०३० द्रौपदीकृतं युधिष्ठिरतर्जनम्

श्रावणम् (द्युगङ्गा)
भागसूचना

त्रिंशोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

दुःखसे मोहित द्रौपदीका युधिष्ठिरकी बुद्धि, धर्म एवं ईश्वरके न्यायपर आक्षेप

मूलम् (वचनम्)

द्रौपद्युवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

नमो थात्रे विधात्रे च यौ मोहं चक्रतुस्तव।
पितृपैतामहे वृत्ते वोढव्ये तेऽन्यथा मतिः ॥ १ ॥

मूलम्

नमो थात्रे विधात्रे च यौ मोहं चक्रतुस्तव।
पितृपैतामहे वृत्ते वोढव्ये तेऽन्यथा मतिः ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

द्रौपदीने कहा— राजन्! उस धाता (ईश्वर) और विधाता (प्रारब्ध)-को नमस्कार हैं, जिन्होंने आपकी बुद्धिमें मोह उत्पन्न कर दिया। पिता-पितामहोंके आचारका भार वहन करनेमें भी आपका विचार दिखायी देता है॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कर्मभिश्चिन्तितो लोको गत्यां गत्यां पृथग्विधः।
तस्मात् कर्माणि नित्यानि लोभान्मोक्षं यियासति ॥ २ ॥
नेह धर्मानृशंस्याभ्यां न क्षान्त्या नार्जवेन च।
पुरुषः श्रियमाप्नोति न घृणित्वेन कर्हिचित् ॥ ३ ॥

मूलम्

कर्मभिश्चिन्तितो लोको गत्यां गत्यां पृथग्विधः।
तस्मात् कर्माणि नित्यानि लोभान्मोक्षं यियासति ॥ २ ॥
नेह धर्मानृशंस्याभ्यां न क्षान्त्या नार्जवेन च।
पुरुषः श्रियमाप्नोति न घृणित्वेन कर्हिचित् ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कर्मोंके अनुसार उत्तम, मध्यम, अधम योनिमें भिन्न-भिन्न लोकोंकी प्राप्ति बतलायी गयी है, अतः कर्म नित्य हैं (भोगे बिना उन कर्मोंका क्षय नहीं होता)। मूर्ख लोग लोभसे ही मोक्ष पानेकी इच्छा रखते हैं। इस जगत्‌में धर्म, कोमलता, क्षमा, विनय और दयासे कोई भी मनुष्य कभी धन और ऐश्वर्यकी प्राप्ति नहीं कर सकता॥२-३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्वां च व्यसनमभ्यागादिदं भारत दुःसहम्।
यत् त्वं नार्हसि नापीमे भ्रातरस्ते महौजसः ॥ ४ ॥

मूलम्

त्वां च व्यसनमभ्यागादिदं भारत दुःसहम्।
यत् त्वं नार्हसि नापीमे भ्रातरस्ते महौजसः ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भारत! इसी कारण तो आपपर भी यह दुःसह संकट आ गया, जिसके योग्य न तो आप हैं और न आपके महातेजस्वी ये भाई ही हैं॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न हि तेऽध्यगमञ्जातु तदानीं नाद्य भारत।
धर्मात् प्रियतरं किंचिदपि चेज्जीवितादिह ॥ ५ ॥

मूलम्

न हि तेऽध्यगमञ्जातु तदानीं नाद्य भारत।
धर्मात् प्रियतरं किंचिदपि चेज्जीवितादिह ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतकुलतिलक! आपके भाइयोंने न तो पहले कभी और न आज ही धर्मसे अधिक प्रिय दूसरी किसी वस्तुको समझा है। अपितु धर्मको जीवनसे भी बढ़कर माना है॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

धर्मार्थमेव ते राज्यं धर्मार्थं जीवितं च ते।
ब्राह्मणा गुरवश्चैव जानन्त्यापि च देवताः ॥ ६ ॥

मूलम्

धर्मार्थमेव ते राज्यं धर्मार्थं जीवितं च ते।
ब्राह्मणा गुरवश्चैव जानन्त्यापि च देवताः ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

