श्रावणम् (द्युगङ्गा)
भागसूचना
पञ्चत्रिंशोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
दुःखित भीमसेनका युधिष्ठिरको युद्धके लिये उत्साहित करना
मूलम् (वचनम्)
भीमसेन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
संधिं कृत्वैव कालेन ह्यन्तकेन पतत्त्रिणा।
अनन्तेनाप्रमेयेण स्रोतसा सर्वहारिणा ॥ १ ॥
प्रत्यक्षं मन्यसे कालं मर्त्यः सन् कालबन्धनः।
फेनधर्मा महाराज फलधर्मा तथैव च ॥ २ ॥
मूलम्
संधिं कृत्वैव कालेन ह्यन्तकेन पतत्त्रिणा।
अनन्तेनाप्रमेयेण स्रोतसा सर्वहारिणा ॥ १ ॥
प्रत्यक्षं मन्यसे कालं मर्त्यः सन् कालबन्धनः।
फेनधर्मा महाराज फलधर्मा तथैव च ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीमसेन बोले— महाराज! आप फेनके समान नश्वर, फलके समान पतनशील तथा कालके बन्धनमें बँधे हुए मरणधर्मा मनुष्य हैं तो भी आपने सबका अन्त और संहार करनेवाले, बाणके समान वेगवान्, अनन्त, अप्रमेय एवं जलस्रोतके समान प्रवाहशील लंबे कालको बीचमें देकर दुर्योधनके साथ सन्धि करके उस कालको अपनी आँखोंके सामने आया हुआ मानते हैं॥१-२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
निमेषादपि कौन्तेय यस्यायुरपचीयते ।
सूच्येवाञ्जनचूर्णस्य किमिति प्रतिपालयेत् ॥ ३ ॥
मूलम्
निमेषादपि कौन्तेय यस्यायुरपचीयते ।
सूच्येवाञ्जनचूर्णस्य किमिति प्रतिपालयेत् ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
किंतु कुन्तीकुमार! सलाईसे थोड़ा-थोड़ा करके उठाये जानेवाले अंजनचूर्ण (सुरमे)-की भाँति एक-एक निमेषमें जिसकी आयु क्षीण हो रही है, वह क्षणभंगुर मानव समयकी प्रतीक्षा क्या कर सकता है?॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यो नूनममितायुः स्वादथवापि प्रमाणवित्।
स कालं वै प्रतीक्षेत सर्वप्रत्यक्षदर्शिवान् ॥ ४ ॥
मूलम्
यो नूनममितायुः स्वादथवापि प्रमाणवित्।
स कालं वै प्रतीक्षेत सर्वप्रत्यक्षदर्शिवान् ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अवश्य ही जिसकी आयुकी कोई माप नहीं है अथवा जो आयुकी निश्चित संख्याको जानता है तथा जिसने सब कुछ प्रत्यक्ष देख लिया है। वही समयकी प्रतीक्षा कर सकता है॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रतीक्ष्यमाणः कालो नः समा राजंस्त्रयोदश।
आयुषोऽपचयं कृत्वा मरणायोपनेष्यति ॥ ५ ॥
मूलम्
प्रतीक्ष्यमाणः कालो नः समा राजंस्त्रयोदश।
आयुषोऽपचयं कृत्वा मरणायोपनेष्यति ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! तेरह वर्षोंतक हमें जिसकी प्रतीक्षा करनी है, वह काल हमारी आयुको क्षीण करके हम सबको मृत्युके निकट पहुँचा देगा॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शरीरिणां हि मरणं शरीरे नित्यमाश्रितम्।
प्रागेव मरणात् तस्माद् राज्यायैव घटामहे ॥ ६ ॥
मूलम्
शरीरिणां हि मरणं शरीरे नित्यमाश्रितम्।
प्रागेव मरणात् तस्माद् राज्यायैव घटामहे ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
