श्रावणम् (द्युगङ्गा)
भागसूचना
एकोनत्रिंशोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
युधिष्ठिरके द्वारा क्रोधकी निन्दा और क्षमाभावकी विशेष प्रशंसा
मूलम् (वचनम्)
युधिष्ठिर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्रोधो हन्ता मनुष्याणां क्रोधो भावयिता पुनः।
इति विद्धि महाप्राज्ञे क्रोधमूलौ भवाभवौ ॥ १ ॥
मूलम्
क्रोधो हन्ता मनुष्याणां क्रोधो भावयिता पुनः।
इति विद्धि महाप्राज्ञे क्रोधमूलौ भवाभवौ ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिर बोले— परम बुद्धिमती द्रौपदी! क्रोध ही मनुष्योंको मारनेवाला है और क्रोध ही यदि जीत लिया जाय तो अभ्युदय करनेवाला है। तुम यह जान लो कि उन्नति और अवनति दोनों क्रोधमूलक ही हैं (क्रोधको जीतनेसे उन्नति और उसके वशीभूत होनेसे अवनति होती है)॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यो हि संहरते क्रोधं भवस्तस्य सुशोभने।
यः पुनः पुरुषः क्रोधं नित्यं न सहते शुभे।
तस्याभावाय भवति क्रोधः परमदारुणः ॥ २ ॥
मूलम्
यो हि संहरते क्रोधं भवस्तस्य सुशोभने।
यः पुनः पुरुषः क्रोधं नित्यं न सहते शुभे।
तस्याभावाय भवति क्रोधः परमदारुणः ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सुशोभने! जो क्रोधको रोक लेता है, उसकी उन्नति होती है और जो मनुष्य क्रोधके वेगको कभी सहन नहीं कर पाता, उसके लिये वह परम भयंकर क्रोध विनाशकारी बन जाता है॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्रोधमूलो विनाशो हि प्रजानामिह दृश्यते।
तत् कथं मादृशः क्रोधमुत्सृजेल्लोकनाशनम् ॥ ३ ॥
मूलम्
क्रोधमूलो विनाशो हि प्रजानामिह दृश्यते।
तत् कथं मादृशः क्रोधमुत्सृजेल्लोकनाशनम् ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस जगत्में क्रोधके कारण लोगोंका नाश होता दिखायी देता है; इसलिये मेरे-जैसा मनुष्य लोकविनाशक क्रोधका उपयोग दूसरोंपर कैसे करेगा?॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्रुद्धः पापं नरः कुर्यात् क्रुद्धो हन्याद् गुरूनपि।
क्रुद्धः परुषया वाचा श्रेयसोऽप्यवमन्यते ॥ ४ ॥
मूलम्
क्रुद्धः पापं नरः कुर्यात् क्रुद्धो हन्याद् गुरूनपि।
क्रुद्धः परुषया वाचा श्रेयसोऽप्यवमन्यते ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
क्रोधी मनुष्य पाप कर सकता है, क्रोधके वशीभूत मानव गुरुजनोंकी भी हत्या कर सकता है और क्रोधमें भरा हुआ पुरुष अपनी कठोर वाणीद्वारा श्रेष्ठ मनुष्योंका भी अपमान कर देता है॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वाच्यावाच्ये हि कुपितो न प्रजानाति कर्हिचित्।
नाकार्यमस्ति क्रुद्धस्य नावाच्यं विद्यते तथा ॥ ५ ॥
मूलम्
वाच्यावाच्ये हि कुपितो न प्रजानाति कर्हिचित्।
नाकार्यमस्ति क्रुद्धस्य नावाच्यं विद्यते तथा ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
क्रोधी मनुष्य कभी यह नहीं समझ पाता कि क्या कहना चाहिये और क्या नहीं। क्रोधीके लिये कुछ भी अकार्य अथवा अवाच्य नहीं है॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
हिंस्यात् क्रोधादवध्यांस्तु वध्यान् सम्पूजयीत च।
आत्मानमपि च क्रुद्धः प्रेषयेद् यमसादनम् ॥ ६ ॥
मूलम्
हिंस्यात् क्रोधादवध्यांस्तु वध्यान् सम्पूजयीत च।
आत्मानमपि च क्रुद्धः प्रेषयेद् यमसादनम् ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
