०३४ युधिष्ठिरप्रतिज्ञापालनम्

श्रावणम् (द्युगङ्गा)
भागसूचना

चतुस्त्रिंशोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

धर्म और नीतिकी बात कहते हुए युधिष्ठिरकी अपनी प्रतिज्ञाके पालनरूप धर्मपर ही डटे रहनेकी घोषणा

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

स एवमुक्तस्तु महानुभावः
सत्यव्रतो भीमसेनेन राजा ।
अजातशत्रुस्तदनन्तरं वै
धैर्यान्वितो वाक्यमिदं बभाषे ॥ १ ॥

मूलम्

स एवमुक्तस्तु महानुभावः
सत्यव्रतो भीमसेनेन राजा ।
अजातशत्रुस्तदनन्तरं वै
धैर्यान्वितो वाक्यमिदं बभाषे ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! भीमसेन जब इस प्रकार अपनी बात पूरी कर चुके, तब महानुभाव, सत्यप्रतिज्ञ एवं अजातशत्रु राजा युधिष्ठिरने धैर्यपूर्वक उनसे यह बात कही—॥१॥

मूलम् (वचनम्)

युधिष्ठिर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

असंशयं भारत सत्यमेतद्
यन्मां तुदन् वाक्यशल्यैः क्षिणोषि।
न त्वां विगर्हे प्रतिकूलमेव
ममानयाद्धि व्यसनं व आगात् ॥ २ ॥

मूलम्

असंशयं भारत सत्यमेतद्
यन्मां तुदन् वाक्यशल्यैः क्षिणोषि।
न त्वां विगर्हे प्रतिकूलमेव
ममानयाद्धि व्यसनं व आगात् ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिर बोले— भरतकुलनन्दन! तुम मुझे पीड़ा देते हुए अपने वाग्‌बाणोंद्वारा मेरे हृदयको जो विदीर्ण कर रहे हो, यह निःसंदेह ठीक ही है। मेरे प्रतिकूल होनेपर भी इन बातोंके लिये मैं तुम्हारी निन्दा नहीं करता; क्योंकि मेरे ही अन्यायसे तुमलोगोंपर यह विपत्ति आयी है॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अहं ह्यक्षानन्वपद्यं जिहीर्षन्
राज्यं सराष्ट्रं धृतराष्ट्रस्य पुत्रात्।
तन्मां शठः कितवः प्रत्यदेवीत्
सुयोधनार्थं सुबलस्य पुत्रः ॥ ३ ॥

मूलम्

अहं ह्यक्षानन्वपद्यं जिहीर्षन्
राज्यं सराष्ट्रं धृतराष्ट्रस्य पुत्रात्।
तन्मां शठः कितवः प्रत्यदेवीत्
सुयोधनार्थं सुबलस्य पुत्रः ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन दिनों धृतराष्ट्रपुत्र दुर्योधनके हाथसे उसके राष्ट्र तथा राजपदका अपहरण करनेकी इच्छा रखकर ही मैं द्यूतक्रीड़ामें प्रवृत्त हुआ था; किंतु उस समय धूर्त जुआरी सुबलपुत्र शकुनि दुर्योधनके लिये उसकी ओरसे मेरे विपक्षमें आकर जूआ खेलने लगा॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

महामायः शकुनिः पर्वतीयः
सभामध्ये प्रवपन्नक्षपूगान् ।
अमायिनं मायया प्रत्यजैषीत्
ततोऽपश्यं वृजिनं भीमसेन ॥ ४ ॥

मूलम्

महामायः शकुनिः पर्वतीयः
सभामध्ये प्रवपन्नक्षपूगान् ।
अमायिनं मायया प्रत्यजैषीत्
ततोऽपश्यं वृजिनं भीमसेन ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीमसेन! पर्वतीय प्रदेशका निवासी शकुनि बड़ा मायावी है। उसने द्यूतसभामें पासे फेंककर अपनी मायाद्वारा मुझे जीत लिया; क्योंकि मैं माया नहीं जानता था; इसीलिये मुझे यह संकट देखना पड़ा है॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अक्षांश्च दृष्ट्वा शकुनेर्यथावत्
कामानुकूलानयुजो युजश्च ।
शक्यो नियन्तुमभविष्यदात्मा
मन्युस्तु हन्यात् पुरुषस्य धैर्यम् ॥ ५ ॥

