श्रावणम् (द्युगङ्गा)
भागसूचना
षट्चत्वारिंशोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
उर्वशीका कामपीड़ित होकर अर्जुनके पास जाना और उनके अस्वीकार करनेपर उन्हें शाप देकर लौट आना
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो विसृज्य गन्धर्वं कृतकृत्यं शुचिस्मिता।
उर्वशी चाकरोत् स्नानं पार्थदर्शनलालसा ॥ १ ॥
मूलम्
ततो विसृज्य गन्धर्वं कृतकृत्यं शुचिस्मिता।
उर्वशी चाकरोत् स्नानं पार्थदर्शनलालसा ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! तदनन्तर कृतकृत्य हुए गन्धर्वराज चित्रसेनको विदा करके पवित्र मुसकानवाली उर्वशीने अर्जुनसे मिलनेके लिये उत्सुक हो स्नान किया॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्नानालंकरणैर्हृद्यैर्गन्धमाल्यैश्च सुप्रभैः ।
धनंजयस्य रूपेण शरैर्मन्मथचोदितैः ॥ २ ॥
अतिविद्धेन मनसा मन्मथेन प्रदीपिता।
दिव्यास्तरणसंस्तीर्णे विस्तीर्णे शयनोत्तमे ॥ ३ ॥
चित्तसंकल्पभावेन सुचित्तानन्यमानसा ।
मनोरथेन सम्प्राप्तं रमन्त्येनं हि फाल्गुनम् ॥ ४ ॥
मूलम्
स्नानालंकरणैर्हृद्यैर्गन्धमाल्यैश्च सुप्रभैः ।
धनंजयस्य रूपेण शरैर्मन्मथचोदितैः ॥ २ ॥
अतिविद्धेन मनसा मन्मथेन प्रदीपिता।
दिव्यास्तरणसंस्तीर्णे विस्तीर्णे शयनोत्तमे ॥ ३ ॥
चित्तसंकल्पभावेन सुचित्तानन्यमानसा ।
मनोरथेन सम्प्राप्तं रमन्त्येनं हि फाल्गुनम् ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
धनंजयके रूप-सौन्दर्यसे प्रभावित उसका हृदय कामदेवके बाणोंद्वारा अत्यन्त घायल हो चुका था। वह मदनाग्निसे दग्ध हो रही थी। स्नानके पश्चात् उसने चमकीले और मनोभिराम आभूषण धारण किये। सुगन्धित दिव्य पुष्पोंके हारोंसे अपनेको अलंकृत किया। फिर उसने मन-ही-मन संकल्प किया—दिव्य बिछौनोंसे सजी हुई एक सुन्दर विशाल शय्या बिछी हुई है। उसका हृदय सुन्दर तथा प्रियतमके चिन्तनमें एकाग्र था। उसने मनकी भावनाद्वारा ही यह देखा कि कुन्तीकुमार अर्जुन उसके पास आ गये हैं और वह उनके साथ रमण कर रही है॥२—४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
निर्गम्य चन्द्रोदयने विगाढे रजनीमुखे।
प्रस्थिता सा पृथुश्रोणी पार्थस्य भवनं प्रति ॥ ५ ॥
मूलम्
निर्गम्य चन्द्रोदयने विगाढे रजनीमुखे।
प्रस्थिता सा पृथुश्रोणी पार्थस्य भवनं प्रति ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
संध्याको चन्द्रोदय होनेपर जब चारों ओर चाँदनी छिटक गयी, उस समय वह विशाल नितम्बोंवाली अप्सरा अपने भवनसे निकलकर अर्जुनके निवासस्थानकी ओर चली॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मृदुकुञ्चितदीर्घेण कुमुदोक्तरधारिणा ।
केशहस्तेन ललना जगामाथ विराजती ॥ ६ ॥
मूलम्
मृदुकुञ्चितदीर्घेण कुमुदोक्तरधारिणा ।
केशहस्तेन ललना जगामाथ विराजती ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उसके कोमल, घुँघराले और लम्बे केशोंका समूह वेणीके रूपमें आबद्ध था। उनमें कुमुद-पुष्पोंके गुच्छे लगे हुए थे। इस प्रकार सुशोभित वह ललना अर्जुनके गृहकी ओर बढ़ी जा रही थी॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भ्रूक्षेपालापमाधुर्यैः कान्त्या सौम्यतयापि च।
शशिनं वक्त्रचन्द्रेण साऽऽह्वयन्तीव गच्छति ॥ ७ ॥
मूलम्
भ्रूक्षेपालापमाधुर्यैः कान्त्या सौम्यतयापि च।
शशिनं वक्त्रचन्द्रेण साऽऽह्वयन्तीव गच्छति ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भौंहोंकी भंगिमा, वार्तालापकी मधुरिमा, उज्ज्वल कान्ति और सौम्यभावसे सम्पन्न अपने मनोहर मुखचन्द्र-द्वारा वह चन्द्रमाको चुनौती-सी देती हुई इन्द्रभवनके पथपर चल रही थी॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दिव्याङ्गरागौ सुमुखौ दिव्यचन्दनरूषितौ ।
