०३३ भीमकृतपुरुषार्थप्रशंसा

श्रावणम् (द्युगङ्गा)
भागसूचना

त्रयस्त्रिंशोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

भीमसेनका पुरुषार्थकी प्रशंसा करना और युधिष्ठिरको उत्तेजित करते हुए क्षत्रिय-धर्मके अनुसार युद्ध छेड़नेका अनुरोध

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

याज्ञसेन्या वचः श्रुत्वा भीमसेनो ह्यमर्षणः।
निःश्वसन्नुपसंगम्य क्रुद्धो राजानमब्रवीत् ॥ १ ॥

मूलम्

याज्ञसेन्या वचः श्रुत्वा भीमसेनो ह्यमर्षणः।
निःश्वसन्नुपसंगम्य क्रुद्धो राजानमब्रवीत् ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! द्रुपदकुमारीका वचन सुनकर अमर्षमें भरे हुए भीमसेन क्रोधपूर्वक उच्छ्‌वास लेते हुए राजाके पास आये और इस प्रकार कहने लगे—॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

राज्यस्य पदवीं धर्म्यां व्रज सत्पुरुषोचिताम्।
धर्मकामार्थहीनानां किं नो वस्तुं तपोवने ॥ २ ॥

मूलम्

राज्यस्य पदवीं धर्म्यां व्रज सत्पुरुषोचिताम्।
धर्मकामार्थहीनानां किं नो वस्तुं तपोवने ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘महाराज! श्रेष्ठ पुरुषोंके लिये उचित और धर्मके अनुकूल जो राज्य-प्राप्तिका मार्ग (उपाय) हो, उसका आश्रय लीजिये। धर्म, अर्थ और काम—इन तीनोंसे वंचित होकर इस तपोवनमें निवास करनेपर हमारा कौन-सा प्रयोजन सिद्ध होगा॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नैव धर्मेण तद् राज्यं नार्जवेन न चौजसा।
अक्षकूटमधिष्ठाय हृतं दुर्योधनेन वै ॥ ३ ॥

मूलम्

नैव धर्मेण तद् राज्यं नार्जवेन न चौजसा।
अक्षकूटमधिष्ठाय हृतं दुर्योधनेन वै ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘दुर्योधनने धर्मसे, सरलतासे और बलसे भी हमारे राज्यको नहीं लिया है; उसने तो कपटपूर्ण जूएका आश्रय लेकर उसका हरण कर लिया है॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गोमायुनेव सिंहानां दुर्बलेन बलीयसाम्।
आमिषं विघसाशेन तद्वद् राज्यं हि नो हृतम् ॥ ४ ॥

मूलम्

गोमायुनेव सिंहानां दुर्बलेन बलीयसाम्।
आमिषं विघसाशेन तद्वद् राज्यं हि नो हृतम् ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘बचे हुए अन्नको खानेवाले दुर्बल गीदड़ जैसे अत्यन्त बलिष्ठ सिंहोंका भोजन हर लें, उसी प्रकार शत्रुओंने हमारे राज्यका अपहरण किया है॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

धर्मलेशप्रतिच्छन्नः प्रभवं धर्मकामयोः ।
अर्थमुत्सृज्य किं राजन् दुःखेषु परितप्यसे ॥ ५ ॥

मूलम्

धर्मलेशप्रतिच्छन्नः प्रभवं धर्मकामयोः ।
अर्थमुत्सृज्य किं राजन् दुःखेषु परितप्यसे ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘महाराज! धर्म और कामके उत्पादक राज्य और धनको खोकर लेशमात्र धर्मसे आवृत हुए अब आप क्यों दुःखसे संतप्त हो रहे हैं?॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भवतोऽनवधानेन राज्यं नः पश्यतां हृतम्।
अहार्यमपि शक्रेण गुप्तं गाण्डीवधन्वना ॥ ६ ॥

मूलम्

भवतोऽनवधानेन राज्यं नः पश्यतां हृतम्।
अहार्यमपि शक्रेण गुप्तं गाण्डीवधन्वना ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘गाण्डीवधारी अर्जुनके द्वारा सुरक्षित हमारे राज्यको इन्द्र भी नहीं छीन सकते थे, परंतु आपकी असावधानीसे वह हमारे देखते-देखते छिन गया॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कुणीनामिव बिल्वानि पङ्‌गूनामिव धेनवः।
हृतमैश्वर्यमस्माकं जीवतां भवतः कृते ॥ ७ ॥

मूलम्

कुणीनामिव बिल्वानि पङ्‌गूनामिव धेनवः।
हृतमैश्वर्यमस्माकं जीवतां भवतः कृते ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘जैसे लूलोंके पाससे उनके बेलफल और पंगुओंके निकटसे उनकी गायें छिन जाती हैं और वे जीवित रहकर भी कुछ कर नहीं पाते, उसी प्रकार आपके कारण जीते-जी हमारे राज्यका अपहरण कर लिया गया॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भवतः प्रियमित्येवं महद् व्यसनमीदृशम्।
धर्मकामे प्रतीतस्य प्रतिपन्नाः स्म भारत ॥ ८ ॥

मूलम्

भवतः प्रियमित्येवं महद् व्यसनमीदृशम्।
धर्मकामे प्रतीतस्य प्रतिपन्नाः स्म भारत ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भारत! आप धर्मकी इच्छा रखनेवाले हैं; इस रूपमें आपकी प्रसिद्धि है। अतः आपकी प्रिय अभिलाषा सिद्ध हो, इसीलिये हमलोग ऐसे महान् संकटमें पड़ गये हैं॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कर्शयामः स्वमित्राणि नन्दयामश्च शात्रवान्।
आत्मानं भवतां शास्त्रैर्नियम्य भरतर्षभ ॥ ९ ॥

मूलम्

कर्शयामः स्वमित्राणि नन्दयामश्च शात्रवान्।
आत्मानं भवतां शास्त्रैर्नियम्य भरतर्षभ ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘भरतकुलभूषण! आपके शासनसे अपने-आपको नियन्त्रणमें रखकर आज हमलोग अपने मित्रोंको दुःखी और शत्रुओंको सुखी बना रहे हैं॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यद् वयं न तदैवैतान् धार्तराष्ट्रान् निहन्महि।
भवतः शास्त्रमादाय तन्नस्तपति दुष्कृतम् ॥ १० ॥

मूलम्

यद् वयं न तदैवैतान् धार्तराष्ट्रान् निहन्महि।
भवतः शास्त्रमादाय तन्नस्तपति दुष्कृतम् ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘आपके शासनको मानकर जो हमलोगोंने उसी समय इन धृतराष्ट्रपुत्रोंको मार नहीं डाला, वह दुष्कर्म हमें आज भी संताप दे रहा है॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथैनामन्ववेक्षस्व मृगचर्यामिवात्मनः ।
दुर्बलाचरितां राजन् न बलस्थैर्निषेविताम् ॥ ११ ॥

मूलम्

अथैनामन्ववेक्षस्व मृगचर्यामिवात्मनः ।
दुर्बलाचरितां राजन् न बलस्थैर्निषेविताम् ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘राजन्! मृगोंके समान अपनी इस वनचर्यापर ही दृष्टिपात कीजिये। दुर्बल मनुष्य ही इस प्रकार वनमें रहकर समय बिताते हैं। बलवान् मनुष्य वनवासका सेवन नहीं करते॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यां न कृष्णो न बीभत्सुर्नाभिमन्युर्न सृंजयाः।
न चाहमभिनन्दामि न च माद्रीसुतावुभौ ॥ १२ ॥