देहधारीकी मृत्यु सदा उसके शरीरमें ही निवास करती है, अतः मृत्युके पहले ही हमें राज्य-प्राप्तिके लिये चेष्टा करनी चाहिये॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यो न याति प्रसंख्यानमस्पष्टो भूमिवर्धनः।
अयातयित्वा वैराणि सोऽवसीदति गौरिव ॥ ७ ॥
मूलम्
यो न याति प्रसंख्यानमस्पष्टो भूमिवर्धनः।
अयातयित्वा वैराणि सोऽवसीदति गौरिव ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिसका प्रभाव छिपा हुआ है, वह भूमिके लिये भाररूप ही है, क्योंकि वह जनसाधारणमें ख्याति नहीं प्राप्त कर सकता। वह वैरका प्रतिशोध न लेनेके कारण बैलकी भाँति दुःख उठाता रहता है॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यो न यातयते वैरमल्पसत्त्वोद्यमः पुमान्।
अफलं जन्म तस्याहं मन्ये दुर्जातजायिनः ॥ ८ ॥
मूलम्
यो न यातयते वैरमल्पसत्त्वोद्यमः पुमान्।
अफलं जन्म तस्याहं मन्ये दुर्जातजायिनः ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिसका बल और उद्यम बहुत कम है, जो वैरका बदला नहीं ले सकता, उस पुरुषका जन्म अत्यन्त घृणित है। मैं तो उसके जन्मको निष्फल मानता हूँ॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
हैरण्यौ भवतो बाहू श्रुतिर्भवति पार्थिवी।
हत्वा द्विषन्तं संग्रामे भुङ्क्ष्व बाहुजितं वसु ॥ ९ ॥
मूलम्
हैरण्यौ भवतो बाहू श्रुतिर्भवति पार्थिवी।
हत्वा द्विषन्तं संग्रामे भुङ्क्ष्व बाहुजितं वसु ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाराज! आपकी दोनों भुजाएँ सुवर्णकी अधिकारिणी हैं। आपकी कीर्ति राजा पृथुके समान है। आप युद्धमें शत्रुका संहार करके अपने बाहुबलसे उपार्जित धनका उपभोग कीजिये॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
हत्वा वै पुरुषो राजन् निकर्तारमरिंदम।
अह्नाय नरकं गच्छेत् स्वर्गेणास्य स सम्मितः ॥ १० ॥
मूलम्
हत्वा वै पुरुषो राजन् निकर्तारमरिंदम।
अह्नाय नरकं गच्छेत् स्वर्गेणास्य स सम्मितः ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
शत्रुदमन नरेश! यदि मनुष्य अपनेको धोखा देनेवाले शत्रुका वध करके तुरंत ही नरकमें पड़ जाय तो उसके लिये वह नरक भी स्वर्गके तुल्य है॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अमर्षजो हि संतापः पावकाद् दीप्तिमत्तरः।
येनाहमभिसंतप्तो न नक्तं न दिवा शये ॥ ११ ॥
मूलम्
अमर्षजो हि संतापः पावकाद् दीप्तिमत्तरः।
येनाहमभिसंतप्तो न नक्तं न दिवा शये ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अमर्षसे जो संताप होता है, वह आगसे भी बढ़कर जलानेवाला है। जिससे संतप्त होकर मुझे न तो रातमें नींद आती है और न दिनमें॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अयं च पार्थो बीभत्सुर्वरिष्ठो ज्याविकर्षणे।
आस्ते परमसंतप्तो नूनं सिंह इवाशये ॥ १२ ॥
मूलम्
अयं च पार्थो बीभत्सुर्वरिष्ठो ज्याविकर्षणे।
आस्ते परमसंतप्तो नूनं सिंह इवाशये ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ये हमारे भाई अर्जुन धनुषकी प्रत्यंचा खींचनेमें सबसे श्रेष्ठ हैं; परंतु ये भी निश्चय ही अपनी गुफामें दुःखी होकर बैठे हुए सिंहकी भाँति सदा अत्यन्त संतप्त होते रहते हैं॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
