०३६ व्यासेन विद्योपदेशः

श्रावणम् (द्युगङ्गा)
भागसूचना

षट्त्रिंशोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

युधिष्ठिरका भीमसेनको समझाना, व्यासजीका आगमन और युधिष्ठिरको प्रतिस्मृतिविद्याप्रदान तथा पाण्डवोंका पुनः काम्यकवनगमन

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

भीमसेनवचः श्रुत्वा कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिरः।
निःश्वस्य पुरुषव्याघ्रः सम्प्रदध्यौ परंतपः ॥ १ ॥
श्रुता मे राजधर्माश्च वर्णानां च विनिश्चयाः।
आयत्यां च तदात्वे च यः पश्यति स पश्यति॥२॥

मूलम्

भीमसेनवचः श्रुत्वा कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिरः।
निःश्वस्य पुरुषव्याघ्रः सम्प्रदध्यौ परंतपः ॥ १ ॥
श्रुता मे राजधर्माश्च वर्णानां च विनिश्चयाः।
आयत्यां च तदात्वे च यः पश्यति स पश्यति॥२॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! भीमसेन-की बात सुनकर शत्रुओंको संताप देनेवाले पुरुषसिंह कुन्तीपुत्र युधिष्ठिर लम्बी साँस लेकर मन-ही-मन विचार करने लगे—‘मैंने राजाओंके धर्म एवं वर्णोंके सुनिश्चित सिद्धान्त भी सुने हैं, परंतु जो भविष्य और वर्तमान दोनोंपर दृष्टि रखता है, वही यथार्थदर्शी है॥१-२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

धर्मस्य जानमानोऽहं गतिमग्र्यां सुदुर्विदाम्।
कथं बलात् करिष्यामि मेरोरिव विमर्दनम् ॥ ३ ॥

मूलम्

धर्मस्य जानमानोऽहं गतिमग्र्यां सुदुर्विदाम्।
कथं बलात् करिष्यामि मेरोरिव विमर्दनम् ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘धर्मकी श्रेष्ठ गति अत्यन्त दुर्बोध है, उसे जानता हुआ भी मैं कैसे बलपूर्वक मेरु पर्वतके समान महान् उस धर्मका मर्दन करूँगा’॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स मुहूर्तमिव ध्यात्वा विनिश्चित्येतिकृत्यताम्।
भीमसेनमिदं वाक्यमपदान्तरमब्रवीत् ॥ ४ ॥

मूलम्

स मुहूर्तमिव ध्यात्वा विनिश्चित्येतिकृत्यताम्।
भीमसेनमिदं वाक्यमपदान्तरमब्रवीत् ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार दो घड़ीतक विचार करनेके पश्चात् अपनेको क्या करना है, इसका निश्चय करके युधिष्ठिरने भीमसेनसे अविलम्ब यह बात कही॥४॥

मूलम् (वचनम्)

युधिष्ठिर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमेतन्महाबाहो यथा वदसि भारत।
इदमन्यत् समादत्स्व वाच्यं मे वाक्यकोविद ॥ ५ ॥

मूलम्

एवमेतन्महाबाहो यथा वदसि भारत।
इदमन्यत् समादत्स्व वाच्यं मे वाक्यकोविद ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिर बोले— महाबाहु भरतकुलतिलक वाक्यविशारद भीम! तुम जैसा कह रहे हो, वह ठीक है, तथापि मेरी यह दूसरी बात भी मानो॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

महापापानि कर्माणि यानि केवलसाहसात्।
आरभ्यन्ते भीमसेन व्यथन्ते तानि भारत ॥ ६ ॥

मूलम्

महापापानि कर्माणि यानि केवलसाहसात्।
आरभ्यन्ते भीमसेन व्यथन्ते तानि भारत ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतनन्दन भीमसेन! जो महान् पापमय कर्म केवल साहसके भरोसे आरम्भ किये जाते हैं, वे सभी कष्टदायक होते हैं॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुमन्त्रिते सुविक्रान्ते सुकृते सुविचारिते।
सिध्यन्त्यर्था महाबाहो दैवं चात्र प्रदक्षिणम् ॥ ७ ॥

