श्रावणम् (द्युगङ्गा)
भागसूचना
सप्तदशोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
प्रद्युम्न और शाल्वका घोर युद्ध
मूलम् (वचनम्)
वासुदेव उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमुक्त्वा रौक्मिणेयो यादवान् भरतर्षभ।
दंशितैर्हरिभिर्युक्तं रथमास्थाय काञ्चनम् ॥ १ ॥
उच्छ्रित्य मकरं केतुं व्यात्ताननमिवान्तकम्।
उत्पतद्भिरिवाकाशं तैर्हयैरन्वयात् परान् ॥ २ ॥
विक्षिपन् नादयंश्चापि धनुः श्रेष्ठं महाबलः।
तूणखड्गधरः शूरो बद्धगोधाङ्गुलित्रवान् ॥ ३ ॥
मूलम्
एवमुक्त्वा रौक्मिणेयो यादवान् भरतर्षभ।
दंशितैर्हरिभिर्युक्तं रथमास्थाय काञ्चनम् ॥ १ ॥
उच्छ्रित्य मकरं केतुं व्यात्ताननमिवान्तकम्।
उत्पतद्भिरिवाकाशं तैर्हयैरन्वयात् परान् ॥ २ ॥
विक्षिपन् नादयंश्चापि धनुः श्रेष्ठं महाबलः।
तूणखड्गधरः शूरो बद्धगोधाङ्गुलित्रवान् ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं— भरतश्रेष्ठ! यादवोंसे ऐसा कहकर रुक्मिणीनन्दन प्रद्युम्न एक सुवर्णमय रथपर आरूढ़ हुए, जिसमें बख्तर पहनाये हुए घोड़े जुते थे। उन्होंने अपनी मकरचिह्नित ध्वजाको ऊँचा किया, जो मुँह बाये हुए कालके समान प्रतीत होती थी। उनके रथके घोड़े ऐसे चलते थे, मानो आकाशमें उड़े जा रहे हों। ऐसे अश्वोंसे जुते हुए रथके द्वारा महाबली प्रद्युम्नने शत्रुओंपर आक्रमण किया। वे अपने श्रेष्ठ धनुषको बारंबार खींचकर उसकी टंकार फैलाते हुए आगे बढ़े। उन्होंने पीठपर तरकस और कमरमें तलवार बाँध ली थी। उनमें शौर्य भरा था और उन्होंने गोहके चमड़ेके बने हुए दस्ताने पहन रखे थे॥१—३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स विद्युच्छुरितं चापं विहरन् वै तलात् तलम्।
मोहयामास दैतेयान् सर्वान् सौभनिवासिनः ॥ ४ ॥
मूलम्
स विद्युच्छुरितं चापं विहरन् वै तलात् तलम्।
मोहयामास दैतेयान् सर्वान् सौभनिवासिनः ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे अपने धनुषको एक हाथसे दूसरे हाथमें ले लिया करते थे। उस समय वह धनुष बिजलीके समान चमक रहा था। उन्होंने उस धनुषके द्वारा सौभ विमानमें रहनेवाले समस्त दैत्योंको मूर्च्छित कर दिया॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्य विक्षिपतश्चापं संदधानस्य चासकृत्।
नान्तरं ददृशे कश्चिन्निघ्नतः शात्रवान् रणे ॥ ५ ॥
मूलम्
तस्य विक्षिपतश्चापं संदधानस्य चासकृत्।
नान्तरं ददृशे कश्चिन्निघ्नतः शात्रवान् रणे ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे बारंबार धनुषको खींचते, उसपर बाण रखते और उसके द्वारा शत्रुसैनिकोंको युद्धमें मार डालते थे। उनकी उक्त क्रियाओंमें किसीको थोड़ा-सा भी अन्तर नहीं दिखायी देता था॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मुखस्य वर्णो न विकल्पतेऽस्य
चेलुश्च गात्राणि न चापि तस्य।
सिंहोन्नतं चाप्यभिगर्जतोऽस्य
शुश्राव लोकोऽद्भुतवीर्यमग्र्यम् ॥ ६ ॥
मूलम्
मुखस्य वर्णो न विकल्पतेऽस्य
चेलुश्च गात्राणि न चापि तस्य।
सिंहोन्नतं चाप्यभिगर्जतोऽस्य
शुश्राव लोकोऽद्भुतवीर्यमग्र्यम् ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उनके मुखका रंग तनिक भी नहीं बदलता था। उनके अंग भी विचलित नहीं होते थे। सब ओर गर्जना करते हुए प्रद्युम्नका उत्तम एवं अद्भुत बल-पराक्रमका सूचक सिंहनाद सब लोगोंको सुनायी देता था॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जलेचरः काञ्चनयष्टिसंस्थो
