०३१ युधिष्ठिरेण द्रौपदीसमाधानम्

श्रावणम् (द्युगङ्गा)
भागसूचना

एकत्रिंशोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

युधिष्ठिरद्वारा द्रौपदीके आक्षेपका समाधान तथा ईश्वर, धर्म और महापुरुषोंके आदरसे लाभ और अनादरसे हानि

मूलम् (वचनम्)

युधिष्ठिर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

वल्गु चित्रपदं श्लक्ष्णं याज्ञसेनि त्वया वचः।
उक्तं तच्छ्रुतमस्माभिर्नास्तिक्यं तु प्रभाषसे ॥ १ ॥

मूलम्

वल्गु चित्रपदं श्लक्ष्णं याज्ञसेनि त्वया वचः।
उक्तं तच्छ्रुतमस्माभिर्नास्तिक्यं तु प्रभाषसे ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिर बोले— यज्ञसेनकुमारी! तुमने जो बात कही है, वह सुननेमें बड़ी मनोहर, विचित्र पदावलीसे सुशोभित तथा बहुत सुन्दर है, मैंने उसे बड़े ध्यानसे सुना है। परंतु इस समय तुम (अज्ञानसे) नास्तिक मतका प्रतिपादन कर रही हो॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नाहं कर्मफलान्वेषी राजपुत्रि चराम्युत।
ददामि देयमित्येव यजे यष्टव्यमित्युत ॥ २ ॥

मूलम्

नाहं कर्मफलान्वेषी राजपुत्रि चराम्युत।
ददामि देयमित्येव यजे यष्टव्यमित्युत ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजकुमारी! मैं कर्मोंके फलकी इच्छा रखकर उनका अनुष्ठान नहीं करता; अपितु ‘देना कर्तव्य है’ यह समझकर दान देता हूँ और यज्ञको भी कर्तव्य मानकर ही उसका अनुष्ठान करता हूँ॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अस्तु वात्र फलं मा वा कर्तव्यं पुरुषेण यत्।
गृहे वा वसता कृष्णे यथाशक्ति करोमि तत् ॥ ३ ॥

मूलम्

अस्तु वात्र फलं मा वा कर्तव्यं पुरुषेण यत्।
गृहे वा वसता कृष्णे यथाशक्ति करोमि तत् ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कृष्णे! यहाँ उस कर्मका फल हो या न हो, गृहस्थ-आश्रममें रहनेवाले पुरुषका जो कर्तव्य है, मैं उसीका यथाशक्ति कर्तव्यबुद्धिसे पालन करता हूँ॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

धर्मं चरामि सुश्रोणि न धर्मफलकारणात्।
आगमाननतिक्रम्य सतां वृत्तमवेक्ष्य च ॥ ४ ॥
धर्म एव मनः कृष्णे स्वभावाच्चैव मे धृतम्।
धर्मवाणिज्यको हीनो जघन्यो धर्मवादिनाम् ॥ ५ ॥

मूलम्

धर्मं चरामि सुश्रोणि न धर्मफलकारणात्।
आगमाननतिक्रम्य सतां वृत्तमवेक्ष्य च ॥ ४ ॥
धर्म एव मनः कृष्णे स्वभावाच्चैव मे धृतम्।
धर्मवाणिज्यको हीनो जघन्यो धर्मवादिनाम् ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सुश्रोणि! मैं धर्मका फल पानेके लोभसे धर्मका आचरण नहीं करता, अपितु साधु पुरुषोंके आचार-व्यवहारको देखकर शास्त्रीय मर्यादाका उल्लंघन न करके स्वभावसे ही मेरा मन धर्मपालनमें लगा है। द्रौपदी! जो मनुष्य कुछ पानेकी इच्छासे धर्मका व्यापार करता है, वह धर्मवादी पुरुषोंकी दृष्टिमें हीन और निन्दनीय है॥४-५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न धर्मफलमाप्नोति यो धर्मं दोग्धुमिच्छति।
यश्चैनं शङ्कते कृत्वा नास्तिक्यात् पापचेतनः ॥ ६ ॥

