श्रावणम् (द्युगङ्गा)
भागसूचना
द्वात्रिंशोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
द्रौपदीका पुरुषार्थको प्रधान मानकर पुरुषार्थ करनेके लिये जोर देना
मूलम् (वचनम्)
द्रौपद्युवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
नावमन्ये न गर्हे च धर्मं पार्थ कथंचन।
ईश्वरं कुत एवाहमवमंस्ये प्रजापतिम् ॥ १ ॥
मूलम्
नावमन्ये न गर्हे च धर्मं पार्थ कथंचन।
ईश्वरं कुत एवाहमवमंस्ये प्रजापतिम् ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
द्रौपदी बोली— कुन्तीनन्दन! मैं धर्मकी अवहेलना तथा निन्दा किसी प्रकार नहीं कर सकती। फिर समस्त प्रजाओंका पालन करनेवाले परमेश्वरकी अवहेलना तो कर ही कैसे सकती हूँ॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आर्ताहं प्रलपामीदमिति मां विद्धि भारत।
भूयश्च विलपिष्यामि सुमनास्त्वं निबोध मे ॥ २ ॥
मूलम्
आर्ताहं प्रलपामीदमिति मां विद्धि भारत।
भूयश्च विलपिष्यामि सुमनास्त्वं निबोध मे ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भारत! आप ऐसा समझ लें कि मैं शोकसे आर्त होकर प्रलाप कर रही हूँ। मैं इतनेसे ही चुप नहीं रहूँगी और भी विलाप करूँगी। आप प्रसन्नचित्त होकर मेरी बात सुनिये॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कर्म खल्विह कर्तव्यं जानतामित्रकर्शन।
अकर्माणो हि जीवन्ति स्थावरा नेतरे जनाः ॥ ३ ॥
मूलम्
कर्म खल्विह कर्तव्यं जानतामित्रकर्शन।
अकर्माणो हि जीवन्ति स्थावरा नेतरे जनाः ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
शत्रुनाशन! ज्ञानी पुरुषको भी इस संसारमें कर्म अवश्य करना चाहिये। पर्वत और वृक्ष आदि स्थावर भूत ही बिना कर्म किये जी सकते हैं, दूसरे लोग नहीं॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यावद्गोस्तनपानाच्च यावच्छायोपसेवनात् ।
जन्तवः कर्मणा वृत्तिमाप्नुवन्ति युधिष्ठिर ॥ ४ ॥
मूलम्
यावद्गोस्तनपानाच्च यावच्छायोपसेवनात् ।
जन्तवः कर्मणा वृत्तिमाप्नुवन्ति युधिष्ठिर ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाराज युधिष्ठिर! गौओंके बछड़े भी माताका दूध पीते और छायामें जाकर विश्राम करते हैं। इस प्रकार सभी जीव कर्म करके ही जीवन-निर्वाह करते हैं॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जङ्गमेषु विशेषेण मनुष्या भरतर्षभ।
इच्छन्ति कर्मणा वृत्तिमवाप्तुं प्रेत्य चेह च ॥ ५ ॥
मूलम्
जङ्गमेषु विशेषेण मनुष्या भरतर्षभ।
इच्छन्ति कर्मणा वृत्तिमवाप्तुं प्रेत्य चेह च ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भरतश्रेष्ठ! जंगम जीवोंमें विशेषरूपसे मनुष्य कर्मके द्वारा ही इहलोक और परलोकमें जीविका प्राप्त करना चाहते हैं॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उत्थानमभिजानन्ति सर्वभूतानि भारत ।
प्रत्यक्षं फलमश्नन्ति कर्मणां लोकसाक्षिकम् ॥ ६ ॥
मूलम्
उत्थानमभिजानन्ति सर्वभूतानि भारत ।
प्रत्यक्षं फलमश्नन्ति कर्मणां लोकसाक्षिकम् ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भारत! सभी प्राणी अपने उत्थानको समझते हैं और कर्मोंके प्रत्यक्ष फलका उपभोग करते हैं,जिसका साक्षी सारा जगत् है॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्वे हि स्वं समुत्थानमुपजीवन्ति जन्तवः।
अपि धाता विधाता च यथायमुदके बकः ॥ ७ ॥
मूलम्
सर्वे हि स्वं समुत्थानमुपजीवन्ति जन्तवः।
अपि धाता विधाता च यथायमुदके बकः ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यह जलके समीप जो बगुला बैठकर (मछलीके लिये) ध्यान लगा रहा है, उसीके समान ये सभी प्राणी अपने उद्योगका आश्रय लेकर जीवन धारण करते हैं। धाता और विधाता भी सदा सृष्टिपालनके उद्योगमें लगे रहते हैं॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अकर्मणां वै भूतानां वृत्तिः स्यान्न हि काचन।
तदेवाभिप्रपद्येत न विहन्यात् कदाचन ॥ ८ ॥
मूलम्
अकर्मणां वै भूतानां वृत्तिः स्यान्न हि काचन।