व्यात्ताननः सर्वतिमिप्रमाथी ।
वित्रासयन् राजति वाहमुख्ये
शाल्वस्य सेनाप्रमुखे ध्वजाग्र्यः ॥ ७ ॥
मूलम्
जलेचरः काञ्चनयष्टिसंस्थो
व्यात्ताननः सर्वतिमिप्रमाथी ।
वित्रासयन् राजति वाहमुख्ये
शाल्वस्य सेनाप्रमुखे ध्वजाग्र्यः ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
शाल्वकी सेनाके ठीक सामने प्रद्युम्नके श्रेष्ठ रथपर उनकी उत्तम ध्वजा फहराती हुई शोभा पा रही थी। उस ध्वजाके सुवर्णमय दण्डके ऊपर सब तिमि नामक जल-जन्तुओंका प्रमथन करनेवाले मुँह बाये एक मगरमच्छका चिह्न था। वह शत्रुसैनिकोंको अत्यन्त भयभीत कर रहा था॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततस्तूर्णं विनिष्पत्य प्रद्युम्नः शत्रुकर्षणः।
शाल्वमेवाभिदुद्राव विधित्सुः कलहं नृप ॥ ८ ॥
मूलम्
ततस्तूर्णं विनिष्पत्य प्रद्युम्नः शत्रुकर्षणः।
शाल्वमेवाभिदुद्राव विधित्सुः कलहं नृप ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नरेश्वर! तदनन्तर शत्रुहन्ता प्रद्युम्न तुरंत आगे बढ़कर राजा शाल्वके साथ युद्ध करनेकी इच्छासे उसीकी ओर दौड़े॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अभियानं तु वीरेण प्रद्युम्नेन महारणे।
नामर्षयत संक्रुद्धः शाल्वः कुरुकुलोद्वह ॥ ९ ॥
मूलम्
अभियानं तु वीरेण प्रद्युम्नेन महारणे।
नामर्षयत संक्रुद्धः शाल्वः कुरुकुलोद्वह ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कुरुकुलतिलक! उस महासंग्राममें वीर प्रद्युम्नके द्वारा किया हुआ वह आक्रमण क्रुद्ध हुआ राजा शाल्व न सह सका॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स रोषमदमत्तो वै कामगादवरुह्य च।
प्रद्युम्नं योधयामास शाल्वः परपुरंजयः ॥ १० ॥
मूलम्
स रोषमदमत्तो वै कामगादवरुह्य च।
प्रद्युम्नं योधयामास शाल्वः परपुरंजयः ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
शत्रुकी राजधानीपर विजय पानेवाले शाल्वने रोष एवं बलके मदसे उन्मत्त हो इच्छानुसार चलनेवाले विमानसे उतरकर प्रद्युम्नसे युद्ध आरम्भ किया॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तयोः सुतुमुलं युद्धं शाल्ववृष्णिप्रवीरयोः।
समेता ददृशुर्लोका बलिवासवयोरिव ॥ ११ ॥
मूलम्
तयोः सुतुमुलं युद्धं शाल्ववृष्णिप्रवीरयोः।
समेता ददृशुर्लोका बलिवासवयोरिव ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
शाल्व तथा वृष्णिवंशी वीर प्रद्युम्नमें बलि और इन्द्रके समान घोर युद्ध होने लगा। उस समय सब लोग एकत्र होकर उन दोनोंका युद्ध देखने लगे॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्य मायामयो वीर रथो हेमपरिष्कृतः।
सपताकः सध्वजश्च सानुकर्षः स तूणवान् ॥ १२ ॥
मूलम्
तस्य मायामयो वीर रथो हेमपरिष्कृतः।
सपताकः सध्वजश्च सानुकर्षः स तूणवान् ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वीर! शाल्वके पास सुवर्णभूषित मायामय रथ था। वह रथ ध्वजा, पताका, अनुकर्ष (हरसा)1 और तरकससे युक्त था॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स तं रथवरं श्रीमान् समारुह्य किल प्रभो।
मुमोच बाणान् कौरव्य प्रद्युम्नाय महाबलः ॥ १३ ॥
