीकुमार अर्जुनको देखकर लोमशजीके मनमें यह विचार हुआ कि ‘क्षत्रिय होकर भी कुन्तीकुमारने इन्द्रका आसन कैसे प्राप्त कर लिया?॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
किं त्वस्य सुकृतं कर्म के लोका वै विनिर्जिताः।
स एवमनुसम्प्राप्तः स्थानं देवनमस्कृतम् ॥ ५ ॥
मूलम्
किं त्वस्य सुकृतं कर्म के लोका वै विनिर्जिताः।
स एवमनुसम्प्राप्तः स्थानं देवनमस्कृतम् ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘इनका पुण्य-कर्म क्या है? इन्होंने किन-किन लोकोंपर विजय पायी है? किस पुण्यके प्रभावसे इन्होंने यह देववन्दित स्थान प्राप्त किया है?’॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्य विज्ञाय संकल्पं शक्रो वृत्रनिषूदनः।
लोमशं प्रहसन् वाक्यमिदमाह शचीपतिः ॥ ६ ॥
मूलम्
तस्य विज्ञाय संकल्पं शक्रो वृत्रनिषूदनः।
लोमशं प्रहसन् वाक्यमिदमाह शचीपतिः ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
लोमश मुनिके संकल्पको जानकर वृत्रहन्ता शचीपति इन्द्रने हँसते हुए उनसे कहा—॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ब्रह्मर्षे श्रूयतां यत् ते मनसैतद् विवक्षितम्।
नायं केवलमर्त्यो वै मानुषत्वमुपागतः ॥ ७ ॥
मूलम्
ब्रह्मर्षे श्रूयतां यत् ते मनसैतद् विवक्षितम्।
नायं केवलमर्त्यो वै मानुषत्वमुपागतः ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘ब्रह्मर्षे! आपके मनमें जो प्रश्न उठा है’ उसका समाधान कर रहा हूँ, सुनिये। ये अर्जुन मानवयोनिमें उत्पन्न हुए केवल मरणधर्मा मनुष्य नहीं हैं॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
महर्षे मम पुत्रोऽयं कुन्त्यां जातो महाभुजः।
अस्त्रहेतोरिह प्राप्तः कस्माच्चित् कारणान्तरात् ॥ ८ ॥
अहो नैनं भवान् वेत्ति पुराणमृषिसत्तमम्।
शृणु मे वदतो ब्रह्मन् योऽयं यच्चास्य कारणम् ॥ ९ ॥
मूलम्
महर्षे मम पुत्रोऽयं कुन्त्यां जातो महाभुजः।
अस्त्रहेतोरिह प्राप्तः कस्माच्चित् कारणान्तरात् ॥ ८ ॥
अहो नैनं भवान् वेत्ति पुराणमृषिसत्तमम्।
शृणु मे वदतो ब्रह्मन् योऽयं यच्चास्य कारणम् ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘महर्षे! ये महाबाहु धनंजय कुन्तीके गर्भसे उत्पन्न हुए मेरे पुत्र हैं और कुछ कारणवश अस्त्रविद्या सीखनेके लिये यहाँ आये हैं। आश्चर्य है कि आप इन पुरातन ऋषिप्रवरको नहीं जानते हैं। ब्रह्मन्! इनका जो स्वरूप है और इनके अवतार-ग्रहणका जो कारण है, वह सब मैं बता रहा हूँ। आप मेरे मुँहसे यह सब सुनिये॥८-९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नरनारायणौ यौ तौ पुराणावृषिसत्तमौ।
ताविमावनुजानीहि हृषीकेशधनंजयौ ॥ १० ॥
मूलम्
नरनारायणौ यौ तौ पुराणावृषिसत्तमौ।
ताविमावनुजानीहि हृषीकेशधनंजयौ ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘नर-नारायण नामसे प्रसिद्ध जो पुरातन मुनीश्वर हैं’ वे ही श्रीकृष्ण और अर्जुनके रूपमें अवतीर्ण हुए हैं, यह बात आप जान लें॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विख्यातौ त्रिषु लोकेषु नरनारायणावृषी।