आपका राज्य धर्मके लिये ही है, आपका जीवन भी धर्मके लिये ही है। ब्राह्मण, गुरुजन और देवता सभी इस बातको जानते हैं॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भीमसेनार्जुनौ चोभौ माद्रेयौ च मया सह।
त्यजेस्त्वमिति मे बुद्धिर्न तु धर्मं परित्यजेः ॥ ७ ॥

मूलम्

भीमसेनार्जुनौ चोभौ माद्रेयौ च मया सह।
त्यजेस्त्वमिति मे बुद्धिर्न तु धर्मं परित्यजेः ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मुझे विश्वास है कि आप मेरेसहित भीमसेन, अर्जुन और नकुल-सहदेवको भी त्याग देंगे; किंतु धर्मका त्याग नहीं करेंगे॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

राजानं धर्मगोप्तारं धर्मो रक्षति रक्षितः।
इति मे श्रुतमार्याणां त्वां तु मन्ये न रक्षति॥८॥

मूलम्

राजानं धर्मगोप्तारं धर्मो रक्षति रक्षितः।
इति मे श्रुतमार्याणां त्वां तु मन्ये न रक्षति॥८॥

अनुवाद (हिन्दी)

मैंने आर्योंके मुँहसे सुना है कि यदि धर्मकी रक्षा की जाय तो वह धर्मरक्षक राजाकी स्वयं भी रक्षा करता है। किंतु मुझे मालूम होता है कि वह आपकी रक्षा नहीं कर रहा है॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अनन्या हि नरव्याघ्र नित्यदा धर्ममेव ते।
बुद्धिः सततमन्वेति च्छायेव पुरुषं निजा ॥ ९ ॥

मूलम्

अनन्या हि नरव्याघ्र नित्यदा धर्ममेव ते।
बुद्धिः सततमन्वेति च्छायेव पुरुषं निजा ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नरश्रेष्ठ! जैसे अपनी छाया सदा मनुष्यके पीछे चलती है, उसी प्रकार आपकी बुद्धि सदा अनन्यभावसे धर्मका ही अनुसरण करती है॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नावमंस्था हि सदृशान् नावराञ्छ्रेयसः कुतः।
अवाप्य पृथिवीं कृत्स्नां न ते शृङ्गमवर्धत ॥ १० ॥

मूलम्

नावमंस्था हि सदृशान् नावराञ्छ्रेयसः कुतः।
अवाप्य पृथिवीं कृत्स्नां न ते शृङ्गमवर्धत ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

आपने अपने समान और अपनेसे छोटोंका भी कभी अपमान नहीं किया। फिर अपनेसे बड़ोंका तो करते ही कैसे? सारी पृथ्वीका राज्य पाकर भी आपका प्रभुताविषयक अहंकार कभी नहीं बढ़ा॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्वाहाकारैः स्वधाभिश्च पूजाभिरपि च द्विजान्।
दैवतानि पितॄंश्चैव सततं पार्थ सेवसे ॥ ११ ॥

मूलम्

स्वाहाकारैः स्वधाभिश्च पूजाभिरपि च द्विजान्।
दैवतानि पितॄंश्चैव सततं पार्थ सेवसे ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कुन्तीनन्दन! आप स्वाहा, स्वधा और पूजाके द्वारा देवताओं, पितरों और ब्राह्मणोंकी सदा सेवा करते रहते हैं॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ब्राह्मणाः सर्वकामैस्ते सततं पार्थ तर्पिताः।
यतयो मोक्षिणश्चैव गृहस्थाश्चैव भारत ॥ १२ ॥
भुञ्जते रुक्मपात्रीभिर्यत्राहं परिचारिका ।
आरण्यकेभ्यो लौहानि भाजनानि प्रयच्छसि।
नादेयं ब्राह्मणेभ्यस्ते गृहे किंचन विद्यते ॥ १३ ॥

