श्रावणम् (द्युगङ्गा)
भागसूचना
एकविंशोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
श्रीकृष्णका शाल्वकी मायासे मोहित होकर पुनः सजग होना
मूलम् (वचनम्)
वासुदेव उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं स पुरुषव्याघ्र शाल्वराजो महारिपुः।
युध्यमानो मया संख्ये वियदभ्यगमत् पुनः ॥ १ ॥
मूलम्
एवं स पुरुषव्याघ्र शाल्वराजो महारिपुः।
युध्यमानो मया संख्ये वियदभ्यगमत् पुनः ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं— पुरुषसिंह! इस प्रकार मेरे साथ युद्ध करनेवाला महाशत्रु शाल्वराज पुनः आकाशमें चला गया॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः शतघ्नीश्च महागदाश्च
दीप्तांश्च शूलान् मुसलानसींश्च ।
चिक्षेप रोषान्मयि मन्दबुद्धिः
शाल्वो महाराज जयाभिकाङ्क्षी ॥ २ ॥
मूलम्
ततः शतघ्नीश्च महागदाश्च
दीप्तांश्च शूलान् मुसलानसींश्च ।
चिक्षेप रोषान्मयि मन्दबुद्धिः
शाल्वो महाराज जयाभिकाङ्क्षी ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाराज! वहाँसे विजयकी इच्छा रखनेवाले मन्दबुद्धि शाल्वने क्रोधमें भरकर मेरे ऊपर शतघ्नियाँ, बड़ी-बड़ी गदाएँ, प्रज्वलित शूल, मुसल और खड्ग फेंके॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तानाशुगैरापततोऽहमाशु
निवार्य हन्तुं खगमान् ख एव।
द्विधा त्रिधा चाच्छिदमाशुमुक्तै-
स्ततोऽन्तरिक्षे निनदो बभूव ॥ ३ ॥
मूलम्
तानाशुगैरापततोऽहमाशु
निवार्य हन्तुं खगमान् ख एव।
द्विधा त्रिधा चाच्छिदमाशुमुक्तै-
स्ततोऽन्तरिक्षे निनदो बभूव ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उनके आते ही मैंने तुरंत शीघ्रगामी बाणोंद्वारा उन्हें रोककर उन गगनचारी शत्रुओंको आकाशमें ही मार डालनेका निश्चय किया और शीघ्र छोड़े हुए बाणोंद्वारा उन सबके दो-दो तीन-तीन टुकड़े कर डाले। इससे अन्तरिक्षमें बड़ा भारी आर्त्तनाद हुआ॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः शतसहस्रेण शराणां नतपर्वणाम्।
दारुकं वाजिनश्चैव रथं च समवाकिरत् ॥ ४ ॥
मूलम्
ततः शतसहस्रेण शराणां नतपर्वणाम्।
दारुकं वाजिनश्चैव रथं च समवाकिरत् ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर शाल्वने झुकी हुई गाँठोंवाले लाखों बाणोंका प्रहार करके मेरे सारथि दारुक, घोड़ों तथा रथको आच्छादित कर दिया॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो मामब्रवीद् वीर दारुको विह्वलन्निव।
स्थातव्यमिति तिष्ठामि शाल्वबाणप्रपीडितः ।
अवस्थातुं न शक्नोमि अङ्गं मे व्यवसीदति ॥ ५ ॥
मूलम्
ततो मामब्रवीद् वीर दारुको विह्वलन्निव।
स्थातव्यमिति तिष्ठामि शाल्वबाणप्रपीडितः ।
अवस्थातुं न शक्नोमि अङ्गं मे व्यवसीदति ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वीरवर! तब दारुक व्याकुल-सा होकर मुझसे बोला—‘प्रभो! युद्धमें डटे रहना चाहिये’ इस कर्तव्यका स्मरण करके ही मैं यहाँ ठहरा हुआ हूँ; किंतु शाल्वके बाणोंसे अत्यन्त पीड़ित होनेके कारण मुझमें खड़े रहनेकी भी शक्ति नहीं रह गयी है। मेरा अंग शिथिल होता जा रहा है’॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इति तस्य निशम्याहं सारथेः करुणं वचः।