क्रोधवश वह अवध्य पुरुषोंकी भी हत्या कर सकता है और वधके योग्य मनुष्योंकी भी पूजामें तत्पर हो सकता है। इतना ही नहीं, क्रोधी मानव (आत्महत्याद्वारा) अपने-आपको भी यमलोकका अतिथि बना सकता है॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतान् दोषान् प्रपश्यद्भिर्जितः क्रोधो मनीषिभिः।
इच्छद्भिः परमं श्रेय इह चामुत्र चोत्तमम् ॥ ७ ॥
मूलम्
एतान् दोषान् प्रपश्यद्भिर्जितः क्रोधो मनीषिभिः।
इच्छद्भिः परमं श्रेय इह चामुत्र चोत्तमम् ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इन दोषोंको देखनेवाले मनस्वी पुरुषोंने, जो इहलोक और परलोकमें भी परम उत्तम कल्याणकी इच्छा रखते हैं, क्रोधको जीत लिया है॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तं क्रोधं वर्जितं धीरैः कथमस्मद्विधश्चरेत्।
एतद् द्रौपदि संधाय न मे मन्युः प्रवर्धते ॥ ८ ॥
मूलम्
तं क्रोधं वर्जितं धीरैः कथमस्मद्विधश्चरेत्।
एतद् द्रौपदि संधाय न मे मन्युः प्रवर्धते ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अतः धीर पुरुषोंने जिसका परित्याग कर दिया है। उस क्रोधको मेरे-जैसा मनुष्य कैसे उपयोगमें ला सकता है? द्रुपदकुमारी! यही सोचकर मेरा क्रोध कभी बढ़ता नहीं है॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आत्मानं च परांश्चैव त्रायते महतो भयात्।
क्रुध्यन्तमप्रतिक्रुध्यन् द्वयोरेष चिकित्सकः ॥ ९ ॥
मूलम्
आत्मानं च परांश्चैव त्रायते महतो भयात्।
क्रुध्यन्तमप्रतिक्रुध्यन् द्वयोरेष चिकित्सकः ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
क्रोध करनेवाले पुरुषके प्रति जो बदलेमें क्रोध नहीं करता, वह अपनेको और दूसरोंको भी महान् भयसे बचा लेता है। वह अपने और पराये दोनोंके दोषोंको दूर करनेके लिये चिकित्सक बन जाता है॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मूढो यदि क्लिश्यमानः क्रुध्यतेऽशक्तिमान् नरः।
बलीयसां मनुष्याणां त्यजत्यात्मानमात्मना ॥ १० ॥
मूलम्
मूढो यदि क्लिश्यमानः क्रुध्यतेऽशक्तिमान् नरः।
बलीयसां मनुष्याणां त्यजत्यात्मानमात्मना ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यदि मूढ़ एवं असमर्थ मनुष्य दूसरोंके द्वारा क्लेश दिये जानेपर स्वयं भी बलिष्ठ मनुष्योंपर क्रोध करता है तो वह अपने ही द्वारा अपने-आपका विनाश कर देता है॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्यात्मानं संत्यजतो लोका नश्यन्त्यनात्मनः।
तस्माद् द्रौपद्यशक्तस्य मन्योर्नियमनं स्मृतम् ॥ ११ ॥
मूलम्
तस्यात्मानं संत्यजतो लोका नश्यन्त्यनात्मनः।
तस्माद् द्रौपद्यशक्तस्य मन्योर्नियमनं स्मृतम् ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अपने चित्तको वशमें न रखनेके कारण क्रोधवश देहत्याग करनेवाले उस मनुष्यके लोक और परलोक दोनों नष्ट हो जाते हैं। अतः द्रुपदकुमारी! असमर्थके लिये अपने क्रोधको रोकना ही अच्छा माना गया है॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विद्वांस्तथैव यः शक्तः क्लिश्यमानो न कुप्यति।
अनाशयित्वा क्लेष्टारं परलोके च नन्दति ॥ १२ ॥
मूलम्
विद्वांस्तथैव यः शक्तः क्लिश्यमानो न कुप्यति।
अनाशयित्वा क्लेष्टारं परलोके च नन्दति ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसी प्रकार जो विद्वान् पुरुष शक्तिशाली होकर भी दूसरोंद्वारा क्लेश दिये जानेपर स्वयं क्रोध नहीं करता, वह क्लेश देनेवालेका नाश न करके परलोकमें भी आनन्दका भागी होता है॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्माद् बलवता चैव दुर्बलेन च नित्यदा।