गच्छन्त्या हाररुचिरौ स्तनौ तस्या ववल्गतुः ॥ ८ ॥
मूलम्
दिव्याङ्गरागौ सुमुखौ दिव्यचन्दनरूषितौ ।
गच्छन्त्या हाररुचिरौ स्तनौ तस्या ववल्गतुः ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
चलते समय सुन्दर हारोंसे विभूषित उर्वशीके उठे हुए स्तन जोर-जोरसे हिल रहे थे। उनपर दिव्य अंगराग लगाये गये थे। उनके अग्रभाग अत्यन्त मनोहर थे। वे दिव्य चन्दनसे चर्चित हो रहे थे॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्तनोद्वहनसंक्षोभान्नम्यमाना पदे पदे ।
त्रिवलीदामचित्रेण मध्येनातीवशोभिना ॥ ९ ॥
मूलम्
स्तनोद्वहनसंक्षोभान्नम्यमाना पदे पदे ।
त्रिवलीदामचित्रेण मध्येनातीवशोभिना ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
स्तनोंके भारी भारको वहन करनेके कारण थककर वह पग-पगपर झुकी जाती थी। उसका अत्यन्त सुन्दर मध्यभाग (उदर) त्रिवली रेखासे विचित्र शोभा धारण करता था॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अधो भूधरविस्तीर्णं नितम्बोन्नतपीवरम् ।
मन्मथायतनं शुभ्रं रसनादामभूषितम् ॥ १० ॥
ऋषीणामपि दिव्यानां मनोव्याघातकारणम् ।
सूक्ष्मवस्त्रधरं रेजे जघनं निरवद्यवत् ॥ ११ ॥
मूलम्
अधो भूधरविस्तीर्णं नितम्बोन्नतपीवरम् ।
मन्मथायतनं शुभ्रं रसनादामभूषितम् ॥ १० ॥
ऋषीणामपि दिव्यानां मनोव्याघातकारणम् ।
सूक्ष्मवस्त्रधरं रेजे जघनं निरवद्यवत् ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सुन्दर महीन वस्त्रोंसे आच्छादित उसका जघनप्रदेश अनिन्द्य सौन्दर्यसे सुशोभित हो रहा था। वह कामदेवका उज्ज्वल मन्दिर जान पड़ता था। नाभिके नीचेके भागमें पर्वतके समान विशाल नितम्ब ऊँचा और स्थूल प्रतीत होता था। कटिमें बँधी हुई करधनीकी लड़ियाँ उस जघनप्रदेशको सुशोभित कर रही थीं। वह मनोहर अंग (जघन) देवलोकवासी महर्षियोंके भी चित्तको क्षुब्ध कर देनेवाला था॥१०-११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गूढगुल्फधरौ पादौ ताम्रायततलाङ्गुली ।
कूर्मपृष्ठोन्नतौ चापि शोभेते किङ्किणीकिणौ ॥ १२ ॥
मूलम्
गूढगुल्फधरौ पादौ ताम्रायततलाङ्गुली ।
कूर्मपृष्ठोन्नतौ चापि शोभेते किङ्किणीकिणौ ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उसके दोनों चरणोंके गुल्फ (टखने) मांससे छिपे हुए थे। उसके विस्तृत तलवे और अँगुलियाँ लाल रंगकी थीं। वे दोनों पैर कछुएकी पीठके समान ऊँचे होनेके साथ ही घुँघुरुओंके चिह्नसे सुशोभित थे॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सीधुपानेन चाल्पेन तुष्ट्याथ मदनेन च।
विलासनैश्च विविधैः प्रेक्षणीयतराभवत् ॥ १३ ॥
मूलम्
सीधुपानेन चाल्पेन तुष्ट्याथ मदनेन च।
विलासनैश्च विविधैः प्रेक्षणीयतराभवत् ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वह अल्प सुरापानसे, संतोषसे, कामसे और नाना प्रकारकी विलासिताओंसे युक्त होनेके कारण अत्यन्त दर्शनीय हो रही थी॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सिद्धचारणगन्धर्वैः सा प्रयाता विलासिनी।
बह्वाश्चर्येऽपि वै स्वर्गे दर्शनीयतमाकृतिः ॥ १४ ॥
सुसूक्ष्मेणोत्तरीयेण मेघवर्णेन राजता ।
तनुरभ्रावृता व्योम्नि चन्द्रलेखेव गच्छति ॥ १५ ॥
मूलम्
सिद्धचारणगन्धर्वैः सा प्रयाता विलासिनी।
बह्वाश्चर्येऽपि वै स्वर्गे दर्शनीयतमाकृतिः ॥ १४ ॥
सुसूक्ष्मेणोत्तरीयेण मेघवर्णेन राजता ।
तनुरभ्रावृता व्योम्नि चन्द्रलेखेव गच्छति ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जाती हुई उस विलासिनी अप्सराकी आकृति अनेक आश्चर्योंसे भरे हुए स्वर्गलोकमें भी सिद्ध, चारण और गन्धर्वोंके लिये देखनेके ही योग्य हो रही थी। अत्यन्त महीन मेघके समान श्याम रंगकी सुन्दर ओढ़नी ओढ़े तन्वंगी उर्वशी आकाशमें बादलोंसे ढकी हुई चन्द्रलेखा-सी चली जा रही थी॥१४-१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः प्राप्ता क्षणेनैव मनःपवनगामिनी।