कार्यार्थमवतीर्णौ तौ पृथ्वीं पुण्यप्रतिश्रयाम् ॥ ११ ॥
मूलम्
विख्यातौ त्रिषु लोकेषु नरनारायणावृषी।
कार्यार्थमवतीर्णौ तौ पृथ्वीं पुण्यप्रतिश्रयाम् ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘तीनों लोकोंमें विख्यात नर-नारायण ऋषि ही देवताओंका कार्य सिद्ध करनेके लिये पुण्यके आधाररूप भूतलपर अवतीर्ण हुए हैं॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यन्न शक्यं सुरैर्द्रष्टुमृषिभिर्वा महात्मभिः।
तदाश्रमपदं पुण्यं बदरीनाम विश्रुतम् ॥ १२ ॥
स निवासोऽभवद् विप्र विष्णोर्जिष्णोस्तथैव च।
यतः प्रववृते गङ्गा सिद्धचारणसेविता ॥ १३ ॥
मूलम्
यन्न शक्यं सुरैर्द्रष्टुमृषिभिर्वा महात्मभिः।
तदाश्रमपदं पुण्यं बदरीनाम विश्रुतम् ॥ १२ ॥
स निवासोऽभवद् विप्र विष्णोर्जिष्णोस्तथैव च।
यतः प्रववृते गङ्गा सिद्धचारणसेविता ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘देवता अथवा महात्मा महर्षि भी जिसे देखनेमें समर्थ नहीं, वह बदरी नामसे विख्यात पुण्यतीर्थ इनका आश्रम है; वही पूर्वकालमें इन श्रीकृष्ण और अर्जुनका (नारायण और नरका) निवासस्थान था। जहाँसे सिद्ध-चारणसेवित गंगाका प्राकट्य हुआ है॥१२-१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तौ मन्नियोगाद् ब्रह्मर्षे क्षितौ जातौ महाद्युती।
भूमेर्भारावतरणं महावीर्यौ करिष्यतः ॥ १४ ॥
मूलम्
तौ मन्नियोगाद् ब्रह्मर्षे क्षितौ जातौ महाद्युती।
भूमेर्भारावतरणं महावीर्यौ करिष्यतः ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘ब्रह्मर्षे! ये दोनों महातेजस्वी नर और नारायण मेरे अनुरोधसे पृथ्वीपर उत्पन्न हुए हैं। इनकी शक्ति महान् है, ये दोनों इस पृथ्वीका भार उतारेंगे॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उद्वृत्ता ह्यसुराः केचिन्निवातकवचा इति।
विप्रियेषु स्थितास्माकं वरदानेन मोहिताः ॥ १५ ॥
मूलम्
उद्वृत्ता ह्यसुराः केचिन्निवातकवचा इति।
विप्रियेषु स्थितास्माकं वरदानेन मोहिताः ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘इन दिनों निवातकवच नामसे प्रसिद्ध कुछ असुरगण बड़े उद्दण्ड हो रहे हैं, वे वरदानसे मोहित होकर हमारा अनिष्ट करनेमें लगे हुए हैं॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तर्कयन्ते सुरान् हन्तुं बलदर्पसमन्विताः।
देवान् न गणयन्त्येते तथा दत्तवरा हि ते ॥ १६ ॥
मूलम्
तर्कयन्ते सुरान् हन्तुं बलदर्पसमन्विताः।
देवान् न गणयन्त्येते तथा दत्तवरा हि ते ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘उनमें बल तो है ही, बली होनेका अभिमान भी है। वे देवताओंको मार डालनेका विचार करते हैं। देवताओंको तो वे लोग कुछ गिनते ही नहीं; क्योंकि उन्हें वैसा ही वरदान प्राप्त हो चुका है॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पातालवासिनो रौद्रा दनोः पुत्रा महाबलाः।
सर्वदेवनिकाया हि नालं योधयितुं हि तान् ॥ १७ ॥
योऽसौ भूमिगतः श्रीमान् विष्णुर्मधुनिषूदनः।
कपिलो नाम देवोऽसौ भगवानजितो हरिः ॥ १८ ॥
मूलम्
पातालवासिनो रौद्रा दनोः पुत्रा महाबलाः।
