श्रावणम् (द्युगङ्गा)
भागसूचना
त्रिचत्वारिंशोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
अर्जुनद्वारा देवराज इन्द्रका दर्शन तथा इन्द्रसभामें उनका स्वागत
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
ददर्श स पुरीं रम्यां सिद्धचारणसेविताम्।
सर्वर्तुकुसुमैः पुण्यैः पादपैरुपशोभिताम् ॥ १ ॥
मूलम्
ददर्श स पुरीं रम्यां सिद्धचारणसेविताम्।
सर्वर्तुकुसुमैः पुण्यैः पादपैरुपशोभिताम् ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— राजन्! अर्जुनने सिद्धों और चारणोंसे सेवित उस रम्य अमरावतीपुरीको देखा, जो सभी ऋतुओंके कुसुमोंसे विभूषित पुण्यमय वृक्षोंसे सुशोभित थी॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत्र सौगन्धिकानां च पुष्पाणां पुण्यगन्धिनाम्।
उद्वीज्यमानो मिश्रेण वायुना पुण्यगन्धिना ॥ २ ॥
मूलम्
तत्र सौगन्धिकानां च पुष्पाणां पुण्यगन्धिनाम्।
उद्वीज्यमानो मिश्रेण वायुना पुण्यगन्धिना ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वहाँ सुगन्धयुक्त कमल तथा पवित्र गन्धवाले अन्य पुष्पोंकी पवित्र गन्धसे मिली हुई वायु मानो व्यजन डुला रही थी॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नन्दनं च वनं दिव्यमप्सरोगणसेवितम्।
ददर्श दिव्यकुसुमैराह्वयद्भिरिव द्रुमैः ॥ ३ ॥
मूलम्
नन्दनं च वनं दिव्यमप्सरोगणसेवितम्।
ददर्श दिव्यकुसुमैराह्वयद्भिरिव द्रुमैः ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अप्सराओंसे सेवित दिव्य नन्दनवनका भी उन्होंने दर्शन किया, जो दिव्य पुष्पोंसे भरे हुए वृक्षोंद्वारा मानो उन्हें अपने पास बुला रहा था॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नातप्ततपसा शक्यो द्रष्टुं नानाहिताग्निना।
स लोकः पुण्यकर्तॄणां नापि युद्धे पराङ्मुखैः ॥ ४ ॥
मूलम्
नातप्ततपसा शक्यो द्रष्टुं नानाहिताग्निना।
स लोकः पुण्यकर्तॄणां नापि युद्धे पराङ्मुखैः ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिन्होंने तपस्या नहीं की है, जो अग्निहोत्रसे दूर रहे हैं तथा जिन्होंने युद्धमें पीठ दिखा दी है, वैसे लोग पुण्यात्माओंके उस लोकका दर्शन भी नहीं कर सकते॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नायज्वभिर्नाव्रतिकैर्न वेदश्रुतिवर्जितैः ।
नानाप्लुताङ्गैस्तीर्थेषु यज्ञदानबहिष्कृतैः ॥ ५ ॥
मूलम्
नायज्वभिर्नाव्रतिकैर्न वेदश्रुतिवर्जितैः ।
नानाप्लुताङ्गैस्तीर्थेषु यज्ञदानबहिष्कृतैः ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिन्होंने यज्ञ नहीं किया है, व्रतका पालन नहीं किया है, जो वेद और श्रुतियोंके स्वाध्यायसे दूर रहे हैं, जिन्होंने तीर्थोंमें स्नान नहीं किया है तथा जो यज्ञ और दान आदि सत्कर्मोंसे वंचित रहे हैं, ऐसे लोगोंको भी उस पुण्यलोकका दर्शन नहीं हो सकता॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नापि यज्ञहनैः क्षुद्रैर्द्रष्टुं शक्यः कथंचन।
पानपैर्गुरुतल्पैश्च मांसादैर्वा दुरात्मभिः ॥ ६ ॥
मूलम्
नापि यज्ञहनैः क्षुद्रैर्द्रष्टुं शक्यः कथंचन।