भवनं पाण्डुपुत्रस्य फाल्गुनस्य शुचिस्मिता ॥ १६ ॥
मूलम्
ततः प्राप्ता क्षणेनैव मनःपवनगामिनी।
भवनं पाण्डुपुत्रस्य फाल्गुनस्य शुचिस्मिता ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मन और वायुके समान तीव्र वेगसे चलनेवाली वह पवित्र मुसकानसे सुशोभित अप्सरा क्षणभरमें पाण्डुकुमार अर्जुनके महलमें जा पहुँची॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत्र द्वारमनुप्राप्ता द्वारस्थैश्च निवेदिता।
अर्जुनस्य नरश्रेष्ठ उर्वशी शुभलोचना ॥ १७ ॥
उपातिष्ठत तद् वेश्म निर्मलं सुमनोहरम्।
सशङ्कितमना राजन् प्रत्युद्गच्छत तां निशि ॥ १८ ॥
मूलम्
तत्र द्वारमनुप्राप्ता द्वारस्थैश्च निवेदिता।
अर्जुनस्य नरश्रेष्ठ उर्वशी शुभलोचना ॥ १७ ॥
उपातिष्ठत तद् वेश्म निर्मलं सुमनोहरम्।
सशङ्कितमना राजन् प्रत्युद्गच्छत तां निशि ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नरश्रेष्ठ जनमेजय! महलके द्वारपर पहुँचकर वह ठहर गयी। उस समय द्वारपालोंने अर्जुनको उसके आगमनकी सूचना दी। तब सुन्दर नेत्रोंवाली उर्वशी रात्रिमें अर्जुनके अत्यन्त मनोहर तथा उज्ज्वल भवनमें उपस्थित हुई। राजन्! अर्जुन सशंक हृदयसे उसके सामने गये॥१७-१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दृष्ट्वैव चोर्वशीं पार्थो लज्जासंवृतलोचनः।
तदाभिवादनं कृत्वा गुरुपूजां प्रयुक्तवान् ॥ १९ ॥
मूलम्
दृष्ट्वैव चोर्वशीं पार्थो लज्जासंवृतलोचनः।
तदाभिवादनं कृत्वा गुरुपूजां प्रयुक्तवान् ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उर्वशीको आयी देख अर्जुनके नेत्र लज्जासे मुँद गये। उस समय उन्होंने उसके चरणोंमें प्रणाम करके उसका गुरुजनोचित सत्कार किया॥१९॥
मूलम् (वचनम्)
अर्जुन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अभिवादये त्वां शिरसा प्रवराप्सरसां वरे।
किमाज्ञापयसे देवि प्रेष्यस्तेऽहमुपस्थितः ॥ २० ॥
मूलम्
अभिवादये त्वां शिरसा प्रवराप्सरसां वरे।
किमाज्ञापयसे देवि प्रेष्यस्तेऽहमुपस्थितः ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अर्जुन बोले— देवि! श्रेष्ठ अप्सराओंमें भी तुम्हारा सबसे ऊँचा स्थान है। मैं तुम्हारे चरणोंमें मस्तक रखकर प्रणाम करता हूँ। बताओ, मेरे लिये क्या आज्ञा है? मैं तुम्हारा सेवक हूँ और तुम्हारी आज्ञाका पालन करनेके लिये उपस्थित हूँ॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
फाल्गुनस्य वचः श्रुत्वा गतसंज्ञा तदोर्वशी।
गन्धर्ववचनं सर्वं श्रावयामास तं तदा ॥ २१ ॥
मूलम्
फाल्गुनस्य वचः श्रुत्वा गतसंज्ञा तदोर्वशी।
गन्धर्ववचनं सर्वं श्रावयामास तं तदा ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अर्जुनकी यह बात सुनकर उर्वशीके होश-हवास गुम हो गये, उस समय उसने गन्धर्वराज चित्रसेनकी कही हुई सारी बातें कह सुनायीं॥२१॥
मूलम् (वचनम्)
उर्वश्युवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथा मे चित्रसेनेन कथितं मनुजोत्तम।
तत् तेऽहं सम्प्रवक्ष्यामि यथा चाहमिहागता ॥ २२ ॥
मूलम्
यथा मे चित्रसेनेन कथितं मनुजोत्तम।
तत् तेऽहं सम्प्रवक्ष्यामि यथा चाहमिहागता ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उर्वशीने कहा— पुरुषोत्तम! चित्रसेनने मुझे जैसा संदेश दिया है और उसके अनुसार जिस उद्देश्यको लेकर मैं यहाँ आयी हूँ, वह सब मैं तुम्हें बता रही हूँ॥२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उपस्थाने महेन्द्रस्य वर्तमाने मनोरमे।
तवागमनतो वृत्ते स्वर्गस्य परमोत्सवे ॥ २३ ॥
रुद्राणां चैव सांनिध्यमादित्यानां च सर्वशः।
समागमेऽश्विनोश्चैव वसूनां च नरोत्तम ॥ २४ ॥