मूलम्
स तं रथवरं श्रीमान् समारुह्य किल प्रभो।
मुमोच बाणान् कौरव्य प्रद्युम्नाय महाबलः ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रभो कुरुनन्दन! श्रीमान् महाबली शाल्वने उस श्रेष्ठ रथपर आरूढ़ हो प्रद्युम्नपर बाणोंकी वर्षा आरम्भ की॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो बाणमयं वर्षं व्यसृजत् तरसा रणे।
प्रद्युम्नो भुजवेगेन शाल्वं सम्मोहयन्निव ॥ १४ ॥
मूलम्
ततो बाणमयं वर्षं व्यसृजत् तरसा रणे।
प्रद्युम्नो भुजवेगेन शाल्वं सम्मोहयन्निव ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब प्रद्युम्न भी युद्धभूमिमें अपनी भुजाओंके वेगसे शाल्वको मोहित करते हुए-से उसके ऊपर शीघ्रतापूर्वक बाणोंकी बौछार करने लगे॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स तैरभिहतः संख्ये नामर्षयत सौभराट्।
शरान् दीप्ताग्निसंकाशान् मुमोच तनये मम ॥ १५ ॥
मूलम्
स तैरभिहतः संख्ये नामर्षयत सौभराट्।
शरान् दीप्ताग्निसंकाशान् मुमोच तनये मम ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सौभ विमानका स्वामी राजा शाल्व युद्धमें प्रद्युम्नके बाणोंसे घायल होनेपर यह सहन नहीं कर सका—अमर्षमें भर गया और मेरे पुत्रपर प्रज्वलित अग्निके समान तेजस्वी बाण छोड़ने लगा॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तमापतन्तं बाणौघं स चिच्छेद महाबलः।
ततश्चान्याञ्छरान् दीप्तान् प्रचिक्षेप सुते मम ॥ १६ ॥
मूलम्
तमापतन्तं बाणौघं स चिच्छेद महाबलः।
ततश्चान्याञ्छरान् दीप्तान् प्रचिक्षेप सुते मम ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाबली प्रद्युम्नने उन बाणोंको आते ही काट गिराया। तत्पश्चात् शाल्वने मेरे पुत्रपर और भी बहुत-से प्रज्वलित बाण छोड़े॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स शाल्वबाणै राजेन्द्र विद्धो रुक्मिणिनन्दनः।
मुमोच बाणं त्वरितो मर्मभेदिनमाहवे ॥ १७ ॥
मूलम्
स शाल्वबाणै राजेन्द्र विद्धो रुक्मिणिनन्दनः।
मुमोच बाणं त्वरितो मर्मभेदिनमाहवे ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजेन्द्र! शाल्वके बाणोंसे घायल होकर रुक्मिणी-नन्दन प्रद्युम्नने तुरंत ही उस युद्धभूमिमें शाल्वपर एक ऐसा बाण चलाया, जो मर्मस्थलको विदीर्ण कर देनेवाला था॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्य वर्म विभिद्याशु स बाणो मत्सुतेरितः।
विव्याध हृदयं पत्री स मुमोह पपात च ॥ १८ ॥
मूलम्
तस्य वर्म विभिद्याशु स बाणो मत्सुतेरितः।
विव्याध हृदयं पत्री स मुमोह पपात च ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मेरे पुत्रके चलाये हुए उस बाणने शाल्वके कवचको छेदकर उसके हृदयको बींध डाला। इससे वह मूर्च्छित होकर गिर पड़ा॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्मिन् निपतिते वीरे शाल्वराजे विचेतसि।
सम्प्राद्रवन् दानवेन्द्रा दारयन्तो वसुंधराम् ॥ १९ ॥
मूलम्
तस्मिन् निपतिते वीरे शाल्वराजे विचेतसि।
सम्प्राद्रवन् दानवेन्द्रा दारयन्तो वसुंधराम् ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वीर शाल्वराजके अचेत होकर गिर जानेपर उसकी सेनाके समस्त दानवराज पृथ्वीको विदीर्ण करके पातालमें पलायन कर गये॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