मूलम्

यां न कृष्णो न बीभत्सुर्नाभिमन्युर्न सृंजयाः।
न चाहमभिनन्दामि न च माद्रीसुतावुभौ ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘श्रीकृष्ण, अर्जुन, अभिमन्यु, सृंजयवंशी वीर, मैं और ये नकुल-सहदेव—कोई भी इस वनचर्याको पसंद नहीं करते॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भवान् धर्मो धर्म इति सततं व्रतकर्शितः।
कच्चिद् राजन् न निर्वेदादापन्नः क्लीबजीविकाम् ॥ १३ ॥

मूलम्

भवान् धर्मो धर्म इति सततं व्रतकर्शितः।
कच्चिद् राजन् न निर्वेदादापन्नः क्लीबजीविकाम् ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘राजन्! आप ‘यह धर्म है, यह धर्म है’, ऐसा कहकर सदा व्रतोंका पालन करके कष्ट उठाते रहते हैं। कहीं ऐसा तो नहीं है कि आप वैराग्यके कारण साहसशून्य हो नपुंसकोंका-सा जीवन व्यतीत करने लगे हों?॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दुर्मनुष्या हि निर्वेदमफलं स्वार्थघातकम्।
अशक्ताः श्रियमाहर्तुमात्मनः कुर्वते प्रियम् ॥ १४ ॥

मूलम्

दुर्मनुष्या हि निर्वेदमफलं स्वार्थघातकम्।
अशक्ताः श्रियमाहर्तुमात्मनः कुर्वते प्रियम् ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘अपनी खोयी हुई राज्यलक्ष्मीका उद्धार करनेमें असमर्थ दुर्बल मनुष्य ही निष्फल और स्वार्थनाशक वैराग्यका आश्रय लेते हैं और उसीको प्रिय मानते हैं॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स भवान् दृष्टिमाञ्छक्तः पश्यन्नस्मासु पौरुषम्।
आनृशंस्यपरो राजन् नानर्थमवबुध्यसे ॥ १५ ॥

मूलम्

स भवान् दृष्टिमाञ्छक्तः पश्यन्नस्मासु पौरुषम्।
आनृशंस्यपरो राजन् नानर्थमवबुध्यसे ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘राजन्! आप समझदार, दूरदर्शी और शक्तिशाली हैं, हमारे पुरुषार्थको देख चुके हैं; तो भी इस प्रकार दयाको अपनाकर इससे होनेवाले अनर्थको नहीं समझ रहे हैं॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अस्मानमी धार्तराष्ट्राः क्षममाणानलं सतः।
अशक्तानिव मन्यन्ते तद् दुःखं नाहवे वधः ॥ १६ ॥

मूलम्

अस्मानमी धार्तराष्ट्राः क्षममाणानलं सतः।
अशक्तानिव मन्यन्ते तद् दुःखं नाहवे वधः ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘हम शत्रुओंके अपराधको क्षमा करते जा रहे हैं, इसलिये समर्थ होते हुए भी हमें ये धृतराष्ट्रके पुत्र निर्बल-से मानने लगे हैं, यही हमारे लिये महान् दुःख है; युद्धमें मारा जाना कोई दुःख नहीं है॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत्र चेद् युध्यमानानामजिह्ममनिवर्तिनाम् ।
सर्वशो हि वधः श्रेयान् प्रेत्य लोकान् लभेमहि ॥ १७ ॥

मूलम्

तत्र चेद् युध्यमानानामजिह्ममनिवर्तिनाम् ।
सर्वशो हि वधः श्रेयान् प्रेत्य लोकान् लभेमहि ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘ऐसी दशामें यदि हम पीठ न दिखाकर युद्धमें निष्कपटभावसे लड़ते रहें और उसमें हमारा वध भी हो जाय तो वह कल्याणकारक है; क्योंकि युद्धमें मरनेसे हमें उत्तम लोकोंकी प्राप्ति होगी॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथवा वयमेवैतान् निहत्य भरतर्षभ।
आददीमहि गां सर्वां तथापि श्रेय एव नः ॥ १८ ॥

मूलम्

अथवा वयमेवैतान् निहत्य भरतर्षभ।
आददीमहि गां सर्वां तथापि श्रेय एव नः ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘अथवा भरतश्रेष्ठ! यदि हम ही इन शत्रुओंको मारकर सारी पृथ्वी ले लें तो वही हमारे लिये कल्याणकर है॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सर्वथा कार्यमेतन्नः स्वधर्ममनुतिष्ठताम् ।
काङ्क्षतां विपुलां कीर्तिं वैरं प्रतिचिकीर्षताम् ॥ १९ ॥

मूलम्

सर्वथा कार्यमेतन्नः स्वधर्ममनुतिष्ठताम् ।
काङ्क्षतां विपुलां कीर्तिं वैरं प्रतिचिकीर्षताम् ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘हम अपने क्षत्रिय-धर्मके अनुष्ठानमें संलग्न हो वैरका बदला लेना चाहते हैं और संसारमें महान् यशका विस्तार करनेकी अभिलाषा रखते हैं, अतः हमारे लिये सब प्रकारसे युद्ध करना ही उचित है॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आत्मार्थं युध्यमानानां विदिते कृत्यलक्षणे।
अन्यैरपि हृते राज्ये प्रशंसैव न गर्हणा ॥ २० ॥

मूलम्

आत्मार्थं युध्यमानानां विदिते कृत्यलक्षणे।
अन्यैरपि हृते राज्ये प्रशंसैव न गर्हणा ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘शत्रुओंने हमारे राज्यको छीन लिया है, ऐसे अवसरपर यदि हम अपने कर्तव्यको समझकर अपने लाभके लिये ही युद्ध करें तो भी इसके लिये जगत्‌में हमारी प्रशंसा ही होगी, निन्दा नहीं होगी॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कर्शनार्थो हि यो धर्मो मित्राणामात्मनस्तथा।
व्यसनं नाम तद् राजन् न धर्मः स कुधर्म तत्॥२१॥

मूलम्

कर्शनार्थो हि यो धर्मो मित्राणामात्मनस्तथा।
व्यसनं नाम तद् राजन् न धर्मः स कुधर्म तत्॥२१॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘महाराज! जो धर्म अपने तथा मित्रोंके लिये क्लेश उत्पन्न करनेवाला हो, वह तो संकट ही है। वह धर्म नहीं, कुधर्म है॥२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सर्वथा धर्मनित्यं तु पुरुषं धर्मदुर्बलम्।
त्यजतस्तात धर्मार्थौ प्रेतं दुःखसुखे यथा ॥ २२ ॥

मूलम्

सर्वथा धर्मनित्यं तु पुरुषं धर्मदुर्बलम्।
त्यजतस्तात धर्मार्थौ प्रेतं दुःखसुखे यथा ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘तात! जैसे मुर्दोंको दुःख और सुख दोनों नहीं होते, उसी प्रकार जो सर्वथा और सर्वदा धर्ममें ही तत्पर रहकर उसके अनुष्ठानसे दुर्बल हो गया है, उसे धर्म और अर्थ दोनों त्याग देते हैं॥२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यस्य धर्मो हि धर्मार्थं क्लेशभाङ् न स पण्डितः।
न स धर्मस्य वेदार्थं सूर्यस्यान्धः प्रभामिव ॥ २३ ॥

मूलम्

यस्य धर्मो हि धर्मार्थं क्लेशभाङ् न स पण्डितः।
न स धर्मस्य वेदार्थं सूर्यस्यान्धः प्रभामिव ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिसका धर्म केवल धर्मके लिये ही होता है, वह धर्मके नामपर केवल क्लेश उठानेवाला मानव बुद्धिमान् नहीं है। जैसे अन्धा सूर्यकी प्रभाको नहीं जानता, उसी प्रकार वह धर्मके अर्थको नहीं समझता है॥२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यस्य चार्थार्थमेवार्थः स च नार्थस्य कोविदः।
रक्षेत भृतकोऽरण्ये यथा गास्तादृगेव सः ॥ २४ ॥