महर्षीणां च संघेषु राजर्षिप्रवरेषु च।
सिद्धचारणयक्षेषु महोरगगणेषु च ॥ २५ ॥
उपविष्टेषु सर्वेषु स्थानमानप्रभावतः ।
ऋद्ध्या प्रज्वलमानेषु अग्निसोमार्कवर्ष्मसु ॥ २६ ॥
वीणासु वाद्यमानासु गन्धर्वैः शक्रनन्दन।
दिव्ये मनोरमे गेये प्रवृत्ते पृथुलोचन ॥ २७ ॥
सर्वाप्सरःसु मुख्यासु प्रनृत्तासु कुरूद्वह।
त्वं किलानिमिषः पार्थ मामेकां तत्र दृष्टवान् ॥ २८ ॥
मूलम्
उपस्थाने महेन्द्रस्य वर्तमाने मनोरमे।
तवागमनतो वृत्ते स्वर्गस्य परमोत्सवे ॥ २३ ॥
रुद्राणां चैव सांनिध्यमादित्यानां च सर्वशः।
समागमेऽश्विनोश्चैव वसूनां च नरोत्तम ॥ २४ ॥
महर्षीणां च संघेषु राजर्षिप्रवरेषु च।
सिद्धचारणयक्षेषु महोरगगणेषु च ॥ २५ ॥
उपविष्टेषु सर्वेषु स्थानमानप्रभावतः ।
ऋद्ध्या प्रज्वलमानेषु अग्निसोमार्कवर्ष्मसु ॥ २६ ॥
वीणासु वाद्यमानासु गन्धर्वैः शक्रनन्दन।
दिव्ये मनोरमे गेये प्रवृत्ते पृथुलोचन ॥ २७ ॥
सर्वाप्सरःसु मुख्यासु प्रनृत्तासु कुरूद्वह।
त्वं किलानिमिषः पार्थ मामेकां तत्र दृष्टवान् ॥ २८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
देवराज इन्द्रके इस मनोरम निवासस्थानमें तुम्हारे शुभागमनके उपलक्ष्यमें एक महान् उत्सव मनाया गया। यह उत्सव स्वर्गलोकका सबसे बड़ा उत्सव था। उसमें रुद्र, आदित्य, अश्विनीकुमार और वसुगण—इन सबका सब ओरसे समागम हुआ था। नरश्रेष्ठ! महर्षिसमुदाय, राजर्षिप्रवर, सिद्ध, चारण, यक्ष तथा बड़े-बड़े नाग—ये सभी अपने पद, सम्मान और प्रभावके अनुसार योग्य आसनोंपर बैठे थे। इन सबके शरीर अग्नि, चन्द्रमा और सूर्यके समान तेजस्वी थे और ये समस्त देवता अपनी अद्भुत समृद्धिसे प्रकाशित हो रहे थे। विशाल नेत्रोंवाले इन्द्रकुमार! उस समय गन्धर्वोंद्वारा अनेक वीणाएँ बजायी जा रही थीं। दिव्य मनोरम संगीत छिड़ा हुआ था और सभी प्रमुख अप्सराएँ नृत्य कर रही थीं। कुरुकुलनन्दन पार्थ! उस समय तुम मेरी ओर निर्निमेष नयनोंसे निहार रहे थे॥२३—२८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत्र चावभृथे तस्मिन्नुपस्थाने दिवौकसाम्।
तव पित्राभ्यनुज्ञाता गताः स्वं स्वं गृहं सुराः ॥ २९ ॥
तथैवाप्सरसः सर्वा विशिष्टाः स्वगृहं गताः।
अपि चान्याश्च शत्रुघ्न तव पित्रा विसर्जिताः ॥ ३० ॥
मूलम्
तत्र चावभृथे तस्मिन्नुपस्थाने दिवौकसाम्।
तव पित्राभ्यनुज्ञाता गताः स्वं स्वं गृहं सुराः ॥ २९ ॥
तथैवाप्सरसः सर्वा विशिष्टाः स्वगृहं गताः।
अपि चान्याश्च शत्रुघ्न तव पित्रा विसर्जिताः ॥ ३० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
देवसभामें जब उस महोत्सवकी समाप्ति हुई, तब तुम्हारे पिताकी आज्ञा लेकर सब देवता अपने-अपने भवनको चले गये। शत्रुदमन! इसी प्रकार आपके पितासे विदा लेकर सभी प्रमुख अप्सराएँ तथा दूसरी साधारण अप्सराएँ भी अपने-अपने घरको चली गयीं॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः शक्रेण संदिष्टश्चित्रसेनो ममान्तिकम्।
प्राप्तः कमलपत्राक्ष स च मामब्रवीदथ ॥ ३१ ॥
मूलम्
ततः शक्रेण संदिष्टश्चित्रसेनो ममान्तिकम्।
प्राप्तः कमलपत्राक्ष स च मामब्रवीदथ ॥ ३१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कमलनयन! तदनन्तर देवराज इन्द्रका संदेश लेकर गन्धर्वप्रवर चित्रसेन मेरे पास आये और इस प्रकार बोले—॥३१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्वत्कृतेऽहं सुरेशेन प्रेषितो वरवर्णिनि।
प्रियं कुरु महेन्द्रस्य मम चैवात्मनश्च ह ॥ ३२ ॥
मूलम्
त्वत्कृतेऽहं सुरेशेन प्रेषितो वरवर्णिनि।
प्रियं कुरु महेन्द्रस्य मम चैवात्मनश्च ह ॥ ३२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘वरवर्णिनि! देवेश्वर इन्द्रने तुम्हारे लिये एक संदेश देकर मुझे भेजा है। तुम उसे सुनकर महेन्द्रका, मेरा तथा मुझसे अपना भी प्रिय कार्य करो’॥३२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शक्रतुल्यं रणे शूरं सदौदार्यगुणान्वितम्।