मूलम्

न धर्मफलमाप्नोति यो धर्मं दोग्धुमिच्छति।
यश्चैनं शङ्कते कृत्वा नास्तिक्यात् पापचेतनः ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो पापात्मा मनुष्य नास्तिकतावश धर्मका अनुष्ठान करके उसके विषयमें शंका करता है अथवा धर्मको दुहना चाहता है अर्थात् धर्मके नामपर स्वार्थ सिद्ध करना चाहता है, उसे धर्मका फल बिलकुल नहीं मिलता॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अतिवादाद् वदाम्येष मा धर्ममभिशङ्किथाः।
धर्माभिशङ्की पुरुषस्तिर्यग्गतिपरायणः ॥ ७ ॥

मूलम्

अतिवादाद् वदाम्येष मा धर्ममभिशङ्किथाः।
धर्माभिशङ्की पुरुषस्तिर्यग्गतिपरायणः ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मैं सारे प्रमाणोंसे ऊपर उठकर केवल शास्त्रके आधारपर यह जोर देकर कह रहा हूँ कि तुम धर्मके विषयमें शंका न करो; क्योंकि धर्मपर संदेह करनेवाला मानव पशु-पक्षियोंकी योनिमें जन्म लेता है॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

धर्मो यस्याभिशङ्क्यः स्यादार्षं वा दुर्बलात्मनः।
वेदाच्छूद्र इवापेयात् स लोकादजरामरात् ॥ ८ ॥

मूलम्

धर्मो यस्याभिशङ्क्यः स्यादार्षं वा दुर्बलात्मनः।
वेदाच्छूद्र इवापेयात् स लोकादजरामरात् ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो धर्मके विषयमें संदेह रखता है अथवा जो दुर्बलात्मा पुरुष वेदादि शास्त्रोंपर अविश्वास करता है, वह जरा-मृत्युरहित परमधामसे उसी प्रकार वंचित रहता है, जैसे शूद्र वेदोंके अध्ययनसे॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वेदाध्यायी धर्मपरः कुले जातो मनस्विनि।
स्थविरेषु स योक्तव्यो राजर्षिर्धर्मचारिभिः ॥ ९ ॥

मूलम्

वेदाध्यायी धर्मपरः कुले जातो मनस्विनि।
स्थविरेषु स योक्तव्यो राजर्षिर्धर्मचारिभिः ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मनस्विनि! जो वेदका अध्ययन करनेवाला, धर्मपरायण और कुलीन हो, उस राजर्षिकी गणना धर्मात्मा पुरुषोंको वृद्धोंमें करनी चाहिये (वह आयुमें छोटा हो तो भी उसका वृद्ध पुरुषके समान आदर करना चाहिये)॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पापीयान् स हि शूद्रेभ्यस्तस्करेभ्यो विशिष्यते।
शास्त्रातिगो मन्दबुद्धिर्यो धर्ममभिशङ्कते ॥ १० ॥

मूलम्

पापीयान् स हि शूद्रेभ्यस्तस्करेभ्यो विशिष्यते।
शास्त्रातिगो मन्दबुद्धिर्यो धर्ममभिशङ्कते ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो मन्दबुद्धि पुरुष शास्त्रोंकी मर्यादाका उल्लंघन करके धर्मके विषयमें आशंका करता है, वह शूद्रों और चोरोंसे भी बढ़कर पापी है॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रत्यक्षं हि त्वया दृष्ट ऋषिर्गच्छन् महातपाः।
मार्कण्डेयोऽप्रमेयात्मा धर्मेण चिरजीविता ॥ ११ ॥

मूलम्

प्रत्यक्षं हि त्वया दृष्ट ऋषिर्गच्छन् महातपाः।
मार्कण्डेयोऽप्रमेयात्मा धर्मेण चिरजीविता ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तुमने अमेयात्मा महातपस्वी मार्कण्डेयजीको जो अभी यहाँसे गये हैं, प्रत्यक्ष देखा है। उन्हें धर्मपालनसे ही चिरजीविता प्राप्त हुई है॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

व्यासो वसिष्ठो मैत्रेयो नारदो लोमशः शुकः।
अन्ये च ऋषयः सर्वे धर्मेणैव सुचेतसः ॥ १२ ॥

मूलम्

व्यासो वसिष्ठो मैत्रेयो नारदो लोमशः शुकः।
अन्ये च ऋषयः सर्वे धर्मेणैव सुचेतसः ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