मूलम्

यस्य चार्थार्थमेवार्थः स च नार्थस्य कोविदः।
रक्षेत भृतकोऽरण्ये यथा गास्तादृगेव सः ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘जिसका धन केवल धनके ही लिये है, दान आदिके लिये नहीं है, वह धनके तत्त्वको नहीं जानता। जैसे सेवक (ग्वालिया) वनमें गौओंकी रक्षा करता है, उसी प्रकार वह भी उस धनका दूसरेके लिये रक्षकमात्र है॥२४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अतिवेलं हि योऽर्थार्थी नेतरावनुतिष्ठति।
स वध्यः सर्वभूतानां ब्रह्महेव जुगुप्सितः ॥ २५ ॥

मूलम्

अतिवेलं हि योऽर्थार्थी नेतरावनुतिष्ठति।
स वध्यः सर्वभूतानां ब्रह्महेव जुगुप्सितः ॥ २५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘जो केवल अर्थके ही संग्रहकी अत्यन्त इच्छा रखनेवाला है और धर्म एवं कामका अनुष्ठान नहीं करता है, वह ब्रह्महत्यारेके समान घृणाका पात्र है और सभी प्राणियोंके लिये वध्य है॥२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सततं यश्च कामार्थी नेतरावनुतिष्ठति।
मित्राणि तस्य नश्यन्ति धर्मार्थाभ्यां च हीयते ॥ २६ ॥

मूलम्

सततं यश्च कामार्थी नेतरावनुतिष्ठति।
मित्राणि तस्य नश्यन्ति धर्मार्थाभ्यां च हीयते ॥ २६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘इसी प्रकार जो निरन्तर कामकी ही अभिलाषा रखकर धर्म और अर्थका सम्पादन नहीं करता, उसके मित्र नष्ट हो जाते हैं (उसको त्यागकर चल देते हैं) और वह धर्म एवं अर्थ दोनोंसे वंचित ही रह जाता है॥२६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्य धर्मार्थहीनस्य कामान्ते निधनं ध्रुवम्।
कामतो रममाणस्य मीनस्येवाम्भसः क्षये ॥ २७ ॥

मूलम्

तस्य धर्मार्थहीनस्य कामान्ते निधनं ध्रुवम्।
कामतो रममाणस्य मीनस्येवाम्भसः क्षये ॥ २७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘जैसे पानी सूख जानेपर उसमें रहनेवाली मछलीकी मृत्यु निश्चित है, उसी प्रकार जो धर्म-अर्थसे हीन होकर केवल काममें ही रमण करता है, उस काम (भोगसामग्री)-की समाप्ति होनेपर उसकी भी अवश्य मृत्यु हो जाती है॥२७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्माद् धर्मार्थयोर्नित्यं न प्रमाद्यन्ति पण्डिताः।
प्रकृतिः सा हि कामस्य पावकस्यारणिर्यथा ॥ २८ ॥

मूलम्

तस्माद् धर्मार्थयोर्नित्यं न प्रमाद्यन्ति पण्डिताः।
प्रकृतिः सा हि कामस्य पावकस्यारणिर्यथा ॥ २८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘इसलिये विद्वान् पुरुष कभी धर्म और अर्थके सम्पादनमें प्रमाद नहीं करते हैं। धर्म और अर्थ कामकी उत्पत्तिके स्थान हैं (अर्थात् धर्म और अर्थसे ही कामकी सिद्धि होती है) जैसे अरणि अग्निका उत्पत्तिस्थान है॥२८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सर्वथा धर्ममूलोऽर्थो धर्मश्चार्थपरिग्रहः ।
इतरेतरयोर्नीतौ विद्धि मेघोदधी यथा ॥ २९ ॥

मूलम्

सर्वथा धर्ममूलोऽर्थो धर्मश्चार्थपरिग्रहः ।
इतरेतरयोर्नीतौ विद्धि मेघोदधी यथा ॥ २९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘अर्थका कारण है धर्म और धर्म सिद्ध होता है अर्थसंग्रहसे। जैसे मेघसे समुद्रकी पुष्टि होती है और समुद्रसे मेघकी पूर्ति। इस प्रकार धर्म और अर्थको एक-दूसरेके आश्रित समझना चाहिये॥२९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

द्रव्यार्थस्पर्शसंयोगे या प्रीतिरुपजायते ।
स कामश्चित्तसंकल्पः शरीरं नास्य दृश्यते ॥ ३० ॥

मूलम्

द्रव्यार्थस्पर्शसंयोगे या प्रीतिरुपजायते ।
स कामश्चित्तसंकल्पः शरीरं नास्य दृश्यते ॥ ३० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘स्त्री, माला, चन्दन आदि द्रव्योंके स्पर्श और सुवर्ण आदि धनके लाभसे जो प्रसन्नता होती है, उसके लिये जो चित्तमें संकल्प उठता है, उसीका नाम काम है। उस कामका शरीर नहीं देखा जाता (इसीलिये वह ‘अनंग’ कहलाता है)॥३०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अर्थार्थी पुरुषो राजन् बृहन्तं धर्ममिच्छति।
अर्थमिच्छति कामार्थी न कामादन्यमिच्छति ॥ ३१ ॥

मूलम्

अर्थार्थी पुरुषो राजन् बृहन्तं धर्ममिच्छति।
अर्थमिच्छति कामार्थी न कामादन्यमिच्छति ॥ ३१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘राजन्! धनकी इच्छा रखनेवाला पुरुष महान् धर्मकी अभिलाषा रखता है और कामार्थी मनुष्य धन चाहता है। जैसे धर्मसे धनकी और धनसे कामकी इच्छा करता है, उस प्रकार वह कामसे किसी दूसरी वस्तुकी इच्छा नहीं करता है॥३१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न हि कामेन कामोऽन्यः साध्यते फलमेव तत्।
उपयोगात् फलस्यैव काष्ठाद् भस्मेव पण्डितैः ॥ ३२ ॥

मूलम्

न हि कामेन कामोऽन्यः साध्यते फलमेव तत्।
उपयोगात् फलस्यैव काष्ठाद् भस्मेव पण्डितैः ॥ ३२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘जैसे फल उपभोगमें आकर कृतार्थ हो जाता है, उससे दूसरा फल नहीं प्राप्त हो सकता तथा जिस प्रकार काष्ठसे भस्म बन सकता है, परंतु उस भस्मसे दूसरा कोई पदार्थ नहीं बन सकता; इसी तरह बुद्धिमान् पुरुष एक कामसे किसी दूसरे कामकी सिद्धि नहीं मानते, क्योंकि वह साधन नहीं, फल ही है॥३२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इमाञ्छकुनकान् राजन् हन्ति वैतंसिको यथा।
एतद् रूपमधर्मस्य भूतेषु हि विहिंसता ॥ ३३ ॥
कामाल्लोभाच्च धर्मस्य प्रकृतिं यो न पश्यति।
स वध्यः सर्वभूतानां प्रेत्य चेह च दुर्मतिः ॥ ३४ ॥

मूलम्

इमाञ्छकुनकान् राजन् हन्ति वैतंसिको यथा।
एतद् रूपमधर्मस्य भूतेषु हि विहिंसता ॥ ३३ ॥
कामाल्लोभाच्च धर्मस्य प्रकृतिं यो न पश्यति।
स वध्यः सर्वभूतानां प्रेत्य चेह च दुर्मतिः ॥ ३४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘राजन्! जैसे पक्षियोंको मारनेवाला व्याध इन पक्षियोंको मारता है, यह विशेष प्रकारकी हिंसा ही अधर्मका स्वरूप है (अतः वह हिंसक सबके लिये वध्य है)। वैसे ही जो खोटी बुद्धिवाला मनुष्य काम और लोभके वशीभूत होकर धर्मके स्वरूपको नहीं जानता, वह इहलोक और परलोकमें भी सब प्राणियोंका वध्य होता है॥३३-३४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