पार्थं प्रार्थय सुश्रोणि त्वमित्येवं तदाब्रवीत् ॥ ३३ ॥
मूलम्
शक्रतुल्यं रणे शूरं सदौदार्यगुणान्वितम्।
पार्थं प्रार्थय सुश्रोणि त्वमित्येवं तदाब्रवीत् ॥ ३३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘सुश्रोणि! जो संग्राममें इन्द्रके समान पराक्रमी और उदारता आदि गुणोंसे सदा सम्पन्न हैं, उन कुन्तीनन्दन अर्जुनकी सेवा तुम स्वीकार करो।’ इस प्रकार चित्रसेनने मुझसे कहा था॥३३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततोऽहं समनुज्ञाता तेन पित्रा च तेऽनघ।
तवान्तिकमनुप्राप्ता शुश्रूषितुमरिंदम ॥ ३४ ॥
मूलम्
ततोऽहं समनुज्ञाता तेन पित्रा च तेऽनघ।
तवान्तिकमनुप्राप्ता शुश्रूषितुमरिंदम ॥ ३४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अनघ! शत्रुदमन! तदनन्तर चित्रसेन और तुम्हारे पिताकी आज्ञा शिरोधार्य करके मैं तुम्हारी सेवाके लिये तुम्हारे पास आयी हूँ॥३४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्वद्गुणाकृष्टचित्ताहमनङ्गवशमागता ।
चिराभिलषितो वीर ममाप्येष मनोरथः ॥ ३५ ॥
मूलम्
त्वद्गुणाकृष्टचित्ताहमनङ्गवशमागता ।
चिराभिलषितो वीर ममाप्येष मनोरथः ॥ ३५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तुम्हारे गुणोंने मेरे चित्तको अपनी ओर खींच लिया है। मैं कामदेवके वशमें हो गयी हूँ। वीर! मेरे हृदयमें भी चिरकालसे यह मनोरथ चला आ रहा था॥३५॥
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
तां तथा ब्रुवतीं श्रुत्वा भृशं लज्जाऽऽवृतोऽर्जुनः।
उवाच कर्णौ हस्ताभ्यां पिधाय त्रिदशालये ॥ ३६ ॥
मूलम्
तां तथा ब्रुवतीं श्रुत्वा भृशं लज्जाऽऽवृतोऽर्जुनः।
उवाच कर्णौ हस्ताभ्यां पिधाय त्रिदशालये ॥ ३६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! स्वर्गलोकमें उर्वशीकी यह बात सुनकर अर्जुन अत्यन्त लज्जासे गड़ गये और हाथोंसे दोनों कान मूँदकर बोले—॥३६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दुःश्रुतं मेऽस्तु सुभगे यन्मां वदसि भाविनि।
गुरुदारैः समाना मे निश्चयेन वरानने ॥ ३७ ॥
मूलम्
दुःश्रुतं मेऽस्तु सुभगे यन्मां वदसि भाविनि।
गुरुदारैः समाना मे निश्चयेन वरानने ॥ ३७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘सौभाग्यशालिनि! भाविनि! तुम जैसी बात कह रही हो, उसे सुनना भी मेरे लिये बड़े दुःखकी बात है। वरानने! निश्चय ही तुम मेरी दृष्टिमें गुरुपत्नियोंके समान पूजनीया हो॥३७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथा कुन्ती महाभागा यथेन्द्राणी शची मम।
तथा त्वमपि कल्याणि नात्र कार्या विचारणा ॥ ३८ ॥
मूलम्
यथा कुन्ती महाभागा यथेन्द्राणी शची मम।
तथा त्वमपि कल्याणि नात्र कार्या विचारणा ॥ ३८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘कल्याणि! मेरे लिये जैसी महाभागा कुन्ती और इन्द्राणी शची हैं, वैसी ही तुम भी हो। इस विषयमें कोई अन्यथा विचार नहीं करना चाहिये॥३८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यच्चेक्षितासि विस्पष्टं विशेषेण मया शुभे।
तच्च कारणपूर्वं हि शृणु सत्यं शुचिस्मिते ॥ ३९ ॥
मूलम्
यच्चेक्षितासि विस्पष्टं विशेषेण मया शुभे।
तच्च कारणपूर्वं हि शृणु सत्यं शुचिस्मिते ॥ ३९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘शुभे! पवित्र मुसकानवाली उर्वशी! मैंने जो उस समय सभामें तुम्हारी ओर एकटक दृष्टिसे देखा था, उसका एक विशेष कारण था, उसे सत्य बताता हूँ सुनो—॥३९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इयं पौरववंशस्य जननी मुदितेति ह।
त्वामहं दृष्टवांस्तत्र विज्ञायोत्फुल्ललोचनः ॥ ४० ॥