व्यास, वसिष्ठ, मैत्रेय, नारद, लोमश, शुक तथा अन्य सब महर्षि धर्मके पालनसे ही शुद्ध हृदयवाले हुए हैं॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रत्यक्षं पश्यसि ह्येतान् दिव्ययोगसमन्वितान्।
शापानुग्रहणे शक्तान् देवेभ्योऽपि गरीयसः ॥ १३ ॥

मूलम्

प्रत्यक्षं पश्यसि ह्येतान् दिव्ययोगसमन्वितान्।
शापानुग्रहणे शक्तान् देवेभ्योऽपि गरीयसः ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तुम अपनी आँखों इन सबको देखती हो, ये दिव्य योगशक्तिसे सम्पन्न, शाप और अनुग्रहमें समर्थ तथा देवताओंसे भी अधिक गौरवशाली हैं॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एते हि धर्ममेवादौ वर्णयन्ति सदानघे।
कर्तव्यममरप्रख्याः प्रत्यक्षागमबुद्धयः ॥ १४ ॥

मूलम्

एते हि धर्ममेवादौ वर्णयन्ति सदानघे।
कर्तव्यममरप्रख्याः प्रत्यक्षागमबुद्धयः ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अनघे! ये अमरोंके समान विख्यात तथा वेदगम्य विषयको भी प्रत्यक्ष देखनेवाले महर्षि धर्मको ही सबसे प्रथम आचरणमें लानेयोग्य बताते हैं॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अतो नार्हसि कल्याणि धातारं धर्ममेव च।
राज्ञि मूढेन मनसा क्षेप्तुं शङ्कितुमेव च ॥ १५ ॥

मूलम्

अतो नार्हसि कल्याणि धातारं धर्ममेव च।
राज्ञि मूढेन मनसा क्षेप्तुं शङ्कितुमेव च ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अतः कल्याणमयी महारानी द्रौपदी! तुम्हें मूर्खतायुक्त मनके द्वारा ईश्वर और धर्मपर आक्षेप एवं आशंका नहीं करनी चाहिये॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उन्मत्तान् मन्यते बालः सर्वानागतनिश्चयान्।
धर्माभिशङ्को नान्यस्मात् प्रमाणमधिगच्छति ॥ १६ ॥

मूलम्

उन्मत्तान् मन्यते बालः सर्वानागतनिश्चयान्।
धर्माभिशङ्को नान्यस्मात् प्रमाणमधिगच्छति ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

धर्मके विषयमें संशय रखनेवाला बालबुद्धि मानव जिन्हें धर्मके तत्त्वका निश्चय हो गया है, उन समस्त ज्ञानीजनोंको उन्मत्त समझता है; अतः वह बालबुद्धि दूसरे किसीसे कोई शास्त्र-प्रमाण नहीं ग्रहण करता॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आत्मप्रमाण उन्नद्धः श्रेयसो ह्यवमन्यकः।
इन्द्रियप्रीतिसम्बद्धं यदिदं लोकसाक्षिकम् ।
एतावन्मन्यते बालो मोहमन्यत्र गच्छति ॥ १७ ॥

मूलम्

आत्मप्रमाण उन्नद्धः श्रेयसो ह्यवमन्यकः।
इन्द्रियप्रीतिसम्बद्धं यदिदं लोकसाक्षिकम् ।
एतावन्मन्यते बालो मोहमन्यत्र गच्छति ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

केवल अपनी बुद्धिको ही प्रमाण माननेवाला उद्‌दण्ड मानव श्रेष्ठ पुरुषों एवं उत्तम धर्मकी अवहेलना करता है; क्योंकि वह मूढ़ इन्द्रियोंकी आसक्तिसे सम्बन्ध रखनेवाले इस लोक-प्रत्यक्ष दृश्य जगत्‌की ही सत्ता स्वीकार करता है। अप्रत्यक्ष वस्तुके विषयमें उसकी बुद्धि मोहमें पड़ जाती है॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रायश्चित्तं न तस्यास्ति यो धर्ममभिशङ्कते।
ध्यायन् स कृपणः पापो न लोकान् प्रतिपद्यते ॥ १८ ॥