हाहाकृतमभूत् सैन्यं शाल्वस्य पृथिवीपते।
नष्टसंज्ञे निपतिते तदा सौभपतौ नृपे ॥ २० ॥
मूलम्
हाहाकृतमभूत् सैन्यं शाल्वस्य पृथिवीपते।
नष्टसंज्ञे निपतिते तदा सौभपतौ नृपे ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पृथ्वीपते! उस समय सौभ विमानका स्वामी राजा शाल्व जब संज्ञाशून्य होकर धराशायी हो गया, तब उसकी समस्त सेनामें हाहाकार मच गया॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत उत्थाय कौरव्य प्रतिलभ्य च चेतनाम्।
मुमोच बाणान् सहसा प्रद्युम्नाय महाबलः ॥ २१ ॥
मूलम्
तत उत्थाय कौरव्य प्रतिलभ्य च चेतनाम्।
मुमोच बाणान् सहसा प्रद्युम्नाय महाबलः ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कुरुश्रेष्ठ! तत्पश्चात् जब चेत हुआ, तब महाबली शाल्व सहसा उठकर प्रद्युम्नपर बाणोंकी वर्षा करने लगा॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तैः स विद्धो महाबाहुः प्रद्युम्नः समरे स्थितः।
जत्रुदेशे भृशं वीरो व्यवासीदद् रथे तदा ॥ २२ ॥
मूलम्
तैः स विद्धो महाबाहुः प्रद्युम्नः समरे स्थितः।
जत्रुदेशे भृशं वीरो व्यवासीदद् रथे तदा ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
शाल्वके उन बाणोंद्वारा कण्ठके मूलभागमें गहरा आघात लगनेसे अत्यन्त घायल होकर समरमें स्थित महाबाहु वीर प्रद्युम्न उस समय रथपर मूर्च्छित हो गये॥२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तं स विद्ध्वा महाराज शाल्वो रुक्मिणिनन्दनम्।
ननाद सिंहनादं वै नादेनापूरयन् महीम् ॥ २३ ॥
मूलम्
तं स विद्ध्वा महाराज शाल्वो रुक्मिणिनन्दनम्।
ननाद सिंहनादं वै नादेनापूरयन् महीम् ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाराज! रुक्मिणीनन्दन प्रद्युम्नको घायल करके शाल्व बड़े जोर-जोरसे सिंहनाद करने लगा। उसकी आवाजसे वहाँकी सारी पृथ्वी गूँज उठी॥२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो मोहं समापन्ने तनये मम भारत।
मुमोच बाणांस्त्वरितः पुनरन्यान् दुरासदान् ॥ २४ ॥
मूलम्
ततो मोहं समापन्ने तनये मम भारत।
मुमोच बाणांस्त्वरितः पुनरन्यान् दुरासदान् ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भारत! मेरे पुत्रके मूर्च्छित हो जानेपर भी शाल्वने उनपर और भी बहुत-से दुर्धर्ष बाण शीघ्रतापूर्वक छोड़े॥२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स तैरभिहतो बाणैर्बहुभिस्तेन मोहितः।
निश्चेष्टः कौरवश्रेष्ठ प्रद्युम्नोऽभूद् रणाजिरे ॥ २५ ॥
मूलम्
स तैरभिहतो बाणैर्बहुभिस्तेन मोहितः।
निश्चेष्टः कौरवश्रेष्ठ प्रद्युम्नोऽभूद् रणाजिरे ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कौरवश्रेष्ठ! इस प्रकार बहुत-से बाणोंसे आहत होनेके कारण प्रद्युम्न उस रणांगणमें मूर्च्छित एवं निश्चेष्ट हो गये॥२५॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि अर्जुनाभिगमनपर्वणि सौभवधोपाख्याने सप्तदशोऽध्यायः ॥ १७ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्वके अन्तर्गत अर्जुनाभिगमनपर्वमें सौभवधोपाख्यानविषयक सत्रहवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१७॥
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रथके नीचे पहियेके ऊपर लगा रहनेवाला काष्ठ। ↩︎