मूलम्

सुमन्त्रिते सुविक्रान्ते सुकृते सुविचारिते।
सिध्यन्त्यर्था महाबाहो दैवं चात्र प्रदक्षिणम् ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाबाहो! अच्छी तरहसे सलाह और विचार करके पूरा पराक्रम प्रकट करते हुए सुन्दररूपसे जो कार्य किये जाते हैं, वे सफल होते हैं और उसमें दैव भी अनुकूल हो जाता है॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यत् तु केवलचापल्याद् बलदर्पोत्थितः स्वयम्।
आरब्धव्यमिदं कार्यं मन्यसे शृणु तत्र मे ॥ ८ ॥

मूलम्

यत् तु केवलचापल्याद् बलदर्पोत्थितः स्वयम्।
आरब्धव्यमिदं कार्यं मन्यसे शृणु तत्र मे ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तुम स्वयं बलके घमण्डसे उन्मत्त हो जो केवल चपलतावश स्वयं इस युद्धरूपी कार्यको अभी आरम्भ करनेके योग्य मान रहे हो, उसके विषयमें मेरी बात सुनो॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भूरिश्रवाः शलश्चैव जलसंधश्च वीर्यवान्।
भीष्मो द्रोणश्च कर्णश्च द्रोणपुत्रश्च वीर्यवान् ॥ ९ ॥
धार्तराष्ट्रा दुराधर्षा दुर्योधनपुरोगमाः ।
सर्व एव कृतास्त्राश्च सततं चाततायिनः ॥ १० ॥
राजानः पार्थिवाश्चैव येऽस्माभिरुपतापिताः ।
संश्रिताः कौरवं पक्षं जातस्नेहाश्च तं प्रति ॥ ११ ॥

मूलम्

भूरिश्रवाः शलश्चैव जलसंधश्च वीर्यवान्।
भीष्मो द्रोणश्च कर्णश्च द्रोणपुत्रश्च वीर्यवान् ॥ ९ ॥
धार्तराष्ट्रा दुराधर्षा दुर्योधनपुरोगमाः ।
सर्व एव कृतास्त्राश्च सततं चाततायिनः ॥ १० ॥
राजानः पार्थिवाश्चैव येऽस्माभिरुपतापिताः ।
संश्रिताः कौरवं पक्षं जातस्नेहाश्च तं प्रति ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भूरिश्रवा, शल, पराक्रमी जलसंध, भीष्म, द्रोण, कर्ण, बलवान् अश्वत्थामा तथा सदाके आततायी दुर्योधन आदि दुर्धर्ष धृतराष्ट्रपुत्र—ये सभी अस्त्र-विद्याके ज्ञाता हैं एवं हमने जिन राजाओं तथा भूमिपालोंको युद्धमें कष्ट पहुँचाया है, वे सभी कौरवपक्षमें मिल गये हैं और उधर ही उनका स्नेह हो गया है॥९—११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दुर्योधनहिते युक्ता न तथास्मासु भारत।
पूर्णकोशा बलोपेताः प्रयतिष्यन्ति संगरे ॥ १२ ॥

मूलम्

दुर्योधनहिते युक्ता न तथास्मासु भारत।
पूर्णकोशा बलोपेताः प्रयतिष्यन्ति संगरे ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भारत! वे दुर्योधनके हितमें ही संलग्न होंगे; हमलोगोंके प्रति उनका वैसा सद्भाव नहीं हो सकता। उनका खजाना भरा-पूरा है और वे सैनिक-शक्तिसे भी सम्पन्न हैं, अतः वे युद्ध छिड़नेपर हमारे विरुद्ध ही प्रयत्न करेंगे॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सर्वे कौरवसैन्यस्य सपुत्रामात्यसैनिकाः ।
संविभक्ता हि मात्राभिर्भोगैरपि च सर्वशः ॥ १३ ॥

मूलम्

सर्वे कौरवसैन्यस्य सपुत्रामात्यसैनिकाः ।
संविभक्ता हि मात्राभिर्भोगैरपि च सर्वशः ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मन्त्रियों और पुत्रोंके सहित कौरवसेनाके सभी सैनिकोंको दुर्योधनकी ओरसे पूरे वेतन और सब प्रकारकी उपभोग-सामग्रीका वितरण किया गया है॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दुर्योधनेन ते वीरा मानिताश्च विशेषतः।
प्राणांस्त्यक्ष्यन्ति संग्रामे इति मे निश्चिता मतिः ॥ १४ ॥