अवेक्षमाणो यन्तारमपश्यं शरपीडितम् ॥ ६ ॥
मूलम्
इति तस्य निशम्याहं सारथेः करुणं वचः।
अवेक्षमाणो यन्तारमपश्यं शरपीडितम् ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सारथिका यह करुण वचन सुनकर मैंने उसकी ओर देखा। उसे बाणोंद्वारा बड़ी पीड़ा हो रही थी॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न तस्योरसि नो मूर्ध्नि न काये न भुजद्वये।
अन्तरं पाण्डवश्रेष्ठ पश्याम्यनिचितं शरैः ॥ ७ ॥
स तु बाणवरोत्पीडाद् विस्रवत्यसृगुल्बणम्।
अभिवृष्टे यथा मेघे गिरिर्गैरिकधातुमान् ॥ ८ ॥
मूलम्
न तस्योरसि नो मूर्ध्नि न काये न भुजद्वये।
अन्तरं पाण्डवश्रेष्ठ पश्याम्यनिचितं शरैः ॥ ७ ॥
स तु बाणवरोत्पीडाद् विस्रवत्यसृगुल्बणम्।
अभिवृष्टे यथा मेघे गिरिर्गैरिकधातुमान् ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पाण्डवश्रेष्ठ! उसकी छातीमें, मस्तकपर, शरीरके अन्य अवयवोंमें तथा दोनों भुजाओंमें थोड़ा-सा भी ऐसा स्थान नहीं दिखायी देता था, जिसमें बाण न चुभे हुए हों। जैसे मेघके वर्षा करनेपर गेरू आदि धातुओंसे युक्त पर्वत लाल पानीकी धारा बहाने लगता है, वैसे ही वह बाणोंसे छिदे हुए अपने अंगोंसे भयंकर रक्तकी धारा बहा रहा था॥७-८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अभीषु हस्तं तं दृष्ट्वा सीदन्तं सारथिं रणे।
अस्तम्भयं महाबाहो शाल्वबाणप्रपीडितम् ॥ ९ ॥
मूलम्
अभीषु हस्तं तं दृष्ट्वा सीदन्तं सारथिं रणे।
अस्तम्भयं महाबाहो शाल्वबाणप्रपीडितम् ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाबाहो! उस युद्धमें हाथमें बागडोर लिये सारथिको शाल्वके बाणोंसे पीड़ित होकर कष्ट पाते देख मैंने उसे ढाढ़स बँधाया॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथ मां पुरुषः कश्चिद् द्वारकानिलयोऽब्रवीत्।
त्वरितो रथमभ्येत्य सौहृदादिव भारत ॥ १० ॥
आहुकस्य वचो वीर तस्यैव परिचारकः।
विषण्णः सन्नकण्ठेन तन्निबोध युधिष्ठिर ॥ ११ ॥
मूलम्
अथ मां पुरुषः कश्चिद् द्वारकानिलयोऽब्रवीत्।
त्वरितो रथमभ्येत्य सौहृदादिव भारत ॥ १० ॥
आहुकस्य वचो वीर तस्यैव परिचारकः।
विषण्णः सन्नकण्ठेन तन्निबोध युधिष्ठिर ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भरतवंशी वीरवर! इतनेमें ही कोई द्वारकावासी पुरुष आकर तुरंत मेरे रथपर चढ़ गया और सौहार्द दिखाता हुआ-सा बोला। वह राजा उग्रसेनका सेवक था और दुःखी होकर उसने गद्गदकण्ठसे उनका जो संदेश सुनाया, उसे बताता हूँ, सुनिये॥१०-११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
द्वारकाधिपतिर्वीर आह त्वामाहुको वचः।
केशवैहि विजानीष्व यत् त्वां पितृसखोऽब्रवीत् ॥ १२ ॥
मूलम्
द्वारकाधिपतिर्वीर आह त्वामाहुको वचः।
केशवैहि विजानीष्व यत् त्वां पितृसखोऽब्रवीत् ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