क्षन्तव्यं पुरुषेणाहुरापत्स्वपि विजानता ॥ १३ ॥
मूलम्
तस्माद् बलवता चैव दुर्बलेन च नित्यदा।
क्षन्तव्यं पुरुषेणाहुरापत्स्वपि विजानता ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसलिये बलवान् या निर्बल सभी विज्ञ मनुष्योंको सदा आपत्तिकालमें भी क्षमाभावका ही आश्रय लेना चाहिये॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मन्योर्हि विजयं कृष्णे प्रशंसन्तीह साधवः।
क्षमावतो जयो नित्यं साधोरिह सतां मतम् ॥ १४ ॥
मूलम्
मन्योर्हि विजयं कृष्णे प्रशंसन्तीह साधवः।
क्षमावतो जयो नित्यं साधोरिह सतां मतम् ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कृष्णे! साधु पुरुष क्रोधको जीतनेकी ही प्रशंसा करते हैं। संतोंका यह मत है कि इस जगत्में क्षमाशील साधु पुरुषकी सदा जय होती है॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सत्यं चानृततः श्रेयो नृशंस्याच्चानृशंसता।
तमेवं बहुदोषं तु क्रोधं साधुविवर्जितम् ॥ १५ ॥
मादृशः प्रसृजेत् कस्मात् सुयोधनवधादपि।
मूलम्
सत्यं चानृततः श्रेयो नृशंस्याच्चानृशंसता।
तमेवं बहुदोषं तु क्रोधं साधुविवर्जितम् ॥ १५ ॥
मादृशः प्रसृजेत् कस्मात् सुयोधनवधादपि।
अनुवाद (हिन्दी)
झूठसे सत्य श्रेष्ठ है। क्रूरतासे दयालुता श्रेष्ठ है, अतः दुर्योधन मेरा वध कर डाले तो भी इस प्रकार अनेक दोषोंसे भरे हुए और सत्पुरुषोंद्वारा परित्यक्त क्रोधका मेरे-जैसा पुरुष कैसे उपयोग कर सकता है?॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेजस्वीति यमाहुर्वै पण्डिता दीर्घदर्शिनः ॥ १६ ॥
न क्रोधोऽभ्यन्तरस्तस्य भवतीति विनिश्चितम्।
मूलम्
तेजस्वीति यमाहुर्वै पण्डिता दीर्घदर्शिनः ॥ १६ ॥
न क्रोधोऽभ्यन्तरस्तस्य भवतीति विनिश्चितम्।
अनुवाद (हिन्दी)
दूरदर्शी विद्वान् जिसे तेजस्वी कहते हैं, उसके भीतर क्रोध नहीं होता; यह निश्चित बात है॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यस्तु क्रोधं समुत्पन्नं प्रज्ञया प्रतिबाधते ॥ १७ ॥
तेजस्विनं तं विद्वांसो मन्यन्ते तत्त्वदर्शिनः।
मूलम्
यस्तु क्रोधं समुत्पन्नं प्रज्ञया प्रतिबाधते ॥ १७ ॥
तेजस्विनं तं विद्वांसो मन्यन्ते तत्त्वदर्शिनः।
अनुवाद (हिन्दी)
जो उत्पन्न हुए क्रोधको अपनी बुद्धिसे दबा देता है, उसे तत्त्वदर्शी विद्वान् तेजस्वी मानते हैं॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्रुद्धो हि कार्यं सुश्रोणि न यथावत् प्रपश्यति।
नाकार्यं न च मर्यादां नरः क्रुद्धोऽनुपश्यति ॥ १८ ॥
मूलम्
क्रुद्धो हि कार्यं सुश्रोणि न यथावत् प्रपश्यति।
नाकार्यं न च मर्यादां नरः क्रुद्धोऽनुपश्यति ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सुन्दरी! क्रोधी मनुष्य किसी कार्यको ठीक-ठीक नहीं समझ पाता। वह यह भी नहीं जानता कि मर्यादा क्या है (अर्थात् क्या करना चाहिये) और क्या नहीं करना चाहिये॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
हन्त्यवध्यानपि क्रुद्धो गुरून् क्रुद्धस्तुदत्यपि।
तस्मात् तेजसि कर्तव्यः क्रोधो दूरे प्रतिष्ठितः ॥ १९ ॥
मूलम्
हन्त्यवध्यानपि क्रुद्धो गुरून् क्रुद्धस्तुदत्यपि।
तस्मात् तेजसि कर्तव्यः क्रोधो दूरे प्रतिष्ठितः ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