तदेवाभिप्रपद्येत न विहन्यात् कदाचन ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कर्म न करनेवाले प्राणियोंकी कोई जीविका भी सिद्ध नहीं होती। अतः (प्रारब्धका भरोसा करके) कभी कर्मका परित्याग न करे। सदा कर्मका ही आश्रय ले॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्वकर्म कुरु मा ग्लासीः कर्मणा भव दंशितः।
कृतं हि योऽभिजानाति सहस्रे सोऽस्ति नास्ति च ॥ ९ ॥
मूलम्
स्वकर्म कुरु मा ग्लासीः कर्मणा भव दंशितः।
कृतं हि योऽभिजानाति सहस्रे सोऽस्ति नास्ति च ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अतः आप अपना कर्म करें। उसमें ग्लानि न करें, कर्मका कवच पहने रहें। जो कर्म करना अच्छी तरह जानता है, ऐसा मनुष्य हजारोंमें एक भी है या नहीं? यह बताना कठिन है॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्य चापि भवेत् कार्यं विवृद्धौ रक्षणे तथा।
भक्ष्यमाणो ह्यनादानात् क्षीयेत हिमवानपि ॥ १० ॥
मूलम्
तस्य चापि भवेत् कार्यं विवृद्धौ रक्षणे तथा।
भक्ष्यमाणो ह्यनादानात् क्षीयेत हिमवानपि ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
धनकी वृद्धि और रक्षाके लिये भी कर्मकी आवश्यकता है। यदि धनका उपभोग (व्यय) होता रहे और आय न हो तो हिमालय-जैसी धनराशिका भी क्षय हो सकता है॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उत्सीदेरन् प्रजाः सर्वा न कुर्युः कर्म चेद् भुवि।
तथा ह्येता न वर्धेरन् कर्म चेदफलं भवेत् ॥ ११ ॥
मूलम्
उत्सीदेरन् प्रजाः सर्वा न कुर्युः कर्म चेद् भुवि।
तथा ह्येता न वर्धेरन् कर्म चेदफलं भवेत् ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यदि समस्त प्रजा इस भूतलपर कर्म करना छोड़ दे तो सबका संहार हो जाय। यदि कर्मका कुछ फल न हो तो इन प्रजाओंकी वृद्धि ही न हो॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अपि चाप्यफलं कर्म पश्यामः कुर्वतो जनान्।
नान्यथा ह्यपि गच्छन्ति वृत्तिं लोकाः कथंचन ॥ १२ ॥
मूलम्
अपि चाप्यफलं कर्म पश्यामः कुर्वतो जनान्।
नान्यथा ह्यपि गच्छन्ति वृत्तिं लोकाः कथंचन ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
हम देखती हैं कि लोग व्यर्थ कर्ममें भी लगे रहते हैं, कर्म न करनेपर तो लोगोंकी किसी प्रकार जीविका ही नहीं चल सकती॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यश्च दिष्टपरो लोके यश्चापि हठवादिकः।
उभावपि शठावेतौ कर्मबुद्धिः प्रशस्यते ॥ १३ ॥
मूलम्
यश्च दिष्टपरो लोके यश्चापि हठवादिकः।
उभावपि शठावेतौ कर्मबुद्धिः प्रशस्यते ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
संसारमें जो केवल भाग्यके भरोसे कर्म नहीं करता अर्थात् जो ऐसा मानता है कि पहले जैसा किया है वैसा ही फल अपने-आप ही प्राप्त होगा तथा जो हठवादी है—बिना किसी युक्तिके हठपूर्वक यह मानता है कि कर्म करना अनावश्यक है, जो कुछ मिलना होगा, अपने-आप मिल जायगा, वे दोनों ही मूर्ख हैं। जिसकी बुद्धि कर्म (पुरुषार्थ)-में रुचि रखती है, वही प्रशंसाका पात्र है॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यो हि दिष्टमुपासीनो निर्विचेष्टःसुखं शयेत्।
अवसीदेत् स दुर्बुद्धिरामो घट इवोदके ॥ १४ ॥
मूलम्
यो हि दिष्टमुपासीनो निर्विचेष्टःसुखं शयेत्।
अवसीदेत् स दुर्बुद्धिरामो घट इवोदके ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो खोटी बुद्धिवाला मनुष्य प्रारब्ध (भाग्य)-का भरोसा रखकर उद्योगसे मुँह मोड़ लेता और सुखसे सोता रहता है, उसका जलमें रखे हुए कच्चे घड़ेकी भाँति विनाश हो जाता है॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तथैव हठदुर्बुद्धिः शक्तः कर्मण्यकर्मकृत्।
आसीत न चिरं जीवेदनाथ इव दुर्बलः ॥ १५ ॥
मूलम्
तथैव हठदुर्बुद्धिः शक्तः कर्मण्यकर्मकृत्।
आसीत न चिरं जीवेदनाथ इव दुर्बलः ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसी प्रकार जो हठी और दुर्बुद्धि मानव कर्म करनेमें समर्थ होकर भी कर्म नहीं करता, बैठा रहता है, वह दुर्बल एवं अनाथकी भाँति दीर्घजीवी नहीं होता॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अकस्मादिह यः कश्चिदर्थं प्राप्नोति पूरुषः।