पानपैर्गुरुतल्पैश्च मांसादैर्वा दुरात्मभिः ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो यज्ञोंमें विघ्न डालनेवाले नीच, शराबी, गुरुपत्नीगामी, मांसाहारी तथा दुरात्मा हैं, वे तो किसी भी प्रकार उस दिव्य लोकका दर्शन नहीं पा सकते॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स तद् दिव्यं वनं पश्यन् दिव्यगीतनिनादितम्।
प्रविवेश महाबाहुः शक्रस्य दयितां पुरीम् ॥ ७ ॥
मूलम्
स तद् दिव्यं वनं पश्यन् दिव्यगीतनिनादितम्।
प्रविवेश महाबाहुः शक्रस्य दयितां पुरीम् ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जहाँ सब ओर दिव्य संगीत गूँज रहा था, उस दिव्य वनका दर्शन करते हुए महाबाहु अर्जुनने देवराज इन्द्रकी प्रिय नगरी अमरावतीमें प्रवेश किया॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत्र देवविमानानि कामगानि सहस्रशः।
संस्थितान्यभियातानि ददर्शायुतशस्तदा ॥ ८ ॥
संस्तूयमानो गन्धर्वैरप्सरोभिश्च पाण्डवः ।
पुष्पगन्धवहैः पुण्यैर्वायुभिश्चानुवीजितः ॥ ९ ॥
मूलम्
तत्र देवविमानानि कामगानि सहस्रशः।
संस्थितान्यभियातानि ददर्शायुतशस्तदा ॥ ८ ॥
संस्तूयमानो गन्धर्वैरप्सरोभिश्च पाण्डवः ।
पुष्पगन्धवहैः पुण्यैर्वायुभिश्चानुवीजितः ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वहाँ स्वेच्छानुसार गमन करनेवाले देवताओंके सहस्रों विमान स्थिरभावसे खड़े थे और हजारों इधर-उधर आते-जाते थे। उन सबको पाण्डुनन्दन अर्जुनने देखा। उस समय गन्धर्व और अप्सराएँ उनकी स्तुति कर रही थीं। फूलोंकी सुगन्धका भार वहन करनेवाली पवित्र मन्द-मन्द वायु मानो उनके लिये चँवर डुला रही थी॥८-९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो देवाः सगन्धर्वाः सिद्धाश्च परमर्षयः।
हृष्टाः सम्पूजयामासुः पार्थमक्लिष्टकारिणम् ॥ १० ॥
मूलम्
ततो देवाः सगन्धर्वाः सिद्धाश्च परमर्षयः।
हृष्टाः सम्पूजयामासुः पार्थमक्लिष्टकारिणम् ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर देवताओं, गन्धर्वों, सिद्धों और महर्षियोंने अत्यन्त प्रसन्न होकर अनायास ही महान् कर्म करनेवाले कुन्तीकुमार अर्जुनका स्वागत-सत्कार किया॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आशीर्वादैः स्तूयमानो दिव्यवादित्रनिःस्वनैः ।
प्रतिपेदे महाबाहुः शङ्खदुन्दुभिनादितम् ॥ ११ ॥
नक्षत्रमार्गं विपुलं सुरवीथीति विश्रुतम्।
इन्द्राज्ञया ययौ पार्थः स्तूयमानः समन्ततः ॥ १२ ॥
मूलम्
आशीर्वादैः स्तूयमानो दिव्यवादित्रनिःस्वनैः ।
प्रतिपेदे महाबाहुः शङ्खदुन्दुभिनादितम् ॥ ११ ॥
नक्षत्रमार्गं विपुलं सुरवीथीति विश्रुतम्।
इन्द्राज्ञया ययौ पार्थः स्तूयमानः समन्ततः ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कहीं उन्हें आशीर्वाद मिलता और कहीं स्तुति-प्रशंसा प्राप्त होती थी। स्थान-स्थानपर दिव्य वाद्योंकी मधुर ध्वनिसे उनका स्वागत हो रहा था। इस प्रकार महाबाहु अर्जुन शंख और दुन्दुभियोंके गम्भीर नादसे गूँजते हुए ‘सुरवीथी’ नामसे प्रसिद्ध विस्तृत नक्षत्र-मार्गपर चलने लगे। इन्द्रकी आज्ञासे कुन्तीकुमारका सब ओर स्तवन हो रहा था और इस प्रकार वे गन्तव्य मार्गपर बढ़ते चले जा रहे थे॥११-१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत्र साध्यास्तथा विश्वे मरुतोऽथाश्विनौ तथा।