मूलम्

ब्राह्मणाः सर्वकामैस्ते सततं पार्थ तर्पिताः।
यतयो मोक्षिणश्चैव गृहस्थाश्चैव भारत ॥ १२ ॥
भुञ्जते रुक्मपात्रीभिर्यत्राहं परिचारिका ।
आरण्यकेभ्यो लौहानि भाजनानि प्रयच्छसि।
नादेयं ब्राह्मणेभ्यस्ते गृहे किंचन विद्यते ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पार्थ! आपने ब्राह्मणोंकी समस्त कामनाएँ पूरी करके सदा उन्हें तृप्त किया है। भारत! आपके यहाँ मोक्षाभिलाषी संन्यासी तथा गृहस्थ ब्राह्मण सोनेके पात्रोंमें भोजन करते थे। जहाँ स्वयं मैं अपने हाथों उनकी सेवा-टहल करती थी। वानप्रस्थोंको भी आप सोनेके पात्र दिया करते थे। आपके घरमें कोई ऐसी वस्तु नहीं थी, जो ब्राह्मणोंके लिये अदेय हो॥१२-१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यदिदं वैश्वदेवं ते शान्तये क्रियते गृहे।
तद् दत्त्वातिथिभूतेभ्यो राजञ्छिष्टेन जीवसि ॥ १४ ॥

मूलम्

यदिदं वैश्वदेवं ते शान्तये क्रियते गृहे।
तद् दत्त्वातिथिभूतेभ्यो राजञ्छिष्टेन जीवसि ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! आपके द्वारा शान्तिके लिये जो घरमें यह वैश्वदेव कर्म किया जाता है, उसमें अतिथियों और प्राणियोंके लिये अन्न देकर आप अवशिष्ट अन्नके द्वारा जीवन-निर्वाह करते हैं॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इष्टयः पशुबन्धाश्च काम्यनैमित्तिकाश्च ये।
वर्तन्ते पाकयज्ञाश्च यज्ञकर्म च नित्यदा ॥ १५ ॥

मूलम्

इष्टयः पशुबन्धाश्च काम्यनैमित्तिकाश्च ये।
वर्तन्ते पाकयज्ञाश्च यज्ञकर्म च नित्यदा ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इष्टि (पूजा), पशुबन्ध (पशुओंको बाँधना), काम्य याग, नैमित्तिक याग, पाकयज्ञ तथा नित्ययज्ञ—ये सब भी आपके यहाँ बराबर चलते रहते हैं॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अस्मिन्नपि महारण्ये विजने दस्युसेविते।
राष्ट्रादपेत्य वसतो धर्मस्ते नावसीदति ॥ १६ ॥

मूलम्

अस्मिन्नपि महारण्ये विजने दस्युसेविते।
राष्ट्रादपेत्य वसतो धर्मस्ते नावसीदति ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

आप राज्यसे निकलकर लुटेरोंद्वारा सेवित इस निर्जन महावनमें निवास कर रहे हैं, तो भी आपका धर्मकार्य कभी शिथिल नहीं हुआ है॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अश्वमेधो राजसूयः पुण्डरीकोऽथ गोसवः।
एतैरपि महायज्ञैरिष्टं ते भूरिदक्षिणैः ॥ १७ ॥

मूलम्

अश्वमेधो राजसूयः पुण्डरीकोऽथ गोसवः।
एतैरपि महायज्ञैरिष्टं ते भूरिदक्षिणैः ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अश्वमेध, राजसूय, पुण्डरीक तथा गोसव—इन सभी महायज्ञोंका आपने प्रचुर दक्षिणादानपूर्वक अनुष्ठान किया है॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

राजन् परीतया बुद्ध्या विषमेऽक्षपराजये।
राज्यं वसून्यायुधानि भ्रातॄन् मां चासि निर्जितः ॥ १८ ॥

मूलम्

राजन् परीतया बुद्ध्या विषमेऽक्षपराजये।
राज्यं वसून्यायुधानि भ्रातॄन् मां चासि निर्जितः ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

परंतु महाराज! उस कपट द्यूतजनित पराजयके समय आपकी बुद्धि विपरीत हो गयी, जिसके कारण आप राज्य, धन, आयुध तथा भाइयोंको और मुझे भी दावँपर रखकर हार गये॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ऋजोर्मृदोर्वदान्यस्य ह्रीमतः सत्यवादिनः ।
कथमक्षव्यसनजा बुद्धिरापतिता तव ॥ १९ ॥