व्यक्तं ते विदितो राजन्नर्थो द्रव्यपरिग्रहः।
प्रकृतिं चापि वेत्थास्य विकृतिं चापि भूयसीम् ॥ ३५ ॥

मूलम्

व्यक्तं ते विदितो राजन्नर्थो द्रव्यपरिग्रहः।
प्रकृतिं चापि वेत्थास्य विकृतिं चापि भूयसीम् ॥ ३५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘राजन्! आपको यह अच्छी तरह ज्ञात है कि धनसे ही भोग्य-सामग्रीका संग्रह होता है। धनका जो कारण है, उससे भी आप परिचित हैं और धनके द्वारा जो बहुत-से कार्य सिद्ध होते हैं, उसे भी आप जानते हैं॥३५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्य नाशे विनाशे वा जरया मरणेन वा।
अनर्थ इति मन्यन्ते सोऽयमस्मासु वर्तते ॥ ३६ ॥

मूलम्

तस्य नाशे विनाशे वा जरया मरणेन वा।
अनर्थ इति मन्यन्ते सोऽयमस्मासु वर्तते ॥ ३६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘उस धनका अभाव होनेपर अथवा प्राप्त हुए धनका नाश होनेपर अथवा स्त्री आदि धनके जरा-जीर्ण एवं मृत्युग्रस्त होनेपर मनुष्यकी जो दशा होती है, उसीको सब लोग अनर्थ मानते हैं। वही इस समय हमलोगोंको भी प्राप्त हुआ है॥३६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इन्द्रियाणां च पञ्चानां मनसो हृदयस्य च।
विषये वर्तमानानां या प्रीतिरुपजायते ॥ ३७ ॥
स काम इति मे बुद्धिः कर्मणां फलमुत्तमम्।

मूलम्

इन्द्रियाणां च पञ्चानां मनसो हृदयस्य च।
विषये वर्तमानानां या प्रीतिरुपजायते ॥ ३७ ॥
स काम इति मे बुद्धिः कर्मणां फलमुत्तमम्।

अनुवाद (हिन्दी)

‘पाँचों ज्ञानेन्द्रियों, मन और बुद्धिकी अपने विषयोंमें प्रवृत्त होनेके समय जो प्रीति होती है, वही मेरी समझमें काम है। वह कर्मोंका उत्तम फल है॥३७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमेव पृथग् दृष्ट्वा धर्मार्थौ काममेव च ॥ ३८ ॥
न धर्मपर एव स्यान्न चार्थपरमो नरः।
न कामपरमो वा स्यात् सर्वान् सेवेत सर्वदा ॥ ३९ ॥
धर्मं पूर्वे धनं मध्ये जघन्ये काममाचरेत्।
अहन्यनुचरेदेवमेष शास्त्रकृतो विधिः ॥ ४० ॥

मूलम्

एवमेव पृथग् दृष्ट्वा धर्मार्थौ काममेव च ॥ ३८ ॥
न धर्मपर एव स्यान्न चार्थपरमो नरः।
न कामपरमो वा स्यात् सर्वान् सेवेत सर्वदा ॥ ३९ ॥
धर्मं पूर्वे धनं मध्ये जघन्ये काममाचरेत्।
अहन्यनुचरेदेवमेष शास्त्रकृतो विधिः ॥ ४० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘इस प्रकार धर्म, अर्थ और काम तीनोंको पृथक्-पृथक् समझकर मनुष्य केवल धर्म, केवल अर्थ अथवा केवल कामके ही सेवनमें तत्पर न रहे। उन सबका सदा इस प्रकार सेवन करे, जिससे इनमें विरोध न हो। इस विषयमें शास्त्रोंका यह विधान है कि दिनके पूर्वभागमें धर्मका, दूसरे भागमें अर्थका और अन्तिम भागमें कामका सेवन करे॥३८—४०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कामं पूर्वे धनं मध्ये जघन्ये धर्ममाचरेत्।
वयस्यनुचरेदेवमेष शास्त्रकृतो विधिः ॥ ४१ ॥

मूलम्

कामं पूर्वे धनं मध्ये जघन्ये धर्ममाचरेत्।
वयस्यनुचरेदेवमेष शास्त्रकृतो विधिः ॥ ४१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘इसी प्रकार अवस्था-क्रममें शास्त्रका विधान यह है कि आयुके पूर्वभागमें (युवावस्थामें) कामका, मध्यभाग (प्रौढ़ावस्था)-में धनका तथा अन्तिम भाग (वृद्धावस्था)-में धर्मका पालन करे॥४१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

धर्मं चार्थं च कामं च यथावद् वदतां वर।
विभज्य काले कालज्ञः सर्वान् सेवेत पण्डितः ॥ ४२ ॥

मूलम्

धर्मं चार्थं च कामं च यथावद् वदतां वर।
विभज्य काले कालज्ञः सर्वान् सेवेत पण्डितः ॥ ४२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘वक्ताओंमें श्रेष्ठ! उचित कालका ज्ञान रखनेवाला विद्वान् पुरुष धर्म, अर्थ और काम तीनोंका यथावत् विभाग करके उपयुक्त समयपर उन सबका सेवन करे॥४२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मोक्षो वा परमं श्रेय एष राजन् सुखार्थिनाम्।
प्राप्तिर्वा बुद्धिमास्थाय सोपायां कुरुनन्दन ॥ ४३ ॥
तद् वाऽऽशु क्रियतां राजन् प्राप्तिर्वाप्यधिगम्यताम्।
जीवितं ह्यातुरस्येव दुःखमन्तरवर्तिनः ॥ ४४ ॥

मूलम्

मोक्षो वा परमं श्रेय एष राजन् सुखार्थिनाम्।
प्राप्तिर्वा बुद्धिमास्थाय सोपायां कुरुनन्दन ॥ ४३ ॥
तद् वाऽऽशु क्रियतां राजन् प्राप्तिर्वाप्यधिगम्यताम्।
जीवितं ह्यातुरस्येव दुःखमन्तरवर्तिनः ॥ ४४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘कुरुनन्दन! निरतिशय सुखकी इच्छा रखनेवाले मुमुक्षुओंके लिये यह मोक्ष ही परम कल्याणप्रद है। राजन्! इसी प्रकार लौकिक सुखकी इच्छावालोंके लिये धर्म, अर्थ, कामरूप त्रिवर्गकी प्राप्ति ही परम श्रेय है। अतः महाराज! भक्ति और योगसहित ज्ञानका आश्रय लेकर आप शीघ्र ही या तो मोक्षकी प्राप्ति कर लीजिये अथवा धर्म, अर्थ, कामरूप त्रिवर्गकी प्राप्तिके उपायका अवलम्बन कीजिये। जो इन दोनोंके बीचमें रहता है, उसका जीवन तो आर्त मनुष्यके समान दुःखमय ही है॥४३-४४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विदितश्चैव मे धर्मः सततं चरितश्च ते।
जानन्तस्त्वयि शंसन्ति सुहृदः कर्मचोदनाम् ॥ ४५ ॥

मूलम्

विदितश्चैव मे धर्मः सततं चरितश्च ते।
जानन्तस्त्वयि शंसन्ति सुहृदः कर्मचोदनाम् ॥ ४५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘मुझे मालूम है कि आपने सदा धर्मका ही आचरण किया है, इस बातको जानते हुए भी आपके हितैषी, सगे-सम्बन्धी आपको (धर्मयुक्त) कर्म एवं पुरुषार्थके लिये ही प्रेरित करते हैं॥४५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दानं यज्ञाः सतां पूजा वेदधारणमार्जवम्।
एष धर्मः परो राजन् बलवान् प्रेत्य चेह च॥४६॥