आदित्या वसवो रुद्रास्तथा ब्रह्मर्षयोऽमलाः ॥ १३ ॥
राजर्षयश्च बहवो दिलीपप्रमुखा नृपाः।
तुम्बुरुर्नारदश्चैव गन्धर्वौ च हहाहुहूः ॥ १४ ॥
मूलम्
तत्र साध्यास्तथा विश्वे मरुतोऽथाश्विनौ तथा।
आदित्या वसवो रुद्रास्तथा ब्रह्मर्षयोऽमलाः ॥ १३ ॥
राजर्षयश्च बहवो दिलीपप्रमुखा नृपाः।
तुम्बुरुर्नारदश्चैव गन्धर्वौ च हहाहुहूः ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वहाँ साध्य, विश्वेदेव, मरुद्गण, अश्विनीकुमार, आदित्य, वसु, रुद्र तथा विशुद्ध ब्रह्मर्षिगण और अनेक राजर्षिगण एवं दिलीप आदि बहुत-से राजा, तुम्बुरु, नारद, हाहा, हूहू आदि गन्धर्वगण विराजमान थे॥१३-१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तान् स सर्वान् समागम्य विधिवत् कुरुनन्दनः।
ततोऽपश्यद् देवराजं शतक्रतुमरिंदमः ॥ १५ ॥
मूलम्
तान् स सर्वान् समागम्य विधिवत् कुरुनन्दनः।
ततोऽपश्यद् देवराजं शतक्रतुमरिंदमः ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
शत्रुओंका दमन करनेवाले कुरुनन्दन अर्जुनने उन सबसे विधिपूर्वक मिलकर अन्तमें सौ यज्ञोंका अनुष्ठान करनेवाले देवराज इन्द्रका दर्शन किया॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः पार्थो महाबाहुरवतीर्य रथोत्तमात्।
ददर्श साक्षाद् देवेशं पितरं पाकशासनम् ॥ १६ ॥
मूलम्
ततः पार्थो महाबाहुरवतीर्य रथोत्तमात्।
ददर्श साक्षाद् देवेशं पितरं पाकशासनम् ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन्हें देखते ही महाबाहु पार्थ उस उत्तम रथसे उतर पड़े और देवेश्वर पिता पाकशासन (इन्द्र)-को उन्होंने प्रत्यक्ष देखा॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पाण्डुरेणातपत्रेण हेमदण्डेन चारुणा ।
दिव्यगन्धाधिवासेन व्यजनेन विधूयता ॥ १७ ॥
मूलम्
पाण्डुरेणातपत्रेण हेमदण्डेन चारुणा ।
दिव्यगन्धाधिवासेन व्यजनेन विधूयता ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उनके मस्तकपर श्वेत छत्र तना हुआ था, जिसमें मनोहर स्वर्णमय दण्ड शोभा पा रहा था। उनके उभय पार्श्वमें दिव्य सुगन्धसे वासित चँवर डुलाये जा रहे थे॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वावसुप्रभृतिभिर्गन्धर्वैः स्तुतिवन्दनैः ।
स्तूयमानं द्विजाग्र्यैश्च ऋग्यजुःसामसम्भवैः ॥ १८ ॥
मूलम्
विश्वावसुप्रभृतिभिर्गन्धर्वैः स्तुतिवन्दनैः ।
स्तूयमानं द्विजाग्र्यैश्च ऋग्यजुःसामसम्भवैः ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
विश्वावसु आदि गन्धर्व स्तुति और वन्दनापूर्वक उनके गुण गाते थे। श्रेष्ठ ब्रह्मर्षिगण ऋग्वेद, यजुर्वेद और सामवेदके इन्द्रदेवतासम्बन्धी मन्त्रोंद्वारा उनका स्तवन कर रहे थे॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततोऽभिगम्य कौन्तेयः शिरसाभ्यगमद् बली।
स चैनं वृत्तपीनाभ्यां बाहुभ्यां प्रत्यगृह्णत ॥ १९ ॥
मूलम्
ततोऽभिगम्य कौन्तेयः शिरसाभ्यगमद् बली।
स चैनं वृत्तपीनाभ्यां बाहुभ्यां प्रत्यगृह्णत ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर बलवान् कुन्तीकुमारने निकट जाकर देवेन्द्रके चरणोंमें मस्तक रख दिया और उन्होंने अपनी गोल-गोल मोटी भुजाओंसे उठाकर अर्जुनको हृदयसे लगा लिया॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः शक्रासने पुण्ये देवर्षिगणसेविते।