मूलम्

ऋजोर्मृदोर्वदान्यस्य ह्रीमतः सत्यवादिनः ।
कथमक्षव्यसनजा बुद्धिरापतिता तव ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

आप सरल, कोमल, उदार, लज्जाशील और सत्यवादी हैं। न जाने कैसे आपकी बुद्धिमें जूआ खेलनेका व्यसन आ गया॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अतीव मोहमायाति मनश्च परिभूयते।
निशाम्य ते दुःखमिदमिमां चापदमीदृशीम् ॥ २० ॥

मूलम्

अतीव मोहमायाति मनश्च परिभूयते।
निशाम्य ते दुःखमिदमिमां चापदमीदृशीम् ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

आपके इस दुःख और भयंकर विपत्तिको विचारकर मुझे अत्यन्त मोह प्राप्त हो रहा है और मेरा मन दुःखसे पीड़ित हो रहा है॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् ।
ईश्वरस्य वशे लोकास्तिष्ठन्ते नात्मनो यथा ॥ २१ ॥

मूलम्

अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् ।
ईश्वरस्य वशे लोकास्तिष्ठन्ते नात्मनो यथा ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस विषयमें लोग इस प्राचीन इतिहासका उदाहरण देते हैं, जिसमें यह कहा गया है कि सब लोग ईश्वरके वशमें हैं, कोई भी स्वाधीन नहीं है॥२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

धातैव खलु भूतानां सुखदुःखे प्रियाप्रिये।
दधाति सर्वमीशानः पुरस्ताच्छुक्रमुच्चरन् ॥ २२ ॥

मूलम्

धातैव खलु भूतानां सुखदुःखे प्रियाप्रिये।
दधाति सर्वमीशानः पुरस्ताच्छुक्रमुच्चरन् ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

विधाता ईश्वर ही सबके पूर्वकर्मोंके अनुसार प्राणियोंके लिये सुख-दुःख, प्रिय-अप्रियकी व्यवस्था करते हैं॥२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथा दारुमयी योषा नरवीर समाहिता।
ईरयत्यङ्गमङ्गानि तथा राजन्निमाः प्रजाः ॥ २३ ॥

मूलम्

यथा दारुमयी योषा नरवीर समाहिता।
ईरयत्यङ्गमङ्गानि तथा राजन्निमाः प्रजाः ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नरवीर नरेश! जैसे कठपुतली सूत्रधारसे प्रेरित हो अपने अंगोंका संचालन करती है, उसी प्रकार यह सारी प्रजा ईश्वरकी प्रेरणासे अपने हस्त-पाद आदि अंगोंद्वारा विविध चेष्टाएँ करती हैं॥२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आकाश इव भूतानि व्याप्य सर्वाणि भारत।
ईश्वरो विदधातीह कल्याणं यच्च पापकम् ॥ २४ ॥

मूलम्

आकाश इव भूतानि व्याप्य सर्वाणि भारत।
ईश्वरो विदधातीह कल्याणं यच्च पापकम् ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भारत! ईश्वर आकाशके समान सम्पूर्ण प्राणियोंमें व्याप्त होकर उनके कर्मानुसार सुख-दुःखका विधान करते हैं॥२४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शकुनिस्तन्तुबद्धो वा नियतोऽयमनीश्वरः ।
ईश्वरस्य वशे तिष्ठेन्नान्येषां नात्मनः प्रभुः ॥ २५ ॥

मूलम्

शकुनिस्तन्तुबद्धो वा नियतोऽयमनीश्वरः ।
ईश्वरस्य वशे तिष्ठेन्नान्येषां नात्मनः प्रभुः ॥ २५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जीव स्वतन्त्र नहीं है, वह डोरेमें बँधे हुए पक्षीकी भाँति कर्मके बन्धनमें बँधा होनेसे परतन्त्र है। वह ईश्वरके ही वशमें होता है। उसका न दूसरोंपर वश चलता है, न अपने ऊपर॥२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मणिः सूत्र इव प्रोतो नस्योत इव गोवृषः।
स्रोतसो मध्यमापन्नः कूलाद् वृक्ष इव च्युतः ॥ २६ ॥
धातुरादेशमन्वेति तन्मयो हि तदर्पणः।
नात्माधीनो मनुष्योऽयं कालं भजति कंचन ॥ २७ ॥