(दूत बोला—) ‘वीर! द्वारकानरेश उग्रसेनने आपको यह एक संदेश दिया है। केशव! वे आपके पिताके सखा हैं; उन्होंने आपसे कहा है कि यहाँ आ जाओ और जान लो॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उपायायाद्य शाल्वेन द्वारकां वृष्णिनन्दन।
विषक्ते त्वयि दुर्धर्ष हतः शूरसुतो बलात् ॥ १३ ॥
मूलम्
उपायायाद्य शाल्वेन द्वारकां वृष्णिनन्दन।
विषक्ते त्वयि दुर्धर्ष हतः शूरसुतो बलात् ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘दुर्धर्ष वृष्णिनन्दन! आपके युद्धमें आसक्त होनेपर शाल्वने अभी द्वारकापुरीमें आकर शूरनन्दन वसुदेवजीको बलपूर्वक मार डाला है॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तदलं साधु युद्धेन निवर्तस्व जनार्दन।
द्वारकामेव रक्षस्व कार्यमेतन्महत् तव ॥ १४ ॥
मूलम्
तदलं साधु युद्धेन निवर्तस्व जनार्दन।
द्वारकामेव रक्षस्व कार्यमेतन्महत् तव ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जनार्दन! अब युद्ध करके क्या लेना है? लौट आओ। द्वारकाकी ही रक्षा करो। तुम्हारे लिये यही सबसे महान् कार्य है’॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्यहं तस्य वचनं श्रुत्वा परमदुर्मनाः।
निश्चयं नाधिगच्छामि कर्तव्यस्येतरस्य च ॥ १५ ॥
मूलम्
इत्यहं तस्य वचनं श्रुत्वा परमदुर्मनाः।
निश्चयं नाधिगच्छामि कर्तव्यस्येतरस्य च ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
दूतका यह वचन सुनकर मेरा मन उदास हो गया। मैं कर्तव्य और अकर्तव्यके विषयमें कोई निश्चय नहीं कर पाता था॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सात्यकिं बलदेवं च प्रद्युम्नं च महारथम्।
जगर्हे मनसा वीर तच्छ्रुत्वा महदप्रियम् ॥ १६ ॥
मूलम्
सात्यकिं बलदेवं च प्रद्युम्नं च महारथम्।
जगर्हे मनसा वीर तच्छ्रुत्वा महदप्रियम् ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वीर युधिष्ठिर! वह महान् अप्रिय वृत्तान्त सुनकर मैं मन-ही-मन सात्यकि, बलरामजी तथा महारथी प्रद्युम्नकी निन्दा करने लगा॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अहं हि द्वारकायाश्च पितुश्च कुरुनन्दन।
तेषु रक्षां समाधाय प्रयातः सौभपातने ॥ १७ ॥
मूलम्
अहं हि द्वारकायाश्च पितुश्च कुरुनन्दन।
तेषु रक्षां समाधाय प्रयातः सौभपातने ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कुरुनन्दन! मैं द्वारका तथा पिताजीकी रक्षाका भार उन्हीं लोगोंपर रखकर सौभविमानका नाश करनेके लिये चला था॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
बलदेवो महाबाहुः कच्चिज्जीवति शत्रुहा।
सात्यकी रौक्मिणेयश्च चारुदेष्णश्च वीर्यवान् ॥ १८ ॥
साम्बप्रभृतयश्चैवेत्यहमासं सुदुर्मनाः ।
एतेषु हि नरव्याघ्र जीवत्सु न कथंचन ॥ १९ ॥
शक्यः शूरसुतो हन्तुमपि वज्रभृता स्वयम्।
हतः शूरसुतो व्यक्तं व्यक्तं चैते परासवः ॥ २० ॥
बलदेवमुखाः सर्व इति मे निश्चिता मतिः।
सोऽहं सर्वविनाशं तं चिन्तयानो मुहुर्मुहुः।
अविह्वलो महाराज पुनः शाल्वमयोधयम् ॥ २१ ॥
मूलम्