तं हठेनेति मन्यन्ते स हि यत्नो न कस्यचित्॥१६॥
मूलम्
अकस्मादिह यः कश्चिदर्थं प्राप्नोति पूरुषः।
तं हठेनेति मन्यन्ते स हि यत्नो न कस्यचित्॥१६॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो कोई पुरुष इस जगत्में अकस्मात् कहींसे धन पा लेता है, उसे लोग हठसे मिला हुआ मान लेते हैं; क्योंकि उसके लिये किसीके द्वारा प्रयत्न किया हुआ नहीं दीखता॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यच्चापि किंचित् पुरुषो दिष्टं नाम भजत्युत।
दैवेन विधिना पार्थ तद् दैवमिति निश्चितम् ॥ १७ ॥
मूलम्
यच्चापि किंचित् पुरुषो दिष्टं नाम भजत्युत।
दैवेन विधिना पार्थ तद् दैवमिति निश्चितम् ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कुन्तीनन्दन! मनुष्य जो कुछ भी देवाराधनकी विधिसे अपने भाग्यके अनुसार पाता है, उसे निश्चितरूपसे दैव (प्रारब्ध) कहा गया है॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यत् स्वयं कर्मणा किंचित् फलमाप्नोति पूरुषः।
प्रत्यक्षमेतल्लोकेषु तत् पौरुषमिति श्रुतम् ॥ १८ ॥
मूलम्
यत् स्वयं कर्मणा किंचित् फलमाप्नोति पूरुषः।
प्रत्यक्षमेतल्लोकेषु तत् पौरुषमिति श्रुतम् ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तथा मनुष्य स्वयं कर्म करके जो कुछ फल प्राप्त करता है, उसे पुरुषार्थ कहते हैं। यह सब लोगोंको प्रत्यक्ष दिखायी देता है॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्वभावतः प्रवृत्तो यः प्राप्नोत्यर्थं न कारणात्।
तत् स्वभावात्मकं विद्धि फलं पुरुषसत्तम ॥ १९ ॥
मूलम्
स्वभावतः प्रवृत्तो यः प्राप्नोत्यर्थं न कारणात्।
तत् स्वभावात्मकं विद्धि फलं पुरुषसत्तम ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नरश्रेष्ठ! जो स्वभावसे ही कर्ममें प्रवृत्त होकर धन प्राप्त करता है, किसी कारणवश नहीं, उसके उस धनको स्वाभाविक फल समझना चाहिये॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं हठाच्च दैवाच्च स्वभावात् कर्मणस्तथा।
यानि प्राप्नोति पुरुषस्तत् फलं पूर्वकर्मणाम् ॥ २० ॥
मूलम्
एवं हठाच्च दैवाच्च स्वभावात् कर्मणस्तथा।
यानि प्राप्नोति पुरुषस्तत् फलं पूर्वकर्मणाम् ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार हठ, दैव, स्वभाव तथा कर्मसे मनुष्य जिन-जिन वस्तुओंको पाता है, वे सब उसके पूर्वकर्मोंके ही फल हैं॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
धातापि हि स्वकर्मैव तैस्तैर्हेतुभिरीश्वरः।
विदधाति विभज्येह फलं पूर्वकृतं नृणाम् ॥ २१ ॥
मूलम्
धातापि हि स्वकर्मैव तैस्तैर्हेतुभिरीश्वरः।
विदधाति विभज्येह फलं पूर्वकृतं नृणाम् ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जगदाधार परमेश्वर भी उपर्युक्त हठ आदि हेतुओंसे जीवोंके अपने-अपने कर्मको ही विभक्त करके मनुष्योंको उनके पूर्वजन्ममें किये हुए कर्मके फलरूपसे यहाँ प्राप्त कराता है॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यद्ध्ययं पुरुषः किंचित् कुरुते वै शुभाशुभम्।
तद् धातृविहितं विद्धि पूर्वकर्मफलोदयम् ॥ २२ ॥
मूलम्
यद्ध्ययं पुरुषः किंचित् कुरुते वै शुभाशुभम्।
तद् धातृविहितं विद्धि पूर्वकर्मफलोदयम् ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पुरुष यहाँ जो कुछ भी शुभ-अशुभ कर्म करता है, उसे ईश्वरद्वारा विहित उसके पूर्वकर्मोंके फलका उदय समझिये॥२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कारणं तस्य देहोऽयं धातुः कर्मणि वर्तते।
स यथा प्रेरयत्येनं तथायं कुरुतेऽवशः ॥ २३ ॥
मूलम्
कारणं तस्य देहोऽयं धातुः कर्मणि वर्तते।
स यथा प्रेरयत्येनं तथायं कुरुतेऽवशः ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यह मानव-शरीर जो कर्ममें प्रवृत्त होता है, वह ईश्वरके कर्मफलसम्पादन-कार्यका साधन है। वे इसे जैसी प्रेरणा देते हैं, यह विवश होकर (स्वेच्छा—प्रारब्धभोगके लिये) वैसा ही करता है॥२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेषु तेषु हि कृत्येषु विनियोक्ता महेश्वरः।