मूलम्

दानं यज्ञाः सतां पूजा वेदधारणमार्जवम्।
एष धर्मः परो राजन् बलवान् प्रेत्य चेह च॥४६॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘महाराज! इहलोक और परलोकमें भी दान, यज्ञ, संतोंका आदर, वेदोंका स्वाध्याय और सरलता आदि ही उत्तम एवं प्रबल धर्म माने गये हैं॥४६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एष नार्थविहीनेन शक्यो राजन् निषेवितुम्।
अखिलाः पुरुषव्याघ्र गुणाः स्युर्यद्यपीतरे ॥ ४७ ॥

मूलम्

एष नार्थविहीनेन शक्यो राजन् निषेवितुम्।
अखिलाः पुरुषव्याघ्र गुणाः स्युर्यद्यपीतरे ॥ ४७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘पुरुषसिंह राजन्! यद्यपि मनुष्यमें दूसरे सभी गुण मौजूद हों तो भी यह यज्ञ आदि रूप धर्म धनहीन पुरुषके द्वारा नहीं सम्पादित किया जा सकता॥४७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

धर्ममूलं जगद् राजन् नान्यद् धर्माद्‌ विशिष्यते।
धर्मश्चार्थेन महता शक्यो राजन् निषेवितुम् ॥ ४८ ॥

मूलम्

धर्ममूलं जगद् राजन् नान्यद् धर्माद्‌ विशिष्यते।
धर्मश्चार्थेन महता शक्यो राजन् निषेवितुम् ॥ ४८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘महाराज! इस जगत्‌का मूल कारण धर्म ही है। इस जगत्‌में धर्मसे बढ़कर दूसरी कोई वस्तु नहीं है। उस धर्मका अनुष्ठान भी महान् धनसे ही हो सकता है॥४८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न चार्थो भैक्ष्यचर्येण नापि क्लैब्येन कर्हिचित्।
वेत्तुं शक्यः सदा राजन् केवलं धर्मबुद्धिना ॥ ४९ ॥

मूलम्

न चार्थो भैक्ष्यचर्येण नापि क्लैब्येन कर्हिचित्।
वेत्तुं शक्यः सदा राजन् केवलं धर्मबुद्धिना ॥ ४९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘राजन्! भीख माँगनेसे, कायरता दिखानेसे अथवा केवल धर्ममें ही मन लगाये रहनेसे धनकी प्राप्ति कदापि नहीं हो सकती॥४९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रतिषिद्धा हि ते याच्ञा यया सिद्ध्यति वै द्विजः।
तेजसैवार्थलिप्सायां यतस्व पुरुषर्षभ ॥ ५० ॥

मूलम्

प्रतिषिद्धा हि ते याच्ञा यया सिद्ध्यति वै द्विजः।
तेजसैवार्थलिप्सायां यतस्व पुरुषर्षभ ॥ ५० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘नरश्रेष्ठ! ब्राह्मण जिस याचनाके द्वारा कार्यसिद्धि कर लेता है वह तो आप कर नहीं सकते, क्योंकि क्षत्रियके लिये उसका निषेध है। अतः आप अपने तेजके द्वारा ही धन पानेका प्रयत्न कीजिये॥५०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भैक्ष्यचर्या न विहिता न च विट्शूद्रजीविका।
क्षत्रियस्य विशेषेण धर्मस्तु बलमौरसम् ॥ ५१ ॥

मूलम्

भैक्ष्यचर्या न विहिता न च विट्शूद्रजीविका।
क्षत्रियस्य विशेषेण धर्मस्तु बलमौरसम् ॥ ५१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘क्षत्रियके लिये न तो भीख माँगनेका विधान है और न वैश्य और शूद्रकी जीविका करनेका ही। उसके लिये तो बल और उत्साह ही विशेष धर्म हैं॥५१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्वधर्मं प्रतिपद्यस्व जहि शत्रून् समागतान्।
धार्तराष्ट्रमवनं पार्थ मया पार्थेन नाशय ॥ ५२ ॥

मूलम्

स्वधर्मं प्रतिपद्यस्व जहि शत्रून् समागतान्।
धार्तराष्ट्रमवनं पार्थ मया पार्थेन नाशय ॥ ५२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘पार्थ! अपने धर्मका आश्रय लीजिये, प्राप्त हुए शत्रुओंका वध कीजिये। मेरे तथा अर्जुनके द्वारा धृतराष्ट्रपुत्ररूपी जंगलको कटवा डालिये॥५२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उदारमेव विद्वांसो धर्मं प्राहुर्मनीषिणः।
उदारं प्रतिपद्यस्व नावरे स्थातुमर्हसि ॥ ५३ ॥

मूलम्

उदारमेव विद्वांसो धर्मं प्राहुर्मनीषिणः।
उदारं प्रतिपद्यस्व नावरे स्थातुमर्हसि ॥ ५३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘मनीषी विद्वान् दानशीलताको ही धर्म कहते हैं, अतः आप उस दानशीलताको ही प्राप्त कीजिये। आपको इस दयनीय अवस्थामें नहीं रहना चाहिये॥५३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अनुबुध्यस्व राजेन्द्र वेत्थ धर्मान् सनातनात्।
क्रूरकर्माभिजातोऽसि यस्मादुद्विजते जनः ॥ ५४ ॥

मूलम्

अनुबुध्यस्व राजेन्द्र वेत्थ धर्मान् सनातनात्।
क्रूरकर्माभिजातोऽसि यस्मादुद्विजते जनः ॥ ५४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘महाराज! आप सनातनधर्मोंको जानते हैं, आप कठोर कर्म करनेवाले क्षत्रियकुलमें उत्पन्न हुए हैं, जिससे सब लोग भयभीत रहते हैं; अतः अपने स्वरूप और कर्तव्यकी ओर ध्यान दीजिये॥५४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रजापालनसम्भूतं फलं तव न गर्हितम्।
एष ते विहितो राजन् धात्रा धर्मः सनातनः ॥ ५५ ॥

मूलम्

प्रजापालनसम्भूतं फलं तव न गर्हितम्।
एष ते विहितो राजन् धात्रा धर्मः सनातनः ॥ ५५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘जब आप राज्य प्राप्त कर लेंगे, उस समय प्रजापालनरूप धर्मसे आपको जिस पुण्यफलकी प्राप्ति होगी, वह आपके लिये गर्हित नहीं होगा। महाराज! विधाताने आप-जैसे क्षत्रियका यही सनातनधर्म नियत किया है॥५५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्मादपचितः पार्थ लोके हास्यं गमिष्यसि।
स्वधर्माद्धि मनुष्याणां चलनं न प्रशस्यते ॥ ५६ ॥

मूलम्

तस्मादपचितः पार्थ लोके हास्यं गमिष्यसि।
स्वधर्माद्धि मनुष्याणां चलनं न प्रशस्यते ॥ ५६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘पार्थ! उस धर्मसे हीन होनेपर तो संसारमें आप उपहासके पात्र हो जायँगे। मनुष्योंका अपने धर्मसे भ्रष्ट होना कुछ प्रशंसाकी बात नहीं है॥५६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स क्षात्रं हृदयं कृत्वा त्यक्त्वेदं शिथिलं मनः।
वीर्यमास्थाय कौरव्य धुरमुद्वह धुर्यवत् ॥ ५७ ॥

मूलम्

स क्षात्रं हृदयं कृत्वा त्यक्त्वेदं शिथिलं मनः।
वीर्यमास्थाय कौरव्य धुरमुद्वह धुर्यवत् ॥ ५७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘कुरुनन्दन! अपने हृदयको क्षत्रियोचित उत्साहसे भरकर मनकी इस शिथिलताको दूर करके पराक्रमका आश्रय ले आप एक धुरन्धर वीर पुरुषकी भाँति युद्धका भार वहन कीजिये॥५७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न हि केवलधर्मात्मा पृथिवीं जातु कश्चन।
पार्थिवो व्यजयद् राजन् न भूतिं न पुनः श्रियम्॥५८॥