मूलम्

दुर्योधनेन ते वीरा मानिताश्च विशेषतः।
प्राणांस्त्यक्ष्यन्ति संग्रामे इति मे निश्चिता मतिः ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इतना ही नहीं, दुर्योधनने उन वीरोंका विशेष आदर-सत्कार भी किया है। अतः मेरा यह विश्वास है कि वे उसके लिये संग्राममें (हँसते-हँसते) प्राण दे देंगे॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

समा यद्यपि भीष्मस्य वृत्तिरस्मासु तेषु च।
द्रोणस्य च महाबाहो कृपस्य च महात्मनः ॥ १५ ॥
अवश्यं राजपिण्डस्तैर्निर्वेश्य इति मे मतिः।
तस्मात् त्यक्ष्यन्ति संग्रामे प्राणानपि सुदुस्त्यजान् ॥ १६ ॥

मूलम्

समा यद्यपि भीष्मस्य वृत्तिरस्मासु तेषु च।
द्रोणस्य च महाबाहो कृपस्य च महात्मनः ॥ १५ ॥
अवश्यं राजपिण्डस्तैर्निर्वेश्य इति मे मतिः।
तस्मात् त्यक्ष्यन्ति संग्रामे प्राणानपि सुदुस्त्यजान् ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाबाहो! यद्यपि पितामह भीष्म, आचार्य द्रोण तथा महामना कृपाचार्यका आन्तरिक स्नेह धृतराष्ट्रके पुत्रों तथा हमलोगोंपर एक-सा ही है, तथापि वे राजा दुर्योधनका दिया हुआ अन्न खाते हैं, अतः उसका ऋण अवश्य चुकायेंगे, ऐसा मुझे प्रतीत होता है। युद्ध छिड़नेपर वे भी दुर्योधनके पक्षसे ही लड़कर अपने दुस्त्यज प्राणोंका भी परित्याग कर देंगे॥१५-१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सर्वे दिव्यास्त्रविद्वांसः सर्वे धर्मपरायणाः।
अजेयाश्चेति मे बुद्धिरपि देवैः सवासवैः ॥ १७ ॥

मूलम्

सर्वे दिव्यास्त्रविद्वांसः सर्वे धर्मपरायणाः।
अजेयाश्चेति मे बुद्धिरपि देवैः सवासवैः ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे सब-के-सब दिव्यास्त्रोंके ज्ञाता और धर्मपरायण हैं। मेरी बुद्धिमें तो यहाँतक आता है कि इन्द्र आदि सम्पूर्ण देवता भी उन्हें परास्त नहीं कर सकते॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अमर्षी नित्यसंरब्धस्तत्र कर्णो महारथः।
सर्वास्त्रविदनाधृष्यो ह्यभेद्यकवचावृतः ॥ १८ ॥

मूलम्

अमर्षी नित्यसंरब्धस्तत्र कर्णो महारथः।
सर्वास्त्रविदनाधृष्यो ह्यभेद्यकवचावृतः ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस पक्षमें महारथी कर्ण भी है, जो हमारे प्रति सदा अमर्ष और क्रोधसे भरा रहता है। वह सब अस्त्रोंका ज्ञाता, अजेय तथा अभेद्य कवचसे सुरक्षित है॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अनिर्जित्य रणे सर्वानेतान् पुरुषसत्तमान्।
अशक्यो ह्यसहायेन हन्तुं दुर्योधनस्त्वया ॥ १९ ॥

मूलम्

अनिर्जित्य रणे सर्वानेतान् पुरुषसत्तमान्।
अशक्यो ह्यसहायेन हन्तुं दुर्योधनस्त्वया ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इन समस्त वीर पुरुषोंको युद्धमें परास्त किये बिना तुम अकेले दुर्योधनको नहीं मार सकते॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न निद्रामधिगच्छामि चिन्तयानो वृकोदर।
अतिसर्वान् धनुर्ग्राहान् सूतपुत्रस्य लाघवम् ॥ २० ॥