क्रोधी मनुष्य अवध्य पुरुषोंका वध कर देता है। क्रोधी मनुष्य गुरुजनोंको कटु वचनोंद्वारा पीड़ा पहुँचाता है। इसलिये जिसमें तेज हो, उस पुरुषको चाहिये कि वह क्रोधको अपनेसे दूर रखे॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दाक्ष्यं ह्यमर्षः शौर्यं च शीघ्रत्वमिति तेजसः।
गुणा! क्रोधाभिभूतेन न शक्याः प्राप्तुमञ्जसा ॥ २० ॥
मूलम्
दाक्ष्यं ह्यमर्षः शौर्यं च शीघ्रत्वमिति तेजसः।
गुणा! क्रोधाभिभूतेन न शक्याः प्राप्तुमञ्जसा ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
दक्षता, अमर्ष, शौर्य और शीघ्रता—ये तेजके गुण हैं। जो मनुष्य क्रोधसे दबा हुआ है, वह इन गुणोंको सहजमें ही नहीं पा सकता॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्रोधं त्यक्त्वा तु पुरुषः सम्यक् तेजोऽभिपद्यते।
कालयुक्तं महाप्राज्ञे क्रुद्धैस्तेजः सुदुःसहम् ॥ २१ ॥
मूलम्
क्रोधं त्यक्त्वा तु पुरुषः सम्यक् तेजोऽभिपद्यते।
कालयुक्तं महाप्राज्ञे क्रुद्धैस्तेजः सुदुःसहम् ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
क्रोधका त्याग करके मनुष्य भलीभाँति तेज प्राप्त कर लेता है। महाप्राज्ञे! क्रोधी पुरुषोंके लिये समयके उपयुक्त तेज अत्यन्त दुःसह है॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्रोधस्त्वपण्डितैः शश्वत् तेज इत्यभिनिश्चितम्।
रजस्तु लोकनाशाय विहितं मानुषं प्रति ॥ २२ ॥
मूलम्
क्रोधस्त्वपण्डितैः शश्वत् तेज इत्यभिनिश्चितम्।
रजस्तु लोकनाशाय विहितं मानुषं प्रति ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मूर्खलोग क्रोधको ही सदा तेज मानते हैं। परन्तु रजोगुणजनित क्रोधका यदि मनुष्योंके प्रति प्रयोग हो तो वह लोगोंके नाशका कारण होता है॥२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्माच्छश्वत् त्यजेत् क्रोधं पुरुषः सम्यगाचरन्।
श्रेयान् स्वधर्मानपगो न क्रुद्ध इति निश्चितम् ॥ २३ ॥
मूलम्
तस्माच्छश्वत् त्यजेत् क्रोधं पुरुषः सम्यगाचरन्।
श्रेयान् स्वधर्मानपगो न क्रुद्ध इति निश्चितम् ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अतः सदाचारी पुरुष सदा क्रोधका परित्याग करे। अपने वर्णधर्मके अनुसार न चलनेवाला मनुष्य (अपेक्षाकृत) अच्छा, किंतु क्रोधी नहीं अच्छा—यह निश्चय है॥२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदि सर्वमबुद्धीनामतिक्रान्तमचेतसाम् ।
अतिक्रमो मद्विधस्य कथंस्वित् स्यादनिन्दिते ॥ २४ ॥
मूलम्
यदि सर्वमबुद्धीनामतिक्रान्तमचेतसाम् ।
अतिक्रमो मद्विधस्य कथंस्वित् स्यादनिन्दिते ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
साध्वी द्रौपदी! यदि मूर्ख और अविवेकी मनुष्य क्षमा आदि सद्गुणोंका उल्लंघन कर जाते हैं तो मेरे-जैसा विज्ञ पुरुष उनका अतिक्रमण कैसे कर सकता है?॥२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदि न स्युर्मानुषेषु क्षमिणः पृथिवीसमाः।
न स्यात् संधिर्मनुष्याणां क्रोधमूलो हि विग्रहः ॥ २५ ॥
मूलम्
यदि न स्युर्मानुषेषु क्षमिणः पृथिवीसमाः।
न स्यात् संधिर्मनुष्याणां क्रोधमूलो हि विग्रहः ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यदि मनुष्योंमें पृथ्वीके समान क्षमाशील पुरुष न हों तो मानवोंमें कभी सन्धि हो ही नहीं सकती; क्योंकि झगड़ेकी जड़ तो क्रोध ही है॥२५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अभिषक्तो ह्यभिषजेदाहन्याद् गुरुणा हतः।
एवं विनाशो भूतानामधर्मः प्रथितो भवेत् ॥ २६ ॥
मूलम्
अभिषक्तो ह्यभिषजेदाहन्याद् गुरुणा हतः।