मूलम्

मणिः सूत्र इव प्रोतो नस्योत इव गोवृषः।
स्रोतसो मध्यमापन्नः कूलाद् वृक्ष इव च्युतः ॥ २६ ॥
धातुरादेशमन्वेति तन्मयो हि तदर्पणः।
नात्माधीनो मनुष्योऽयं कालं भजति कंचन ॥ २७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सूतमें पिरोयी हुई मणि, नाकमें नथे हुए बैल और किनारेसे टूटकर धाराके बीचमें गिरे हुए वृक्षकी भाँति यह जीव सदा ईश्वरके आदेशका ही अनुसरण करता है; क्योंकि वह उसीसे व्याप्त और उसीके अधीन है। यह मनुष्य स्वाधीन होकर समयको नहीं बिताता॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अज्ञो जन्तुरनीशोऽयमात्मनः सुखदुःखयोः ।
ईश्वरप्रेरितो गच्छेत् स्वर्गं नरकमेव च ॥ २८ ॥

मूलम्

अज्ञो जन्तुरनीशोऽयमात्मनः सुखदुःखयोः ।
ईश्वरप्रेरितो गच्छेत् स्वर्गं नरकमेव च ॥ २८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यह जीव अज्ञानी तथा अपने सुख-दुःखके विधानमें भी असमर्थ है। यह ईश्वरसे प्रेरित होकर ही स्वर्ग एवं नरकमें जाता है॥२८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथा वायोस्तृणाग्राणि वशं यान्ति बलीयसः।
धातुरेवं वशं यान्ति सर्वभूतानि भारत ॥ २९ ॥

मूलम्

यथा वायोस्तृणाग्राणि वशं यान्ति बलीयसः।
धातुरेवं वशं यान्ति सर्वभूतानि भारत ॥ २९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भारत! जैसे क्षुद्र तिनके बलवान् वायुके वशमें हो उड़ते-फिरते हैं, उसी प्रकार समस्त प्राणी ईश्वरके अधीन हो आवागमन करते हैं॥२९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आर्ये कर्मणि युञ्जानः पापे वा पुनरीश्वरः।
व्याप्य भूतानि चरते न चायमिति लक्ष्यते ॥ ३० ॥

मूलम्

आर्ये कर्मणि युञ्जानः पापे वा पुनरीश्वरः।
व्याप्य भूतानि चरते न चायमिति लक्ष्यते ॥ ३० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कोई श्रेष्ठ कर्ममें लगा हुआ हो चाहे पापकर्ममें, ईश्वर सभी प्राणियोंमें व्याप्त होकर विचरते हैं; किंतु वे यही हैं इस प्रकार उनका लक्ष्य नहीं होता॥३०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

हेतुमात्रमिदं धातुः शरीरं क्षेत्रसंज्ञितम्।
येन कारयते कर्म शुभाशुभफलं विभुः ॥ ३१ ॥

मूलम्

हेतुमात्रमिदं धातुः शरीरं क्षेत्रसंज्ञितम्।
येन कारयते कर्म शुभाशुभफलं विभुः ॥ ३१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यह क्षेत्रसंज्ञक शरीर ईश्वरका साधनमात्र है, जिसके द्वारा वे सर्वव्यापी परमेश्वर प्राणियोंसे स्वेच्छा-प्रारब्धरूप शुभाशुभ फल भुगतानेवाले कर्मोंका अनुष्ठान करवाते हैं॥३१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पश्य मायाप्रभावोऽयमीश्वरेण यथा कृतः।
यो हन्ति भूतैर्भूतानि मोहयित्वाऽऽत्ममायया ॥ ३२ ॥