सर्वदेवनिकाया हि नालं योधयितुं हि तान् ॥ १७ ॥
योऽसौ भूमिगतः श्रीमान् विष्णुर्मधुनिषूदनः।
कपिलो नाम देवोऽसौ भगवानजितो हरिः ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘वे महाबली भयंकर दानव पातालमें निवास करते हैं। सम्पूर्ण देवता मिलकर भी उनके साथ युद्ध नहीं कर सकते। इस समय भूतलपर जिनका अवतार हुआ है वे श्रीमान् मधुसूदन विष्णु ही कपिल नामसे प्रसिद्ध देवता हुए हैं। वे ही भगवान् अपराजित हरि हैं॥१७-१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
येन पूर्वं महात्मानः खनमाना रसातलम्।
दर्शनादेव निहताः सगरस्यात्मजा विभो ॥ १९ ॥
मूलम्
येन पूर्वं महात्मानः खनमाना रसातलम्।
दर्शनादेव निहताः सगरस्यात्मजा विभो ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘महर्षे! पूर्वकालमें रसातलको खोदनेवाले सगरके महामना पुत्र उन्हीं कपिलकी दृष्टिमात्र पड़नेसे भस्म हो गये थे॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेन कार्यं महत् कार्यमस्माकं द्विजसत्तम।
पार्थेन च महायुद्धे समेताभ्यां न संशयः ॥ २० ॥
मूलम्
तेन कार्यं महत् कार्यमस्माकं द्विजसत्तम।
पार्थेन च महायुद्धे समेताभ्यां न संशयः ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘द्विजश्रेष्ठ! वे भगवान् श्रीहरि हमारा महान् कार्य सिद्ध कर सकते हैं। कुन्तीकुमार अर्जुनसे भी हमारा कार्य सिद्ध हो सकता है। यदि श्रीकृष्ण और अर्जुन किसी महायुद्धमें एक-दूसरेसे मिल जायँ तो वे दोनों एक साथ होकर महान्-से-महान् कार्य सिद्ध कर सकते हैं’ इसमें संशय नहीं है॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सोऽसुरान् दर्शनादेव शक्तो हन्तुं सहानुगान्।
निवातकवचान् सर्वान् नागानिव महाह्रदे ॥ २१ ॥
मूलम्
सोऽसुरान् दर्शनादेव शक्तो हन्तुं सहानुगान्।
निवातकवचान् सर्वान् नागानिव महाह्रदे ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवान् श्रीकृष्ण तो दृष्टिनिक्षेपमात्रसे ही महान् कुण्डमें निवास करनेवाले नागोंकी भाँति समस्त ‘निवातकवच’ नामक दानवोंको उनके अनुयायियोंसहित मार डालनेमें समर्थ हैं॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
किं तु नाल्पेन कार्येण प्रबोध्यो मधुसूदनः।
तेजसः सुमहाराशिः प्रबुद्धः प्रदहेज्जगत् ॥ २२ ॥
मूलम्
किं तु नाल्पेन कार्येण प्रबोध्यो मधुसूदनः।
तेजसः सुमहाराशिः प्रबुद्धः प्रदहेज्जगत् ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘परंतु किसी छोटे कार्यके लिये भगवान् मधुसूदनको सूचना देनी उचित नहीं जान पड़ती। वे तेजके महान् राशि हैं; यदि प्रज्वलित हों तो सम्पूर्ण जगत्को भस्म कर सकते हैं॥२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अयं तेषां समस्तानां शक्तः प्रतिसमासने।
तान् निहत्य रणे शूरः पुनर्यास्यति मानुषान् ॥ २३ ॥
मूलम्
अयं तेषां समस्तानां शक्तः प्रतिसमासने।
तान् निहत्य रणे शूरः पुनर्यास्यति मानुषान् ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘ये शूरवीर अर्जुन अकेले ही उन समस्त निवात-कवचोंका संहार करनेमें समर्थ हैं। उन सबको युद्धमें मारकर ये फिर मनुष्यलोकको लौट जायँगे॥२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भवानस्मन्नियोगेन यातु तावन्महीतलम् ।