एवं विनाशो भूतानामधर्मः प्रथितो भवेत् ॥ २६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यदि कोई अपनेको सतावे तो स्वयं भी उसको सतावे। औरोंकी तो बात ही क्या है, यदि गुरुजन अपनेको मारें तो उन्हें भी मारे बिना न छोड़े; ऐसी धारणा रखनेके कारण सब प्राणियोंका ही विनाश हो जाता है और अधर्म बढ़ जाता है॥२६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आक्रुष्टः पुरुषः सर्वं प्रत्याक्रोशेदनन्तरम्।
प्रतिहन्याद्धतश्चैव तथा हिंस्याच्च हिंसितः ॥ २७ ॥
मूलम्
आक्रुष्टः पुरुषः सर्वं प्रत्याक्रोशेदनन्तरम्।
प्रतिहन्याद्धतश्चैव तथा हिंस्याच्च हिंसितः ॥ २७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यदि सभी क्रोधके वशीभूत हो जायँ तो एक मनुष्य दूसरेके द्वारा गाली खाकर स्वयं भी बदलेमें उसे गाली दे सकता है। मार खानेवाला मनुष्य बदलेमें मार सकता है। एकका अनिष्ट होनेपर वह दूसरेका भी अनिष्ट कर सकता है॥२७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
हन्युर्हि पितरः पुत्रान् पुत्राश्चापि तथा पितॄन्।
हन्युश्च पतयो भार्याः पतीन् भार्यास्तथैव च ॥ २८ ॥
मूलम्
हन्युर्हि पितरः पुत्रान् पुत्राश्चापि तथा पितॄन्।
हन्युश्च पतयो भार्याः पतीन् भार्यास्तथैव च ॥ २८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पिता पुत्रोंको मारेंगे और पुत्र पिताको, पति पत्नियोंको मारेंगे और पत्नियाँ पतिको॥२८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं संकुपिते लोके शमः कृष्णे न विद्यते।
प्रजानां संधिमूलं हि शमं विद्धि शुभानने ॥ २९ ॥
मूलम्
एवं संकुपिते लोके शमः कृष्णे न विद्यते।
प्रजानां संधिमूलं हि शमं विद्धि शुभानने ॥ २९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कृष्णे! इस प्रकार सम्पूर्ण जगत्के क्रोधका शिकार हो जानेपर तो कहीं शान्ति नहीं रहती। शुभानने! तुम यह जान लो कि सम्पूर्ण प्रजाकी शान्ति सन्धिमूलक ही है॥२९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ताः क्षिपेरन् प्रजाः सर्वाः क्षिप्रं द्रौपदि तादृशे।
तस्मान्मन्युर्विनाशाय प्रजानामभवाय च ॥ ३० ॥
मूलम्
ताः क्षिपेरन् प्रजाः सर्वाः क्षिप्रं द्रौपदि तादृशे।
तस्मान्मन्युर्विनाशाय प्रजानामभवाय च ॥ ३० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
द्रौपदी! यदि राजा तुम्हारे कथनानुसार क्रोधी हो जाय तो सारी प्रजाओंका शीघ्र ही नाश हो जायगा। अतः यह समझ लो कि क्रोध प्रजावर्गके नाश और अवनतिका कारण है॥३०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यस्मात् तु लोके दृश्यन्ते क्षमिणः पृथिवीसमाः।
तस्माज्जन्म च भूतानां भवश्च प्रतिपद्यते ॥ ३१ ॥
मूलम्
यस्मात् तु लोके दृश्यन्ते क्षमिणः पृथिवीसमाः।
तस्माज्जन्म च भूतानां भवश्च प्रतिपद्यते ॥ ३१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस जगत्में पृथ्वीके समान क्षमाशील पुरुष भी देखे जाते हैं, इसीलिये प्राणियोंकी उत्पत्ति और वृद्धि होती रहती है॥३१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्षन्तव्यं पुरुषेणेह सर्वापत्सु सुशोभने।
क्षमावतो हि भूतानां जन्म चैव प्रकीर्तितम् ॥ ३२ ॥
मूलम्
क्षन्तव्यं पुरुषेणेह सर्वापत्सु सुशोभने।
क्षमावतो हि भूतानां जन्म चैव प्रकीर्तितम् ॥ ३२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सुशोभने! पुरुषको सभी आपत्तियोंमें क्षमाभाव रखना चाहिये। क्षमाशील पुरुषसे ही समस्त प्राणियोंका जीवन बताया गया है॥३२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आक्रुष्टस्ताडितः क्रुद्धः क्षमते यो बलीयसा।