मूलम्

अक्षांश्च दृष्ट्वा शकुनेर्यथावत्
कामानुकूलानयुजो युजश्च ।
शक्यो नियन्तुमभविष्यदात्मा
मन्युस्तु हन्यात् पुरुषस्य धैर्यम् ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

शकुनिके सम और विषम सभी पासोंको उसकी इच्छाके अनुसार ही ठीक-ठीक पड़ते देखकर यदि अपने मनको जूएकी ओरसे रोका जा सकता तो यह अनर्थ न होता, परंतु क्रोधावेश मनुष्यके धैर्यको नष्ट कर देता है (इसीलिये मैं जूएसे अलग न हो सका)॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यन्तुं नात्मा शक्यते पौरुषेण
मानेन वीर्येण च तात नद्धः।
न ते वाचो भीमसेनाभ्यसूये
मन्ये तथा तद् भवितव्यमासीत् ॥ ६ ॥

मूलम्

यन्तुं नात्मा शक्यते पौरुषेण
मानेन वीर्येण च तात नद्धः।
न ते वाचो भीमसेनाभ्यसूये
मन्ये तथा तद् भवितव्यमासीत् ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तात भीमसेन! किसी विषयमें आसक्त हुए चित्तको पुरुषार्थ, अभिमान अथवा पराक्रमसे नहीं रोका जा सकता (अर्थात्र उसे रोकना बहुत ही कठिन है), अतः मैं तुम्हारी बातोंके लिये बुरा नहीं मानता। मैं समझता हूँ, वैसी ही भवितव्यता थी॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स नो राजा धृतराष्ट्रस्य पुत्रो
न्यपातयद् व्यसने राज्यमिच्छन् ।
दास्यं च नोऽगमयद् भीमसेन
यत्राभवच्छरणं द्रौपदी नः ॥ ७ ॥

मूलम्

स नो राजा धृतराष्ट्रस्य पुत्रो
न्यपातयद् व्यसने राज्यमिच्छन् ।
दास्यं च नोऽगमयद् भीमसेन
यत्राभवच्छरणं द्रौपदी नः ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीमसेन! धृतराष्ट्रके पुत्र राजा दुर्योधनने राज्य पानेकी इच्छासे हमलोगोंको विपत्तिमें डाल दिया। हमें दासतक बना लिया था, किंतु उस समय द्रौपदी हमलोगोंकी रक्षक हुई॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्वं चापि तद् वेत्थ धनंजयश्च
पुनर्द्यूतायागतानां सभां नः ।
यन्माऽब्रवीद् धृतराष्ट्रस्य पुत्र
एकग्लहार्थं भरतानां समक्षम् ॥ ८ ॥

मूलम्

त्वं चापि तद् वेत्थ धनंजयश्च
पुनर्द्यूतायागतानां सभां नः ।
यन्माऽब्रवीद् धृतराष्ट्रस्य पुत्र
एकग्लहार्थं भरतानां समक्षम् ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तुम और अर्जुन दोनों इस बातको जानते हो कि जब हम पुनः द्यूतके लिये बुलाये जानेपर उस सभामें आये तो उस समय समस्त भरतवंशियोंके समक्ष धृतराष्ट्रपुत्र दुर्योधनने मुझसे एक ही दाँव लगानेके लिये इस प्रकार कहा—॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वने समा द्वादश राजपुत्र
यथाकामं विदितमजातशत्रो ।
अथापरं चाविदितं चरेथाः
सर्वैः सह भ्रातृभिश्छद्मगूढः ॥ ९ ॥

मूलम्

वने समा द्वादश राजपुत्र
यथाकामं विदितमजातशत्रो ।
अथापरं चाविदितं चरेथाः
सर्वैः सह भ्रातृभिश्छद्मगूढः ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘राजकुमार अजातशत्रो! (यदि आप हार जायँ तो) आपको बारह वर्षोंतक इच्छानुसार सबकी जानकारीमें और पुनः एक वर्षतक गुप्त वेषमें छिपे रहकर अपने भाइयोंके साथ वनमें निवास करना पड़ेगा॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्वां चेच्छ्रुत्वा तात तथा चरन्त-
मवभोत्स्यन्ते भरतानां चराश्च ।
अन्यांश्चरेथास्तावतोऽब्दांस्तथा त्वं
निश्चित्य तत् प्रतिजानीहि पार्थ ॥ १० ॥