न मामर्हसि कल्याणि अन्यथा ध्यातुमप्सरः।
गुरोर्गुरुतरा मे त्वं मम त्वं वंशवर्धिनी ॥ ४१ ॥
मूलम्
इयं पौरववंशस्य जननी मुदितेति ह।
त्वामहं दृष्टवांस्तत्र विज्ञायोत्फुल्ललोचनः ॥ ४० ॥
न मामर्हसि कल्याणि अन्यथा ध्यातुमप्सरः।
गुरोर्गुरुतरा मे त्वं मम त्वं वंशवर्धिनी ॥ ४१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘यह आनन्दमयी उर्वशी ही पूरुवंशकी जननी है, ऐसा समझकर मेरे नेत्र खिल उठे और इस पूज्य भावको लेकर ही मैंने तुम्हें वहाँ देखा था। कल्याणमयी अप्सरा! तुम मेरे विषयमें कोई अन्यथा भाव मनमें न लाओ। तुम मेरे वंशकी वृद्धि करनेवाली हो, अतः गुरुसे भी अधिक गौरवशालिनी हो’॥४०-४१॥
मूलम् (वचनम्)
उर्वश्युवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनावृताश्च सर्वाः स्म देवराजाभिनन्दन।
गुरुस्थाने न मां वीर नियोक्तुं त्वमिहार्हसि ॥ ४२ ॥
मूलम्
अनावृताश्च सर्वाः स्म देवराजाभिनन्दन।
गुरुस्थाने न मां वीर नियोक्तुं त्वमिहार्हसि ॥ ४२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उर्वशीने कहा— वीर देवराजनन्दन! हम सब अप्सराएँ स्वर्गवासियोंके लिये अनावृत हैं—हमारा किसीके साथ कोई पर्दा नहीं है। अतः तुम मुझे गुरुजनके स्थानपर नियुक्त न करो॥४२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पूरोर्वंशे हि ये पुत्रा नप्तारो वा त्विहागताः।
तपसा रमयन्त्यस्मान्न च तेषां व्यतिक्रमः ॥ ४३ ॥
तद् प्रसीद न मामार्तां विसर्जयितुमर्हसि।
हृच्छयेन च संतप्तं भक्तां च भज मानद ॥ ४४ ॥
मूलम्
पूरोर्वंशे हि ये पुत्रा नप्तारो वा त्विहागताः।
तपसा रमयन्त्यस्मान्न च तेषां व्यतिक्रमः ॥ ४३ ॥
तद् प्रसीद न मामार्तां विसर्जयितुमर्हसि।
हृच्छयेन च संतप्तं भक्तां च भज मानद ॥ ४४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पूरुवंशके कितने ही पोते-नाती तपस्या करके यहाँ आते हैं और वे हम सब अप्सराओंके साथ रमण करते हैं। इसमें उनका कोई अपराध नहीं समझा जाता। मानद! मुझपर प्रसन्न होओ। मैं कामवेदनासे पीड़ित हूँ, मेरा त्याग न करो। मैं तुम्हारी भक्त हूँ और मदनाग्निसे दग्ध हो रही हूँ; अतः मुझे अंगीकार करो॥४३-४४॥
मूलम् (वचनम्)
अर्जुन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
शृणु सत्यं वरारोहे यत् त्वां वक्ष्याम्यनिन्दिते।
शृण्वन्तु मे दिशश्चैव विदिशश्च सदेवताः ॥ ४५ ॥
मूलम्
शृणु सत्यं वरारोहे यत् त्वां वक्ष्याम्यनिन्दिते।
शृण्वन्तु मे दिशश्चैव विदिशश्च सदेवताः ॥ ४५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अर्जुनने कहा— वरारोहे! अनिन्दिते! मैं तुमसे जो कुछ कहता हूँ, मेरे उस सत्य वचनको सुनो। ये दिशा, विदिशा तथा उनकी अधिष्ठात्री देवियाँ भी सुन लें॥४५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथा कुन्ती च माद्री च शची चैव ममानघे।
तथा च वंशजननी त्वं हि मेऽद्य गरीयसी ॥ ४६ ॥
मूलम्
यथा कुन्ती च माद्री च शची चैव ममानघे।
तथा च वंशजननी त्वं हि मेऽद्य गरीयसी ॥ ४६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अनघे! मेरी दृष्टिमें कुन्ती, माद्री और शचीका जो स्थान है, वही तुम्हारा भी है। तुम पूरुवंशकी जननी होनेके कारण आज मेरे लिये परम गुरुस्वरूप हो॥४६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गच्छ मूर्ध्ना प्रपन्नोऽस्मि पादौ ते वरवर्णिनि।
त्वं हि मे मातृवत् पूज्या रक्ष्योऽहं पुत्रवत् त्वया॥४७॥
मूलम्
गच्छ मूर्ध्ना प्रपन्नोऽस्मि पादौ ते वरवर्णिनि।
त्वं हि मे मातृवत् पूज्या रक्ष्योऽहं पुत्रवत् त्वया॥४७॥
अनुवाद (हिन्दी)
वरवर्णिनि! मैं तुम्हारे चरणोंमें मस्तक रखकर तुम्हारी शरणमें आया हूँ। तुम लौट जाओ। मेरी दृष्टिमें तुम माताके समान पूजनीया हो और तुम्हें पुत्रके समान मानकर मेरी रक्षा करनी चाहिये॥४७॥