यश्च नित्यं जितक्रोधो विद्वानुत्तमपूरुषः ॥ ३३ ॥
मूलम्
आक्रुष्टस्ताडितः क्रुद्धः क्षमते यो बलीयसा।
यश्च नित्यं जितक्रोधो विद्वानुत्तमपूरुषः ॥ ३३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो बलवान् पुरुषके गाली देने या कुपित होकर मारनेपर भी क्षमा कर जाता है तथा जो सदा अपने क्रोधको काबूमें रखता है, वही विद्वान् है और वही श्रेष्ठ पुरुष है॥३३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रभाववानपि नरस्तस्य लोकाः सनातनाः।
क्रोधनस्त्वल्पविज्ञानः प्रेत्य चेह च नश्यति ॥ ३४ ॥
मूलम्
प्रभाववानपि नरस्तस्य लोकाः सनातनाः।
क्रोधनस्त्वल्पविज्ञानः प्रेत्य चेह च नश्यति ॥ ३४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वही मनुष्य प्रभावशाली कहा जाता है। उसीको सनातन लोक प्राप्त होते हैं। क्रोधी मनुष्य अल्पज्ञ होता है। वह इस लोक और परलोक दोनोंमें विनाशका ही भागी होता है॥३४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अत्राप्युदाहरन्तीमा गाथा नित्यं क्षमावताम्।
गीताः क्षमावता कृष्णे काश्यपेन महात्मना ॥ ३५ ॥
मूलम्
अत्राप्युदाहरन्तीमा गाथा नित्यं क्षमावताम्।
गीताः क्षमावता कृष्णे काश्यपेन महात्मना ॥ ३५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस विषयमें जानकार लोग क्षमावान् पुरुषोंकी गाथाका उदाहरण देते हैं। कृष्णे! क्षमावान् महात्मा काश्यपने इस गाथाका गान किया है॥३५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्षमा धर्मः क्षमा यज्ञः क्षमा वेदाः क्षमाः श्रुतम्।
य एतदेवं जानाति स सर्वं क्षन्तुमर्हति ॥ ३६ ॥
मूलम्
क्षमा धर्मः क्षमा यज्ञः क्षमा वेदाः क्षमाः श्रुतम्।
य एतदेवं जानाति स सर्वं क्षन्तुमर्हति ॥ ३६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
क्षमा धर्म है, क्षमा यज्ञ है, क्षमा वेद है और क्षमा शास्त्र है। जो इस प्रकार जानता है, वह सब कुछ क्षमा करनेके योग्य हो जाता है॥३६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्षमा ब्रह्म क्षमा सत्यं क्षमा भूतं च भावि च।
क्षमा तपः क्षमा शौचं क्षमयेदं धृतं जगत् ॥ ३७ ॥
मूलम्
क्षमा ब्रह्म क्षमा सत्यं क्षमा भूतं च भावि च।
क्षमा तपः क्षमा शौचं क्षमयेदं धृतं जगत् ॥ ३७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
क्षमा ब्रह्म है, क्षमा सत्य है, क्षमा भूत है, क्षमा भविष्य है, क्षमा तप है और क्षमा शौच है। क्षमाने ही सम्पूर्ण जगत्को धारण कर रखा है॥३७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अति यज्ञविदां लोकान् क्षमिणः प्राप्नुवन्ति च।
अति ब्रह्मविदां लोकानति चापि तपस्विनाम् ॥ ३८ ॥
मूलम्
अति यज्ञविदां लोकान् क्षमिणः प्राप्नुवन्ति च।
अति ब्रह्मविदां लोकानति चापि तपस्विनाम् ॥ ३८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
क्षमाशील मनुष्य यज्ञवेत्ता, ब्रह्मवेत्ता और तपस्वी पुरुषोंसे भी ऊँचे लोक प्राप्त करते हैं॥३८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अन्ये वै यजुषां लोकाः कर्मिणामपरे तथा।
क्षमावतां ब्रह्मलोके लोकाः परमपूजिताः ॥ ३९ ॥
मूलम्
अन्ये वै यजुषां लोकाः कर्मिणामपरे तथा।
क्षमावतां ब्रह्मलोके लोकाः परमपूजिताः ॥ ३९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