योऽयमेकोऽभिमनुते सर्वान् लोके धनुर्भृतः।
सोऽयमात्मजमूष्माणं महाहस्तीव यच्छति ॥ १३ ॥
मूलम्
योऽयमेकोऽभिमनुते सर्वान् लोके धनुर्भृतः।
सोऽयमात्मजमूष्माणं महाहस्तीव यच्छति ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो अकेले ही संसारके समस्त धनुर्धर वीरोंका सामना कर सकते हैं, वे ही अर्जुन महान् गजराजकी भाँति अपने मानसिक क्रोधजनित संतापको किसी प्रकार रोक रहे हैं॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नकुलः सहदेवश्च वृद्धा माता च वीरसूः।
तवैव प्रियमिच्छन्त आसते जडमूकवत् ॥ १४ ॥
मूलम्
नकुलः सहदेवश्च वृद्धा माता च वीरसूः।
तवैव प्रियमिच्छन्त आसते जडमूकवत् ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नकुल, सहदेव तथा वीरपुत्रोंको जन्म देनेवाली हमारी बूढ़ी माता कुन्ती—ये सब-के-सब आपका प्रिय करनेकी इच्छा रखकर ही मूर्खों और गूँगोंकी भाँति चुप रहते हैं॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्वे ते प्रियमिच्छन्ति बान्धवाः सह सृञ्जयैः।
अहमेकश्च संतप्तो माता च प्रतिविन्ध्यतः ॥ १५ ॥
मूलम्
सर्वे ते प्रियमिच्छन्ति बान्धवाः सह सृञ्जयैः।
अहमेकश्च संतप्तो माता च प्रतिविन्ध्यतः ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
आपके सभी बन्धु-बान्धव और सृंजयवंशी योद्धा भी आपका प्रिय करना चाहते हैं। केवल हम दो व्यक्तियोंको ही विशेष कष्ट है। एक तो मैं संतप्त होता हूँ और दूसरी प्रतिविन्ध्यकी माता द्रौपदी॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रियमेव तु सर्वेषां यद् ब्रवीम्युत किंचन।
सर्वे हि व्यसनं प्राप्ताः सर्वे युद्धाभिनन्दिनः ॥ १६ ॥
मूलम्
प्रियमेव तु सर्वेषां यद् ब्रवीम्युत किंचन।
सर्वे हि व्यसनं प्राप्ताः सर्वे युद्धाभिनन्दिनः ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मैं जो कुछ कहता हूँ, वह सबको प्रिय है। हम सब लोग संकटमें पड़े हैं और सभी युद्धका अभिनन्दन करते हैं॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नातः पापीयसी काचिदापद् राजन् भविष्यति।
यन्नो नीचैरल्पबलै राज्यमाच्छिद्य भुज्यते ॥ १७ ॥
मूलम्
नातः पापीयसी काचिदापद् राजन् भविष्यति।
यन्नो नीचैरल्पबलै राज्यमाच्छिद्य भुज्यते ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! इससे बढ़कर अत्यन्त दुःखदायिनी विपत्ति और क्या होगी कि नीच और दुर्बल शत्रु हम बलवानोंका राज्य छीनकर उसका उपभोग कर रहे हैं॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शीलदोषाद् घृणाविष्ट आनृशंस्यात् परंतप।
क्लेशांस्तितिक्षसे राजन् नान्यः कश्चिचत् प्रशंसति ॥ १८ ॥
मूलम्
शीलदोषाद् घृणाविष्ट आनृशंस्यात् परंतप।
क्लेशांस्तितिक्षसे राजन् नान्यः कश्चिचत् प्रशंसति ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