मूलम्

न हि केवलधर्मात्मा पृथिवीं जातु कश्चन।
पार्थिवो व्यजयद् राजन् न भूतिं न पुनः श्रियम्॥५८॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘महाराज! केवल धर्ममें ही लगे रहनेवाले किसी भी नरेशने आजतक न तो कभी पृथ्वीपर विजय पायी है और न ऐश्वर्य तथा लक्ष्मीको ही प्राप्त किया है॥५८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जिह्वां दत्त्वा बहूनां हि क्षुद्राणां लुब्धचेतसाम्।
निकृत्या लभते राज्यमाहारमिव शल्यकः ॥ ५९ ॥

मूलम्

जिह्वां दत्त्वा बहूनां हि क्षुद्राणां लुब्धचेतसाम्।
निकृत्या लभते राज्यमाहारमिव शल्यकः ॥ ५९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘जैसे बहेलिया लुब्ध हृदयवाले छोटे-छोटे मृगोंको कुछ खानेकी वस्तुओंका लोभ देकर छलसे उन्हें पकड़ लेता है, उसी प्रकार नीतिज्ञ राजा शत्रुओंके प्रति कूटनीतिका प्रयोग करके उनसे राज्यको प्राप्त कर लेता है॥५९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भ्रातरः पूर्वजाताश्च सुसमृद्धाश्च सर्वशः।
निकृत्या निर्जिता देवैरसुराः पार्थिवर्षभ ॥ ६० ॥

मूलम्

भ्रातरः पूर्वजाताश्च सुसमृद्धाश्च सर्वशः।
निकृत्या निर्जिता देवैरसुराः पार्थिवर्षभ ॥ ६० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘नृपश्रेष्ठ! आप जानते हैं कि असुरगण देवताओंके बड़े भाई हैं, उनसे पहले उत्पन्न हुए हैं और सब प्रकारसे समृद्धिशाली हैं तो भी देवताओंने छलसे उन्हें जीत लिया॥६०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं बलवतः सर्वमिति बुद्ध्वा महीपते।
जहि शत्रून् महाबाहो परां निकृतिमास्थितः ॥ ६१ ॥

मूलम्

एवं बलवतः सर्वमिति बुद्ध्वा महीपते।
जहि शत्रून् महाबाहो परां निकृतिमास्थितः ॥ ६१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘महाराज! महाबाहो! इस प्रकार बलवान्‌का ही सबपर अधिकार होता है, यह समझकर आप भी कूटनीतिका आश्रय ले अपने शत्रुओंको मार डालिये॥६१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न ह्यर्जुनसमः कश्चिद् युधि योद्धा धनुर्धरः।
भविता वा पुमान् कश्चिन्मत्समो वा गदाधरः ॥ ६२ ॥

मूलम्

न ह्यर्जुनसमः कश्चिद् युधि योद्धा धनुर्धरः।
भविता वा पुमान् कश्चिन्मत्समो वा गदाधरः ॥ ६२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘युद्धमें अर्जुनके समान कोई धनुर्धर अथवा मेरे समान गदाधारी योद्धा न तो है और न आगे होनेकी ही सम्भावना है॥६२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सत्त्वेन कुरुते युद्धं राजन् सुबलवानपि।
अप्रमादी महोत्साही सत्त्वस्थो भव पाण्डव ॥ ६३ ॥

मूलम्

सत्त्वेन कुरुते युद्धं राजन् सुबलवानपि।
अप्रमादी महोत्साही सत्त्वस्थो भव पाण्डव ॥ ६३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘पाण्डुनन्दन! अत्यन्त बलवान् पुरुष भी आत्मबलसे ही युद्ध करता है, इसलिये आप सावधानीपूर्वक महान् उत्साह और आत्मबलका आश्रय लीजिये॥६३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सत्त्वं हि मूलमर्थस्य वितथं यदतोऽन्यथा।
न तु प्रसक्तं भवति वृक्षच्छायेव हैमनी ॥ ६४ ॥

मूलम्

सत्त्वं हि मूलमर्थस्य वितथं यदतोऽन्यथा।
न तु प्रसक्तं भवति वृक्षच्छायेव हैमनी ॥ ६४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘आत्मबल ही धनका मूल है, इसके विपरीत जो कुछ है, वह मिथ्या है; क्योंकि हेमन्त-ऋतुमें वृक्षोंकी छायाके समान वह आत्माकी दुर्बलता किसी भी कामकी नहीं है॥६४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अर्थत्यागोऽपि कार्यः स्वादर्थं श्रेयांसमिच्छता।
बीजौपम्येन कौन्तेय मा ते भूदत्र संशयः ॥ ६५ ॥

मूलम्

अर्थत्यागोऽपि कार्यः स्वादर्थं श्रेयांसमिच्छता।
बीजौपम्येन कौन्तेय मा ते भूदत्र संशयः ॥ ६५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘कुन्तीकुमार! जैसे किसान अधिक अन्नराशि उपजानेकी लालसासे धान्य आदिके अल्प बीजोंका भूमिमें परित्याग कर देता है, उसी प्रकार श्रेष्ठ अर्थ पानेकी इच्छासे अल्प अर्थका त्याग किया जा सकता है। आपको इस विषयमें संशय नहीं करना चाहिये॥६५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अर्थेन तु समो नार्थो यत्र लभ्येत नोदयः।
न तत्र विपणः कार्यः खरकण्डूयनं हि तत् ॥ ६६ ॥

मूलम्

अर्थेन तु समो नार्थो यत्र लभ्येत नोदयः।
न तत्र विपणः कार्यः खरकण्डूयनं हि तत् ॥ ६६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘जहाँ अर्थका उपयोग करनेपर उससे अधिक या समान अर्थकी प्राप्ति न हो वहाँ उस अर्थको नहीं लगाना चाहिये, क्योंकि वह (परस्पर) गधोंके शरीरको खुजलानेके समान व्यर्थ है॥६६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमेव मनुष्येन्द्र धर्मं त्यक्त्वाल्पकं नरः।
बृहन्तं धर्ममाप्नोति स बुद्ध इति निश्चितम् ॥ ६७ ॥

मूलम्

एवमेव मनुष्येन्द्र धर्मं त्यक्त्वाल्पकं नरः।
बृहन्तं धर्ममाप्नोति स बुद्ध इति निश्चितम् ॥ ६७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘नरेश्वर! इसी प्रकार जो मनुष्य अल्प धर्मका परित्याग करके महान् धर्मकी प्राप्ति करता है, वह निश्चय ही बुद्धिमान् है॥६७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अमित्रं मित्रसम्पन्नं मित्रैर्भिन्दन्ति पण्डिताः।
भिन्नैर्मित्रैः परित्यक्तं दुर्बलं कुर्वते वशम् ॥ ६८ ॥

मूलम्

अमित्रं मित्रसम्पन्नं मित्रैर्भिन्दन्ति पण्डिताः।
भिन्नैर्मित्रैः परित्यक्तं दुर्बलं कुर्वते वशम् ॥ ६८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘मित्रोंसे सम्पन्न शत्रुको विद्वान् पुरुष अपने मित्रोंद्वारा भेदनीतिसे उसमें और उसके मित्रोंमें फूट डाल देते हैं, फिर भेदभाव होनेपर मित्र जब उसको त्याग देते हैं, तब वे उस दुर्बल शत्रुको अपने वशमें कर लेते हैं॥६८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सत्त्वेन कुरुते युद्धं राजन् सुबलवानपि।
नोद्यमेन न होत्राभिः सर्वाः स्वीकुरुते प्रजाः ॥ ६९ ॥