शक्रः पाणौ गृहीत्वैनमुपावेशयदन्तिके ॥ २० ॥
मूलम्
ततः शक्रासने पुण्ये देवर्षिगणसेविते।
शक्रः पाणौ गृहीत्वैनमुपावेशयदन्तिके ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तत्पश्चात् इन्द्रने अर्जुनका हाथ पकड़कर अपने देवर्षिगणसेवित पवित्र सिंहासनपर उन्हें पास ही बिठा लिया॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मूर्ध्नि चैनमुपाघ्राय देवेन्द्रः परवीरहा।
अङ्कमारोपयामास प्रश्रयावनतं तदा ॥ २१ ॥
मूलम्
मूर्ध्नि चैनमुपाघ्राय देवेन्द्रः परवीरहा।
अङ्कमारोपयामास प्रश्रयावनतं तदा ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब शत्रुवीरोंका संहार करनेवाले देवराजने विनीतभावसे आये हुए अर्जुनका मस्तक सूँघा और उन्हें अपनी गोदमें बिठा लिया॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सहस्राक्षनियोगात् स पार्थः शक्रासनं गतः।
अध्यक्रामदमेयात्मा द्वितीय इव वासवः ॥ २२ ॥
मूलम्
सहस्राक्षनियोगात् स पार्थः शक्रासनं गतः।
अध्यक्रामदमेयात्मा द्वितीय इव वासवः ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय सहस्रनेत्रधारी देवेन्द्रके आदेशसे उनके सिंहासनपर बैठे हुए अपरिमित प्रभावशाली कुन्तीकुमार दूसरे इन्द्रकी भाँति शोभा पा रहे थे॥२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः प्रेम्णा वृत्रशत्रुरर्जुनस्य शुभं मुखम्।
पस्पर्श पुण्यगन्धेन करेण परिसान्त्वयन् ॥ २३ ॥
मूलम्
ततः प्रेम्णा वृत्रशत्रुरर्जुनस्य शुभं मुखम्।
पस्पर्श पुण्यगन्धेन करेण परिसान्त्वयन् ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसके बाद वृत्रासुरके शत्रु इन्द्रने पवित्र गन्धयुक्त हाथसे बड़े प्रेमके साथ अर्जुनको सब प्रकारसे आश्वासन देते हुए उनके सुन्दर मुखका स्पर्श किया॥२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रमार्जमानः शनकैर्बाहू चास्यायतौ शुभौ।
ज्याशरक्षेपकठिनौ स्तम्भाविव हिरणमयौ ॥ २४ ॥
मूलम्
प्रमार्जमानः शनकैर्बाहू चास्यायतौ शुभौ।
ज्याशरक्षेपकठिनौ स्तम्भाविव हिरणमयौ ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अर्जुनकी सुन्दर विशाल भुजाएँ प्रत्यंचा खींचकर बाण चलानेकी रगड़से कठोर हो गयी थीं। वे देखनेमें सोनेके खंभे-जैसी जान पड़ती थीं। देवराज उन भुजाओंपर धीरे-धीरे हाथ फेरने लगे॥२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वज्रग्रहणचिह्नेन करेण परिसान्त्वयन् ।
मुहुर्मुहुर्वज्रधरो बाहू चास्फोटयच्छनैः ॥ २५ ॥
मूलम्
वज्रग्रहणचिह्नेन करेण परिसान्त्वयन् ।
मुहुर्मुहुर्वज्रधरो बाहू चास्फोटयच्छनैः ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वज्रधारी इन्द्र वज्रधारणजनित चिह्नसे सुशोभित दाहिने हाथसे अर्जुनको बार-बार सान्त्वना देते हुए उनकी भुजाओंको धीरे-धीरे थपथपाने लगे॥२५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्मयन्निव गुडाकेशं प्रेक्षमाणः सहस्रदृक्।
हर्षेणोत्फुल्लनयनो न चातृप्यत वृत्रहा ॥ २६ ॥
मूलम्
स्मयन्निव गुडाकेशं प्रेक्षमाणः सहस्रदृक्।