सर्वभूतानि कौन्तेय कारयत्यवशान्यपि ॥ २४ ॥
मूलम्
तेषु तेषु हि कृत्येषु विनियोक्ता महेश्वरः।
सर्वभूतानि कौन्तेय कारयत्यवशान्यपि ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कुन्तीनन्दन! परमेश्वर ही समस्त प्राणियोंको विभिन्न कार्योंमें लगाते और स्वभावके परवश हुए उन प्राणियोंसे कर्म कराते हैं॥२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मनसार्थान् विनिश्चित्य पश्चात् प्राप्नोति कर्मणा।
बुद्धिपूर्वं स्वयं वीर पुरुषस्तत्र कारणम् ॥ २५ ॥
मूलम्
मनसार्थान् विनिश्चित्य पश्चात् प्राप्नोति कर्मणा।
बुद्धिपूर्वं स्वयं वीर पुरुषस्तत्र कारणम् ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
किंतु वीर! मनसे अभीष्ट वस्तुओंका निश्चय करके फिर कर्मद्वारा मनुष्य स्वयं बुद्धिपूर्वक उन्हें प्राप्त करता है। अतः पुरुष ही उसमें कारण है॥२५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
संख्यातुं नैव शक्यानि कर्माणि पुरुषर्षभ।
अगारनगराणां हि सिद्धिः पुरुषहैतुकी ॥ २६ ॥
तिले तैलं गवि क्षीरं काष्ठे पावकमन्ततः।
धिया धीरो विजानीयादुपायं चास्य सिद्धये ॥ २७ ॥
मूलम्
संख्यातुं नैव शक्यानि कर्माणि पुरुषर्षभ।
अगारनगराणां हि सिद्धिः पुरुषहैतुकी ॥ २६ ॥
तिले तैलं गवि क्षीरं काष्ठे पावकमन्ततः।
धिया धीरो विजानीयादुपायं चास्य सिद्धये ॥ २७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नरश्रेष्ठ! कर्मोंकी गणना नहीं की जा सकती। गृह एवं नगर आदि सभीकी प्राप्तिमें पुरुष ही कारण है। विद्वान् पुरुष पहले बुद्धिद्वारा यह निश्चय करे कि तिलमें तेल है, गायके भीतर दूध है और काष्ठमें अग्नि है, तत्पश्चात् उसकी सिद्धिके उपायका निश्चय करे॥२६-२७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः प्रवर्तते पश्चात् कारणैस्तस्य सिद्धये।
तां सिद्धिमुपजीवन्ति कर्मजामिह जन्तवः ॥ २८ ॥
मूलम्
ततः प्रवर्तते पश्चात् कारणैस्तस्य सिद्धये।
तां सिद्धिमुपजीवन्ति कर्मजामिह जन्तवः ॥ २८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर उन्हीं उपायोंद्वारा उस कार्यकी सिद्धिके लिये प्रवृत्त होना चाहिये। सभी प्राणी इस जगत्में उस कर्मजनित सिद्धिका सहारा लेते हैं॥२८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कुशलेन कृतं कर्म कर्त्रा साधु स्वनुष्ठितम्।
इदं त्वकुशलेनेति विशेषादुपलभ्यते ॥ २९ ॥
मूलम्
कुशलेन कृतं कर्म कर्त्रा साधु स्वनुष्ठितम्।
इदं त्वकुशलेनेति विशेषादुपलभ्यते ॥ २९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
योग्य कर्ताके द्वारा किया गया कर्म अच्छे ढंगसे सम्पादित होता है। यह कार्य किसी अयोग्य कर्ताके द्वारा किया गया है, यह बात कार्यकी विशेषतासे अर्थात् परिणामसे जानी जाती है॥२९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इष्टापूर्तफलं न स्यान्न शिष्यो न गुरुर्भवेत्।
पुरुषः कर्मसाध्येषु स्याच्चेदयमकारणम् ॥ ३० ॥
मूलम्
इष्टापूर्तफलं न स्यान्न शिष्यो न गुरुर्भवेत्।
पुरुषः कर्मसाध्येषु स्याच्चेदयमकारणम् ॥ ३० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यदि कर्मसाध्य फलोंमें पुरुष (एवं उसका प्रयत्न) कारण न होता अर्थात् वह कर्ता नहीं बनता तो किसीको यज्ञ और कूपनिर्माण आदि कर्मोंका फल नहीं मिलता। फिर तो न कोई किसीका शिष्य होता और न गुरु ही॥३०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कर्तृत्वादेव पुरुषः कर्मसिद्धौ प्रशस्यते।
असिद्धौ निन्द्यते चापि कर्मनाशात् कथं त्विह ॥ ३१ ॥
मूलम्
कर्तृत्वादेव पुरुषः कर्मसिद्धौ प्रशस्यते।
असिद्धौ निन्द्यते चापि कर्मनाशात् कथं त्विह ॥ ३१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कर्ता होनेके कारण ही कार्यकी सिद्धिमें पुरुषकी प्रशंसा की जाती है और जब कार्यकी सिद्धि नहीं होती, तब उसकी निन्दा की जाती है। यदि कर्मका सर्वथा नाश ही हो जाय, तो यहाँ कार्यकी सिद्धि ही कैसे हो॥३१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्वमेव हठेनैके दैवेनैके वदन्त्युत।