(सकामभावसे) यज्ञकर्मोंका अनुष्ठान करनेवाले पुरुषोंके लोक दूसरे हैं एवं (सकामभावसे) वापी, कूप, तडाग और दान आदि कर्म करनेवाले मनुष्योंके लोक दूसरे हैं। परंतु क्षमावानोंके लोक ब्रह्मलोकके अन्तर्गत हैं; जो अत्यन्त पूजित हैं॥३९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्षमा तेजस्विनां तेजः क्षमा ब्रह्म तपस्विनाम्।
क्षमा सत्यं सत्यवतां क्षमा यज्ञः क्षमा शमः ॥ ४० ॥
मूलम्
क्षमा तेजस्विनां तेजः क्षमा ब्रह्म तपस्विनाम्।
क्षमा सत्यं सत्यवतां क्षमा यज्ञः क्षमा शमः ॥ ४० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
क्षमा तेजस्वी पुरुषोंका तेज है, क्षमा तपस्वियोंका ब्रह्म है, क्षमा सत्यवादी पुरुषोंका सत्य है। क्षमा यज्ञ है और क्षमा शम (मनोनिग्रह) है॥४०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तां क्षमां तादृशीं कृष्णे कथमस्मद्विधस्त्यजेत्।
यस्यां ब्रह्म च सत्यं च यज्ञा लोकाश्च धिष्ठिताः॥४१॥
मूलम्
तां क्षमां तादृशीं कृष्णे कथमस्मद्विधस्त्यजेत्।
यस्यां ब्रह्म च सत्यं च यज्ञा लोकाश्च धिष्ठिताः॥४१॥
अनुवाद (हिन्दी)
कृष्णे! जिसका महत्त्व ऐसा बताया गया है, जिसमें ब्रह्म, सत्य, यज्ञ और लोक सभी प्रतिष्ठित हैं, उस क्षमाको मेरे-जैसा मनुष्य कैसे छोड़ सकता है॥४१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्षन्तव्यमेव सततं पुरुषेण विजानता।
यदा हि क्षमते सर्वं ब्रह्म सम्पद्यते तदा ॥ ४२ ॥
मूलम्
क्षन्तव्यमेव सततं पुरुषेण विजानता।
यदा हि क्षमते सर्वं ब्रह्म सम्पद्यते तदा ॥ ४२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
विद्वान् पुरुषको सदा क्षमाका ही आश्रय लेना चाहिये। जब मनुष्य सब कुछ सहन कर लेता है, तब वह ब्रह्मभावको प्राप्त हो जाता है॥४२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्षमावतामयं लोकः परश्चैव क्षमावताम्।
इह सम्मानमृच्छन्ति परत्र च शुभां गतिम् ॥ ४३ ॥
मूलम्
क्षमावतामयं लोकः परश्चैव क्षमावताम्।
इह सम्मानमृच्छन्ति परत्र च शुभां गतिम् ॥ ४३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
क्षमावानोंके लिये ही यह लोक है। क्षमावानोंके लिये ही परलोक है। क्षमाशील पुरुष इस जगत्में सम्मान और परलोकमें उत्तम गति पाते हैं॥४३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
येषां मन्युर्मनुष्याणां क्षमयाभिहतः सदा।
तेषां परतरे लोकास्तस्मात् क्षान्तिः परा मता ॥ ४४ ॥
मूलम्
येषां मन्युर्मनुष्याणां क्षमयाभिहतः सदा।
तेषां परतरे लोकास्तस्मात् क्षान्तिः परा मता ॥ ४४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिन मनुष्योंका क्रोध सदा क्षमाभावसे दबा रहता है, उन्हें सर्वोत्तम लोक प्राप्त होते हैं। अतः क्षमा सबसे उत्कृष्ट मानी गयी है॥४४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इति गीताः काश्यपेन गाथा नित्यं क्षमावताम्।
श्रुत्वा गाथाः क्षमायास्त्वं तुष्य द्रौपदि मा क्रुधः ॥ ४५ ॥
मूलम्
इति गीताः काश्यपेन गाथा नित्यं क्षमावताम्।
श्रुत्वा गाथाः क्षमायास्त्वं तुष्य द्रौपदि मा क्रुधः ॥ ४५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार काश्यपजीने नित्य क्षमाशील पुरुषोंकी इस गाथाका गान किया है। द्रौपदी! क्षमाकी यह गाथा सुनकर संतुष्ट हो जाओ, क्रोध न करो॥४५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पितामहः शान्तनवः शमं सम्पूजयिष्यति।
कृष्णश्च देवकीपुत्रः शमं सम्पूजयिष्यति ॥ ४६ ॥