मूलम्

त्वां चेच्छ्रुत्वा तात तथा चरन्त-
मवभोत्स्यन्ते भरतानां चराश्च ।
अन्यांश्चरेथास्तावतोऽब्दांस्तथा त्वं
निश्चित्य तत् प्रतिजानीहि पार्थ ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘कुन्तीकुमार! यदि भरतवंशियोंके गुप्तचर आपके गुप्त निवासका समाचार सुनकर पता लगाने लगें और उन्हें यह मालूम हो जाय कि आपलोग अमुक जगह अमुक रूपमें रह रहे हैं, तब आपको पुनः उतने (बारह) ही वर्षोंतक वनमें रहना पड़ेगा। इस बातको निश्चय करके इसके विषयमें प्रतिज्ञा कीजिये॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

चरेश्चेन्नोऽविदितः कालमेतं
युक्तो राजन् मोहयित्वा मदीयान्।
ब्रवीमि सत्यं कुरुसंसदीह
तवैव ता भारत पञ्च नद्यः ॥ ११ ॥

मूलम्

चरेश्चेन्नोऽविदितः कालमेतं
युक्तो राजन् मोहयित्वा मदीयान्।
ब्रवीमि सत्यं कुरुसंसदीह
तवैव ता भारत पञ्च नद्यः ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘भरतवंशी नरेश! यदि आप सावधान रहकर इतने समयतक मेरे गुप्तचरोंको मोहित करके अज्ञात-भावसे ही विचरते रहें तो मैं यहाँ कौरवोंकी सभामें यह सत्य प्रतिज्ञा करता हूँ कि उस सारे पंचनदप्रदेशपर फिर तुम्हारा ही अधिकार होगा॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वयं चैतद् भारत सर्व एव
त्वया जिताः कालमपास्य भोगान्।
वसेम इत्याह पुरा स राजा
मध्ये कुरूणां स मयोक्तस्तथेति ॥ १२ ॥

मूलम्

वयं चैतद् भारत सर्व एव
त्वया जिताः कालमपास्य भोगान्।
वसेम इत्याह पुरा स राजा
मध्ये कुरूणां स मयोक्तस्तथेति ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘भारत! यदि आपने ही हम सब लोगोंको जीत लिया तो हम भी उतने ही समयतक सारे भोगोंका परित्याग करके उसी प्रकार वास करेंगे।’ राजा दुर्योधनने जब समस्त कौरवोंके बीच इस प्रकार कहा, तब मैंने भी ‘तथास्तु’ कहकर उसकी बात मान ली॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत्र द्यूतमभवन्नो जघन्यं
तस्मिञ्जिताः प्रव्रजिताश्च सर्वे ।
इत्थं तु देशाननुसंचरामो
वनानि कृच्छ्राणि च कृच्छ्ररूपाः ॥ १३ ॥

मूलम्

तत्र द्यूतमभवन्नो जघन्यं
तस्मिञ्जिताः प्रव्रजिताश्च सर्वे ।
इत्थं तु देशाननुसंचरामो
वनानि कृच्छ्राणि च कृच्छ्ररूपाः ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

फिर वहाँ हमलोगोंका अन्तिम बार निन्दनीय जूआ हुआ। उसमें हम सब लोग हार गये और घर छोड़कर वनमें निकल आये। इस प्रकार हम कष्टप्रद वेष धारण करके कष्टदायक वनों और विभिन्न प्रदेशोंमें घूम रहे हैं॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुयोधनश्चापि न शान्तिमिच्छन्
भूयः स मन्योर्वशमन्वगच्छत् ।
उद्योजयामास कुरूंश्च सर्वान्
ये चास्य केचिद् वशमन्वगच्छन् ॥ १४ ॥