मूलम्

न निद्रामधिगच्छामि चिन्तयानो वृकोदर।
अतिसर्वान् धनुर्ग्राहान् सूतपुत्रस्य लाघवम् ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वृकोदर! सूतपुत्र कर्णके हाथोंकी फुर्ती समस्त धनुर्धरोंसे बढ़-चढ़कर है। उसका स्मरण करके मुझे अच्छी तरह नींद नहीं आती है॥२०॥

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतद् वचनमाज्ञाय भीमसेनोऽत्यमर्षणः ।
बभूव विमनास्त्रस्तो न चैवोवाच किंचन ॥ २१ ॥

मूलम्

एतद् वचनमाज्ञाय भीमसेनोऽत्यमर्षणः ।
बभूव विमनास्त्रस्तो न चैवोवाच किंचन ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! युधिष्ठिरका यह वचन सुनकर अत्यन्त क्रोधी भीमसेन उदास और शंकायुक्त हो गये। फिर उनके मुँहसे कोई बात नहीं निकली॥२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तयोः संवदतोरेवं तदा पाण्डवयोर्द्वयोः।
आजगाम महायोगी व्यासः सत्यवतीसुतः ॥ २२ ॥

मूलम्

तयोः संवदतोरेवं तदा पाण्डवयोर्द्वयोः।
आजगाम महायोगी व्यासः सत्यवतीसुतः ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

दोनों पाण्डवोंमें इस प्रकार बातचीत हो ही रही थी कि महायोगी सत्यवतीनन्दन व्यास वहाँ आ पहुँचे॥२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोऽभिगम्य यथान्यायं पाण्डवैः प्रतिपूजितः।
युधिष्ठिरमिदं वाक्यमुवाच वदतां वरः ॥ २३ ॥

मूलम्

सोऽभिगम्य यथान्यायं पाण्डवैः प्रतिपूजितः।
युधिष्ठिरमिदं वाक्यमुवाच वदतां वरः ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पाण्डवोंने उठकर उनकी अगवानी की और यथायोग्य पूजन किया। तत्पश्चात् वक्ताओंमें श्रेष्ठ व्यासजी युधिष्ठिरसे इस प्रकार बोले—॥२३॥

मूलम् (वचनम्)

व्यास उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

युधिष्ठिर महाबाहो वेद्मि ते हृदयस्थितम्।
मनीषया ततः क्षिप्रमागतोऽस्मि नरर्षभ ॥ २४ ॥

मूलम्

युधिष्ठिर महाबाहो वेद्मि ते हृदयस्थितम्।
मनीषया ततः क्षिप्रमागतोऽस्मि नरर्षभ ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

व्यासजीने कहा— नरश्रेष्ठ महाबाहु युधिष्ठिर! मैं ध्यानके द्वारा तुम्हारे मनका भाव जान चुका हूँ। इसलिये शीघ्रतापूर्वक यहाँ आया हूँ॥२४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भीष्माद् द्रोणात् कृपात् कर्णाद् द्रोणपुत्राच्च भारत।
दुर्योधनान्नृपसुतात् तथा दुःशासनादपि ॥ २५ ॥
यत् ते भयममित्रघ्न हृदि सम्परिवर्तते।
तत् तेऽहं नाशयिष्यामि विधिदृष्टेन कर्मणा ॥ २६ ॥

मूलम्

भीष्माद् द्रोणात् कृपात् कर्णाद् द्रोणपुत्राच्च भारत।
दुर्योधनान्नृपसुतात् तथा दुःशासनादपि ॥ २५ ॥
यत् ते भयममित्रघ्न हृदि सम्परिवर्तते।
तत् तेऽहं नाशयिष्यामि विधिदृष्टेन कर्मणा ॥ २६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

शत्रुहन्ता भारत! भीष्म, द्रोण, कृपाचार्य, कर्ण, अश्वत्थामा, धृतराष्ट्रपुत्र दुर्योधन और दुःशासनसे भी जो तुम्हारे मनमें भय समा गया है, उसे मैं शास्त्रीय उपायसे नष्ट कर दूँगा॥२५-२६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तच्छ्रुत्वा धृतिमास्थाय कर्मणा प्रतिपादय।
प्रतिपाद्य तु राजेन्द्र ततः क्षिप्रं ज्वरं जहि ॥ २७ ॥