हर्षेणोत्फुल्लनयनो न चातृप्यत वृत्रहा ॥ २६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सहस्र नयनोंसे सुशोभित वृत्रसूदन इन्द्र निद्राविजयी अर्जुनको मुसकराते हुए-से देख रहे थे। उस समय इन्द्रकी आँखें हर्षसे खिल उठी थीं। वे उन्हें देखनेसे तृप्त नहीं होते थे॥२६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एकासनोपविष्टौ तौ शोभयांचक्रतुः सभाम्।
सूर्याचन्द्रमसौ व्योम चतुर्दश्यामिवोदितौ ॥ २७ ॥
मूलम्
एकासनोपविष्टौ तौ शोभयांचक्रतुः सभाम्।
सूर्याचन्द्रमसौ व्योम चतुर्दश्यामिवोदितौ ॥ २७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे कृष्णपक्षकी चतुर्दशीको उदित हुए सूर्य और चन्द्रमा आकाशकी शोभा बढ़ाते हैं, उसी प्रकार एक सिंहासनपर बैठे हुए देवराज इन्द्र और कुन्तीकुमार अर्जुन देवसभाको सुशोभित कर रहे थे॥२७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत्र स्म गाथा गायन्ति साम्ना परमवल्गुना।
गन्धर्वास्तुम्बुरुश्रेष्ठाः कुशला गीतसामसु ॥ २८ ॥
मूलम्
तत्र स्म गाथा गायन्ति साम्ना परमवल्गुना।
गन्धर्वास्तुम्बुरुश्रेष्ठाः कुशला गीतसामसु ॥ २८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय वहाँ सामगानमें निपुण तुम्बुरु आदि श्रेष्ठ गन्धर्वगण सामगानके नियमानुसार अत्यन्त मधुर स्वरमें गाथागान करने लगे॥२८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
घृताची मेनका रम्भा पूर्वचित्तिः स्वयंप्रभा।
उर्वशी मिश्रकेशी च दण्डगौरी वरूथिनी ॥ २९ ॥
गोपाली सहजन्या च कुम्भयोनिः प्रजागरा।
चित्रसेना चित्रलेखा सहा च मधुरस्वरा ॥ ३० ॥
एताश्चान्याश्च ननृतुस्तत्र तत्र सहस्रशः।
चित्तप्रसादने युक्ताः सिद्धानां पद्मलोचनाः ॥ ३१ ॥
महाकटितटश्रोण्यः कम्पमानैः पयोधरैः ।
कटाक्षहावमाधुर्यैश्चेतोबुद्धिमनोहरैः ॥ ३२ ॥
मूलम्
घृताची मेनका रम्भा पूर्वचित्तिः स्वयंप्रभा।
उर्वशी मिश्रकेशी च दण्डगौरी वरूथिनी ॥ २९ ॥
गोपाली सहजन्या च कुम्भयोनिः प्रजागरा।
चित्रसेना चित्रलेखा सहा च मधुरस्वरा ॥ ३० ॥
एताश्चान्याश्च ननृतुस्तत्र तत्र सहस्रशः।
चित्तप्रसादने युक्ताः सिद्धानां पद्मलोचनाः ॥ ३१ ॥
महाकटितटश्रोण्यः कम्पमानैः पयोधरैः ।
कटाक्षहावमाधुर्यैश्चेतोबुद्धिमनोहरैः ॥ ३२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
घृताची, मेनका, रम्भा, पूर्वचित्ति, स्वयंप्रभा, उर्वशी, मिश्रकेशी, दण्डगौरी, वरूथिनी, गोपाली, सहजन्या, कुम्भयोनि, प्रजागरा, चित्रसेना, चित्रलेखा, सहा और मधुरस्वरा—ये तथा और भी सहस्रों अप्सराएँ वहाँ इन्द्रसभामें भिन्न-भिन्न स्थानोंपर नृत्य करने लगीं। वे कमललोचना अप्सराएँ सिद्ध पुरुषोंके भी चित्तको प्रसन्न करनेमें संलग्न थीं। उनके कटि-प्रदेश और नितम्ब विशाल थे। नृत्य करते समय उनके उन्नत स्तन कम्पमान हो रहे थे। उनके कटाक्ष, हाव-भाव तथा माधुर्य आदि मन, बुद्धि एवं चित्तकी सम्पूर्ण वृत्तियोंका अपहरण कर लेते थे॥२९—३२॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि इन्द्रलोकाभिगमनपर्वणि इन्द्रसभादर्शने त्रिचत्वारिंशोऽध्यायः ॥ ४३ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्वके अन्तर्गत इन्द्रलोकाभिगमनपर्वमें इन्द्रसभादर्शनविषयक तैंतालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥४३॥