मूलम्

प्रायश्चित्तं न तस्यास्ति यो धर्ममभिशङ्कते।
ध्यायन् स कृपणः पापो न लोकान् प्रतिपद्यते ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो धर्मके प्रति संदेह करता है, उसकी शुद्धिके लिये कोई प्रायश्चित्त नहीं है। वह धर्मविरोधी चिन्तन करनेवाला दीन पापात्मा पुरुष उत्तम लोकोंको नहीं पाता अर्थात् अधोगतिको प्राप्त होता है॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रमाणाद्धि निवृत्तो हि वेदशास्त्रार्थनिन्दकः।
कामलोभातिगो मूढो नरकं प्रतिपद्यते ॥ १९ ॥

मूलम्

प्रमाणाद्धि निवृत्तो हि वेदशास्त्रार्थनिन्दकः।
कामलोभातिगो मूढो नरकं प्रतिपद्यते ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो मूर्ख प्रमाणोंकी ओरसे मुँह मोड़ लेता है, वेद और शास्त्रोंके सिद्धान्तकी निन्दा करता है तथा काम एवं लोभके अत्यन्त परायण है, वह नरकमें पड़ता है॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यस्तु नित्यं कृतमतिर्धर्ममेवाभिपद्यते ।
अशङ्कमानः कल्याणि सोऽमुत्रानन्त्यमश्नुते ॥ २० ॥

मूलम्

यस्तु नित्यं कृतमतिर्धर्ममेवाभिपद्यते ।
अशङ्कमानः कल्याणि सोऽमुत्रानन्त्यमश्नुते ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कल्याणी! जो सदा धर्मके विषयमें पूर्ण निश्चय रखनेवाला है और सब प्रकारकी आशंकाएँ छोड़कर धर्मकी ही शरण लेता है, वह परलोकमें अक्षय अनन्त सुखका भागी होता है अर्थात् परमात्माको प्राप्त हो जाता है॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आर्षं प्रमाणमुत्क्रम्य धर्मं न प्रतिपालयन्।
सर्वशास्त्रातिगो मूढः शं जन्मसु न विन्दति ॥ २१ ॥

मूलम्

आर्षं प्रमाणमुत्क्रम्य धर्मं न प्रतिपालयन्।
सर्वशास्त्रातिगो मूढः शं जन्मसु न विन्दति ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो मूढ़ मानव आर्ष-ग्रन्थोंके प्रमाणकी अवहेलना करके समस्त शास्त्रोंके विपरीत आचरण करते हुए धर्मका पालन नहीं करता, वह जन्म-जन्मान्तरोंमें भी कभी कल्याणका भागी नहीं होता॥२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यस्य नार्षं प्रमाणं स्याच्छिष्टाचारश्च भाविनि।
न वै तस्य परो लोको नायमस्तीति निश्चयः ॥ २२ ॥

मूलम्

यस्य नार्षं प्रमाणं स्याच्छिष्टाचारश्च भाविनि।
न वै तस्य परो लोको नायमस्तीति निश्चयः ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भाविनि! जिसकी दृष्टिमें ऋषियोंके वचन और शिष्ट पुरुषोंके आचार प्रमाणभूत नहीं हैं, उसके लिये न यह लोक है और न परलोक, यह तत्त्ववेत्ता महापुरुषोंका निश्चय है॥२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शिष्टैराचरितं धर्मं कृष्णे मा स्माभिशङ्किथाः।
पुराणमृषिभिः प्रोक्तं सर्वज्ञैः सर्वदर्शिभिः ॥ २३ ॥

मूलम्

शिष्टैराचरितं धर्मं कृष्णे मा स्माभिशङ्किथाः।
पुराणमृषिभिः प्रोक्तं सर्वज्ञैः सर्वदर्शिभिः ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कृष्णे! सर्वज्ञ और सर्वद्रष्टा महर्षियोंद्वारा प्रतिपादित तथा शिष्ट पुरुषोंद्वारा आचरित पुरातन धर्मपर शंका नहीं करनी चाहिये॥२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

धर्म एव प्लवो नान्यः स्वर्गं द्रौपदि गच्छताम्।
सैव नौः सागरस्येव वणिजः पारमिच्छतः ॥ २४ ॥

मूलम्

धर्म एव प्लवो नान्यः स्वर्गं द्रौपदि गच्छताम्।
सैव नौः सागरस्येव वणिजः पारमिच्छतः ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