मूलम्
पितामहः शान्तनवः शमं सम्पूजयिष्यति।
कृष्णश्च देवकीपुत्रः शमं सम्पूजयिष्यति ॥ ४६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मेरे पितामह शान्तनुनन्दन भीष्म शान्तिभावका ही आदर करेंगे। देवकीनन्दन श्रीकृष्ण भी शान्तिभावका ही आदर करेंगे॥४६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आचार्यो विदुरः क्षत्ता शममेव वदिष्यतः।
कृपश्च संजयश्चैव शममेव वदिष्यतः ॥ ४७ ॥
मूलम्
आचार्यो विदुरः क्षत्ता शममेव वदिष्यतः।
कृपश्च संजयश्चैव शममेव वदिष्यतः ॥ ४७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
आचार्य द्रोण और विदुर भी शान्तिको ही अच्छा कहेंगे। कृपाचार्य और संजय भी शान्त रहना ही अच्छा बतायेंगे॥४७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सोमदत्तो युयुत्सुश्च द्रोणपुत्रस्तथैव च।
पितामहश्च नो व्यासः शमं वदति नित्यशः ॥ ४८ ॥
मूलम्
सोमदत्तो युयुत्सुश्च द्रोणपुत्रस्तथैव च।
पितामहश्च नो व्यासः शमं वदति नित्यशः ॥ ४८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सोमदत्त, युयुत्सु, अश्वत्थामा तथा हमारे पितामह व्यास भी सदा शान्तिका ही उपदेश देते हैं॥४८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतैर्हि राजा नियतं चोद्यमानः शमं प्रति।
राज्यं दातेति मे बुद्धिर्न चेल्लोभान्नशिष्यति ॥ ४९ ॥
मूलम्
एतैर्हि राजा नियतं चोद्यमानः शमं प्रति।
राज्यं दातेति मे बुद्धिर्न चेल्लोभान्नशिष्यति ॥ ४९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ये सब लोग यदि राजा धृतराष्ट्रको सदा शान्तिके लिये प्रेरित करते रहेंगे तो वे अवश्य मुझे राज्य दे देंगे, ऐसा मुझे विश्वास है। यदि नहीं देंगे तो लोभके कारण नष्ट हो जायँगे॥४९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कालोऽयं दारुणः प्राप्तो भरतानामभूतये।
निश्चितं मे सदैवैतत् पुरस्तादपि भाविनि ॥ ५० ॥
सुयोधनो नार्हतीति क्षमामेवं न विन्दति।
अर्हस्तत्राहमित्येवं तस्मान्मां विन्दते क्षमा ॥ ५१ ॥
मूलम्
कालोऽयं दारुणः प्राप्तो भरतानामभूतये।
निश्चितं मे सदैवैतत् पुरस्तादपि भाविनि ॥ ५० ॥
सुयोधनो नार्हतीति क्षमामेवं न विन्दति।
अर्हस्तत्राहमित्येवं तस्मान्मां विन्दते क्षमा ॥ ५१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस समय भरतवंशके विनाशके लिये यह बड़ा भयंकर समय आ गया है। भामिनि! मेरा पहलेसे ही ऐसा निश्चित मत है कि सुयोधन कभी भी इस प्रकार क्षमा-भावको नहीं अपना सकता, वह इसके योग्य नहीं है। मैं इसके योग्य हूँ, इसलिये क्षमा मेरा ही आश्रय लेती है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतदात्मवतां वृत्तमेष धर्मः सनातनः।
क्षमा चैवानृशंस्यं च तत् कर्तास्म्यहमञ्जसा ॥ ५२ ॥
मूलम्
एतदात्मवतां वृत्तमेष धर्मः सनातनः।
क्षमा चैवानृशंस्यं च तत् कर्तास्म्यहमञ्जसा ॥ ५२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
क्षमा और दया यही जितात्मा पुरुषोंका सदाचार है और यही सनातनधर्म है, अतः मैं यथार्थ रूपसे क्षमा और दयाको ही अपनाऊँगा॥५२॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि अर्जुनाभिगमनपर्वणि द्रौपदीयुधिष्ठिरसंवादे एकोनत्रिंशोऽध्यायः ॥ २९ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्वके अन्तर्गत अर्जुनाभिगमनपर्वमें द्रौपदी-युधिष्ठिरसंवादविषयक उनतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥२९॥