०१३ कृष्णेन शोकप्रदर्शनम्

श्रावणम् (द्युगङ्गा)
भागसूचना

त्रयोदशोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

श्रीकृष्णका जूएके दोष बताते हुए पाण्डवोंपर आयी हुई विपत्तिमें अपनी अनुपस्थितिको कारण मानना

मूलम् (वचनम्)

वासुदेव उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

नैतत्‌ कृच्छ्रमनुप्राप्तो भवान् स्याद्‌ वसुधाधिप।
यद्यहं द्वारकायां स्यां राजन् संनिहितः पुरा ॥ १ ॥

मूलम्

नैतत्‌ कृच्छ्रमनुप्राप्तो भवान् स्याद्‌ वसुधाधिप।
यद्यहं द्वारकायां स्यां राजन् संनिहितः पुरा ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भगवान् श्रीकृष्ण बोले— राजन्! यदि मैं पहले द्वारकामें या उसके निकट होता तो आप इस भारी संकटमें नहीं पड़ते॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आगच्छेयमहं द्यूतमनाहूतोऽपि कौरवैः ।
आम्बिकेयेन दुर्धर्ष राज्ञा दुर्योधनेन च।
वारयेयमहं द्यूतं बहून् दोषान् प्रदर्शयन् ॥ २ ॥

मूलम्

आगच्छेयमहं द्यूतमनाहूतोऽपि कौरवैः ।
आम्बिकेयेन दुर्धर्ष राज्ञा दुर्योधनेन च।
वारयेयमहं द्यूतं बहून् दोषान् प्रदर्शयन् ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

दुर्जय वीर! अम्बिकानन्दन धृतराष्ट्र, राजा दुर्योधन तथा अन्य कौरवोंके बिना बुलाये भी मैं उस द्यूतसभामें आता और जूएके अनेक दोष दिखाकर उसे रोकनेकी चेष्टा करता॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भीष्मद्रोणौ समानाय्य कृपं बाह्लीकमेव च।
वैचित्रवीर्यं राजानमलं द्यूतेन कौरव ॥ ३ ॥
पुत्राणां तव राजेन्द्र त्वन्निमित्तमिति प्रभो।
तत्राचक्षमहं दोषान् यैर्भवान् व्यतिरोपितः ॥ ४ ॥

मूलम्

भीष्मद्रोणौ समानाय्य कृपं बाह्लीकमेव च।
वैचित्रवीर्यं राजानमलं द्यूतेन कौरव ॥ ३ ॥
पुत्राणां तव राजेन्द्र त्वन्निमित्तमिति प्रभो।
तत्राचक्षमहं दोषान् यैर्भवान् व्यतिरोपितः ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रभो! मैं आपके लिये भीष्म, द्रोण, कृप, बाह्लीक तथा राजा धृतराष्ट्रको बुलाकर कहता—‘कुरुवंशके महाराज! आपके पुत्रोंको जूआ नहीं खेलना चाहिये।’ राजन्! मैं द्यूतसभामें जूएके उन दोषोंको स्पष्टरूपसे बताता, जिनके कारण आपको अपने राज्यसे वंचित होना पड़ा है॥३-४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वीरसेनसुतो यैस्तु राज्यात् प्रभ्रंशितः पुरा।
अतर्कितविनाशश्च देवनेन विशाम्पते ॥ ५ ॥

मूलम्

वीरसेनसुतो यैस्तु राज्यात् प्रभ्रंशितः पुरा।
अतर्कितविनाशश्च देवनेन विशाम्पते ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तथा जिन दोषोंने पूर्वकालमें वीरसेनपुत्र महाराज नलको राजसिंहासनसे च्युत किया। नरेश्वर! जूआ खेलनेसे सहसा ऐसा सर्वनाश उपस्थित हो जाता है, जो कल्पनामें भी नहीं आ सकता॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सातत्यं च प्रसङ्गस्य वर्णयेयं यथातथम् ॥ ६ ॥