मूलम्

सुयोधनश्चापि न शान्तिमिच्छन्
भूयः स मन्योर्वशमन्वगच्छत् ।
उद्योजयामास कुरूंश्च सर्वान्
ये चास्य केचिद् वशमन्वगच्छन् ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उधर दुर्योधन भी शान्तिकी इच्छा न रखकर और भी क्रोधके वशीभूत हो गया है। उसने हमें तो कष्टमें डाल दिया और दूसरे समस्त कौरवोंको जो उसके वशमें होकर उसीका अनुसरण करते रहे हैं, (देशशासक और दुर्गरक्षक आदि) ऊँचे पदोंपर प्रतिष्ठित कर दिया है॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तं संधिमास्थाय सतां सकाशे
को नाम जह्यादिह राज्यहेतोः।
आर्यस्य मन्ये मरणाद् गरीयो
यद्धर्ममुत्क्रम्य महीं प्रशासेत् ॥ १५ ॥

मूलम्

तं संधिमास्थाय सतां सकाशे
को नाम जह्यादिह राज्यहेतोः।
आर्यस्य मन्ये मरणाद् गरीयो
यद्धर्ममुत्क्रम्य महीं प्रशासेत् ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कौरव-सभामें साधु पुरुषोंके समीप वैसी सन्धिका आश्रय लेकर यानी प्रतिज्ञा करके अब यहाँ राज्यके लिये उसे कौन तोड़े? धर्मका उल्लंघन करके पृथ्वीका शासन करना तो किसी श्रेष्ठ पुरुषके लिये मृत्युसे भी बढ़कर दुःखदायक है—ऐसा मेरा मत है॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तदैव चेद् वीर कर्माकरिष्यो
यदा द्यूते परिघं पर्यमृक्षः।
बाहू दिधक्षन् वारितः फाल्गुनेन
किं दुष्कृतं भीम तदाभविष्यत् ॥ १६ ॥
प्रागेव चैवं समयक्रियायाः
किं नाब्रवीः पौरुषमाविदानः ।
प्राप्तं तु कालं त्वभिपद्य पश्चात्
किं मामिदानीमतिवेलमात्थ ॥ १७ ॥

मूलम्

तदैव चेद् वीर कर्माकरिष्यो
यदा द्यूते परिघं पर्यमृक्षः।
बाहू दिधक्षन् वारितः फाल्गुनेन
किं दुष्कृतं भीम तदाभविष्यत् ॥ १६ ॥
प्रागेव चैवं समयक्रियायाः
किं नाब्रवीः पौरुषमाविदानः ।
प्राप्तं तु कालं त्वभिपद्य पश्चात्
किं मामिदानीमतिवेलमात्थ ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वीर भीमसेन! द्यूतके समय जब तुमने मेरी दोनों बाँहोंको जला देनेकी इच्छा प्रकट की और अर्जुनने तुम्हें रोका, उस समय तुम शत्रुओंपर आघात करनेके लिये अपनी गदापर हाथ फेरने लगे थे। यदि उसी समय तुमने शत्रुओंपर आघात कर दिया होता तो कितना अनर्थ हो जाता। तुम अपना पुरुषार्थ तो जानते ही थे। जब मैं पूर्वोक्त प्रकारकी प्रतिज्ञा करने लगा उससे पहले ही तुमने ऐसी बात क्यों नहीं कही? जब प्रतिज्ञाके अनुसार वनवासका समय स्वीकार कर लिया, तब पीछे चलकर इस समय क्यों मुझसे अत्यन्त कठोर बातें कहते हो?॥१६-१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भूयोऽपि दुःखं मम भीमसेन
दूये विषस्येव रसं हि पीत्वा।
यद् याज्ञसेनीं परिक्लिश्यमानां
संदृश्य तत् क्षान्तमिति स्म भीम ॥ १८ ॥

मूलम्

भूयोऽपि दुःखं मम भीमसेन
दूये विषस्येव रसं हि पीत्वा।
यद् याज्ञसेनीं परिक्लिश्यमानां
संदृश्य तत् क्षान्तमिति स्म भीम ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीमसेन! मुझे इस बातका भी बड़ा दुःख है कि द्रौपदीको शत्रुओंद्वारा क्लेश दिया जा रहा था और हमने अपनी आँखों देखकर भी उसे चुपचाप सह लिया। जैसे कोई विष घोलकर पी ले और उसकी पीड़ासे कराहने लगे, वैसी ही वेदना इस समय मुझे हो रही है॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न त्वद्य शक्यं भरतप्रवीर
कृत्वा यदुक्तं कुरुवीरमध्ये ।
कालं प्रतीक्षस्व सुखोदयस्य
पक्तिं फलानामिव बीजवापः ॥ १९ ॥