मूलम्

पश्य मायाप्रभावोऽयमीश्वरेण यथा कृतः।
यो हन्ति भूतैर्भूतानि मोहयित्वाऽऽत्ममायया ॥ ३२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ईश्वरने जिस प्रकार इस मायाके प्रभावका विस्तार किया है, उसे देखिये। वे अपनी मायाद्वारा मोहित करके प्राणियोंसे ही प्राणियोंका वध करवाते हैं॥३२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अन्यथा परिदृष्टानि मुनिभिस्तत्त्वदर्शिभिः ।
अन्यथा परिवर्तन्ते वेगा इव नभस्वतः ॥ ३३ ॥

मूलम्

अन्यथा परिदृष्टानि मुनिभिस्तत्त्वदर्शिभिः ।
अन्यथा परिवर्तन्ते वेगा इव नभस्वतः ॥ ३३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तत्त्वदर्शी मुनियोंने वस्तुओंके स्वरूप कुछ और प्रकारसे देखे हैं; किंतु अज्ञानियोंके सामने किसी और ही रूपमें भासित होते हैं। जैसे आकाशचारी सूर्यकी किरणें मरुभूमिमें पड़कर जलके रूपमें प्रतीत होने लगती हैं॥३३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अन्यथैव हि मन्यन्ते पुरुषास्तानि तानि च।
अन्यथैव प्रभुस्तानि करोति विकरोति च ॥ ३४ ॥

मूलम्

अन्यथैव हि मन्यन्ते पुरुषास्तानि तानि च।
अन्यथैव प्रभुस्तानि करोति विकरोति च ॥ ३४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

लोग भिन्न-भिन्न वस्तुओंको भिन्न-भिन्न रूपोंमें मानते हैं; परंतु शक्तिशाली परमेश्वर उन्हें और ही रूपमें बनाते और बिगाड़ते हैं॥३४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथा काष्ठेन वा काष्ठमश्मानं चाश्मना पुनः।
अयसा चाप्ययश्छिन्द्यान्निर्विचेष्टमचेतनम् ॥ ३५ ॥
एवं स भगवान् देवः स्वयम्भूः प्रपितामहः।
हिनस्ति भूतैर्भूतानि च्छद्म कृत्वा युधिष्ठिर ॥ ३६ ॥

मूलम्

यथा काष्ठेन वा काष्ठमश्मानं चाश्मना पुनः।
अयसा चाप्ययश्छिन्द्यान्निर्विचेष्टमचेतनम् ॥ ३५ ॥
एवं स भगवान् देवः स्वयम्भूः प्रपितामहः।
हिनस्ति भूतैर्भूतानि च्छद्म कृत्वा युधिष्ठिर ॥ ३६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाराज युधिष्ठिर! जैसे अचेतन एवं चेष्टारहित काठ, पत्थर और लोहेको मनुष्य काठ, पत्थर और लोहेसे ही काट देता है, उसी प्रकार सबके प्रपितामह स्वयम्भू भगवान् श्रीहरि मायाकी आड़ लेकर प्राणियोंसे ही प्राणियोंका विनाश करते हैं॥३५-३६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सम्प्रयोज्य वियोज्यायं कामकारकरः प्रभुः।
क्रीडते भगवान् भूतैर्बालः क्रीडनकैरिव ॥ ३७ ॥

मूलम्

सम्प्रयोज्य वियोज्यायं कामकारकरः प्रभुः।
क्रीडते भगवान् भूतैर्बालः क्रीडनकैरिव ॥ ३७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे बालक खिलौनोंसे खेलता है, उसी प्रकार स्वेच्छानुसार कर्म (भाँति-भाँतिकी लीलाएँ) करने-वाले शक्तिशाली भगवान् सब प्राणियोंके साथ उनका परस्पर संयोग-वियोग कराते हुए लीला करते रहते हैं॥३७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न मातृपितृवद् राजन् धाता भूतेषु वर्तते।
रोषादिव प्रवृत्तोऽयं यथायमितरो जनः ॥ ३८ ॥