पुंसः प्रयत्नजं केचित्त्रैधमेतन्निरुच्यते ॥ ३२ ॥
मूलम्
सर्वमेव हठेनैके दैवेनैके वदन्त्युत।
पुंसः प्रयत्नजं केचित्त्रैधमेतन्निरुच्यते ॥ ३२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कोई तो सब कार्योंको हठसे ही सिद्ध होनेवाला बतलाते हैं। कुछ लोग दैवसे कार्यकी सिद्धिका प्रतिपादन करते हैं तथा कुछ लोग पुरुषार्थको ही कार्यसिद्धिका कारण बताते हैं। इस तरह ये तीन प्रकारके कारण बताये जाते हैं॥३२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न चैवैतावता कार्यं मन्यन्त इति चापरे।
अस्ति सर्वमदृश्यं तु दिष्टं चैव तथा हठः ॥ ३३ ॥
मूलम्
न चैवैतावता कार्यं मन्यन्त इति चापरे।
अस्ति सर्वमदृश्यं तु दिष्टं चैव तथा हठः ॥ ३३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
दूसरे लोगोंकी मान्यता इस प्रकार है कि मनुष्यके प्रयत्नकी कोई आवश्यकता नहीं है। अदृश्य दैव (प्रारब्ध) तथा हठ—ये दो ही सब कार्योंके कारण हैं॥३३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दृश्यते हि हठाच्चैव दिष्टाच्चार्थस्य संततिः।
किंचिद् दैवाद्धठात् किंचित् किंचिदेव स्वभावतः ॥ ३४ ॥
पुरुषः फलमाप्नोति चतुर्थं नात्र कारणम्।
कुशलाः प्रतिजानन्ति ये वै तत्त्वविदो जनाः ॥ ३५ ॥
मूलम्
दृश्यते हि हठाच्चैव दिष्टाच्चार्थस्य संततिः।
किंचिद् दैवाद्धठात् किंचित् किंचिदेव स्वभावतः ॥ ३४ ॥
पुरुषः फलमाप्नोति चतुर्थं नात्र कारणम्।
कुशलाः प्रतिजानन्ति ये वै तत्त्वविदो जनाः ॥ ३५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
क्योंकि यह देखा जाता है कि हठ तथा दैवसे सब कार्योंकी धारावाहिक रूपसे सिद्धि हो रही है। जो लोग तत्त्वज्ञ एवं कुशल हैं, वे प्रतिज्ञापूर्वक कहते हैं कि मनुष्य कुछ फल दैवसे, कुछ हठसे और कुछ स्वभावसे प्राप्त करता है। इस विषयमें इन तीनोंके सिवा कोई चौथा कारण नहीं है॥३४-३५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तथैव धाता भूतानामिष्टानिष्टफलप्रदः ।
यदि न स्यान्न भूतानां कृपणो नाम कश्चन ॥ ३६ ॥
मूलम्
तथैव धाता भूतानामिष्टानिष्टफलप्रदः ।
यदि न स्यान्न भूतानां कृपणो नाम कश्चन ॥ ३६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
क्योंकि यदि ईश्वर सब प्राणियोंको इष्ट-अनिष्टरूप फल नहीं देते तो उन प्राणियोंमेंसे कोई भी दीन नहीं होता॥३६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यं यमर्थमभिप्रेप्सुः कुरुते कर्म पूरुषः।
तत्तत् सफलमेव स्याद् यदि न स्यात् पुरा कृतम्॥३७॥
मूलम्
यं यमर्थमभिप्रेप्सुः कुरुते कर्म पूरुषः।
तत्तत् सफलमेव स्याद् यदि न स्यात् पुरा कृतम्॥३७॥
अनुवाद (हिन्दी)
यदि पूर्वकृत प्रारब्धकर्म प्रभाव डालनेवाला न होता तो मनुष्य जिस-जिस प्रयोजनके अभिप्रायसे कर्म करता, वह सब सफल ही हो जाता॥३७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्रिद्वारामर्थसिद्धिं तु नानुपश्यन्ति ये नराः।
तथैवानर्थसिद्धिं च यथा लोकास्तथैव ते ॥ ३८ ॥
मूलम्
त्रिद्वारामर्थसिद्धिं तु नानुपश्यन्ति ये नराः।
तथैवानर्थसिद्धिं च यथा लोकास्तथैव ते ॥ ३८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अतः जो लोग अर्थसिद्धि तथा अनर्थकी प्राप्तिमें दैव, हठ और स्वभाव—इन तीनोंको कारण नहीं समझते, वे वैसे ही हैं, जैसे कि साधारण अज्ञ लोग होते हैं॥३८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कर्तव्यमेव कर्मेति मनोरेष विनिश्चयः।
एकान्तेन ह्यनीहोऽयं पराभवति पूरुषः ॥ ३९ ॥
मूलम्
कर्तव्यमेव कर्मेति मनोरेष विनिश्चयः।
एकान्तेन ह्यनीहोऽयं पराभवति पूरुषः ॥ ३९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
किंतु मनुका यह सिद्धान्त है कि कर्म करना ही चाहिये, जो बिलकुल कर्म छोड़कर निश्चेष्ट हो बैठ रहता है, वह पुरुष पराभवको प्राप्त होता है॥३९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कुर्वतो हि भवत्येव प्रायेणेह युधिष्ठिर।
एकान्तफलसिद्धिं तु न विन्दत्यलसः क्वचित् ॥ ४० ॥
मूलम्