काम्यके द्रक्ष्यसे वीरं निवसन्तं युधिष्ठिरम् ॥ २४ ॥
मूलम्
भवानस्मन्नियोगेन यातु तावन्महीतलम् ।
काम्यके द्रक्ष्यसे वीरं निवसन्तं युधिष्ठिरम् ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘मुने! आप मेरे अनुरोधसे कृपया भूलोकमें जाइये और काम्यकवनमें निवास करनेवाले युधिष्ठिरसे मिलिये॥२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स वाच्यो मम संदेशाद् धर्मात्मा सत्यसंगरः।
नोत्कण्ठा फाल्गुने कार्या कृतास्त्रः शीघ्रमेष्यति ॥ २५ ॥
मूलम्
स वाच्यो मम संदेशाद् धर्मात्मा सत्यसंगरः।
नोत्कण्ठा फाल्गुने कार्या कृतास्त्रः शीघ्रमेष्यति ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘वे बड़े धर्मात्मा और सत्यप्रतिज्ञ हैं। उनसे मेरा यह संदेश कहियेगा—‘राजन्! आप अर्जुनके वापस लौटनेके विषयमें उत्कण्ठित न हों। वे अस्त्रविद्या सीखकर शीघ्र ही लौट आयेंगे॥२५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नाशुद्धबाहुवीर्येण नाकृतास्त्रेण वा रणे।
भीष्मद्रोणादयो युद्धे शक्याः प्रतिसमासितुम् ॥ २६ ॥
मूलम्
नाशुद्धबाहुवीर्येण नाकृतास्त्रेण वा रणे।
भीष्मद्रोणादयो युद्धे शक्याः प्रतिसमासितुम् ॥ २६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जिसका बाहुबल पूर्ण अस्त्रशिक्षाके अभावसे त्रुटिपूर्ण हो तथा जिसने अस्त्रविद्याका पूर्ण ज्ञान न प्राप्त किया हो, वह युद्धमें भीष्म-द्रोण आदिका सामना नहीं कर सकता॥२६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गृहीतास्त्रो गुडाकेशो महाबाहुर्महामनाः ।
नृत्यवादित्रगीतानां दिव्यानां पारमीयिवान् ॥ २७ ॥
मूलम्
गृहीतास्त्रो गुडाकेशो महाबाहुर्महामनाः ।
नृत्यवादित्रगीतानां दिव्यानां पारमीयिवान् ॥ २७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘महाबाहु महामना अर्जुन अस्त्रविद्याकी पूरी शिक्षा पा चुके हैं। वे दिव्य नृत्य, वाद्य एवं गीतकी कलामें भी पारंगत हो गये हैं॥२७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भवानपि विविक्तानि तीर्थानि मनुजेश्वर।
भ्रातृभिः सहितः सर्वैर्द्रष्टुमर्हत्यरिंदम ॥ २८ ॥
तीर्थेष्वाप्लुत्य पुण्येषु विपाप्मा विगतज्वरः।
राज्यं भोक्ष्यसि राजेन्द्र सुखी विगतकल्मषः ॥ २९ ॥
मूलम्
भवानपि विविक्तानि तीर्थानि मनुजेश्वर।
भ्रातृभिः सहितः सर्वैर्द्रष्टुमर्हत्यरिंदम ॥ २८ ॥
तीर्थेष्वाप्लुत्य पुण्येषु विपाप्मा विगतज्वरः।
राज्यं भोक्ष्यसि राजेन्द्र सुखी विगतकल्मषः ॥ २९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘मनुजेश्वर! शत्रुदमन! आप भी अपने सभी भाइयोंके साथ पवित्र तीर्थोंका दर्शन कीजिये। राजेन्द्र! पुण्यतीर्थोंमें स्नान करके पाप-तापसे रहित हो सुखी एवं निष्कलंक जीवन बिताते हुए आप राज्यभोग करेंगे’॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भवांश्चैनं द्विजश्रेष्ठ पर्यटन्तं महीतलम्।