मूलम्

तच्छ्रुत्वा धृतिमास्थाय कर्मणा प्रतिपादय।
प्रतिपाद्य तु राजेन्द्र ततः क्षिप्रं ज्वरं जहि ॥ २७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजेन्द्र! उस उपायको सुनकर धैर्यपूर्वक प्रयत्नद्वारा उसका अनुष्ठान करो। उसका अनुष्ठान करके शीघ्र ही अपनी मानसिक चिन्ताका परित्याग कर दो॥२७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत एकान्तमुन्नीय पाराशर्यो युधिष्ठिरम्।
अब्रवीदुपपन्नार्थमिदं वाक्यविशारदः ॥ २८ ॥

मूलम्

तत एकान्तमुन्नीय पाराशर्यो युधिष्ठिरम्।
अब्रवीदुपपन्नार्थमिदं वाक्यविशारदः ॥ २८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर प्रवचनकुशल पराशरनन्दन व्यासजी युधिष्ठिरको एकान्तमें ले गये और उनसे यह युक्तियुक्त वचन बोले—॥२८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

श्रेयसस्ते परः कालः प्राप्तो भरतसत्तम।
येनाभिभविता शत्रून् रणे पार्थो धनुर्धरः ॥ २९ ॥

मूलम्

श्रेयसस्ते परः कालः प्राप्तो भरतसत्तम।
येनाभिभविता शत्रून् रणे पार्थो धनुर्धरः ॥ २९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘भरतश्रेष्ठ! तुम्हारे कल्याणका सर्वश्रेष्ठ समय आया है, जिससे धनुर्धर अर्जुन युद्धमें शत्रुओंको पराजित कर देंगे॥२९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गृहाणेमां मया प्रोक्तां सिद्धिं मूर्तिमतीमिव।
विद्यां प्रतिस्मृतिं नाम प्रपन्नाय ब्रवीमि ते ॥ ३० ॥

मूलम्

गृहाणेमां मया प्रोक्तां सिद्धिं मूर्तिमतीमिव।
विद्यां प्रतिस्मृतिं नाम प्रपन्नाय ब्रवीमि ते ॥ ३० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘मेरी दी हुई इस प्रतिस्मृति नामक विद्याको ग्रहण करो, जो मूर्तिमती सिद्धिके समान है। तुम मेरे शरणागत हो, इसलिये मैं तुम्हें इस विद्याका उपदेश करता हूँ॥३०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यामवाप्य महाबाहुरर्जुनः साधयिष्यति ।
अस्त्रहेतोर्महेन्द्रं च रुद्रं चैवाभिगच्छतु ॥ ३१ ॥
वरुणं च कुबेरं च धर्मराजं च पाण्डव।
शक्तो ह्येष सुरान् द्रष्टुं तपसा विक्रमेण च ॥ ३२ ॥

मूलम्

यामवाप्य महाबाहुरर्जुनः साधयिष्यति ।
अस्त्रहेतोर्महेन्द्रं च रुद्रं चैवाभिगच्छतु ॥ ३१ ॥
वरुणं च कुबेरं च धर्मराजं च पाण्डव।
शक्तो ह्येष सुरान् द्रष्टुं तपसा विक्रमेण च ॥ ३२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘जिसे तुमसे पाकर महाबाहु अर्जुन अपना सब कार्य सिद्ध करेंगे। पाण्डुनन्दन! ये अर्जुन दिव्यास्त्रोंकी प्राप्तिके लिये देवराज इन्द्र, रुद्र, वरुण, कुबेर तथा धर्मराजके पास जायँ। ये अपनी तपस्या और पराक्रमसे देवताओंको प्रत्यक्ष देखनेमें समर्थ होंगे॥३१-३२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ऋषिरेष महातेजा नारायणसहायवान् ।
पुराणः शाश्वतो देवस्त्वजेयो जिष्णुरच्युतः ॥ ३३ ॥
अस्त्राणीन्द्राच्च रुद्राच्च लोकपालेभ्य एव च।
समादाय महाबाहुर्महत् कर्म करिष्यति ॥ ३४ ॥