बलदेवो महाबाहुः कच्चिज्जीवति शत्रुहा।
सात्यकी रौक्मिणेयश्च चारुदेष्णश्च वीर्यवान् ॥ १८ ॥
साम्बप्रभृतयश्चैवेत्यहमासं सुदुर्मनाः ।
एतेषु हि नरव्याघ्र जीवत्सु न कथंचन ॥ १९ ॥
शक्यः शूरसुतो हन्तुमपि वज्रभृता स्वयम्।
हतः शूरसुतो व्यक्तं व्यक्तं चैते परासवः ॥ २० ॥
बलदेवमुखाः सर्व इति मे निश्चिता मतिः।
सोऽहं सर्वविनाशं तं चिन्तयानो मुहुर्मुहुः।
अविह्वलो महाराज पुनः शाल्वमयोधयम् ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
क्या शत्रुहन्ता महाबली बलरामजी जीवित हैं? क्या सात्यकि, रुक्मिणीनन्दन प्रद्युम्न, महाबली चारुदेष्ण तथा साम्ब आदि जीवन धारण करते हैं? इन बातोंका विचार करते-करते मेरा मन बहुत उदास हो गया। नरश्रेष्ठ! इन वीरोंके जीते-जी साक्षात् इन्द्र भी मेरे पिता वसुदेवजीको किसी प्रकार मार नहीं सकते थे। अवश्य ही शूरनन्दन वसुदेवजी मारे गये और यह भी स्पष्ट है कि बलरामजी आदि सभी प्रमुख वीर प्राणत्याग कर चुके हैं—यह मेरा निश्चित विचार हो गया। महाराज! इस प्रकार सबके विनाशका बारंबार चिन्तन करके भी मैं व्याकुल न होकर राजा शाल्वसे पुनः युद्ध करने लगा॥१८—२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततोऽपश्यं महाराज प्रपतन्तमहं तदा।
सौभाच्छूरसुतं वीर ततो मां मोह आविशत् ॥ २२ ॥
मूलम्
ततोऽपश्यं महाराज प्रपतन्तमहं तदा।
सौभाच्छूरसुतं वीर ततो मां मोह आविशत् ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वीर महाराज! इसी समय मैंने देखा, सौभविमानसे मेरे पिता वसुदेवजी नीचे गिर रहे हैं। इससे शाल्वकी मायासे मुझे मूर्च्छा-सी आ गयी॥२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्य रूपं प्रपततः पितुर्मम नराधिप।
ययातेः क्षीणपुण्यस्य स्वर्गादिव महीतलम् ॥ २३ ॥
मूलम्
तस्य रूपं प्रपततः पितुर्मम नराधिप।
ययातेः क्षीणपुण्यस्य स्वर्गादिव महीतलम् ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नरेश्वर! उस विमानसे गिरते हुए मेरे पिताका स्वरूप ऐसा जान पड़ता था, मानो पुण्यक्षय होनेपर स्वर्गसे पृथ्वीतलपर गिरनेवाले राजा ययातिका शरीर हो॥२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विशीर्णमलिनोष्णीषः प्रकीर्णाम्बरमूर्धजः ।
प्रपतन् दृश्यते ह स्म क्षीणपुण्य इव ग्रहः ॥ २४ ॥
मूलम्
विशीर्णमलिनोष्णीषः प्रकीर्णाम्बरमूर्धजः ।
प्रपतन् दृश्यते ह स्म क्षीणपुण्य इव ग्रहः ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उनकी मलिन पगड़ी बिखर गयी थी, शरीरके वस्त्र अस्त-व्यस्त हो गये थे और बाल बिखर गये थे। वे गिरते समय पुण्यहीन ग्रहकी भाँति दिखायी देते थे॥२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः शार्ङ्गं धनुःश्रेष्ठं करात् प्रपतितं मम।
मोहापन्नश्च कौन्तेय रथोपस्थ उपाविशम् ॥ २५ ॥
मूलम्
ततः शार्ङ्गं धनुःश्रेष्ठं करात् प्रपतितं मम।