कुर्वतो हि भवत्येव प्रायेणेह युधिष्ठिर।
एकान्तफलसिद्धिं तु न विन्दत्यलसः क्वचित् ॥ ४० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
(इसलिये मेरा तो कहना यह है कि) महाराज युधिष्ठिर! कर्म करनेवाले पुरुषको यहाँ प्रायः फलकी सिद्धि प्राप्त होती ही है। परंतु जो आलसी है, जिससे ठीक-ठीक कर्तव्यका पालन नहीं हो पाता, उसे कभी फलकी सिद्धि नहीं प्राप्त होती॥४०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
असम्भवे त्वस्य हेतुः प्रायश्चित्तं तु लक्षयेत्।
कृते कर्मणि राजेन्द्र तथानृण्यमवाप्नुते ॥ ४१ ॥
मूलम्
असम्भवे त्वस्य हेतुः प्रायश्चित्तं तु लक्षयेत्।
कृते कर्मणि राजेन्द्र तथानृण्यमवाप्नुते ॥ ४१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यदि कर्म करनेपर भी फलकी उत्पत्ति न हो तो कोई-न-कोई कारण है; ऐसा मानकर प्रायश्चित्त (उसके दोषके समाधान)-पर दृष्टि डाले। राजेन्द्र! कर्मको सांगोपांग कर लेनेपर कर्ता उऋण (निर्दोष) हो जाता है॥४१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अलक्ष्मीराविशत्येनं शयानमलसं नरम् ।
निःसंशयं फलं लब्ध्वा दक्षो भूतिमुपाश्नुते ॥ ४२ ॥
मूलम्
अलक्ष्मीराविशत्येनं शयानमलसं नरम् ।
निःसंशयं फलं लब्ध्वा दक्षो भूतिमुपाश्नुते ॥ ४२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो मनुष्य आलस्यके वशमें पड़कर सोता रहता है, उसे दरिद्रता प्राप्त होती है और कार्यकुशल मानव निश्चय ही अभीष्ट फल पाकर ऐश्वर्यका उपभोग करता है॥४२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनर्थाः संशयावस्थाः सिद्ध्यन्ते मुक्तसंशयाः।
धीरा नराः कर्मरता ननु निःसंशयाः क्वचित् ॥ ४३ ॥
मूलम्
अनर्थाः संशयावस्थाः सिद्ध्यन्ते मुक्तसंशयाः।
धीरा नराः कर्मरता ननु निःसंशयाः क्वचित् ॥ ४३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कर्मका फल होगा या नहीं, इस संशयमें पड़े हुए मनुष्य अर्थसिद्धिसे वंचित रह जाते हैं और जो संशयरहित हैं, उन्हें सिद्धि प्राप्त होती है। कर्मपरायण और संशयरहित धीर मनुष्य निश्चय ही कहीं बिरले देखे जाते हैं॥४३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एकान्तेन ह्यनर्थोऽयं वर्ततेऽस्मासु साम्प्रतम्।
स तु निःसंशयं न स्यात् त्वयि कर्मण्यवस्थिते ॥ ४४ ॥
मूलम्
एकान्तेन ह्यनर्थोऽयं वर्ततेऽस्मासु साम्प्रतम्।
स तु निःसंशयं न स्यात् त्वयि कर्मण्यवस्थिते ॥ ४४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस समय हमलोगोंपर राज्यापहरणरूप भारी विपद् आ पड़ी है, यदि आप कर्म (पुरुषार्थ)–में तत्परतासे लग जायँ तो निश्चय ही यह आपत्ति टल सकती है॥४४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथवा सिद्धिरेव स्यादभिमानं तदेव ते।
वृकोदरस्य बीभत्सोर्भ्रात्रोश्च यमयोरपि ॥ ४५ ॥
मूलम्
अथवा सिद्धिरेव स्यादभिमानं तदेव ते।
वृकोदरस्य बीभत्सोर्भ्रात्रोश्च यमयोरपि ॥ ४५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अथवा यदि कार्यकी सिद्धि ही हो जाय, तो वह आपके, भीमसेन और अर्जुनके तथा नकुल-सहदेवके लिये भी विशेष गौरवकी बात होगी॥४५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अन्येषां कर्म सफलमस्माकमपि वा पुनः।
विप्रकर्षेण बुध्येत कृतकर्मा यथाफलम् ॥ ४६ ॥
मूलम्
अन्येषां कर्म सफलमस्माकमपि वा पुनः।
विप्रकर्षेण बुध्येत कृतकर्मा यथाफलम् ॥ ४६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कर्मोंके कर लेनेपर अन्तमें कर्ताको जैसा फल मिलता है, उसके अनुसार ही यह जाना जा सकता है कि दूसरोंका कर्म सफल हुआ है या हमारा॥४६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पृथिवीं लाङ्गलेनेह भित्त्वा बीजं वपत्युत।
आस्तेऽथ कर्षकस्तूष्णीं पर्जन्यस्तत्र कारणम् ॥ ४७ ॥
वृष्टिश्चेन्नानुगृह्णीयादनेनास्तत्र कर्षकः ।
यदन्यः पुरुषः कुर्यात् तत् कृतं सफलं मया ॥ ४८ ॥
तच्चेदं फलमस्माकमपराधो न मे क्वचित्।
इति धीरोऽन्ववेक्ष्यैव नात्मानं तत्र गर्हयेत् ॥ ४९ ॥
मूलम्
पृथिवीं लाङ्गलेनेह भित्त्वा बीजं वपत्युत।