मूलम्

ऋषिरेष महातेजा नारायणसहायवान् ।
पुराणः शाश्वतो देवस्त्वजेयो जिष्णुरच्युतः ॥ ३३ ॥
अस्त्राणीन्द्राच्च रुद्राच्च लोकपालेभ्य एव च।
समादाय महाबाहुर्महत् कर्म करिष्यति ॥ ३४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘भगवान् नारायण जिनके सखा हैं, वे पुरातन महर्षि महातेजस्वी नर ही अर्जुन हैं। सनातन देव, अजेय, विजयशील तथा अपनी मर्यादासे कभी च्युत न होनेवाले हैं। महाबाहु अर्जुन इन्द्र, रुद्र तथा अन्य लोकपालोंसे दिव्यास्त्र प्राप्त करके महान् कार्य करेंगे॥३३-३४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वनादस्माच्च कौन्तेय वनमन्यद् विचिन्त्यताम्।
निवासार्थाय यत् युक्तं भवेद् वः पृथिवीपते ॥ ३५ ॥

मूलम्

वनादस्माच्च कौन्तेय वनमन्यद् विचिन्त्यताम्।
निवासार्थाय यत् युक्तं भवेद् वः पृथिवीपते ॥ ३५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘कुन्तीकुमार! पृथिवीपते! अब तुम अपने निवासके लिये इस वनसे किसी दूसरे वनमें, जो तुम्हारे लिये उपयोगी हो, जानेकी बात सोचो॥३५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एकत्र चिरवासो हि न प्रीतिजननो भवेत्।
तापसानां च सर्वेषां भवेदुद्वेगकारकः ॥ ३६ ॥

मूलम्

एकत्र चिरवासो हि न प्रीतिजननो भवेत्।
तापसानां च सर्वेषां भवेदुद्वेगकारकः ॥ ३६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘एक ही स्थानपर अधिक दिनोंतक रहना प्रायः रुचिकर नहीं होता। इसके सिवा, यहाँ तुम्हारा चिरनिवास समस्त तपस्वी महात्माओंके लिये तपमें विघ्न पड़नेके कारण उद्वेगकारक होगा॥३६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मृगाणामुपयोगश्च वीरुदौषधिसंक्षयः ।
बिभर्षि च बहून् विप्रान् वेदवेदाङ्गपारगान् ॥ ३७ ॥

मूलम्

मृगाणामुपयोगश्च वीरुदौषधिसंक्षयः ।
बिभर्षि च बहून् विप्रान् वेदवेदाङ्गपारगान् ॥ ३७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘यहाँके हिंसक पशुओंके उपयोग—मारनेका काम हो चुका है तथा तुम बहुत-से वेद-वेदांगोंके पारगामी विद्वान् ब्राह्मणोंका भरण-पोषण करते हो (और हवन करते हो), इसलिये यहाँ लता-गुल्म और ओषधियोंका क्षय हो गया है’॥३७॥

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमुक्त्वा प्रपन्नाय शुचये भगवान् प्रभुः।
प्रोवाच लोकतत्त्वज्ञो योगी विद्यामनुत्तमाम् ॥ ३८ ॥
धर्मराजाय धीमान् स व्यासः सत्यवतीसुतः।
अनुज्ञाय च कौन्तेयं तत्रैवान्तरधीयत ॥ ३९ ॥

मूलम्

एवमुक्त्वा प्रपन्नाय शुचये भगवान् प्रभुः।
प्रोवाच लोकतत्त्वज्ञो योगी विद्यामनुत्तमाम् ॥ ३८ ॥
धर्मराजाय धीमान् स व्यासः सत्यवतीसुतः।
अनुज्ञाय च कौन्तेयं तत्रैवान्तरधीयत ॥ ३९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! ऐसा कहकर लोकतत्त्वके ज्ञाता एवं शक्तिशाली योगी परम बुद्धिमान् सत्यवतीनन्दन भगवान् व्यासजीने अपनी शरणमें आये हुए पवित्र धर्मराज युधिष्ठिरको उस अत्युत्तम विद्याका उपदेश किया और कुन्तीकुमारकी अनुमति लेकर फिर वहीं अन्तर्धान हो गये॥३८-३९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