मूलम्

सातत्यं च प्रसङ्गस्य वर्णयेयं यथातथम् ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसके सिवा उससे सदा जूआ खेलनेकी आदत बन जाती है। यह सब बातें मैं ठीक-ठीक बता रहा हूँ॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्त्रियोऽक्षा मृगया पानमेतत् कामसमुत्थितम्।
दुःखं चतुष्टयं प्रोक्तं यैर्नरो भ्रश्यते श्रियः ॥ ७ ॥
तत्र सर्वत्र वक्तव्यं मन्यन्ते शास्त्रकोविदाः।
विशेषतश्च वक्तव्यं द्यूते पश्यन्ति तद्विदः ॥ ८ ॥

मूलम्

स्त्रियोऽक्षा मृगया पानमेतत् कामसमुत्थितम्।
दुःखं चतुष्टयं प्रोक्तं यैर्नरो भ्रश्यते श्रियः ॥ ७ ॥
तत्र सर्वत्र वक्तव्यं मन्यन्ते शास्त्रकोविदाः।
विशेषतश्च वक्तव्यं द्यूते पश्यन्ति तद्विदः ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

स्त्रियोंके प्रति आसक्ति, जूआ खेलना, शिकार खेलनेका शौक और मद्यपान—ये चार प्रकारके भोग कामनाजनित दुःख बताये गये हैं, जिनके कारण मनुष्य अपने धन-ऐश्वर्यसे भ्रष्ट हो जाता है। शास्त्रोंके निपुण विद्वान् सभी परिस्थितियोंमें इन चारोंको निन्दनीय मानते हैं; परंतु द्यूतक्रीडाको तो जूएके दोष जाननेवाले लोग विशेषरूपसे निन्दनीय समझते हैं॥७-८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एकाहाद् द्रव्यनाशोऽत्र ध्रुवं व्यसनमेव च।
अभुक्तनाशश्चार्थानां वाक्पारुष्यं च केवलम् ॥ ९ ॥
एतच्चान्यच्च कौरव्य प्रसङ्गिकटुकोदयम् ।
द्यूते ब्रूयां महाबाहो समासाद्याम्बिकासुतम् ॥ १० ॥

मूलम्

एकाहाद् द्रव्यनाशोऽत्र ध्रुवं व्यसनमेव च।
अभुक्तनाशश्चार्थानां वाक्पारुष्यं च केवलम् ॥ ९ ॥
एतच्चान्यच्च कौरव्य प्रसङ्गिकटुकोदयम् ।
द्यूते ब्रूयां महाबाहो समासाद्याम्बिकासुतम् ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जूएसे एक ही दिनमें सारे धनका नाश हो जाता है। साथ ही जूआ खेलनेसे उसके प्रति आसक्ति होनी निश्चित है। समस्त भोग-पदार्थोंका बिना भोगे ही नाश हो जाता है और बदलेमें केवल कटुवचन सुननेको मिलते हैं। कुरुनन्दन! ये तथा और भी बहुत-से दोष हैं, जो जूएके प्रसंगसे कटु परिणाम उत्पन्न करनेवाले हैं। महाबाहो! मैं धृतराष्ट्रसे मिलकर जूएके ये सभी दोष बतलाता॥९-१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमुक्तो यदि मया गृह्णीयाद् वचनं मम।
अनामयं स्याद् धर्मश्च कुरूणां कुरुवर्धन ॥ ११ ॥

मूलम्

एवमुक्तो यदि मया गृह्णीयाद् वचनं मम।
अनामयं स्याद् धर्मश्च कुरूणां कुरुवर्धन ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कुरुवर्धन! मेरे इस प्रकार समझाने-बुझानेपर यदि वे मेरी बात मान लेते तो कौरवोंमें शान्ति बनी रहती और धर्मका भी पालन होता॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न चेत् स मम राजेन्द्र गृह्णीयान्मधुंर वचः।
पथ्यं च भरतश्रेष्ठ निगृह्णीयां बलेन तम् ॥ १२ ॥