आस्तेऽथ कर्षकस्तूष्णीं पर्जन्यस्तत्र कारणम् ॥ ४७ ॥
वृष्टिश्चेन्नानुगृह्णीयादनेनास्तत्र कर्षकः ।
यदन्यः पुरुषः कुर्यात् तत् कृतं सफलं मया ॥ ४८ ॥
तच्चेदं फलमस्माकमपराधो न मे क्वचित्।
इति धीरोऽन्ववेक्ष्यैव नात्मानं तत्र गर्हयेत् ॥ ४९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
किसान हलसे पृथ्वीको चीरकर उसमें बीज बोता है और फिर चुपचाप बैठा रहता है; क्योंकि उसे सफल बनानेमें मेघ कारण हैं। यदि वृष्टिने अनुग्रह नहीं किया तो उसमें किसानका कोई दोष नहीं है। वह किसान मन-ही-मन यह सोचता है कि दूसरे लोग जोतने-बोनेका जो सफल कार्य जैसे करते हैं, वह सब मैंने भी किया है। उस दशामें यदि मुझे ऐसा प्रतिकूल फल मिला तो इसमें मेरा कोई अपराध नहीं है—ऐसा विचार करके उस असफलताके लिये वह बुद्धिमान् किसान अपनी निन्दा नहीं करता॥४७—४९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कुर्वतो नार्थसिद्धिर्मे भवतीति ह भारत।
निर्वेदो नात्र कर्तव्यो द्वावन्यौ ह्यत्र कारणम् ॥ ५० ॥
मूलम्
कुर्वतो नार्थसिद्धिर्मे भवतीति ह भारत।
निर्वेदो नात्र कर्तव्यो द्वावन्यौ ह्यत्र कारणम् ॥ ५० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भारत! पुरुषार्थ करनेपर भी यदि अपनेको सिद्धि न प्राप्त हो तो इस बातको लेकर मन-ही-मन खिन्न नहीं होना चाहिये; क्योंकि फलकी सिद्धिमें पुरुषार्थके सिवा दो और भी कारण हैं—प्रारब्ध और ईश्वरकृपा॥५०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सिद्धिर्वाप्यथवासिद्धिरप्रवृत्तिरतोऽन्यथा ।
बहूनां समवाये हि भावानां कर्म सिद्ध्यति ॥ ५१ ॥
मूलम्
सिद्धिर्वाप्यथवासिद्धिरप्रवृत्तिरतोऽन्यथा ।
बहूनां समवाये हि भावानां कर्म सिद्ध्यति ॥ ५१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाराज! कार्यमें सिद्धि प्राप्त होगी या असिद्धि, ऐसा संदेह मनमें लेकर आप कर्ममें प्रवृत्त ही न हों, यह उचित नहीं है; क्योंकि बहुत-से कारण एकत्र होनेपर ही कर्ममें सफलता मिलती है॥५१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुणाभावे फलं न्यूनं भवत्यफलमेव च।
अनारम्भे हि न फलं न गुणो दृश्यते क्वचित्॥५२॥
मूलम्
गुणाभावे फलं न्यूनं भवत्यफलमेव च।
अनारम्भे हि न फलं न गुणो दृश्यते क्वचित्॥५२॥
अनुवाद (हिन्दी)
कर्मोंमें किसी अंगकी कमी रह जानेपर थोड़ा फल हो सकता है। यह भी सम्भव है कि फल हो ही नहीं। परंतु कर्मका आरम्भ ही न किया जाय तब तो न कहीं फल दिखायी देगा और न कर्ताका कोई गुण (शौर्य आदि) ही दृष्टिगोचर होगा॥५२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
देशकालावुपायांश्च मङ्गलं स्वस्तिवृद्धये ।
युनक्ति मेधया धीरो यथाशक्ति यथाबलम् ॥ ५३ ॥
मूलम्
देशकालावुपायांश्च मङ्गलं स्वस्तिवृद्धये ।
युनक्ति मेधया धीरो यथाशक्ति यथाबलम् ॥ ५३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
धीर मनुष्य मंगलमय कल्याणकी वृद्धिके लिये अपनी बुद्धिके द्वारा शक्ति तथा बलका विचार करते हुए देश-कालके अनुसार साम-दाम आदि उपायोंका प्रयोग करे॥५३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अप्रमत्तेन तत् कार्यमुपदेष्टा पराक्रमः।
भूयिष्ठं कर्मयोगेषु दृष्ट एव पराक्रमः ॥ ५४ ॥
मूलम्
अप्रमत्तेन तत् कार्यमुपदेष्टा पराक्रमः।
भूयिष्ठं कर्मयोगेषु दृष्ट एव पराक्रमः ॥ ५४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सावधान होकर देश-कालके अनुरूप कार्य करे। इसमें पराक्रम ही उपदेशक (प्रधान) है। कार्यकी समस्त युक्तियोंमें पराक्रम ही सबसे श्रेष्ठ समझा गया है॥५४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यत्र धीमानवेक्षेत श्रेयांसं बहुभिर्गुणैः।
साम्नैवार्थं ततो लिप्सेत् कर्म चास्मै प्रयोजयेत् ॥ ५५ ॥
मूलम्
यत्र धीमानवेक्षेत श्रेयांसं बहुभिर्गुणैः।
साम्नैवार्थं ततो लिप्सेत् कर्म चास्मै प्रयोजयेत् ॥ ५५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जहाँ बुद्धिमान् पुरुष शत्रुको अनेक गुणोंसे श्रेष्ठ देखे, वहाँ सामनीतिसे ही काम बनानेकी इच्छा करे और उसके लिये जो सन्धि आदि आवश्यक कर्तव्य हो, करे॥५५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