मोहापन्नश्च कौन्तेय रथोपस्थ उपाविशम् ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कुन्तीनन्दन! उनकी यह अवस्था देख धनुषोंमें श्रेष्ठ शार्ङ्ग मेरे हाथसे छूटकर गिर गया और मैं शाल्वकी मायासे मोहित-सा होकर रथके पिछले भागमें चुपचाप बैठ गया॥२५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो हाहाकृतं सर्वं सैन्यं मे गतचेतनम्।
मां दृष्ट्वा रथनीडस्थं गतासुमिव भारत ॥ २६ ॥
मूलम्
ततो हाहाकृतं सर्वं सैन्यं मे गतचेतनम्।
मां दृष्ट्वा रथनीडस्थं गतासुमिव भारत ॥ २६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भारत! फिर तो मुझे रथके पिछले भागमें प्राणरहितके समान पड़ा देख मेरी सारी सेना हाहाकार कर उठी। सबकी चेतना लुप्त-सी हो गयी॥२६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रसार्य बाहू पततः प्रसार्य चरणावपि।
रूपं पितुर्मे विबभौ शकुनेः पततो यथा ॥ २७ ॥
मूलम्
प्रसार्य बाहू पततः प्रसार्य चरणावपि।
रूपं पितुर्मे विबभौ शकुनेः पततो यथा ॥ २७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
हाथों और पैरोंको फैलाकर गिरते हुए मेरे पिताका शरीर मरकर गिरनेवाले पक्षीके समान जान पड़ता था॥२७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तं पतन्तं महाबाहो शूलपट्टिशपाणयः।
अभिघ्नन्तो भृशं वीर मम चेतो ह्यकम्पयन् ॥ २८ ॥
मूलम्
तं पतन्तं महाबाहो शूलपट्टिशपाणयः।
अभिघ्नन्तो भृशं वीर मम चेतो ह्यकम्पयन् ॥ २८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वीरवर महाबाहो! गिरते समय शत्रु-सैनिक हाथोंमें शूल और पट्टिश लिये उनके ऊपर बारंबार प्रहार कर रहे थे। उनके इस क्रूर कृत्यने मेरे हृदयको कम्पित-सा कर दिया॥२८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो मुहूर्तात् प्रतिलभ्य संज्ञा-
महं तदा वीर महाविमर्दे।
न तत्र सौभं न रिपुं च शाल्वं
पश्यामि वृद्धं पितरं न चापि ॥ २९ ॥
मूलम्
ततो मुहूर्तात् प्रतिलभ्य संज्ञा-
महं तदा वीर महाविमर्दे।
न तत्र सौभं न रिपुं च शाल्वं
पश्यामि वृद्धं पितरं न चापि ॥ २९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वीरवर! तदनन्तर दो घड़ीके बाद जब मैं सचेत होकर देखता हूँ, तब उस महासमरमें न तो सौभविमानका पता है, न मेरा शत्रु शाल्व ही दिखायी देता है और न मेरे बूढ़े पिता ही दृष्टिगोचर होते हैं॥२९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो ममासीन्मनसि मायेयमिति निश्चितम्।
प्रबुद्धोऽस्मि ततो भूयः शतशोऽवाकिरं शरान् ॥ ३० ॥
मूलम्
ततो ममासीन्मनसि मायेयमिति निश्चितम्।
प्रबुद्धोऽस्मि ततो भूयः शतशोऽवाकिरं शरान् ॥ ३० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब मेरे मनमें यह निश्चय हो गया कि यह वास्तवमें माया ही थी। तब मैंने सजग होकर सैकड़ों बाणोंकी वर्षा प्रारम्भ की॥३०॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि अर्जुनाभिगमनपर्वणि सौभवधोपाख्याने एकविंशोऽध्यायः ॥ २१ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्वके अन्तर्गत अर्जुनाभिगमनपर्वमें सौभवधोपाख्यानविषयक इक्कीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥२१॥