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमुक्ता तु पार्थेन उर्वशी क्रोधमूर्च्छिता।
वेपन्ती भ्रुकुटीवक्रा शशापाथ धनंजयम् ॥ ४८ ॥
मूलम्
एवमुक्ता तु पार्थेन उर्वशी क्रोधमूर्च्छिता।
वेपन्ती भ्रुकुटीवक्रा शशापाथ धनंजयम् ॥ ४८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! कुन्तीकुमार अर्जुनके ऐसा कहनेपर उर्वशी क्रोधसे व्याकुल हो उठी। उसका शरीर काँपने लगा और भौंहें टेढ़ी हो गयीं। उसने अर्जुनको शाप देते हुए कहा॥४८॥
मूलम् (वचनम्)
उर्वश्युवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
तव पित्राभ्यनुज्ञातां स्वयं च गृहमागताम्।
यस्मान्मां नाभिनन्देथाः कामबाणवशंगताम् ॥ ४९ ॥
तस्मात् त्वं नर्तनः पार्थ स्त्रीमध्ये मानवर्जितः।
अपुमानिति विख्यातः षण्ढवद् विचरिष्यसि ॥ ५० ॥
मूलम्
तव पित्राभ्यनुज्ञातां स्वयं च गृहमागताम्।
यस्मान्मां नाभिनन्देथाः कामबाणवशंगताम् ॥ ४९ ॥
तस्मात् त्वं नर्तनः पार्थ स्त्रीमध्ये मानवर्जितः।
अपुमानिति विख्यातः षण्ढवद् विचरिष्यसि ॥ ५० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उर्वशी बोली— अर्जुन! तुम्हारे पिता इन्द्रके कहनेसे मैं स्वयं तुम्हारे घरपर आयी और कामबाणसे घायल हो रही हूँ, फिर भी तुम मेरा आदर नहीं करते। अतः तुम्हें स्त्रियोंके बीचमें सम्मानरहित होकर नर्तक बनकर रहना पड़ेगा। तुम नपुंसक कहलाओगे और तुम्हारा सारा आचार-व्यवहार हिजड़ोंके ही समान होगा॥४९-५०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं दत्त्वार्जुने शापं स्फुरदोष्ठी श्वसन्त्यथ।
पुनः प्रत्यागता क्षिप्रमुर्वशी गृहमात्मनः ॥ ५१ ॥
मूलम्
एवं दत्त्वार्जुने शापं स्फुरदोष्ठी श्वसन्त्यथ।
पुनः प्रत्यागता क्षिप्रमुर्वशी गृहमात्मनः ॥ ५१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
फड़कते हुए ओठोंसे इस प्रकार शाप देकर उर्वशी लंबी साँसें खींचती हुई पुनः शीघ्र ही अपने घरको लौट गयी॥५१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततोऽर्जुनस्त्वरमाणश्चित्रसेनमरिंदमः ।
सम्प्राप्य रजनीवृत्तं तदुर्वश्या यथातथम् ॥ ५२ ॥
निवेदयामास तदा चित्रसेनाय पाण्डवः।
तत्र चैवं यथावृत्तं शापं चैव पुनः पुनः ॥ ५३ ॥
मूलम्
ततोऽर्जुनस्त्वरमाणश्चित्रसेनमरिंदमः ।
सम्प्राप्य रजनीवृत्तं तदुर्वश्या यथातथम् ॥ ५२ ॥
निवेदयामास तदा चित्रसेनाय पाण्डवः।
तत्र चैवं यथावृत्तं शापं चैव पुनः पुनः ॥ ५३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर शत्रुदमन पाण्डुकुमार अर्जुन बड़ी उतावलीके साथ चित्रसेनके समीप गये तथा रातमें उर्वशीके साथ जो घटना जिस प्रकार घटित हुई, वह सब उन्होंने उस समय चित्रसेनको ज्यों-की-त्यों कह सुनायी। साथ ही उसके शाप देनेकी बात भी उन्होंने बार-बार दुहरायी॥५२-५३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अवेदयच्च शक्रस्य चित्रसेनोऽपि सर्वशः।
तत आनाय्य तनयं विविक्ते हरिवाहनः ॥ ५४ ॥
सान्त्वयित्वा शुभैर्वाक्यैः स्मयमानोऽभ्यभाषत ।
सुपुत्राद्य पृथा तात त्वया पुत्रेण सत्तम ॥ ५५ ॥
मूलम्
अवेदयच्च शक्रस्य चित्रसेनोऽपि सर्वशः।
तत आनाय्य तनयं विविक्ते हरिवाहनः ॥ ५४ ॥
सान्त्वयित्वा शुभैर्वाक्यैः स्मयमानोऽभ्यभाषत ।
सुपुत्राद्य पृथा तात त्वया पुत्रेण सत्तम ॥ ५५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
चित्रसेनने भी सारी घटना देवराज इन्द्रसे निवेदन की। तब इन्द्रने अपने पुत्र अर्जुनको बुलाकर एकान्तमें कल्याणमय वचनोंद्वारा सान्त्वना देते हुए मुसकराकर उनसे कहा—‘तात! तुम सत्पुरुषोंके शिरोमणि हो, तुम-जैसे पुत्रको पाकर कुन्ती वास्तवमें श्रेष्ठ पुत्रवाली है’॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ऋषयोऽपि हि धैर्येण जिता वै ते महाभुज।