परंतप युधिष्ठिर! आप शील-स्वभावके दोष और कोमलतासे एवं दयाभावसे युक्त होनेके कारण इतने क्लेश सह रहे हैं, परंतु महाराज! इसके लिये आपकी कोई प्रशंसा नहीं करता है॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
श्रोत्रियस्येव ते राजन् मन्दकस्याविपश्चितः।
अनुवाकहता बुद्धिर्नैषा तत्त्वार्थदर्शिनी ॥ १९ ॥
मूलम्
श्रोत्रियस्येव ते राजन् मन्दकस्याविपश्चितः।
अनुवाकहता बुद्धिर्नैषा तत्त्वार्थदर्शिनी ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! आपकी बुद्धि अर्थज्ञानसे रहित वेदोंके अक्षरमात्रको रटनेवाले मन्दबुद्धि श्रोत्रियकी तरह केवल गुरुकी वाणीका अनुसरण करनेके कारण नष्ट हो गयी है। यह तात्त्विक अर्थको समझने या समझानेवाली नहीं है॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
घृणी ब्राह्मणरूपोऽसि कथं क्षत्रेऽभ्यजायथाः।
अस्यां हि योनौ जायन्ते प्रायशः क्रूरबुद्धयः ॥ २० ॥
मूलम्
घृणी ब्राह्मणरूपोऽसि कथं क्षत्रेऽभ्यजायथाः।
अस्यां हि योनौ जायन्ते प्रायशः क्रूरबुद्धयः ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
आप दयालु ब्राह्मणरूप हैं। पता नहीं, क्षत्रियकुलमें कैसे आपका जन्म हो गया; क्योंकि क्षत्रिय योनिमें तो प्रायः क्रूर बुद्धिके ही पुरुष उत्पन्न होते हैं॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अश्रौषीस्त्वं राजधर्मान् यथा वै मनुरब्रवीत्।
क्रूरान् निकृतिसम्पन्नान् विहितानशमात्मकान् ॥ २१ ॥
धार्तराष्ट्रान् महाराज क्षमसे किं दुरात्मनः।
कर्तव्ये पुरुषव्याघ्र किमास्से पीठसर्पवत् ॥ २२ ॥
बुद्ध्या वीर्येण संयुक्तः श्रुतेनाभिजनेन च।
मूलम्
अश्रौषीस्त्वं राजधर्मान् यथा वै मनुरब्रवीत्।
क्रूरान् निकृतिसम्पन्नान् विहितानशमात्मकान् ॥ २१ ॥
धार्तराष्ट्रान् महाराज क्षमसे किं दुरात्मनः।
कर्तव्ये पुरुषव्याघ्र किमास्से पीठसर्पवत् ॥ २२ ॥
बुद्ध्या वीर्येण संयुक्तः श्रुतेनाभिजनेन च।
अनुवाद (हिन्दी)
महाराज! आपने राजधर्मका वर्णन तो सुना ही होगा, जैसा मनुजीने कहा है। फिर क्रूर, मायावी, हमारे हितके विपरीत आचरण करनेवाले तथा अशान्तचित्तवाले दुरात्मा धृतराष्ट्रपुत्रोंका अपराध आप क्यों क्षमा करते हैं? पुरुषसिंह! आप बुद्धि, पराक्रम, शास्त्रज्ञान तथा उत्तम कुलसे सम्पन्न होकर भी जहाँ कुछ काम करना है, वहाँ अजगरकी भाँति चुपचाप क्यों बैठे हैं?॥२१-२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तृणानां मुष्टिनैकेन हिमवन्तं च पर्वतम् ॥ २३ ॥
छन्नमिच्छसि कौन्तेय योऽस्मात् संवर्तुमिच्छसि।
मूलम्
तृणानां मुष्टिनैकेन हिमवन्तं च पर्वतम् ॥ २३ ॥
छन्नमिच्छसि कौन्तेय योऽस्मात् संवर्तुमिच्छसि।
अनुवाद (हिन्दी)
कुन्तीनन्दन! आप अज्ञातवासके समय जो हम-लोगोंको छिपाकर रखना चाहते हैं, इससे जान पड़ता है कि आप एक मुट्ठी तिनकेसे हिमालय पर्वतको ढक देना चाहते हैं॥२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अज्ञातचर्या गूढेन पृथिव्यां विश्रुतेन च ॥ २४ ॥
दिवीव पार्थ सूर्येण न शक्याचरितुं त्वया।