द्रुपदकुमारी! जैसे समुद्रके पार जानेकी इच्छा-वाले वणिक्‌के लिये जहाजकी आवश्यकता है, वैसे ही स्वर्गमें जानेवालोंके लिये धर्माचरण ही जहाज है, दूसरा नहीं॥२४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अफलो यदि धर्मः स्याच्चरितो धर्मचारिभिः।
अप्रतिष्ठे तमस्येतज्जगन्मज्जेदनिन्दिते ॥ २५ ॥

मूलम्

अफलो यदि धर्मः स्याच्चरितो धर्मचारिभिः।
अप्रतिष्ठे तमस्येतज्जगन्मज्जेदनिन्दिते ॥ २५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

साध्वी द्रौपदी! यदि धर्मपरायण पुरुषोंद्वारा पालित धर्म निष्फल होता तो सम्पूर्ण जगत् असीम अन्धकारमें निमग्न हो जाता॥२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

निर्वाणं नाधिगच्छेयुर्जीवेयुः पशुजीविकाम् ।
विद्यां ते नैव युज्येयुर्न चार्थं केचिदाप्नुयुः ॥ २६ ॥

मूलम्

निर्वाणं नाधिगच्छेयुर्जीवेयुः पशुजीविकाम् ।
विद्यां ते नैव युज्येयुर्न चार्थं केचिदाप्नुयुः ॥ २६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यदि धर्म निष्फल होता तो धर्मात्मा पुरुष मोक्ष नहीं पाते, कोई विद्याकी प्राप्तिमें नहीं लगते, कोई भी प्रयोजनसिद्धिके लिये प्रयत्न नहीं करते और सभी पशुओंका-सा जीवन व्यतीत करते॥२६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तपश्च ब्रह्मचर्यं च यज्ञः स्वाध्याय एव च।
दानमार्जवमेतानि यदि स्युरफलानि वै ॥ २७ ॥
नाचरिष्यन् परे धर्मं परे परतरे च ये।
विप्रलम्भोऽयमत्यन्तं यदि स्युरफलाः क्रियाः ॥ २८ ॥
ऋषयश्चैव देवाश्च गन्धर्वासुरराक्षसाः ।
ईश्वराः कस्य हेतोस्ते चरेयुर्धर्ममादृताः ॥ २९ ॥

मूलम्

तपश्च ब्रह्मचर्यं च यज्ञः स्वाध्याय एव च।
दानमार्जवमेतानि यदि स्युरफलानि वै ॥ २७ ॥
नाचरिष्यन् परे धर्मं परे परतरे च ये।
विप्रलम्भोऽयमत्यन्तं यदि स्युरफलाः क्रियाः ॥ २८ ॥
ऋषयश्चैव देवाश्च गन्धर्वासुरराक्षसाः ।
ईश्वराः कस्य हेतोस्ते चरेयुर्धर्ममादृताः ॥ २९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यदि तप, ब्रह्मचर्य, यज्ञ, स्वाध्याय, दान और सरलता आदि धर्म निष्फल होते तो पहले जो श्रेष्ठ और श्रेष्ठतर पुरुष हुए हैं वे धर्मका आचरण नहीं करते। यदि धार्मिक क्रियाओंका कुछ फल नहीं होता, वे सब निरी ठगविद्या होतीं तो ऋषि, देवता, गन्धर्व, असुर तथा राक्षस प्रभावशाली होते हुए भी किसलिये आदरपूर्वक धर्मका आचरण करते॥२७—२९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

फलदं त्विह विज्ञाय धातारं श्रेयसि ध्रुवम्।
धर्मं ते व्यचरन् कृष्णे तद्धि श्रेयः सनातनम् ॥ ३० ॥

मूलम्

फलदं त्विह विज्ञाय धातारं श्रेयसि ध्रुवम्।
धर्मं ते व्यचरन् कृष्णे तद्धि श्रेयः सनातनम् ॥ ३० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कृष्णे! यहाँ धर्मका फल देनेवाले ईश्वर अवश्य हैं, यह बात जानकर ही उन ऋषि आदिकोंने धर्मका आचरण किया है। धर्म ही सनातन श्रेय है॥३०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स नायमफलो धर्मो नाधर्मोऽफलवानपि।
दृश्यन्तेऽपि हि विद्यानां फलानि तपसां तथा ॥ ३१ ॥
त्वमात्मनो विजानीहि जन्म कृष्णे यथा श्रुतम्।
वेत्थ चापि यथा जातो धृष्टद्युम्नः प्रतापवान् ॥ ३२ ॥