यत् तु दत्तवती शापमुर्वशी तव मानद ॥ ५६ ॥
स चापि तेऽर्थकृत् तात साधकश्च भविष्यति ॥ ५७ ॥
अज्ञातवासो वस्तव्यो भवद्भिर्भूतलेऽनघ ।
वर्षे त्रयोदशे वीर तत्र त्वं क्षपयिष्यसि ॥ ५८ ॥
मूलम्
ऋषयोऽपि हि धैर्येण जिता वै ते महाभुज।
यत् तु दत्तवती शापमुर्वशी तव मानद ॥ ५६ ॥
स चापि तेऽर्थकृत् तात साधकश्च भविष्यति ॥ ५७ ॥
अज्ञातवासो वस्तव्यो भवद्भिर्भूतलेऽनघ ।
वर्षे त्रयोदशे वीर तत्र त्वं क्षपयिष्यसि ॥ ५८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘महाबाहो! तुमने अपने धैर्य (इन्द्रियसंयम)-के द्वारा ऋषियोंको भी पराजित कर दिया है। मानद! उर्वशीने जो तुम्हें शाप दिया है, वह तुम्हारे अभीष्ट अर्थका साधक होगा। अनघ! तुम्हें भूतलपर तेरहवें वर्षमें अज्ञातवास करना है। वीर! उर्वशीके दिये हुए शापको तुम उसी वर्षमें पूर्ण कर दोगे’॥५६—५८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेन नर्तनवेषेण अपुंस्त्वेन तथैव च।
वर्षमेकं विहृत्यैव ततः पुंस्त्वमवाप्स्यसि ॥ ५९ ॥
मूलम्
तेन नर्तनवेषेण अपुंस्त्वेन तथैव च।
वर्षमेकं विहृत्यैव ततः पुंस्त्वमवाप्स्यसि ॥ ५९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘नर्तक वेष और नपुंसक भावसे एक वर्षतक इच्छानुसार विचरण करके तुम फिर अपना पुरुषत्व प्राप्त कर लोगे’॥५९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमुक्तस्तु शक्रेण फाल्गुनः परवीरहा।
मुदं परमिकां लेभे न च शापं व्यचिन्तयत् ॥ ६० ॥
मूलम्
एवमुक्तस्तु शक्रेण फाल्गुनः परवीरहा।
मुदं परमिकां लेभे न च शापं व्यचिन्तयत् ॥ ६० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इन्द्रके ऐसा कहनेपर शत्रुवीरोंका संहार करनेवाले अर्जुनको बड़ी प्रसन्नता हुई। फिर तो उन्हें शापकी चिन्ता छूट गयी॥६०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
चित्रसेनेन सहितो गन्धर्वेण यशस्विना।
रेमे स स्वर्गभवने पाण्डुपुत्रो धनंजयः ॥ ६१ ॥
मूलम्
चित्रसेनेन सहितो गन्धर्वेण यशस्विना।
रेमे स स्वर्गभवने पाण्डुपुत्रो धनंजयः ॥ ६१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पाण्डुपुत्र धनंजय महायशस्वी गन्धर्व चित्रसेनके साथ स्वर्गलोकमें सुखपूर्वक रहने लगे॥६१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इदं यः शृणुयाद् वृत्तं नित्यं पाण्डुसुतस्य वै।
न तस्य कामः कामेषु पापकेषु प्रवर्तते ॥ ६२ ॥
मूलम्
इदं यः शृणुयाद् वृत्तं नित्यं पाण्डुसुतस्य वै।
न तस्य कामः कामेषु पापकेषु प्रवर्तते ॥ ६२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो मनुष्य पाण्डुनन्दन अर्जुनके इस चरित्रको प्रतिदिन सुनता है, उसके मनमें पापपूर्ण विषयभोगोंकी इच्छा नहीं होती॥६२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इदममरवरात्मजस्य घोरं
शुचि चरितं विनिशम्य फाल्गुनस्य।
व्यपगतमददम्भरागदोषा-
स्त्रिदिवगता विरमन्ति मानवेन्द्राः ॥ ६३ ॥
मूलम्
इदममरवरात्मजस्य घोरं
शुचि चरितं विनिशम्य फाल्गुनस्य।
व्यपगतमददम्भरागदोषा-
स्त्रिदिवगता विरमन्ति मानवेन्द्राः ॥ ६३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
देवराज इन्द्रके पुत्र अर्जुनके इस अत्यन्त दुष्कर पवित्र चरित्रको सुनकर मद, दम्भ तथा विषयासक्ति आदि दोषोंसे रहित श्रेष्ठ मानव स्वर्गलोकमें जाकर वहाँ सुखपूर्वक निवास करते हैं॥६३॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि इन्द्रलोकाभिगमनपर्वणि उर्वशीशापो नाम षट्चत्वारिंशोऽध्यायः ॥ ४६ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्वके अन्तर्गत इन्द्रलोकाभिगमनपर्वमें उर्वशीशाप नामक छियालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥४६॥