मूलम्
अज्ञातचर्या गूढेन पृथिव्यां विश्रुतेन च ॥ २४ ॥
दिवीव पार्थ सूर्येण न शक्याचरितुं त्वया।
अनुवाद (हिन्दी)
पार्थ! आप इस भूमण्डलमें विख्यात हैं, जैसे सूर्य आकाशमें छिपकर नहीं रह सकते, उसी प्रकार आप भी कहीं छिपे रहकर अज्ञातवासका नियम नहीं पूरा कर सकते॥२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
बृहच्छाल इवानूपे शाखापुष्पपलाशवान् ॥ २५ ॥
हस्ती श्वेत इवाज्ञातः कथं जिष्णुश्चरिष्यति।
मूलम्
बृहच्छाल इवानूपे शाखापुष्पपलाशवान् ॥ २५ ॥
हस्ती श्वेत इवाज्ञातः कथं जिष्णुश्चरिष्यति।
अनुवाद (हिन्दी)
जहाँ जलकी अधिकता हो, ऐसे प्रदेशमें शाखा, पुष्प और पत्तोंसे सुशोभित विशाल शालवृक्षके समान अथवा श्वेत गजराज ऐरावतके सदृश ये अर्जुन कहीं भी अज्ञात कैसे रह सकेंगे?॥२५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इमौ च सिंहसंकाशौ भ्रातरौ सहितौ शिशू ॥ २६ ॥
नकुलः सहदेवश्च कथं पार्थ चरिष्यतः।
मूलम्
इमौ च सिंहसंकाशौ भ्रातरौ सहितौ शिशू ॥ २६ ॥
नकुलः सहदेवश्च कथं पार्थ चरिष्यतः।
अनुवाद (हिन्दी)
कुन्तीकुमार! ये दोनों भाई बालक नकुल-सहदेव सिंहके समान पराक्रमी हैं। ये दोनों कैसे छिपकर विचर सकेंगे?॥२६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पुण्यकीर्ती राजपुत्री द्रौपदी वीरसूरियम् ॥ २७ ॥
विश्रुता कथमज्ञाता कृष्णा पार्थ चरिष्यति।
मूलम्
पुण्यकीर्ती राजपुत्री द्रौपदी वीरसूरियम् ॥ २७ ॥
विश्रुता कथमज्ञाता कृष्णा पार्थ चरिष्यति।
अनुवाद (हिन्दी)
पार्थ! यह वीरजननी पवित्रकीर्ति राजकुमारी द्रौपदी सारे संसारमें विख्यात है। भला, यह अज्ञातवासके नियम कैसे निभा सकेगी॥२७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मां चापि राजञ्जानन्ति ह्याकुमारमिमाः प्रजाः ॥ २८ ॥
नाज्ञातचर्यां पश्यामि मेरोरिव निगूहनम्।
मूलम्
मां चापि राजञ्जानन्ति ह्याकुमारमिमाः प्रजाः ॥ २८ ॥
नाज्ञातचर्यां पश्यामि मेरोरिव निगूहनम्।
अनुवाद (हिन्दी)
महाराज! मुझे भी प्रजावर्गके बच्चेतक पहचानते हैं, जैसे मेरुपर्वतको छिपाना असम्भव है, उसी प्रकार मुझे अपनी अज्ञातचर्या भी सम्भव नहीं दिखायी देती॥२८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तथैव बहवोऽस्माभी राष्ट्रेभ्यो विप्रवासिताः ॥ २९ ॥
राजानो राजपुत्राश्च धृतराष्ट्रमनुव्रताः ।
न हि तेऽप्युपशाम्यन्ति निकृता वा निराकृताः ॥ ३० ॥
मूलम्
तथैव बहवोऽस्माभी राष्ट्रेभ्यो विप्रवासिताः ॥ २९ ॥
राजानो राजपुत्राश्च धृतराष्ट्रमनुव्रताः ।
न हि तेऽप्युपशाम्यन्ति निकृता वा निराकृताः ॥ ३० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! इसके सिवा एक बात और है, हमलोगोंने भी बहुत-से राजाओं तथा राजकुमारोंको उनके राज्यसे निकाल दिया है। वे सब आकर राजा धृतराष्ट्रसे मिल गये होंगे, हमने जिनको राज्यसे वंचित किया अथवा निकाला है, वे कदापि हमारे प्रति शान्तभाव नहीं धारण कर सकते॥२९-३०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अवश्यं तैर्निकर्तव्यमस्माकं तत्प्रियैषिभिः ।