मूलम्

स नायमफलो धर्मो नाधर्मोऽफलवानपि।
दृश्यन्तेऽपि हि विद्यानां फलानि तपसां तथा ॥ ३१ ॥
त्वमात्मनो विजानीहि जन्म कृष्णे यथा श्रुतम्।
वेत्थ चापि यथा जातो धृष्टद्युम्नः प्रतापवान् ॥ ३२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

धर्म निष्फल नहीं होता। अधर्म भी अपना फल दिये बिना नहीं रहता। विद्या और तपस्याके भी फल देखे जाते हैं। कृष्णे! तुम अपने जन्मके प्रसिद्ध वृत्तान्तको ही स्मरण करो। तुम्हारा प्रतापी भाई धृष्टद्युम्न जिस प्रकार उत्पन्न हुआ है, यह भी तुम जानती हो॥३१-३२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतावदेव पर्याप्तमुपमानं शुचिस्मिते ।
कर्मणां फलमाप्नोति धीरोऽल्पेनापि तुष्यति ॥ ३३ ॥

मूलम्

एतावदेव पर्याप्तमुपमानं शुचिस्मिते ।
कर्मणां फलमाप्नोति धीरोऽल्पेनापि तुष्यति ॥ ३३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पवित्र मुसकानवाली द्रौपदी! इतना ही दृष्टान्त देना पर्याप्त है। धीर पुरुष कर्मोंका फल पाता है और थोड़े-से फलसे भी संतुष्ट हो जाता है॥३३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बहुनापि ह्यविद्वांसो नैव तुष्यन्त्यबुद्धयः।
तेषां न धर्मजं किंचित् प्रेत्य शर्मास्ति वा पुनः॥३४॥

मूलम्

बहुनापि ह्यविद्वांसो नैव तुष्यन्त्यबुद्धयः।
तेषां न धर्मजं किंचित् प्रेत्य शर्मास्ति वा पुनः॥३४॥

अनुवाद (हिन्दी)

परंतु बुद्धिहीन अज्ञानी मनुष्य बहुत पाकर भी संतुष्ट नहीं होते। उन्हें परलोकमें धर्मजनित थोड़ा-सा भी सुख नहीं मिलता॥३४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कर्मणां श्रुतपुण्यानां पापानां च फलोदयः।
प्रभवश्चात्ययश्चैव देवगुह्यानि भाविनि ॥ ३५ ॥

मूलम्

कर्मणां श्रुतपुण्यानां पापानां च फलोदयः।
प्रभवश्चात्ययश्चैव देवगुह्यानि भाविनि ॥ ३५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भामिनि! वेदोक्त पुण्य देनेवाले सत्कर्मों और अनिष्टकारी पापकर्मोंका फलोदय तथा उत्पत्ति और प्रलय—ये सब देवगुह्य हैं (देवता ही उन्हें जानते हैं)॥३५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नैतानि वेद यः कश्चिन्मुह्यन्तेऽत्र प्रजा इमाः।
अपि कल्पसहस्रेण न स श्रेयोऽधिगच्छति ॥ ३६ ॥

मूलम्

नैतानि वेद यः कश्चिन्मुह्यन्तेऽत्र प्रजा इमाः।
अपि कल्पसहस्रेण न स श्रेयोऽधिगच्छति ॥ ३६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इन देवगुह्य विषयोंमें साधारण लोग मोहित हो जाते हैं। जो इन सबको तात्त्विकरूपसे नहीं जानता है, वह सहस्रों कल्पोंमें भी कल्याणका भागी नहीं हो सकता॥३६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रक्ष्याण्येतानि देवानां गूढमाया हि देवताः।
कृताशाश्च व्रताशाश्च तपसा दग्धकिल्बिषाः।
प्रसादैर्मानसैर्युक्ताः पश्यन्त्येतानि वै द्विजाः ॥ ३७ ॥