मूलम्

न मातृपितृवद् राजन् धाता भूतेषु वर्तते।
रोषादिव प्रवृत्तोऽयं यथायमितरो जनः ॥ ३८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! मैं समझती हूँ, ईश्वर समस्त प्राणियोंके प्रति माता-पिताके समान दया एवं स्नेहयुक्त बर्ताव नहीं कर रहे हैं, वे तो दूसरे लोगोंकी भाँति मानो रोषसे ही व्यवहार कर रहे हैं॥३८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आर्याञ्छीलवतो दृष्ट्वा ह्रीमतो वृत्तिकर्शितान्।
अनार्यान् सुखिनश्चैव विह्वलामीव चिन्तया ॥ ३९ ॥

मूलम्

आर्याञ्छीलवतो दृष्ट्वा ह्रीमतो वृत्तिकर्शितान्।
अनार्यान् सुखिनश्चैव विह्वलामीव चिन्तया ॥ ३९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

क्योंकि जो लोग श्रेष्ठ, शीलवान् और संकोची हैं, वे तो जीविकाके लिये कष्ट पा रहे हैं; किंतु जो अनार्य (दुष्ट) हैं, वे सुख भोगते हैं; यह सब देखकर मेरी उक्त धारणा पुष्ट होती है और मैं चिन्तासे विह्वल-सी हो रही हूँ॥३९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तवेमामापदं दृष्ट्वा समृद्धिं च सुयोधने।
धातारं गर्हये पार्थ विषमं योऽनुपश्यति ॥ ४० ॥

मूलम्

तवेमामापदं दृष्ट्वा समृद्धिं च सुयोधने।
धातारं गर्हये पार्थ विषमं योऽनुपश्यति ॥ ४० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कुन्तीनन्दन! आपकी इस आपत्तिको तथा दुर्योधनकी समृद्धिको देखकर मैं उस विधाताकी निन्दा करती हूँ, जो विषम दृष्टिसे देख रहा है अर्थात् सज्जनको दुःख और दुर्जनको सुख देकर उचित विचार नहीं कर रहा है॥४०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आर्यशास्त्रातिगे क्रूरे लुब्धे धर्मापचायिनि।
धार्तराष्ट्रे श्रियं दत्त्वा धाता किं फलमश्नुते ॥ ४१ ॥

मूलम्

आर्यशास्त्रातिगे क्रूरे लुब्धे धर्मापचायिनि।
धार्तराष्ट्रे श्रियं दत्त्वा धाता किं फलमश्नुते ॥ ४१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो आर्यशास्त्रोंकी आज्ञाका उल्लंघन करनेवाला, क्रूर, लोभी तथा धर्मकी हानि करनेवाला है, उस धृतराष्ट्रपुत्र दुर्योधनको धन देकर विधाता क्या फल पाता है?॥४१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कर्म चेत् कृतमन्वेति कर्तारं नान्यमृच्छति।
कर्मणा तेन पापेन लिप्यते नूनमीश्वरः ॥ ४२ ॥

मूलम्

कर्म चेत् कृतमन्वेति कर्तारं नान्यमृच्छति।
कर्मणा तेन पापेन लिप्यते नूनमीश्वरः ॥ ४२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यदि किया हुआ कर्म कर्ताका ही पीछा करता है, दूसरेके पास नहीं जाता, तब तो ईश्वर भी उस पापकर्मसे अवश्य लिप्त होंगे॥४२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथ कर्म कृतं पापं न चेत् कर्तारमृच्छति।
कारणं बलमेवेह जनाञ्छोचामि दुर्बलान् ॥ ४३ ॥

मूलम्

अथ कर्म कृतं पापं न चेत् कर्तारमृच्छति।
कारणं बलमेवेह जनाञ्छोचामि दुर्बलान् ॥ ४३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसके विपरीत, यदि किया हुआ पाप-कर्म कर्ताको नहीं प्राप्त होता तो इसका कारण यहाँ बल ही है (ईश्वर शक्तिशाली हैं, इसीलिये उन्हें पापकर्मका फल नहीं मिलता होगा)। उस दशामें मुझे दुर्बल मनुष्योंके लिये शोक हो रहा है॥४३॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि अर्जुनाभिगमनपर्वणि द्रौपदीवाक्ये त्रिंशोऽध्यायः ॥ ३० ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्वके अन्तर्गत अर्जुनाभिगमनपर्वमें द्रौपदीवाक्यविषयक तीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥३०॥