मूलम्

न त्वद्य शक्यं भरतप्रवीर
कृत्वा यदुक्तं कुरुवीरमध्ये ।
कालं प्रतीक्षस्व सुखोदयस्य
पक्तिं फलानामिव बीजवापः ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतवंशके प्रमुख वीर! कौरव वीरोंके बीच मैंने जो प्रतिज्ञा की है, उसे स्वीकार कर लेनेके बाद अब इस समय आक्रमण नहीं किया जा सकता। जैसे बीज बोनेवाला किसान अपनी खेतीके फलोंके पकनेकी बाट जोहता रहता है, उसी प्रकार तुम भी उस समयकी प्रतीक्षा करो, जो हमारे लिये सुखकी प्राप्ति करानेवाला है॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यदा हि पूर्वं निकृतो निकृन्तेद्
वैरं सपुष्पं सफलं विदित्वा।
महागुणं हरति हि पौरुषेण
तदा वीरो जीवति जीवलोके ॥ २० ॥

मूलम्

यदा हि पूर्वं निकृतो निकृन्तेद्
वैरं सपुष्पं सफलं विदित्वा।
महागुणं हरति हि पौरुषेण
तदा वीरो जीवति जीवलोके ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जब पहले शत्रुके द्वारा धोखा खाया हुआ वीर पुरुष उसे फूलता-फलता जानकर अपने पुरुषार्थके द्वारा उसका मूलोच्छेद कर डालता है, तभी उस शत्रुके महान् गुणोंका अपहरण कर लेता है और इस जगत्‌में सुखपूर्वक जीवित रहता है॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

श्रियं च लोके लभते समग्रां
मन्ये चास्मै शत्रवः संनमन्ते।
मित्राणि चैनमचिराद् भजन्ते
देवा इवेन्द्रमुपजीवन्ति चैनम् ॥ २१ ॥

मूलम्

श्रियं च लोके लभते समग्रां
मन्ये चास्मै शत्रवः संनमन्ते।
मित्राणि चैनमचिराद् भजन्ते
देवा इवेन्द्रमुपजीवन्ति चैनम् ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वह वीर पुरुष लोकमें सम्पूर्ण लक्ष्मीको प्राप्त कर लेता है। मैं यह भी मानता हूँ कि सभी शत्रु उसके सामने नतमस्तक हो जाते हैं। फिर थोड़े ही दिनोंमें उसके बहुत-से मित्र बन जाते हैं और जैसे देवता इन्द्रके सहारे जीवन धारण करते हैं, उसी प्रकार वे मित्रगण उस वीरकी छत्रछायामें रहकर जीवन-निर्वाह करते हैं॥२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मम प्रतिज्ञां च निबोध सत्यां
वृणे धर्मममृताज्जीविताच्च ।
राज्यं च पुत्राश्च यशो धनं च
सर्वं न सत्यस्य कलामुपैति ॥ २२ ॥

मूलम्

मम प्रतिज्ञां च निबोध सत्यां
वृणे धर्मममृताज्जीविताच्च ।
राज्यं च पुत्राश्च यशो धनं च
सर्वं न सत्यस्य कलामुपैति ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

किंतु भीमसेन! मेरी यह सच्ची प्रतिज्ञा सुनो। मैं जीवन और अमरत्वकी अपेक्षा भी धर्मको ही बढ़कर समझता हूँ। राज्य, पुत्र, यश और धन—ये सब-के-सब सत्यधर्मकी सोलहवीं कलाको भी नहीं पा सकते॥२२॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि अर्जुनाभिगमनपर्वणि युधिष्ठिरवाक्ये चतुस्त्रिंशोऽध्यायः ॥ ३४ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्वके अन्तर्गत अर्जुनाभिगमनपर्वमें युधिष्ठिरवाक्यविषयक चौंतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥३४॥