व्यसनं वास्य काङ्क्षेत विवासं वा युधिष्ठिर।
अपि सिन्धोर्गिरेर्वापि किं पुनर्मर्त्यधर्मिणः ॥ ५६ ॥
मूलम्
व्यसनं वास्य काङ्क्षेत विवासं वा युधिष्ठिर।
अपि सिन्धोर्गिरेर्वापि किं पुनर्मर्त्यधर्मिणः ॥ ५६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाराज युधिष्ठिर! अथवा शत्रुपर कोई भारी संकट आने या देशसे उसके निकाले जानेकी प्रतीक्षा करे; क्योंकि अपना विरोधी यदि समुद्र अथवा पर्वत हो तो उसपर भी विपत्ति लानेकी इच्छा रखनी चाहिये, फिर जो मरणधर्मा मनुष्य है, उसके लिये तो कहना ही क्या है?॥५६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उत्थानयुक्तः सततं परेषामन्तरैषणे ।
आनृण्यमाप्नोति नरः परस्यात्मन एव च ॥ ५७ ॥
मूलम्
उत्थानयुक्तः सततं परेषामन्तरैषणे ।
आनृण्यमाप्नोति नरः परस्यात्मन एव च ॥ ५७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
शत्रुओंके छिद्रका अन्वेषण करनेके लिये सदा प्रयत्नशील रहे। ऐसा करनेसे वह अपनी और दूसरे लोगोंकी दृष्टिमें भी निर्दोष होता है॥५७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न त्वेवात्मावमन्तव्यः पुरुषेण कदाचन।
न ह्यात्मपरिभूतस्य भूतिर्भवति शोभना ॥ ५८ ॥
मूलम्
न त्वेवात्मावमन्तव्यः पुरुषेण कदाचन।
न ह्यात्मपरिभूतस्य भूतिर्भवति शोभना ॥ ५८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मनुष्य कभी अपने-आपका अनादर न करे—अपने-आपको छोटा न समझे। जो स्वयं ही अपना अनादर करता है, उसे उत्तम ऐश्वर्यकी प्राप्ति नहीं होती॥५८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं संस्थितिका सिद्धिरियं लोकस्य भारत।
तत्र सिद्धिर्गतिः प्रोक्ता कालावस्थाविभागतः ॥ ५९ ॥
मूलम्
एवं संस्थितिका सिद्धिरियं लोकस्य भारत।
तत्र सिद्धिर्गतिः प्रोक्ता कालावस्थाविभागतः ॥ ५९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भारत! लोकको इसी प्रकार कार्यसिद्धि प्राप्त होती है—कार्यसिद्धिकी यही व्यवस्था है। काल और अवस्थाके विभागके अनुसार शत्रुकी दुर्बलताके अन्वेषणका प्रयत्न ही सिद्धिका मूल कारण है॥५९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ब्राह्मणं मे पिता पूर्वं वासयामास पण्डितम्।
सोऽपि सर्वामिमां प्राह पित्रे मे भरतर्षभ ॥ ६० ॥
नीतिं बृहस्पतिप्रोक्तां भ्रातॄन् मेऽग्राहयत् पुरा।
तेषां सकाशादश्रौषमहमेतां तदा गृहे ॥ ६१ ॥
मूलम्
ब्राह्मणं मे पिता पूर्वं वासयामास पण्डितम्।
सोऽपि सर्वामिमां प्राह पित्रे मे भरतर्षभ ॥ ६० ॥
नीतिं बृहस्पतिप्रोक्तां भ्रातॄन् मेऽग्राहयत् पुरा।
तेषां सकाशादश्रौषमहमेतां तदा गृहे ॥ ६१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भरतश्रेष्ठ! पूर्वकालमें मेरे पिताजीने अपने घरपर एक विद्वान् ब्राह्मणको ठहराया था। उन्होंने ही पिताजीसे बृहस्पतिजीकी बतायी हुई इस सम्पूर्ण नीतिका प्रतिपादन किया था और मेरे भाइयोंको भी इसीकी शिक्षा दी थी। उस समय अपने भाइयोंके निकट रहकर घरमें ही मैंने भी उस नीतिको सुना था॥६०-६१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स मां राजन् कर्मवतीमागतामाह सान्त्वयन्।
शुश्रूषमाणामासीनां पितुरङ्के युधिष्ठिर ॥ ६२ ॥
मूलम्
स मां राजन् कर्मवतीमागतामाह सान्त्वयन्।
शुश्रूषमाणामासीनां पितुरङ्के युधिष्ठिर ॥ ६२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाराज युधिष्ठिर! मैं उस समय किसी कार्यसे पिताके पास आयी थी और यह सब सुननेकी इच्छासे उनकी गोदमें बैठ गयी थी। तभी उन ब्राह्मण देवताने मुझे सान्त्वना देते हुए इस नीतिका उपदेश किया था॥६२॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि अर्जुनाभिगमनपर्वणि द्रौपदीवाक्ये द्वात्रिंशोऽध्यायः ॥ ३२ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्वके अन्तर्गत अर्जुनाभिगमनपर्वमें द्रौपदीवाक्यविषयक बत्तीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥३२॥