मूलम्

सत्त्वेन कुरुते युद्धं राजन् सुबलवानपि।
नोद्यमेन न होत्राभिः सर्वाः स्वीकुरुते प्रजाः ॥ ६९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘राजन्! अत्यन्त बलवान् पुरुष भी आत्मबलसे ही युद्ध करता है, वह किसी अन्य प्रयत्नसे या प्रशंसाद्वारा सब प्रजाको अपने वशमें नहीं करता॥६९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सर्वथा संहतैरेव दुर्बलैर्बलवानपि ।
अमित्रः शक्यते हन्तुं मधुहा भ्रमरैरिव ॥ ७० ॥

मूलम्

सर्वथा संहतैरेव दुर्बलैर्बलवानपि ।
अमित्रः शक्यते हन्तुं मधुहा भ्रमरैरिव ॥ ७० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘जैसे मधुमक्खियाँ संगठित होकर मधु निकालने-वालेको मार डालती हैं, उसी प्रकार सर्वथा संगठित रहनेवाले दुर्बल मनुष्योंद्वारा बलवान् शत्रु भी मारा जा सकता है॥७०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथा राजन् प्रजाः सर्वाः सूर्यः पाति गभस्तिभिः।
अत्ति चैव तथैव त्वं सदृशः सवितुर्भव ॥ ७१ ॥

मूलम्

यथा राजन् प्रजाः सर्वाः सूर्यः पाति गभस्तिभिः।
अत्ति चैव तथैव त्वं सदृशः सवितुर्भव ॥ ७१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! जैसे भगवान् सूर्य पृथ्वीके रसको ग्रहण करते और अपनी किरणोंद्वारा वर्षा करके उन सबकी रक्षा करते हैं, उसी प्रकार आप भी प्रजाओंसे कर लेकर उनकी रक्षा करते हुए सूर्यके ही समान हो जाइये॥७१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतच्चापि तपो राजन् पुराणमिति नः श्रुतम्।
विधिना पालनं भूमेर्यत् कृतं नः पितामहैः ॥ ७२ ॥

मूलम्

एतच्चापि तपो राजन् पुराणमिति नः श्रुतम्।
विधिना पालनं भूमेर्यत् कृतं नः पितामहैः ॥ ७२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘राजेन्द्र! हमारे बाप-दादोंने जो किया है, वह धर्मपूर्वक पृथ्वीका पालन भी प्राचीनकालसे चला आनेवाला तप ही है; ऐसा हमने सुना है॥७२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न तथा तपसा राजल्ँलोकान् प्राप्नोति क्षत्रियः।
यथा सृष्टेन युद्धेन विजयेनेतरेण वा ॥ ७३ ॥

मूलम्

न तथा तपसा राजल्ँलोकान् प्राप्नोति क्षत्रियः।
यथा सृष्टेन युद्धेन विजयेनेतरेण वा ॥ ७३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘धर्मराज! क्षत्रिय तपस्याके द्वारा वैसे पुण्य-लोकोंको नहीं प्राप्त होता, जिन्हें वह अपने लिये विहित युद्धके द्वारा विजय अथवा मृत्युको अंगीकार करनेसे प्राप्त करता है॥७३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अपेयात्‌ किल भाः सूर्याल्लक्ष्मीश्चन्द्रमसस्तथा।
इति लोको व्यवसितो दृष्ट्वेमां भवतो व्यथाम् ॥ ७४ ॥

मूलम्

अपेयात्‌ किल भाः सूर्याल्लक्ष्मीश्चन्द्रमसस्तथा।
इति लोको व्यवसितो दृष्ट्वेमां भवतो व्यथाम् ॥ ७४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘आपपर जो यह संकट आया है, इस असम्भव-सी घटनाको देखकर लोग यह निश्चयपूर्वक मानने लगे हैं कि सूर्यसे उसकी प्रभा और चन्द्रमासे उसकी चाँदनी भी दूर हो सकती है॥७४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भवतश्च प्रशंसाभिर्निन्दाभिरितरस्य च ।
कथायुक्ताः परिषदः पृथग् राजन् समागताः ॥ ७५ ॥

मूलम्

भवतश्च प्रशंसाभिर्निन्दाभिरितरस्य च ।
कथायुक्ताः परिषदः पृथग् राजन् समागताः ॥ ७५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘राजन्! साधारण लोग भिन्न-भिन्न सभाओंमें सम्मिलित होकर अथवा अलग-अलग समूह-के-समूह इकट्ठे होकर आपकी प्रशंसा और दुर्योधनकी निन्दासे ही सम्बन्ध रखनेवाली बातें करते हैं॥७५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इदमभ्यधिकं राजन् ब्राह्मणाः कुरवश्च ते।
समेताः कथयन्तीह मुदिताः सत्यसंधताम् ॥ ७६ ॥

मूलम्

इदमभ्यधिकं राजन् ब्राह्मणाः कुरवश्च ते।
समेताः कथयन्तीह मुदिताः सत्यसंधताम् ॥ ७६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘महाराज! इसके सिवा, यह भी सुननेमें आया है कि ब्राह्मण और कुरुवंशी एकत्र होकर बड़ी प्रसन्नताके साथ आपकी सत्यप्रतिज्ञताका वर्णन करते हैं॥७६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यन्न मोहान्न कार्पण्यान्न लोभान्न भयादपि।
अनृतं किंचिदुक्तं ते न कामान्नार्थकारणात् ॥ ७७ ॥

मूलम्

यन्न मोहान्न कार्पण्यान्न लोभान्न भयादपि।
अनृतं किंचिदुक्तं ते न कामान्नार्थकारणात् ॥ ७७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘उनका कहना है कि आपने कभी न तो मोहसे, न दीनतासे, न लोभसे, न भयसे, न कामनासे और न धनके ही कारणसे किंचिन्मात्र भी असत्य भाषण किया है॥७७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यदेनः कुरुते किंचिद् राजा भूमिमवाप्नुवन्।
सर्वं तन्नुदते पश्चाद् यज्ञैर्विपुलदक्षिणैः ॥ ७८ ॥

मूलम्

यदेनः कुरुते किंचिद् राजा भूमिमवाप्नुवन्।
सर्वं तन्नुदते पश्चाद् यज्ञैर्विपुलदक्षिणैः ॥ ७८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘राजा पृथ्वीको अपने अधिकारमें करते समय युद्धजनित हिंसा आदिके द्वारा जो कुछ पाप करता है, वह सब राज्यप्राप्तिके पश्चात् भारी दक्षिणावाले यज्ञोंद्वारा नष्ट कर देता है॥७८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ब्राह्मणेभ्यो ददद् ग्रामान् गाश्च राजन् सहस्रशः।
मुच्यते सर्वपापेभ्यस्तमोभ्य इव चन्द्रमाः ॥ ७९ ॥

मूलम्

ब्राह्मणेभ्यो ददद् ग्रामान् गाश्च राजन् सहस्रशः।
मुच्यते सर्वपापेभ्यस्तमोभ्य इव चन्द्रमाः ॥ ७९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘जनेश्वर! ब्राह्मणोंको बहुत-से गाँव और सहस्रों गौएँ दानमें देकर राजा अपने समस्त पापोंसे उसी प्रकार मुक्त हो जाता है, जैसे चन्द्रमा अन्धकारसे॥७९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पौरजानपदाः सर्वे प्रायशः कुरुनन्दन।
सवृद्धबालसहिताः शंसन्ति त्वां युधिष्ठिर ॥ ८० ॥