मूलम्

न चेत् स मम राजेन्द्र गृह्णीयान्मधुंर वचः।
पथ्यं च भरतश्रेष्ठ निगृह्णीयां बलेन तम् ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजेन्द्र! भरतश्रेष्ठ! यदि वे मेरे मधुर एवं हितकर वचनको सुनकर उसे न मानते तो मैं उन्हें बलपूर्वक रोक देता॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथैनमपनीतेन सुहृदो नाम दुर्हृदः।
सभासदोऽनुवर्तेरंस्तांश्च हन्यां दुरोदरान् ॥ १३ ॥

मूलम्

अथैनमपनीतेन सुहृदो नाम दुर्हृदः।
सभासदोऽनुवर्तेरंस्तांश्च हन्यां दुरोदरान् ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यदि वहाँ सुहृद्‌नामधारी शत्रु अन्यायका आश्रय ले इस धृतराष्ट्रका साथ देते तो मैं उन सभासद जुआरियोंको मार डालता॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

असांनिध्यं तु कौरव्य ममानर्तेष्वभूत् तदा।
येनेदं व्यसनं प्राप्ता भवन्तो द्यूतकारितम् ॥ १४ ॥

मूलम्

असांनिध्यं तु कौरव्य ममानर्तेष्वभूत् तदा।
येनेदं व्यसनं प्राप्ता भवन्तो द्यूतकारितम् ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कुरुश्रेष्ठ! मैं उन दिनों आनर्तदेशमें ही नहीं था, इसीलिये आपलोगोंपर यह द्यूतजनित संकट आ गया॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोऽहमेत्य कुरुश्रेष्ठ द्वारकां पाण्डुनन्दन।
अश्रौषं त्वां व्यसनिनं युयुधानाद् यथातथम् ॥ १५ ॥

मूलम्

सोऽहमेत्य कुरुश्रेष्ठ द्वारकां पाण्डुनन्दन।
अश्रौषं त्वां व्यसनिनं युयुधानाद् यथातथम् ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कुरुप्रवर पाण्डुनन्दन! जब मैं द्वारकामें आया, तब सात्यकिसे आपके संकटमें पड़नेका यथावत् समाचार सुना॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

श्रुत्वैव चाहं राजेन्द्र परमोद्विग्नमानसः।
तूर्णमभ्यागतोऽस्मि त्वां द्रष्टुकामो विशाम्पते ॥ १६ ॥

मूलम्

श्रुत्वैव चाहं राजेन्द्र परमोद्विग्नमानसः।
तूर्णमभ्यागतोऽस्मि त्वां द्रष्टुकामो विशाम्पते ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजेन्द्र! वह सुनते ही मेरा मन अत्यन्त उद्विग्न हो उठा और प्रजेश्वर! मैं तुरंत ही आपसे मिलनेके लिये चला आया॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अहो कृच्छ्रमनुप्राप्ताः सर्वे स्म भरतर्षभ।
सोऽहं त्वां व्यसने मग्नं पश्यामि सह सोदरैः ॥ १७ ॥

मूलम्

अहो कृच्छ्रमनुप्राप्ताः सर्वे स्म भरतर्षभ।
सोऽहं त्वां व्यसने मग्नं पश्यामि सह सोदरैः ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतकुलभूषण! अहो! आप सब लोग बड़ी कठिनाईमें पड़ गये हैं। मैं तो आपको सब भाइयोंसहित विपत्तिके समुद्रमें डूबा हुआ देख रहा हूँ॥१७॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि अर्जुनाभिगमनपर्वणि वासुदेववाक्ये त्रयोदशोऽध्यायः ॥ १३ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्वके अन्तर्गत अर्जुनाभिगमनपर्वमें वासुदेववाक्यविषयक तेरहवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१३॥