युधिष्ठिरस्तु धर्मात्मा तद् ब्रह्म मनसा यतः।
धारयामास मेधावी काले काले सदाभ्यसन् ॥ ४० ॥

मूलम्

युधिष्ठिरस्तु धर्मात्मा तद् ब्रह्म मनसा यतः।
धारयामास मेधावी काले काले सदाभ्यसन् ॥ ४० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

धर्मात्मा मेधावी संयतचित्त युधिष्ठिरने उस वेदोक्त मन्त्रको मनसे धारण किया और समय-समयपर सदा उसका अभ्यास करने लगे॥४०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स व्यासवाक्यमुदितो वनाद् द्वैतवनात् ततः।
ययौ सरस्वतीकूले काम्यकं नाम काननम् ॥ ४१ ॥

मूलम्

स व्यासवाक्यमुदितो वनाद् द्वैतवनात् ततः।
ययौ सरस्वतीकूले काम्यकं नाम काननम् ॥ ४१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर वे व्यासजीकी आज्ञासे प्रसन्नतापूर्वक द्वैतवनसे काम्यकवनमें चले गये, जो सरस्वतीके तटपर सुशोभित है॥४१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तमन्वयुर्महाराज शिक्षाक्षरविशारदाः ।
ब्राह्मणास्तपसा युक्ता देवेन्द्रमृषयो यथा ॥ ४२ ॥

मूलम्

तमन्वयुर्महाराज शिक्षाक्षरविशारदाः ।
ब्राह्मणास्तपसा युक्ता देवेन्द्रमृषयो यथा ॥ ४२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाराज! जैसे महर्षिगण देवराज इन्द्रका अनुसरण करते हैं, वैसे ही वेदादि शास्त्रोंकी शिक्षा तथा अक्षर ब्रह्मतत्त्वके ज्ञानमें निपुण बहुत-से तपस्वी ब्राह्मण राजा युधिष्ठिरके साथ उस वनमें गये॥४२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः काम्यकमासाद्य पुनस्ते भरतर्षभ।
न्यविशन्त महात्मानः सामात्याः सपरिच्छदाः ॥ ४३ ॥

मूलम्

ततः काम्यकमासाद्य पुनस्ते भरतर्षभ।
न्यविशन्त महात्मानः सामात्याः सपरिच्छदाः ॥ ४३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतश्रेष्ठ! वहाँसे काम्यकवनमें आकर मन्त्रियों और सेवकोंसहित वे महात्मा पाण्डव पुनः वहीं बस गये॥४३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत्र ते न्यवसन् राजन् किंचित् कालं मनस्विनः।
धनुर्वेदपरा वीराः शृण्वन्तो वेदमुत्तमम् ॥ ४४ ॥

मूलम्

तत्र ते न्यवसन् राजन् किंचित् कालं मनस्विनः।
धनुर्वेदपरा वीराः शृण्वन्तो वेदमुत्तमम् ॥ ४४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! वहाँ धनुर्वेदके अभ्यासमें तत्पर हो उत्तम वेदमन्त्रोंका उद्‌घोष सुनते हुए उन मनस्वी पाण्डवोंने कुछ कालतक निवास किया॥४४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

चरन्तो मृगयां नित्यं शुद्धैर्बाणैर्मृगार्थिनः।
पितृदैवतविप्रेभ्यो निर्वपन्तो यथाविधि ॥ ४५ ॥

मूलम्

चरन्तो मृगयां नित्यं शुद्धैर्बाणैर्मृगार्थिनः।
पितृदैवतविप्रेभ्यो निर्वपन्तो यथाविधि ॥ ४५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे प्रतिदिन हिंसक पशुओंको मारनेके लिये शुद्ध (शास्त्रानुकूल) बाणोंद्वारा शिकार खेलते थे एवं शास्त्रकी विधिके अनुसार नित्य पितरों तथा देवताओंको अपना-अपना भाग देते थे अर्थात् नित्य श्राद्ध और नित्य होम करते थे॥४५॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि अर्जुनाभिगमनपर्वणि काम्यकवनगमने षट्त्रिंशोऽध्यायः ॥ ३६ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्वके अन्तर्गत अर्जुनाभिगमनपर्वमें काम्यकवनगमनविषयक छत्तीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥३६॥