मूलम्

पौरजानपदाः सर्वे प्रायशः कुरुनन्दन।
सवृद्धबालसहिताः शंसन्ति त्वां युधिष्ठिर ॥ ८० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘कुरुनन्दन युधिष्ठिर! प्रायः नगर और जनपदमें निवास करनेवाले आबालवृद्ध सब लोग आपकी प्रशंसा करते हैं॥८०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

श्वदृतौ क्षीरमासक्तं ब्रह्म वा वृषले यथा।
सत्यं स्तेने बलं नार्यां राज्यं दुर्योधने तथा ॥ ८१ ॥

मूलम्

श्वदृतौ क्षीरमासक्तं ब्रह्म वा वृषले यथा।
सत्यं स्तेने बलं नार्यां राज्यं दुर्योधने तथा ॥ ८१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘कुत्तेके चमड़ेकी कुप्पीमें रखा हुआ दूध, शूद्रमें स्थित वेद, चोरमें सत्य और नारीमें स्थित बल जैसे अनुचित है, उसी प्रकार दुर्योधनमें स्थित राजत्व भी संगत नहीं है॥८१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इति लोके निर्वचनं पुरश्चरति भारत।
अपि चैताः स्त्रियो बालाः स्वाध्यायमधिकुर्वते ॥ ८२ ॥

मूलम्

इति लोके निर्वचनं पुरश्चरति भारत।
अपि चैताः स्त्रियो बालाः स्वाध्यायमधिकुर्वते ॥ ८२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘भारत! लोकमें यह उपर्युक्त सत्य प्रवाद पहलेसे चला आ रहा है। स्त्रियाँ और बच्चेतक इसे नित्य किये जानेवाले पाठकी तरह दुहराते रहते हैं॥८२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इमामवस्थां च गते सहास्माभिररिंदम।
हन्त नष्टाः स्म सर्वे वै भवतोपद्रवे सति ॥ ८३ ॥

मूलम्

इमामवस्थां च गते सहास्माभिररिंदम।
हन्त नष्टाः स्म सर्वे वै भवतोपद्रवे सति ॥ ८३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘शत्रुदमन! बड़े दुःखकी बात है कि हमारे साथ ही आज आप इस दुरवस्थामें पहुँच गये हैं और आपहीके कारण ऐसा उपद्रव आया कि हम सब लोग नष्ट हो गये॥८३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स भवान् रथमास्थाय सर्वोपकरणान्वितम्।
त्वरमाणोऽभिनिर्यातु विप्रेभ्योऽर्थविभावकः ॥ ८४ ॥

मूलम्

स भवान् रथमास्थाय सर्वोपकरणान्वितम्।
त्वरमाणोऽभिनिर्यातु विप्रेभ्योऽर्थविभावकः ॥ ८४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘महाराज! आप विजयमें प्राप्त हुए धनका ब्राह्मणोंको दान करनेके लिये अस्त्र-शस्त्र आदि सभी आवश्यक सामग्रियोंसे सुसज्जित रथपर बैठकर शीघ्र यहाँसे युद्धके लिये निकलिये॥८४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वाचयित्वा द्विजश्रेष्ठानद्यैव गजसाह्वयम् ।
अस्त्रविद्भिः परिवृतो भ्रातृभिर्दृढधन्विभिः ॥ ८५ ॥
आशीविषसमैर्वीरैर्मरुद्भिरिव वृत्रहा ।
अमित्रांस्तेजसा मृद्‌नन्नसुरानिव वृत्रहा ।
श्रियमादत्स्व कौन्तेय धार्तराष्ट्रान् महाबल ॥ ८६ ॥

मूलम्

वाचयित्वा द्विजश्रेष्ठानद्यैव गजसाह्वयम् ।
अस्त्रविद्भिः परिवृतो भ्रातृभिर्दृढधन्विभिः ॥ ८५ ॥
आशीविषसमैर्वीरैर्मरुद्भिरिव वृत्रहा ।
अमित्रांस्तेजसा मृद्‌नन्नसुरानिव वृत्रहा ।
श्रियमादत्स्व कौन्तेय धार्तराष्ट्रान् महाबल ॥ ८६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘जैसे सर्पोंके समान भयंकर शूरवीर देवताओंसे घिरे हुए वृत्रनाशक इन्द्र असुरोंपर आक्रमण करते हैं, उसी प्रकार अस्त्र-विद्याके ज्ञाता और सुदृढ़ धनुष धारण करनेवाले हम सब भाइयोंसे घिरे हुए आप श्रेष्ठ ब्राह्मणोंसे स्वस्तिवाचन कराकर आज ही हस्तिनापुरपर चढ़ाई कीजिये। महाबली कुन्तीकुमार! जैसे इन्द्र अपने तेजसे दैत्योंको मिट्टीमें मिला देते हैं, उसी प्रकार आप अपने प्रभावसे शत्रुओंको मिट्टीमें मिलाकर धृतराष्ट्रपुत्र दुर्योधनसे अपनी राजलक्ष्मीको ले लीजिये॥८५-८६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न हि गाण्डीवमुक्तानां शराणां गार्ध्रवाससाम्।
स्पर्शमाशीविषाभानां मर्त्यः कश्चन संसहेत् ॥ ८७ ॥

मूलम्

न हि गाण्डीवमुक्तानां शराणां गार्ध्रवाससाम्।
स्पर्शमाशीविषाभानां मर्त्यः कश्चन संसहेत् ॥ ८७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘मनुष्योंमें कोई ऐसा नहीं है, जो गाण्डीव धनुषसे छूटे हुए विषैले सर्पोंके समान भयंकर गृध्रपंखयुक्त बाणोंका स्पर्श सह सके॥८७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न स वीरो न मातङ्गो न च सोऽश्वोऽस्ति भारत।
यः सहेत गदावेगं मम क्रुद्धस्य संयुगे ॥ ८८ ॥

मूलम्

न स वीरो न मातङ्गो न च सोऽश्वोऽस्ति भारत।
यः सहेत गदावेगं मम क्रुद्धस्य संयुगे ॥ ८८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘भारत! इसी प्रकार जगत्‌में ऐसा कोई अश्व या गजराज या कोई वीर पुरुष भी नहीं है, जो रणभूमिमें क्रोधपूर्वक विचरनेवाले मुझ भीमसेनकी गदाका वेग सह सके॥८८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सृञ्जयैः सह कैकेयैर्वृष्णीनां वृषभेण च।
कथंस्विद् युधि कौन्तेय न राज्यं प्राप्नुयामहे ॥ ८९ ॥

मूलम्

सृञ्जयैः सह कैकेयैर्वृष्णीनां वृषभेण च।
कथंस्विद् युधि कौन्तेय न राज्यं प्राप्नुयामहे ॥ ८९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘कुन्तीनन्दन! सृंजय और कैकयवंशी वीरों तथा वृष्णिवंशावतंस भगवान् श्रीकृष्णके साथ होकर हम संग्राममें अपना राज्य कैसे नहीं प्राप्त कर लेंगे?॥८९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शत्रुहस्तगतां राजन् कथंस्विन्नाहरेर्महीम् ।
इह यत्नमुपाहृत्य बलेन महतान्वितः ॥ ९० ॥

मूलम्

शत्रुहस्तगतां राजन् कथंस्विन्नाहरेर्महीम् ।
इह यत्नमुपाहृत्य बलेन महतान्वितः ॥ ९० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘राजन्! आप विशाल सेनासे सम्पन्न हो यहाँ प्रयत्नपूर्वक युद्ध ठानकर शत्रुओंके हाथमें गयी हुई पृथ्वीको उनसे छीन क्यों नहीं लेते?’॥ ९०॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि अर्जुनाभिगमनपर्वणि भीमवाक्ये त्रयस्त्रिंशोऽध्यायः ॥ ३३ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्वके अन्तर्गत अर्जुनाभिगमनपर्वमें भीमवाक्यविषयक तैंतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥३३॥