तेऽप्यस्मासु प्रयुञ्जीरन् प्रच्छन्नान् सुबहूंश्चरान्।
आचक्षीरंश्च नो ज्ञात्वा ततः स्यात् सुमहत् भयम् ॥ ३१ ॥
मूलम्
अवश्यं तैर्निकर्तव्यमस्माकं तत्प्रियैषिभिः ।
तेऽप्यस्मासु प्रयुञ्जीरन् प्रच्छन्नान् सुबहूंश्चरान्।
आचक्षीरंश्च नो ज्ञात्वा ततः स्यात् सुमहत् भयम् ॥ ३१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अवश्य ही दुर्योधनका प्रिय करनेकी इच्छा रखकर वे राजालोग भी हमलोगोंको धोखा देना उचित समझकर हमलोगोंकी खोज करनेके लिये बहुत-से छिपे हुए गुप्तचर नियुक्त करेंगे और पता लग जानेपर निश्चय ही दुर्योधनको सूचित कर देंगे। उस दशामें हमलोगोंपर बड़ा भारी भय उपस्थित हो जायगा॥३१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अस्माभिरुषिताः सम्यग्वने मासास्त्रयोदश ।
परिमाणेन तान् पश्य तावतः परिवत्सरान् ॥ ३२ ॥
मूलम्
अस्माभिरुषिताः सम्यग्वने मासास्त्रयोदश ।
परिमाणेन तान् पश्य तावतः परिवत्सरान् ॥ ३२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
हमने अबतक वनमें ठीक-ठीक तेरह महीने व्यतीत कर लिये हैं, आप इन्हींको परिमाणमें तेरह वर्ष समझ लीजिये॥३२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अस्ति मासः प्रतिनिधिर्यथा प्राहुर्मनीषिणः।
पूतिकामिव सोमस्य तथेदं क्रियतामिति ॥ ३३ ॥
मूलम्
अस्ति मासः प्रतिनिधिर्यथा प्राहुर्मनीषिणः।
पूतिकामिव सोमस्य तथेदं क्रियतामिति ॥ ३३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मनीषी पुरुषोंका कहना है कि मास संवत्सरका प्रतिनिधि है। जैसे पूतिका सोमलताके स्थानपर यज्ञमें काम देती है, उसी प्रकार आप इन तेरह मासोंको ही तेरह वर्षोंका प्रतिनिधि स्वीकार कर लीजिये॥३३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथवानडुहे राजन् साधवे साधुवाहिने।
सौहित्यदानादेतस्मादेनसः प्रतिमुच्यते ॥ ३४ ॥
मूलम्
अथवानडुहे राजन् साधवे साधुवाहिने।
सौहित्यदानादेतस्मादेनसः प्रतिमुच्यते ॥ ३४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! अथवा अच्छी तरह बोझ ढोनेवाले उत्तम बैलको भरपेट भोजन दे देनेपर इस पापसे आपको छुटकारा मिल सकता है॥३४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्माच्छत्रुवधे राजन् क्रियतां निश्चयस्त्वया।
क्षत्रियस्य हि सर्वस्य नान्यो धर्मोऽस्ति संयुगात् ॥ ३५ ॥
मूलम्
तस्माच्छत्रुवधे राजन् क्रियतां निश्चयस्त्वया।
क्षत्रियस्य हि सर्वस्य नान्यो धर्मोऽस्ति संयुगात् ॥ ३५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अतः महाराज! आप शत्रुओंका वध करनेका निश्चय कीजिये; क्योंकि समस्त क्षत्रियोंके लिये युद्धसे बढ़कर दूसरा कोई धर्म नहीं है॥३५॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि अर्जुनाभिगमनपर्वणि भीमवाक्ये पञ्चत्रिंशोऽध्यायः ॥ ३५ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्वके अन्तर्गत अर्जुनाभिगमनपर्वमें भीमवाक्यविषयक पैंतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥३५॥