मूलम्

रक्ष्याण्येतानि देवानां गूढमाया हि देवताः।
कृताशाश्च व्रताशाश्च तपसा दग्धकिल्बिषाः।
प्रसादैर्मानसैर्युक्ताः पश्यन्त्येतानि वै द्विजाः ॥ ३७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इन सब विषयोंको देवतालोग गुप्त रखते हैं। देवताओंकी माया भी गूढ़ (दुर्बोध) है। जो आशाका परित्याग करके सात्त्विक हितकर एवं पवित्र आहार करनेवाले हैं। तपस्यासे जिनके सारे पाप दग्ध हो गये हैं तथा जो मानसिक प्रसन्नतासे युक्त हैं, वे द्विज ही इन देवगुह्य विषयोंको देख पाते हैं॥३७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न फलादर्शनाद् धर्मः शङ्कितव्यो न देवताः।
यष्टव्यं च प्रयत्नेन दातव्यं चानसूयता ॥ ३८ ॥

मूलम्

न फलादर्शनाद् धर्मः शङ्कितव्यो न देवताः।
यष्टव्यं च प्रयत्नेन दातव्यं चानसूयता ॥ ३८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

धर्मका फल तुरंत दिखायी न दे तो इसके कारण धर्म एवं देवताओंपर आशंका नहीं करनी चाहिये। दोषदृष्टि न रखते हुए यत्नपूर्वक यज्ञ और दान करते रहना चाहिये॥३८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कर्मणां फलमस्तीह तथैतद् धर्मशासनम्।
ब्रह्मा प्रोवाच पुत्राणां यदृषिर्वेद कश्यपः ॥ ३९ ॥

मूलम्

कर्मणां फलमस्तीह तथैतद् धर्मशासनम्।
ब्रह्मा प्रोवाच पुत्राणां यदृषिर्वेद कश्यपः ॥ ३९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कर्मोंका फल यहाँ अवश्य प्राप्त होता है, यह धर्मशास्त्रका विधान है। यह बात ब्रह्माजीने अपने पुत्रोंसे कही है, जिसे कश्यप ऋषि जानते हैं॥३९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्मात् ते संशयः कृष्णे नीहार इव नश्यतु।
व्यवस्य सर्वमस्तीति नास्तिक्यं भावमुत्सृज ॥ ४० ॥

मूलम्

तस्मात् ते संशयः कृष्णे नीहार इव नश्यतु।
व्यवस्य सर्वमस्तीति नास्तिक्यं भावमुत्सृज ॥ ४० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसलिये कृष्णे! सब कुछ सत्य है, ऐसा निश्चय करके तुम्हारा धर्मविषयक संदेह कुहरेकी भाँति नष्ट हो जाना चाहिये। तुम अपने इस नास्तिकतापूर्ण विचारको त्याग दो॥४०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ईश्वरं चापि भूतानां धातारं मा च वै क्षिप।
शिक्षस्वैनं नमस्वैनं मा तेऽभूद् बुद्धिरीदृशी ॥ ४१ ॥

मूलम्

ईश्वरं चापि भूतानां धातारं मा च वै क्षिप।
शिक्षस्वैनं नमस्वैनं मा तेऽभूद् बुद्धिरीदृशी ॥ ४१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

और समस्त प्राणियोंका भरण-पोषण करनेवाले ईश्वरपर आक्षेप बिलकुल न करो। तुम शास्त्र और गुरुजनोंके उपदेशानुसार ईश्वरको समझनेकी चेष्टा करो और उन्हींको नमस्कार करो। आज जैसी तुम्हारी बुद्धि है, वैसी नहीं रहनी चाहिये॥४१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यस्य प्रसादात् तद्भक्तो मर्त्यो गच्छत्यमर्त्यताम्।
उत्तमां देवतां कृष्णे मावमंस्थाः कथंचन ॥ ४२ ॥

मूलम्

यस्य प्रसादात् तद्भक्तो मर्त्यो गच्छत्यमर्त्यताम्।
उत्तमां देवतां कृष्णे मावमंस्थाः कथंचन ॥ ४२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कृष्णे! जिनके कृपाप्रसादसे उनके प्रति भक्तिभाव रखनेवाला मरणधर्मा मनुष्य अमरत्वको प्राप्त हो जाता है, उन परमदेव परमेश्वरकी तुमको किसी प्रकार अवहेलना नहीं करनी चाहिये॥४२॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि अर्जुनाभिगमनपर्वणि युधिष्ठिरवाक्ये एकत्रिंशोऽध्यायः ॥ ३१ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्वके अन्तर्गत अर्जुनाभिगमनपर्वमें युधिष्ठिरवाक्यविषयक इकतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥३१॥