त्रातुमर्हति विप्राग्र्य तपोबलसमन्वितः ॥ ३० ॥
मूलम्
भवांश्चैनं द्विजश्रेष्ठ पर्यटन्तं महीतलम्।
त्रातुमर्हति विप्राग्र्य तपोबलसमन्वितः ॥ ३० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘द्विजश्रेष्ठ! आप भी भूतलपर विचरनेवाले राजा युधिष्ठिरकी रक्षा करते रहें; क्योंकि आप तपोबलसे सम्पन्न हैं॥३०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गिरिदुर्गेषु च सदा देशेषु विषमेषु च।
वसन्ति राक्षसा रौद्रास्तेभ्यो रक्षां विधास्यति ॥ ३१ ॥
मूलम्
गिरिदुर्गेषु च सदा देशेषु विषमेषु च।
वसन्ति राक्षसा रौद्रास्तेभ्यो रक्षां विधास्यति ॥ ३१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘पर्वतोंके दुर्गम स्थानोंमें तथा ऊँची-नीची भूमियोंमें भयंकर राक्षस निवास करते हैं; उनसे आप भाइयोंसहित युधिष्ठिरकी रक्षा कीजियेगा’॥३१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमुक्तो महेन्द्रेण बीभत्सुरपि लोमशम्।
उवाच प्रयतो वाक्यं रक्षेथाः पाण्डुनन्दनम् ॥ ३२ ॥
मूलम्
एवमुक्तो महेन्द्रेण बीभत्सुरपि लोमशम्।
उवाच प्रयतो वाक्यं रक्षेथाः पाण्डुनन्दनम् ॥ ३२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महेन्द्रके ऐसा कहनेपर अर्जुनने भी विनीत होकर लोमश मुनिसे कहा—‘मुने! पाण्डुनन्दन युधिष्ठिरकी भाइयोंसहित रक्षा कीजिये॥३२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथा गुप्तस्त्वया राजा चरेत् तीर्थानि सत्तम।
दानं दद्याद् यथा चैव तथा कुरु महामुने ॥ ३३ ॥
मूलम्
यथा गुप्तस्त्वया राजा चरेत् तीर्थानि सत्तम।
दानं दद्याद् यथा चैव तथा कुरु महामुने ॥ ३३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘साधुशिरोमणे! महामुने! आपसे सुरक्षित रहकर राजा युधिष्ठिर तीर्थोंमें भ्रमण करें और दान दें—ऐसी कृपा कीजिये’॥३३॥
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
तथेति सम्प्रतिज्ञाय लोमशः सुमहातपाः।
काम्यकं वनमुद्दिश्य समुपायान्महीतलम् ॥ ३४ ॥
मूलम्
तथेति सम्प्रतिज्ञाय लोमशः सुमहातपाः।
काम्यकं वनमुद्दिश्य समुपायान्महीतलम् ॥ ३४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! ‘बहुत अच्छा’ कहकर महातपस्वी लोमशजीने उनका अनुरोध मान लिया और काम्यकवनमें जानेके लिये भूलोककी ओर प्रस्थान किया॥३४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ददर्श तत्र कौन्तेयं धर्मराजमरिंदमम्।
तापसैर्भ्रातृभिश्चैव सर्वतः परिवारितम् ॥ ३५ ॥
मूलम्
ददर्श तत्र कौन्तेयं धर्मराजमरिंदमम्।
तापसैर्भ्रातृभिश्चैव सर्वतः परिवारितम् ॥ ३५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वहाँ पहुँचकर उन्होंने शत्रुदमन कुन्तीकुमार धर्मराज युधिष्ठिरको भाइयों तथा तपस्वी मुनियोंसे घिरा हुआ देखा॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि इन्द्रलोकाभिगमनपर्वणि लोमशगमने सप्तचत्वारिंशोऽध्यायः ॥ ४७ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्वके अन्तर्गत इन्द्रलोकाभिगमनपर्वमें लोमशगमनविषयक सैंतालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥४७॥